सम्यक् दृष्टि की आस्था का केन्द्र मन्दिर है, उसकी तुलना अनेक प्रकार से की गई है साथ ही जैन श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करने मन्दिर जाता है। अत: मन्दिर जाने की विधि का वर्णन भी इस अध्याय में है।
1. मन्दिर किसे कहते हैं ?
जहाँ जिन प्रतिमाओं की स्थापना की जाती है, उस स्थान को मन्दिर कहते हैं।
2. मन्दिर किसका प्रतीक है ?
मन्दिर - समवसरण, नदी, चिकित्सालय, विद्यालय, जीवन बीमा निगम, टिकट घर, बैंक, धन की फैक्ट्री एवं संचार के साधन का प्रतीक है।
समवसरण - जिस प्रकार समवसरण में तीर्थकर का उपदेश प्राप्त होता है ठीक उसी प्रकार मन्दिर जी में जिन प्रतिमा के माध्यम से मौन उपदेश मिलता है, अत: मन्दिर समवसरण का प्रतीक है।
नदी - जैसे नदी सबकी प्यास बुझाती है, चाहे गरीब हो या अमीर, पापी हो या पुण्यात्मा, हिंसक हो या अहिंसक सभी को भेदभाव से रहित होकर शांति प्रदान करती है। ऐसे ही संसार में भटकते हुए प्राणियों के लिए जिनमंदिर गरीब-अमीर, पापी-पुण्यात्मा के भेदभाव से रहित जन्म-जन्म के शारीरिक-मानसिक तपन को मिटा देता है।
चिकित्सालय - जब मानव बीमार होता है तब डॉक्टर के यहाँ जाता है। डॉक्टर रोग को ठीक करना चाहता है। कुछ रोग तो ठीक हो जाते हैं , किन्तु कुछ रोग ठीक नहीं हो पाते और रोगी का अवसान हो जाता है, किन्तु मन्दिर के माध्यम से ऐसे रोग ठीक होते हैं, जो कहीं पर भी ठीक नहीं हो सकते हैं। वे रोग हैं-जन्म, जरा, मृत्यु। मन्दिर रोग के मूल स्रोत जन्म, जरा, मृत्यु को नष्ट कर देता है, फिर ये बाहरी रोग तो होते ही नहीं हैं।
विद्यालय - जैसे-आप अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल, कॉलेज आदि भेजते हैं कि मेरा बेटा पढ़कर एम.बी.ए, इंजीनियर, डॉक्टर आदि की डिग्री प्राप्त कर ले। उसी प्रकार संस्कृति-संस्कार को जीवित रखने के लिए मन्दिर में पाठशाला रहती है, जहाँ पर आत्मा को परमात्मा बनाने की विधि सिखाई जाती है। लौकिक डिग्री तो एक भव के लिए रहती है किन्तु पाठशाला से प्राप्त ज्ञान परम्परा से केवलज्ञान की डिग्री को प्राप्त करा देता है, जो डिग्री अनंत भवों के लिए हो जाती है।
जीवन बीमा निगम - एक किस्त भरने के बाद किसी का मरण हो जाता है, तब वह धन (जितने का बीमा था उतना) परिवार वालों को मिल जाता है, किसी वस्तु का बीमा भी होता है। एक किस्त (Policy) जमा करने के बाद वह वस्तु नष्ट हो जाती है तो नई वस्तु मिल जाती है। उसी प्रकार देवदर्शन करने से एक बार भी सम्यकदर्शन प्राप्त हो गया है और शरीर नष्ट भी हो जाता है तो नया वैक्रियिक (देव का) शरीर प्राप्त हो जाता है। जिससे अर्धपुद्गल परावर्तन के अन्दर ही परम औदारिक शरीर को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।
टिकट घर - टिकट लेकर विश्व का भ्रमण कर सकते हैं। वैसे ही सम्यक्त्व रूपी टिकट से केवलज्ञान को प्राप्त कर बैठे-बैठे ही तीन लोक की यात्रा हो जाती है।
बैंक - बैंक में धन जमा करने से वह पाँच वर्ष में दूना होता है। किन्तु मन्दिर (दान) में जमा करने से वह वटवृक्ष के समान सहस्र गुना हो जाता है। कुछ बैंक तो रातों रात फेल हो जाते हैं। किन्तु यह बैंक कभी भी फेल नहीं होता है।
धन की फैक्ट्री - जिन्हें मन्दिर के दर्शन, पूजन, स्वाध्याय आदि के धार्मिक संस्कार नहीं रहते हैं, वे दिन भर दुकान, फैक्ट्री में धन कमाते हैं और रात्रि में सीधे मधुशाला या क्लब जाते हैं, वहाँ जाकर धन और चारित्र दोनों को नष्ट कर देते हैं और जिन्हें मन्दिर के दर्शन, पूजन, स्वाध्याय के धार्मिक संस्कार रहते हैं। वे भी दिन भर दुकान, फैक्ट्री में धन कमाते हैं और रात्रि में सीधे घर आते हैं, जिससे घर में धन की वृद्धि होती है, अत: मन्दिर धन की फैक्ट्री है।
संचार के साधन - जिस प्रकार संचार के साधनों से देश-विदेश के समाचार ज्ञात हो जाते हैं। उसी प्रकार मन्दिर में रखे शास्त्रों से तीन लोक का ज्ञान प्राप्त होता है और मन्दिरजी में अनेक स्थानों की पत्रिकाओं के माध्यम से ज्ञात हो जाता है, कौन से महाराज किस नगर में हैं एवं किस नगर में कौन-सा धार्मिक कार्य हो रहा है।
3. भगवान को वेदी पर विराजमान क्यों करते हैं ?
समवसरण में तीन पीठ के ऊपर गंधकुटी होती है। गंधकुटी वह स्थान है, जहाँ पर तीर्थकर का सिंहासन होता है। जिस पर तीर्थकर चार अज़ुल ऊपर अधर में विराजमान रहते हैं। अतः वेदी भी समवसरण की तीन पीठ का प्रतीक है, इसी कारण से भगवान को वेदी में विराजमान करते हैं।
4. तीर्थकर की प्रतिमा के ऊपर कितने छत्र लगते हैं और क्यों ?
तीर्थकर की प्रतिमा के ऊपर तीन छत्र लगते हैं, क्योंकि तीर्थकर भगवान तीन लोक के स्वामी हैं। नीचे बड़ा छत्र, बीच में उससे छोटा छत्र एवं सबसे ऊपर सबसे छोटा छत्र रहता है, क्योंकि अधोलोक के अंत में लोक की चौड़ाई 7 राजू, ब्रह्मस्वर्ग में लोक की चौड़ाई 5 राजू एवं लोक के शीर्ष में चौड़ाई 1 राजू है।
5. तीर्थकर की प्रतिमा के दोनों तरफ चँवर क्यों लगाते हैं ?
समवसरण में 64 चँवर दुराए जाते हैं। इसलिए तीर्थकर की प्रतिमा के दोनों तरफ एक-एक या दो-दो चँवर प्रतीक रूप लगाए जाते हैं।
6. तीर्थकर की प्रतिमा के पीछे भामण्डल क्यों लगाते हैं ?
समवसरण में तीर्थकर भगवान के मस्तक के चारों ओर आभामण्डल रहता है, जिसमें प्रत्येक जीव को 3 पूर्व के,1 वर्तमान का और 3 भविष्य के कुल 7 भव दिखाई देते हैं। उसी दृष्टि को सामने रखकर तीर्थकर की प्रतिमा के पीछे भामण्डल लगाते हैं।
7. मन्दिर में शिखर क्यों बनाते हैं ?
- जो वस्तु विशेष होती है, उसे विशेष रूप से व्यक्त किया जाता है। मकान सामान्य होता है एवं मन्दिर विशेष। मकान और मन्दिर में अंतर दिखाने के लिए शिखर बनाए जाते हैं।
- शिखर का आकार पिरामिड के समान होता है, जिससे ध्वनि तरंगें एकत्रित होती हैं, जिससे स्वभावत: मन में शांति मिलती है एवं सात्विक विचार उत्पन्न होने लगते हैं।
- मन्दिर का उतुंग शिखर देखने से मनुष्यों का मान खण्डित होता है।
- जिस स्थान पर भगवान विराजमान होते हैं, उसके ऊपर किसी का पैर न पड़े।
- शिखर के कारण जिनमन्दिर का ज्ञान दूर से ही हो जाता है।
8. मन्दिर के शिखर पर कलश क्यों चढ़ाते हैं ?
कलश के बिना मन्दिर अधूरा माना जाता है उसके बिना मंदिर की शोभा नहीं बनती, इसी कारण से कलश चढ़ाते हैं।
9. मन्दिर के शिखर पर कलश के ऊपर ध्वजा क्यों फहराते हैं ?
- यदि मन्दिर के शिखर पर कलश के ऊपर ध्वजा न फहराई जाए तो मन्दिर में राक्षस देवों का आवास हो जाता है, इसलिए ध्वजा फहराते हैं।
- जिस प्रकार देश की पहचान ध्वज से होती है, उसी प्रकार अपने आयतनों की पहचान धर्म ध्वज के माध्यम से होती है।
10. मन्दिर के बाहर मानस्तम्भ क्यों बनाते हैं ?
समवसरण के बाहरी भाग में चारों दिशाओं में एक-एक मानस्तम्भ होता है। जिसे देखकर मानी व्यक्ति का मान गलित हो जाता है। उसी दृष्टि को सामने रखकर मन्दिर के सामने एक ही दिशा में एक मानस्तम्भ बनाया जाता है, जिसमें अरिहंत परमेष्ठी की मूर्ति चारों दिशाओं में एक-एक रहती है।
11. मन्दिर एवं चैत्यालय में क्या अंतर है ?
दोनों का शाब्दिक अर्थ एक ही है। जिन प्रतिमाओं के स्थापना के स्थान को मन्दिर या चैत्यालय कहते हैं। किन्तु वर्तमान में शिखर सहित देवालय को मन्दिर एवं शिखर रहित देवालय को चैत्यालय कहते हैं।
12. मन्दिर जाने की विधि क्या है ?
देवदर्शन हेतु प्रात:काल स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर शुद्ध धुले हुए स्वच्छ वस्त्र (धोती-दुपट्टा अथवा कुर्ता-पायजामा) पहनकर तथा हाथ में धुली हुई स्वच्छ अष्ट द्रव्य लेकर मन में प्रभुदर्शन की तीव्र भावना से युक्त, नंगे पैर नीचे देखकर जीवों को बचाते हुए घर से निकलकर मन्दिर की ओर जाना चाहिए। रास्ते में अन्य किसी कार्य का विकल्प नहीं करना चाहिए । दूर से ही मन्दिर जी का शिखर दिखने पर सिर झुकाकर जिन मन्दिर को नमस्कार करना चाहिए, फिर मन्दिर के द्वार पर पहुँचकर शुद्ध छने जल से दोनों पैर धोना चाहिए ।
मन्दिर के दरवाजे में प्रवेश करते ही हैं जय जय जय, निस्सही निस्सही निस्सही, नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु बोलना चाहिए, फिर मन्दिर जी में लगे घंटे को बजाना चाहिए। इसके पश्चात् भगवान के सामने जाते ही हाथ जोड़कर सिर झुकावें, एवं बैठकर गवासन से तीन बार नमस्कार कर तथा खड़े होकर णमोकार मंत्र पढ़कर कोई स्तुति, स्तोत्र पाठ पढ़कर भगवान् की मूर्ति को एकटक होकर देखकर भावना से निर्लिप्त हैं, वैसे ही मैं भी संसार से निर्लिप्त रहूँ, साथ में लाए पुञ्ज बंधी मुट्ठी से अंगूठा भीतर करके अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, ऐसे पाँच पदों को बोलते हुए बीच में, ऊपर, दाहिने, नीचे, बाएँ तरफ ऐसे पाँच पुञ्ज चढ़ावें। फिर जमीन पर गवासन से बैठकर, जुड़े हुए हाथों को तथा मस्तक को जमीन से लगावें तीन बार नमस्कार कर तत्पश्चात् हाथ जोड़कर खड़े हो जावें और मधुर स्वर में स्पष्ट उच्चारण के साथ स्तुति आदि पढ़ते हुए अपनी बाई ओर से चलकर वेदी की तीन परिक्रमा करें। तदनन्तर स्तोत्र पूरा होने पर बैठकर गवासन से तीन बार नमस्कार करें। परिक्रमा देते समय ख्याल रखें कोई नमस्कार कर रहा हो तो उसके आगे से न निकलकर, पीछे की ओर से निकलें। दर्शन करने इस तरह खड़े हों तथा इस तरह पाठ करें जिससे अन्य किसी को बाधा न हो। दर्शन कर लेने के बाद अपने दाहिने हाथ की मध्यमा और अनामिका अर्जुलियों को गंधोदक के पास रखे शुद्ध जल से शुद्ध कर लेने पर अर्जुलियों से गंधोदक लेकर उत्तमाङ्ग पर लगाएं फिर गंधोदक वाली अर्जुलियों को पास में रखे जल में धो लेवें। गंधोदक लेते समय निम्न पंक्तियाँ बोलें -
निर्मलं निर्मलीकरण, पवित्र पाप नाशनम्।
जिन गंधोदकं वंदे, अष्टकर्म विनाशनम्॥
इसके पश्चात् नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ते हुए कायोत्सर्ग करें। फिर जिनवाणी के समक्ष ‘प्रथमं करण चरण द्रव्यं नम:।' ऐसा बोलते हुए चार पुञ्ज चढ़ावें। तथा गुरु के समक्ष ‘सम्यक् दर्शन-सम्यक् ज्ञान-सम्यक् चारित्रेभ्यो नम:', ऐसा बोलकर तीन पुञ्ज चढ़ावें। तदुपरान्त शास्त्र स्वाध्याय करें एवं मंत्र जाप करें, फिर भगवान् को पीठ न पड़े ऐसे विनय पूर्वक अस्सहि, अस्सहि, अस्सहि बोलते हुए मन्दिर से बाहर निकलें।
13. देवदर्शन किसे कहते हैं ?
देव का अर्थ वीतरागी 18 दोषों से रहित देव और दर्शन का सामान्य अर्थ होता है देखना, किन्तु यहाँ पूज्यता के साथ देखने का नाम दर्शन है। अत: पूज्य दृष्टि से देव को देखने का नाम देवदर्शन है।
14. मन्दिर जी आने से पहले स्नान क्यों आवश्यक है ?
गृहस्थ जीवन में पञ्च पाप होते रहते हैं, जिससे शरीर अशुद्ध हो जाता है। अत: शरीर की शुद्धि के लिए स्नान आवश्यक है।
15. मन्दिर जी में प्रवेश करते समय पैर धोना क्यों आवश्यक है ?
पैरों का सम्बन्ध सीधा मस्तिष्क से होता है, आँखों में दर्द, पेट में दर्द, अधिक थकावट से विश्राम पाने के लिए पैर के तलवे दबाये जाते हैं। जिन्हें रात्रि में स्वप्न आते हैं, उन्हें पैर धोकर सोना चाहिए। श्रावक जब मुनि महाराज की वैयावृत्ति करना चाहता है, तब अनेक मुनि महाराज कहते हैं कि तुम्हें घी, तेल लगाना हो तो मात्र पैर के तलवे में लगा दो वह मस्तिष्क तक आ जाता है। इन सब बातों से सिद्ध होता है कि पैरों का सम्बन्ध मस्तिष्क से है। यदि पैरों में अशुद्धि रहेगी तब मन में भी अशुद्धि रहेगी। अत: मन्दिर जी प्रवेश से पूर्व पैर धोना आवश्यक है।
16. मन्दिर जी में प्रवेश करते समय निस्सहि-निस्सहि-निस्सहि क्यों बोलना चाहिए ?
प्रथम कारण तो यह है कि मैं दर्शन करने आ रहा हूँ, अत: वहाँ कोई श्रावक या अदृश्य देव, दर्शन कर रहे हैं, वे मुझे दर्शन करने के लिए स्थान दें। दूसरा कारण यह है कि मैं शरीर पर वस्त्रों के अलावा शेष परिग्रह का निस्सहि अर्थात् निषिद्ध करके या ममत्व छोड़ करके पवित्र स्थान में प्रवेश कर रहा हूँ। तीसरा कारण यह है कि इस जिनालय को नमस्कार हो।
17. मन्दिर जी में घंटा क्यों बजाते हैं ?
मन्दिर जी में घंटा बजाने के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं -
- घंटा समवसरण में बजने वाली देव बुंदुभि का प्रतीक है।
- जैसे ही घंटा बजाते हैं और घंटे के नीचे खड़े हो जाते हैं जिससे उसकी ध्वनि तरंगें एकत्रित हो जाती हैं, जिससे मन में शांति मिलती है एवं मन में अपने आप सात्विक विचार आने लगते हैं। घंटा पिरामिड के आकार का होता है। आज मन को शांत करने के लिए पिरामिड का बहुत प्रयोग किया जा रहा है।
- अभिषेक करते समय घंटा बजाते हैं जो आस-पास के लोगों को जगाने का कार्य भी करता है कि अभिषेक प्रारम्भ हो गया है। मुझे मन्दिर जी जाना है। अत: घंटा समय का सूचक है।
18. मन्दिर जी में चावल ही क्यों चढ़ाते हैं ?
चावल ऊगता नहीं है, धान (छिलका सहित चावल) ऊगता है। अत: आगे हम भी न ऊगे अर्थात् हमारा भी जन्म न हो इसलिए चावल चढ़ाते हैं।
19. प्रदक्षिणा किसकी दी जाती है एवं कितनी दी जाती है ?
वीतरागी देव, तीर्थक्षेत्र, सिद्धक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र एवं निग्रंथ गुरु की तीन-तीन प्रदक्षिणा दी जाती हैं।
20. प्रदक्षिणा क्यों देते हैं ?
वेदी में विराजमान भगवान समवसरण का प्रतीक है। समवसरण में भगवान के मुख चार दिशाओं में अलग-अलग दिखते हैं। अत: चार दिशाओं में भगवान के दर्शन के उद्देश्य से प्रदक्षिणा (परिक्रमा) देते हैं। तीन रत्नत्रय का प्रतीक है, अत: रत्नत्रय की प्राप्ति हो, इसलिए तीन प्रदक्षिणा देते हैं।
21. प्रदक्षिणा बाई (Left) ओर से क्यों लगाते हैं ?
हमारे जो आराध्य हैं, पूज्य हैं, बड़े हैं, उन्हें सम्मान की दृष्टि से अपने दाहिने (Right) हाथ की ओर रखा जाता है। इसलिए प्रदक्षिणा बाई ओर से लगाते हैं।
22. मन्दिर जी से वापस आते समय अस्सहि-अस्सहि-अस्सहि क्यों बोलते हैं ?
अस्सहि का अर्थ है कि अब मैं दर्शन करके वापस जा रहा हूँ देव आदि जिनने दर्शन करने के लिए स्थान दिया था वे अब अपना स्थान ग्रहण कर लें।
23. भगवान के दर्शन करते समय किन-किन भावनाओं को भाना चाहिए ?
भगवान के दर्शन करते समय निम्न भावनाओं को भाना चाहिए
- मैं भी आप जैसा बनूँ।
- मेरे पाप कर्म शीघ्र नष्ट हों।
- मुझे मोक्ष सुख की प्राप्ति हो।
- संसार के सारे जीव सुखी रहें।
- संसार के सभी जीव धम्र्यध्यान करें।
- सारे नरक खाली हो जाएँ, सारे अस्पताल बंद हो जाएँ अर्थात् कोई बीमार ही न पड़े। सारे जेल बंद हो जाएँ अर्थात् कोई ऐसा कार्य न करे जिससे जेल जाना पड़े।
- ओम् नम: सबसे क्षमा, सबको क्षमा, सभी आत्मा परमात्मा बनें।
24.भगवान के दर्शन करते समय किस प्रकार के भावों का त्याग करना चाहिए ?
भगवान के दर्शन करते समय निम्न प्रकार के भावों का त्याग करना चाहिए
- धन-वैभव, पद आदि की प्राप्ति के भावों का त्याग करना चाहिए।
- स्त्री, पुत्र, आदि की प्राप्ति के भावों का त्याग करना चाहिए।
- उसका मरण हो जाए, वह चुनाव में हार जाए, उसकी दुकान नष्ट हो जाए, उसकी नौकरी छूट जाए,वह परीक्षा में फेल हो जाए आदि बुरे भावों का त्याग करना चाहिए।
25. पाषाण या धातु की मूर्ति में पूज्यता कैसे आती है ?
पञ्चम काल में भरत और ऐरावत क्षेत्रों में अरिहंत परमेष्ठी नहीं होते हैं। उन अरिहंतों के गुणों की स्थापना पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्य अथवा उपाध्याय, साधु परमेष्ठी सूरि मंत्र देकर करते हैं। अत: इससे मूर्ति में पूज्यता आ जाती है। जैसे-178 से.मी. लंबे, 73 से.मी.चौड़े कागज का मूल्य अधिकतम 50 पैसा होगा उसी कागज में गर्वनर (GOVERNOR) के हस्ताक्षर (SIGN) होने से उसका मूल्य 1000 रुपए हो जाता है वैसे ही कम मूल्य की धातु या पाषाण की मूर्ति, सूरि मंत्र पाते ही अमूल्य हो जाती है, अर्थात् पूज्य हो जाती है।
26. मन्दिर जी में कौन-कौन से कार्य नहीं करना चाहिए ?
मन्दिर जी में निम्न कार्य नहीं करना चाहिए -
- देव-शास्त्र-गुरु से ऊँचे स्थान पर नहीं बैठना चाहिए।
- कोई श्रावक दर्शन कर रहा हो तो उसके सामने से नहीं निकलना चाहिए।
- पूजन, भजन, मंत्र इतनी जोर से नहीं पढ़ना चाहिए कि दूसरा जो पूजन, भजन, मंत्र कर रहा है वह अपना पाठ ही भूल जाए।
- नाक, कान, आँख आदि का मैल नहीं निकालना चाहिए।
- शौच आदि को पहनकर गए हुए वस्त्र पहनकर नहीं जाना चाहिए।
- अशुद्ध पदार्थ लिपिस्टिक, नेलपालिश, क्रीम, सेन्ट आदि लगाकर नहीं जाना चाहिए।
- क्रोध, अहंकार नहीं करना चाहिए।
- किसी को गाली नहीं देना चाहिए।
- सगाई, विवाह, खाने, पीने आदि की चर्चा नहीं करना चाहिए।
- दुकान, आफिस, राजनीति आदि की चर्चा नहीं करना चाहिए।
- जूठे मुख नहीं जाना चाहिए।
- चमड़े तथा रेशम की वस्तुएँ पहनकर नहीं जाना चाहिए।
- काले, नीले, लाल, भड़कीले वस्त्र पहनकर नहीं जाना चाहिए।
- मोबाइल का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
27. दर्शन करने से कौन-कौन से लाभ होते हैं ?
दर्शन करने से निम्न लाभ होते हैं -
- सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है, यदि सम्यक् दर्शन है तो वह और दृढ़ होता है।
- अनेक उपवासों का फल मिलता है।
- असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती है।
- पुण्य का आस्रव होता है।
- मन के अशुभ भाव नष्ट हो जाते हैं।
- प्रात:काल दर्शन-पूजन करने से दिन अच्छी तरह व्यतीत होता है।
28. देवदर्शन करने से कितने उपवास का फल मिलता है ?
देवदर्शन करने का फल निम्न प्रकार है
- जिन प्रतिमा के दर्शन का विचार करने से 2 उपवास का
- दर्शन करने की तैयारी की इच्छा से 3 उपवास का
- जाने की तैयारी करने से 4 उपवास का
- घर से जाने लगता उसे 5 उपवास का
- जो कुछ दूर पहुँच जाता है उसे 12 उपवास का
- जो बीच में पहुँच जाता है उस 15 उपवास का
- जो मन्दिर के दर्शन करता है उसे 1 माह के उपवास का
- जो मन्दिर के अाँगन में प्रवेश करता है उसे 6 माह के उपवासका
- जो द्वार में प्रवेश करता है उसे 1 वर्ष के उपवासका
- जो प्रदक्षिणा देता है उसे 1oo वर्ष के उपवास का
- जो जिनेन्द्र देव के मुख का दर्शन करता है उसे 1000 वर्ष के उपवास का
- और जो स्वभाव से अर्थात् निष्कामभाव से स्तुति करता है उसे अनन्त उपवास का फल मिलता है।
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