समसामयिक सम्बंधी प्रश्नोत्तर !! Samsamayik quiz !!

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Q. जैन धर्म के आदर्श-वाक्य ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ का अर्थ क्या होता है?(What is the meaning of the motto of Jainism 'Parasparopgraho Jivanam'?)

A. प्रश्न में उल्लिखित वाक्यांश जैन धर्म से संबंधित श्रेष्ठ रचनाकार उमास्वामी जी द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय का 21वां सूत्र है | परस्परोपग्रहो जीवानाम् का अर्थ : परस्पर + उप + ग्रह + जीवानाम् परस्पर-- अर्थात एक दूसरे के प्रति/ आपस में उपग्रह — उपकार करना / एक दूसरे को कुछ प्रदान करना और एक दूसरे से कुछ ग्रहण करना जीवानाम्-- जीवों का/ प्राणियों का /जीवधारियों का अर्थात् जीवधारियों या प्राणियों का परस्पर उपकार ही उनके जीवन का साधन है | कहने का आशय यह है कि इस जगत् में समस्त जीवधारी (स्थूल एवं सूक्ष्म) आपस में एक दूसरे को प्रत्यक्ष रूप से अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कुछ प्रदान करते हैं और उनसे कुछ ग्रहण भी करते हैं | वास्तव में इस तरह से एक दूसरे को कुछ देना और उससे कुछ ग्रहण करना परोक्ष रूप से एक-दूसरे पर उपकार करना ही हुआ…और यह व्यवस्था पूर्णतः प्राकृतिक है | ये तथ्य भी पूर्ण रूप से सही ही है क्योंकि जब कोई भी चीज दी जाती है बदले में अपेक्षा का भाव आना स्वाभाविक है | प्रकृति ने भी जो लिया उसकाे सौगुना अधिक करके ही हमें वापस लौटाया है..! बस यही मूलमंत्र है…हमें जो भी मिले उसको हम सकारात्मकता के साथ अधिक बना कर के लौटाएँ | यदि संपूर्ण प्राणिलोक इस सिद्धांत को हृदय से स्वीकार करें उपकार की भावना से कार्य करें तो…निश्चित रूप से सर्वत्र हर्ष, उल्लास, उमंग और सुजीवन होगा| अर्थात् जैन धर्म यह स्वीकार करता है कि सभी जीव एक दूसरे के प्रति सहायक या सेवक की भूमिका में हैं| सभी जीव से मतलब है, सूक्ष्म जीव से लेकर मनुष्य तक समस्त प्रकार के छोटे बड़े जीव| इस दुनिया के सारे जीव एक दूसरे पर निर्भर हैं, एक दूसरे से बंधे हुए हैं, जुड़े हुए हैं| सभी जीवो का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है |समस्त जीवलोक परस्पर एक दूसरे पर उपकार करता है और दूसरे का उपकार ग्रहण करता है| उनका यह परस्पर सकारात्मक संबंध है एक दूसरे पर उपकार सदृश ही है | अर्थात् हमारे जीवन पर भी उपकार में किसी न किसी जीव का योगदान रहता है, और हम भी किसी न किसी जीव पर उपकार करते हैं| हम सब अलग-अलग हैं फ़िर भी बंधे हुए हैं और एक दूसरे पर निर्भर हैं। इस बात को एक उदहारण से समझते हैं-- एक कमीज़ को देखिये। कहने को यह एक कमीज़ है लेकिन ये कई अलग - अलग टुकड़ों से बनी है। इस कमीज़ का हर एक टुकड़ा, चाहे कितना भी उच्च गुणवत्ता का और कितने भी सुन्दर रंगों का क्यों न हो, अलग-अलग रखें तो बेकार है, लेकिन जोड़ दें तो कमीज़ बनता है। पूरी कमीज़ को बने रहने में सारे टुकड़े एक दूसरे पर निर्भर है। किसी को बड़ा, छोटा, ज़्यादा या कम ज़रूरी नहीं कह सकते। इसी तरह अगर हम कमीज़ के एक टुकड़े को ध्यान से देखें तो वह कितने धागों के जुड़े रहने से बना है। बंधे रहने के लिए हर धागा दूसरे धागे पर निर्भर है।

Q. जैन प्रतीक चिन्ह कब से प्रचलन में आया और इसका महत्त्व क्या है?(When did the Jain symbol come into vogue and what is its importance?)

A. यह जैन धर्म के सिंद्धांत अहिंसा पर आधारित है। जैन धर्म के सभी आम्नायों के मानने वालों का प्रतीकात्मक कोई चिन्ह नहीं था। भगवान महावीर के 2500वे निर्वाण वर्ष को 1974-75 ई. में संयम से मनाने का आयोजन किया जाने लगा तब सभी आम्नायों के धर्म प्रमुखों ने मिलकर विचार किया कि जैन धर्म के सभी अनुयायियों का एक ऐसा प्रतीक हो जो सभी आम्नायों द्वारा निर्विरोध स्वीकार किया जाये और किसी की भी मान्यता को उससे ठेस न पहुँचे। काफी विचार विमर्श के बाद उपरोक्त प्रतीक सभी ने स्वीकार किया। जैन मान्यता के अनुसार तीन लोक हैं जिन्हें त्रिलोक कहते हैं। उध्व लोक, मध्य लोक एवं पाताल लोक। इन तीनों लोको के मिलने पर जो स्वरूप बनता है वह कमर पर दोनों हाथ रखे एवं पैर फैलाकर खड़े एक आदमी के स्वरूप के समान होता है। प्रतीक की बाहरी रेखा इसी त्रिलोक का स्वरूप है। प्रतीक के नीचे भाग में अभय मुद्रा में एक हाथ, जिसके मध्य धर्म चक्र एवं उसके बीच अहिंसा शब्द लिखा होता है अर्थात मानव अहिंसा का आचरण कर धर्म को प्रवर्तित करे और लोगों को अभय प्रदान करें - सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः। उसके ऊपर स्वास्तिक है जो चारों गति का द्योतक है - देव, मनुष्य, तिर्यच एवं नारकीय। तीन बिन्दुओं के ऊपर चन्द्रमा का चिन्ह सिद्ध भूमि का द्योतक है जिसके ऊपर एक बिन्दु है जो सिद्ध जीव आवागमन के चक्कर से मुक्त है।

प्रश्न-क्या साधु मंदिर, धर्मशाला या घर आदि में ठहर सकते हैं ?

उत्तर – ठहर सकते हैं। चतुर्थ काल में भी ठहरते थे, ऐसे उदाहरण मौजूद हैं। यथा—‘‘एक समय सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस और जयमित्र—ये सप्त ऋषि अयोध्या में आहारार्थ आये। ‘‘आहार के अनन्तर शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले मुनियों से व्याप्त ऐसे अर्हंत भगवान् के उस मन्दिर में गये, जहाँ कि मुनिसुव्रत की प्रतिमा विराजमान थी। ये सातों ऋषि चार अंगुल अधर चल रहे थे। मन्दिर में विद्यमान श्रीद्युति भट्टारक (आचार्य) ने इन्हें देखा। ऋषियों ने श्रद्धा से पैदल ही मन्दिर में प्रवेश किया तथा द्युतिभट्टारक ने खड़े होकर नमस्कार करना आदि भक्ति से विधिवत् उनकी पूजा की।

’’आर्हतं भवनं जग्मु: शुद्धसंयतसंकुलं। यत्र त्रिभुवनानंद: स्थापितो मुनिसुव्रत।।२२।।

अभ्युत्थानतमस्यादिविधिना द्युतिर्नािचता:।।२४।।

पद्म पु. पर्व ९२ यह रामचन्द्र के समय की बात है। और भी देखिये—‘‘घटगांव में देविल कुम्भर और धर्मिल नाई ने यात्रियों के ठहरने हेतु एक धर्मशाला बनवाई। एक दिन देविल ने एक दिगम्बर मुनि को लाकर वहीं ठहरा दिया। र्धिमल को पता चलते ही मुनि को हाथ पकड़कर निकाल दिया और एक सन्यासी को लाकर ठहरा दिया। धर्मशाला से निकल कर वे मुनि एक वृक्ष के नीचे रात भर, डाँस, मच्छर आदि के उपसर्ग सहते रहे।’’आराधना कथाकोष, कथा सं. ११२ श्रेणिकचारित्र सर्ग ११।‘‘उज्जयिनी के श्मशान में मणिमाली मुनि मुर्दे के आसन बांधकर ध्यानस्थ थे। एक मन्त्रवादी ने मुर्दा समझकर उनके मस्तक पर चूल्हा रखकर खीर बनाना शुरु किया। अग्नि के उपसर्ग से मुनि के मस्तक से खीर गिर गई।…. अनंतर प्रात: पता चलने पर जिनदत्त सेठ आकर मुनि को उठाकर अपने घर ले आया, इलाज कर अच्छा किया। इधर मुनि निरोग हुए, उधर वर्षाकाल आ गया। जिनदत्त आदि के आग्रह से वहीं चातुर्मास करके उसी के घर में रहने लगे। किसी समय जिनदत्त ने मुनि के िंसहासन के नीचे भूमि में गड्ढा करके रत्नों का एक घड़ा गाड़ दिया। चुपके से उसके व्यसनी पुत्र ने देख लिया था, सो कदाचित् निकाल ले गया। चातुर्मास के बाद मुनि के विहार कर जाने पर सेठ ने घड़ा देखा। नहीं मिलने पर मुनि पर संदिग्ध ही पुन: उनको वापस ले आया और कथाएँ उपकथाएँ कीं।’’ यह घटना श्रेणिक राजा के समय चतुर्थकाल की है। इस प्रकार मुनि मन्दिर या धर्मशाला में रहते थे, आज भी रह सकते हैं और विशेष प्रसंग में श्रावकों के घर में भी ठहर सकते हैं। अन्यत्र भी कहा है—‘‘इस भीषणकाल में हीन संहनन होने से साधु स्थानीय नगर ग्रामीण के जिनालय में रहते हैं।

’’सांप्रतं कलिकालेऽस्मिन् हीनसंहननत्वत:। स्थानीयनगरग्रामजिनसद्यनिवासिन:।।११९।।

—भद्रबाहु च. परि. ४

‘‘इस समय यहाँ इस कलिकाल में मुनियों का निवास जिनमन्दिर में होता है और उन्हीं के निमित्त से धर्म एवं दान की प्रवृत्ति है। इस प्रकार मुनियों की स्थिति, धर्म और दान; इन तीनों के मूल कारण गृहस्थ श्रावक हैं।।

संप्रत्यत्र कलौ काले जिनगेहे मुनिस्थिति:। धर्मश्च दानमित्येषां, श्रावका मूलकारणम्।।४०२।।

—पद्मनंदिपंचिंवशतिका, पृ. १२८

प्रश्न-क्या आर्यिकाएँ भी मंदिर में रह सकती हैं ?

उत्तर – हाँ, चतुर्थ काल में भी रहती थीं। यथा—श्री रामचन्द्रसतीष्वपि नगरे महतीषु वसतिषु पौराणमतीव प्राणिवधे संज्ञा बुद्धिरित्यवधिना बोधनावबुद्ध्यावधीरितपुर प्रवेश:। ने आर्यिका संघ सहित जिनमन्दिर को देखा, उनको नमस्कार आदि किया। पुन: सीता को उनके पास छोड़कर आप अतिवीर्य राजा के यहाँ जाकर उसे अनुकूल करके वापस आकर सीता सहित रामचन्द्र ने वरध गणिनी आर्यिका की पूजा की।

आवासान्निर्गतोऽपश्यर्दाियकाजनलक्षितं। जिनेन्द्राभवनं भक्त्या प्रविवेश च सांजलि:।।१४।।

—पद्मपुराण प. २७, पृ. १६१

प्रश्न-क्या साधु मंदिर मूर्ति आदि बनाने का उपदेश दे सकते हैं ?

उत्तर – हाँ, सप्तऋषियों में प्रधान ऋषि ने शत्रुघ्न राजा को उपदेश दिया। यथा-‘‘घर-घर में जिन प्रतिमाएँ स्थापित की जावें, उनकी पूजायें हों, अभिषेक हों और विधिपूर्वक प्रजा का पालन किया जावे। हे शत्रुघ्न! इस नगरी के चारों दिशाओं में सप्तर्षियों की प्रतिमाएँ स्थापित करो, उसी से शांति होगी।’’

स्थाप्यतां जिनिंबबानि पूजितानि गृहे—गृहे। अभिषेका: प्रवत्र्यंतां विधिना पाल्यतां प्रजा:।।७३।।

सप्र्तिषप्रतिमा दिक्षु चतसृष्वपि यत्नत:। नगर्या कुरु शत्रुघ्न ! तेन शांतिर्भविष्यति।।७४।।

—पद्मपुराण प. ९२

प्रश्न-क्या साधु प्रभावना के लोभ में पड़ सकते हैं ? अथवा धर्म के विषय में पक्षपात कर सकते हैं ?

उत्तर – हाँ, प्रभावना तो सम्यक्त्व का एक अङ्ग है। इसके लिए तो श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि-रत्नत्रय के द्वारा सतत ही आत्मा की प्रभावना करनी चाहिए और दान, तपश्चरण, जिनपूजा, विद्या तथा अतिशय-चमत्कार आदि से जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए। उदाहरण देखिए-‘‘मथुरा के राजा पूतिगंध की रानी उर्विला ने जब देखा कि आष्टान्हिक पर्व में बुद्धदासी का रथ पहले निकलेगा। उसने उपवास की प्रतिज्ञा करके क्षत्रिय गुफा में रहने वाले सोमदत्त और वङ्का कुमार मुनि के पास जाकर प्रार्थना की। इतने में ही मुनि वंदना हेतु दिवाकर देव आदि बहुत से विद्याधर (जिनके यहाँ वङ्काकुमार का पालन हुआ था) आये। वङ्काकुमार मुनि ने उनसे कहा कि आप लोग विद्या के बल से उर्विला रानी की इच्छानुसार जिनेन्द्रदेव का रथ पहले निकालिए, उन लोगों ने वैसा ही किया। जिससे कि आज तक प्रभावना अङ्ग में वङ्काकुमार मुनि की प्रसिद्धि हो रही है।२’’ ऐसे श्री कुन्दकुन्ददेव ने गिरनार पर्वत पर पहले वंदना हेतु पाषाण की देवी की मूर्ति को बुलवा दिया था कि ‘सत्यपंथ निर्ग्रंथ दिगम्बर’ इत्यादि। श्री अकलंक देव ने राजा की सभा में बौद्धों के गुरु से और उनकी आराध्य तारादेवी से छह महीने तक शास्त्रार्थ करके बौद्धों की पराजय की और अपने जैनधर्म की ध्वजा फहराई।’’

प्रश्न-क्या साधु संघ के ठहरने आदि की चिंता करते हैं ?

उत्तर – हाँ, कुन्दकुन्द स्वामी ने स्वयं कहा है कि संघ का संग्रह, अनुग्रह और ‘पोषणं तेसिं’ उसका पोषण करना, अशन पान आदि की चिंता करना। उदाहरण देखिए-‘‘श्री सुदत्ताचार्य संघ के ठहरने हेतु राजपुर नगर के बाहर उद्यासन, श्मशान आदि का अवलोकन करते हैं। किन्तु वे स्थान संघ के लिए अयोग्य समझकर पुन: मुनिमनोहर मेखला पर्वत को योग्य समझकर उस पर ठहर जाते हैं।’’यशस्तिकलचंपू प्र. आश्वास, पृ. ४० से ७० तक।

प्रश्न-क्या साधु आग्रहपूर्वक किसी को दीक्षा आदि देते दिलाते हैं ?

उत्तर – हाँ, यदि वे समझते हैं कि ये मेरे निमित्त से मोक्षमार्ग में लग जायेगा, तो अवश्य प्रेरणा विशेष करते हैं। यथा-‘‘वारिषेण मुनि अपने मित्र पुष्पडाल को ले आकर उसकी इच्छा बिना भी दीक्षा दिला दी। जब वह अस्थिर हुआ घर जाने लगा तब उसे अपने घर ले जाकर अपनी स्त्रियों को दिखाकर उन्हें लेने के लिए कहा तब वह लज्जित होकर वापस धर्म में स्थिर हो गया।’’ ‘‘भावदेव ने अपने भाई भवदेव को दीक्षा दिला दी। उसकी स्थिरता न होने से एक दिन वह भवदेव मुनि अपने घर जा रहा था कि मार्ग के मंदिर में अपनी पत्नी जो आर्यिका वेष में थी उससे सम्बोधन पाकर पुन: स्थिर हो गया। यही आगे जंबू स्वामी हुए हैं।’’ जबरदस्ती से किया गया धर्म, ग्रहण की गई दीक्षा भी संसार समुद्र से पार करने वाली ही होती है।

प्रश्न-क्या आचार्य दीक्षार्थी के जाति, कुल आदि का विचार करते हैं?

उत्तर – अवश्य करते हैं, क्योंकि आगम में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों के मनुष्य को ही जैनेश्वरी दीक्षा का आदेश दिया है तथा दीक्षार्थी जातिच्युत, पतित अथवा लोकनिंद्य भी नहीं होना चाहिए। यथा- ‘‘सुदेश, सुकुल और सुजाति में उत्पन्न हुए ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं, जो कि कलंक रहित समर्थ हैं यह सज्जनों द्वारा जिनमुद्रा उन्हें ही देनी चाहिए। कहा भी है-सुदेश कुल और जाति में उत्पन्न ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में ही अर्र्हंत देव के लिंग की स्थापना की जाती है, निंद्य या बालक आदि में नहीं। जो जाति आदि से पतित हैं उनको यह विद्वानों द्वारा पूज्य जिनमुद्रा नहीं देनी चाहिए। जो रत्नों की माला सत्पुरुषों के धारण करने योग्य होती है। वह कुत्ते के गले में नहीं पहनाई जाती है।’’ 

सुदेशकुलजात्यंगेब्राह्मणे क्षत्रिये विशि। निष्कलंके क्षमे स्थाप्या जिनमुद्रािंचता सताम्।।८८।।

उत्तंर चे— ब्राह्मणे क्षात्रिये वैश्ये सुदेशकुलजातिजे। अर्हंत: स्थाप्यते लिंगं न निंद्याबालकादिषु।।

पतितादेर्न सा देया जैनी मुद्रा बुधािंचता। रत्नमाला सतां योग्या मंडले न विधीयते’’।।

—अनगार पृ. ६७८—६७९

जैनेन्द्र व्याकरण में श्री पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है— वर्णेनार्हद्रूपायोग्यानाम्।।९७।। वर्णेनार्हद्रूपायोग्यानां।।९३।। वर्णेन जातिविशेषेणार्हरूपस्य नै ग्र्रन्थास्यायोग्यानां द्वंद्व एकवद् भवति। तक्षायस्कारं। इत्यादि।

 —शब्दार्णचंद्रिका पृ. ३५, 

जैनेन्द्रमहावृत्ति जो वर्ण से—जाति—विशेष से अर्हंत रूप—निग्र्रंथता के अयोग्य हैं, उनमें द्वन्द्व समास करने पर नपुंसक लिंग का एकवचन होता है। यथा— तक्षायस्कारं—बढ़ई और लुहार, रजकतंतुवायं—धोबी और जुलाहा। ‘वर्ण से’ ऐसा क्यों कहा ? तो मूकबाधिरौ’ गूंगा और बहरा, इसमें वर्ण का सम्बन्ध नहीं होने से एकवचन नहीं हुआ। ‘अर्हद्रूप के लिए अयोग्य हो’ ऐसा कहा तो ‘ब्राह्मणक्षत्रियौ’—ब्राह्मण और क्षत्रिय, ये वर्ण से अर्हंत लिंग के लिए अर्थात् दिगम्बर मुनि रूप जिनमुद्रा के लिए योग्य हैं, इसलिए इनमें भी द्वन्द्व समास में द्विवचन होता है। तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही जिनमुद्रा के योग्य हैं। श्रीकुन्दकुन्ददेव ने भी आचार्य भक्ति में स्पष्ट कहा है— आप देश और कुल जाति से शुद्ध हैं, विशुद्ध मन, वचन, काय से संयुक्त हैं। ऐसे हे आचार्य देव ! आपके पादकमल इस लोक में हमारे लिए नित्य ही मंगल स्वरूप होवें।

देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयणकायसंजुत्ता। तुम्हं पायपयोरुहमिह मंगलमत्थु मे णिच्चं।।१।।

—आचार्यभक्ति क्रियाकलाप पृ. २१४

प्रश्न-क्या साधु अपने घर वालों को भी जबरदस्ती धर्म में लगा सकते हैं ? या दीक्षा दे सकते हैं ?

उत्तर – हाँ, अनेकों उदाहरण हैं। भावदेव ने ही अपने भाई भवदेव को बिना इच्छा के ही निकाला और दीक्षा दिलाई। अन्य भी उदाहरण देखिए-‘‘दिग्विजय के प्रसंग में रावण ने माहिष्मती के राजा सहस्ररश्मि को बांधकर जेल में डाल दिया। तब उनके पिता जो कि ऋद्धिधारी महामुनि थे, वे वहाँ रावण की सभा में आ गये। विनयोपचार के अनंतर बोले कि हे रावण! तुम मेरे आत्मज (पुत्र) को छोड़ दो। रावण के द्वारा छोड़े जाने पर उसने विरक्त होकर पिता के साथ ही जाकर दीक्षा ले ली।

’’पराभिभवमात्रेण क्षत्रियाणां कृतार्थता। यत: सहस्रकिरणं ततो मुंच ममांगजं।।१४७।।

—पद्मपुराण १० पृ. २३५

तथा यदि कोई विशेष बुद्धिमान् हैं, उनसे विशेष धर्म होने वाला है, तो भी वे परोपकार करते हैं। यथा—‘‘श्री पुष्पदंत मुनिराज ने करहाटक ग्राम में आकर अपने भानजै जिनपालित को साथ लिया और मुनिदीक्षा देकर षट्खण्डागम सूत्र बनाकर पढ़ायें।’’ य: पुष्पदंतनाममुनि:। जिनपालिताभिधानं दृष्ट्वासौ भागिनेयं स्वं।।१३२।।  दत्वा दीक्षां तस्मै तेन समं देशमेत्य वनवासं।। ……. अथ पुष्पदंतमुनिरप्यध्यापयितुं स्वभागिनेयं तं। कर्मप्रकृतिप्राभृतमुपसंहार्येव षड्भिरिह खंडै:।।१३४।।

—श्रुतावतार 

प्रश्न-क्या साधु घर का मोह छोड़कर पुन: शिष्यों को इकट्ठा कर संघ बढ़ाते हैं ? या आर्यिकाओं को भी रखते हैं ?

उत्तर – अवश्य, यह तो शिष्यों का संग्रह करना अनुग्रह करना आदि विधान तो आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने ही कहा है। उदाहरण-श्री सुदत्ताचार्य का संघ बहुत ही विशाल था। उसमें मुनि, आर्यिकाएँ, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाएँ सभी थे। तभी तो क्षुल्लक युगल-अभय-रुचि क्षुल्लक और अभयमती क्षुल्लिका को गाँव में आहारार्थ भेजा था। श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने भी मूलाचार में ‘‘आर्यिकाओं को प्रायश्चित्त देने का और उनके नेतृत्व-करने का आदेश अनुभवी प्रौढ़ कुशल आचार्य को दिया है। नवदीक्षित, लघुवयस्क को आर्यिकाओं के गणधर-आचार्य बनने का निषेध किया है।’’

प्रश्न-क्या साधुओं या आर्यिकाओं के पास ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी या अव्रती जन रह सकते हैं ?

उत्तर – हाँ, रह सकते हैं। ‘‘धरसेनाचार्य ने ब्रह्मचारी के हाथ से मुनियों के पास पत्र भेजा था कि हमारे श्रुतज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ ऐसे दो मुनि हमारे पास भेज दो।’’समुदितमुनीन् प्रति ब्रह्मचारिणा प्रापयल्लेखं।।

१०६ —श्रुतावतार 

‘‘पद्मश्री आर्यिका के पास अनन्तमती रहती थी। जिनदत्त की पत्नी उसे आंगन में चौक पूरने हेतु बुला लाई। तब चौक पूरा हुआ देखकर, प्रियदत्त ने उस कन्या से मिलने को कहा। वह अनन्तमती उसकी कन्या थी।’’ ‘‘श्री गोवद्र्धन आचार्य ने आठ वर्ष के बालक भद्रबाहु को उनके पिता से मांग कर साथ लिया और पढ़ाया। तब ये छात्र अव्रती ही थे। अनन्तर दीक्षित हुए हैं।भद्रबाहु चारित्र। तत्त्वार्थवृत्ति में कहा कि ‘‘पुलाक मुनि के रात्रि भोजन के ग्रहण आदि रूप मूलगुणों में विराधना कैसे संभव है? तब बताया है कि यदि कदाचित् छात्रों को रात्रि में खाने—खिलाने को कह देवें, ऐसा समझकर कि इससे आगे बहुत कुछ लाभ होने वाला है इत्यादि, तो मूलगुणों में दोष लग जाता है।‘‘रात्रिभोजनवर्जनस्य विराधक: कथमिति चेत् ? उच्चयतै—श्रावकादीनामुपकारोऽनेन भविष्यतीति छात्रादिकं रात्रौ भोजयतीति विराजक: स्यात्’’ 

—तत्त्वार्थवृत्ति पृ. ३१६ 

देशभूषण और कुलभूषण ने भी मुनि के पास विद्याध्ययन किया था। अनन्तर विरक्त होकर दीक्षित हुए थे। मैना सुंदरी ने भी गुरु से ही विद्या ग्रहण की थी।

प्रश्न-क्या साधु के निमित्त से बना हुआ आहार या औषधि साधु ले सकते हैं ?

उत्तर – यदि उन्हें मालूम नहीं तो ले सकते हैं। उदाहरण—पूर्वविदेहक्षेत्र में प्रभाकरी नगरी के राजा शत्रु को जीतकर आकर नगर के समीप पर्वत पर ठहर गये। पुरोहित ने कहा, महाराज ! आज आपको मुनिदान का लाभ हो सकता है। वह कैसे ? सो हम लोग आज नगर में सूचना दिये देते हैं कि राजा के महान् महोत्सव का दिन होने से तुम लोग सर्वत्र घरों में, गलियों में चंदन का छिड़काव करो, फूल बिखेरो, गली में किंचित रंध्र भी खालीं न रहे। प्रजा ने वैसा ही किया तब पिहितास्रव मुनि मासोपवास के बाद पारणा हेतु गाँव की प्रत्येक गलियों को अप्रासुक देखकर वापस आकर राजा के पड़ाव की तरफ आये। राजा ने पड़गाहन कर आहार देकर पंचाश्चर्य को प्राप्त किया।’’आदिपुराण, पर्व ८, पृ. १८४ । नन्दिषेण मुनि अपनी अनेक ऋद्धियों के प्रभाव से अन्य मुनियों की वैयावृत्ति करते हैं। एक समय एक कृत्रिम रुग्ण मुनि ने ‘आहार में तुम्हें क्या चाहिए ?’ ऐसा पूछने पर कहा कि मुझे पूर्व देश के धान का भात, पांचाल देश की मूंग की दाल, पश्चिम देश की गायों का घी और किंलग देश की गायों का दूध मिल जावे तो मैं स्वस्थ हो सकता हूँ। नंदिषेण मुनि ने गोचरी बेला में गाँव में जाकर ऋद्धि के बल से उक्त चीजें लाकर उसे आहार में दीं।’’हरिवंश पुराण सर्ग. १८, पृ. १७४ । अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर होने के बाद श्रावकों ने घर—घर में खीर बनाई। इसलिये कि मुनियों के कंठ धुयें से, अग्नि की ज्वाला से अत्यधिक शुष्क हो चुके हैं, इन्हें आहार लेने में बाधा न हो। अनन्तर सभी मुनियों को खीर का आहार दिया गया। उसी की स्मृति में रक्षाबन्ध पर्व—श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन आज भी श्रावक खीर का आहार साधुओं को देना चाहते हैं और घर—घर में खीर बनती है। महाराज श्रीकृष्ण मुनि के आने का समाचार पाकर दर्शनार्थ गये। मुनि के शरीर को व्याधिग्रस्त देखकर पूछा—‘प्रभो ! इस रोग की शांति का क्या उपाय है कि औषधि से यह रोग नष्ट हो सकता है ?’’ मुनिराज ने कहा—‘‘राजन्! यदि रत्नकापिष्ट का प्रयोग किया जाय तो यह रोग नष्ट हो सकता है।’’ वापस आकर श्रीकृष्ण ने द्वारावती में सर्वत्र आहार की मनाही कर दी।श्रेणिक चरित्र सर्ग ११ । दूसरे दिन मुनि ज्ञानसागर जी आहार के लिए नगर में आये, राजा की आज्ञा न होने से किसी ने भी नहीं पड़गाहा। अन्त में मुनिराज राजमहल में आ गये। रुक्मिणी रानी ने विधिवत् पड़गाहन कर आहार में रत्नकापिष्ट चूर्ण दिया। इस प्रकार औषधि के सेवन से मुनि का शरीर स्वस्थ हो गया।

प्रश्न-क्या श्रावक अन्यत्र से आकर वहाँ रहकर मुनियों को आहार देवें, तो मुनि ले सकते हैं ?

उत्तर – हाँ, ले सकते हैं। उदाहरण-‘‘द्युति मुनिराज के शिष्य तीन मुनि जिनेन्द्र भगवान् की वंदना हेतु ताम्रचूड़पुर की ओर चले। बीच में पचास योजन प्रमाण बालु का समुद्र (रेगिस्तान) मिलता था, सो वे इच्छित स्थान पर नहीं पहुँच सके, बीच में ही वर्षा काल आ गया। वे मुनिराज वहीं एक वृक्ष के नीचे ठहर गये। अनंतर अयोध्या को जाते हुए भामंडल ने तीनों मुनिराजों को देखा और सोचा कि इनको यहाँ प्राणधारण हेतु आहार कैसे मिलेगा ? पुन: भामंडल ने भक्ति से युक्त होकर वहीं विद्या के बल से एक नगर बसाया और परिजन सहित वहीं रहकर मुनियों को आहारदान देता रहा।’’-पद्मपुराण पर्व १२३, पृ. ४१७ । पुण्यास्रव कथाकोश, पृ. ३०९।

प्रश्न-क्या साधु वृत्तिपरिसंख्या लेकर आहारार्थ शहर में घूम सकते हैं ?

उत्तर – ‘‘पाँचों पाण्डवों में से भी मुनिराज ने एक बार वृत्तिपरिसंख्यान किया कि ‘भाले के अग्र भाग से दिया हुआ आहार लूँगा’ तब छह महीने के बाद यह नियम पूर्ण होकर इन्हें आहार मिला।’’

कुन्ताग्रेण वितीर्णभैक्ष्यनियम: क्षुत्क्षामगात्र: क्षम:।
षण्मासैरथ भीमसेनमुनिणो निष्ठाप्य स्वांतक्लम्।।

—हरिवंश पृ. सर्ग ६४

प्रश्न-क्या साधु के पड़गाहन के समय तमाम श्रावक भीड़ इकट्ठा करना व कोलाहल कर सकते हैं ?

उत्तर – तमाम श्रावक अपनी-अपनी भक्ति से पड़गाहन करते हैं। उस समय कोलाहल भी होने लगता है। उदाहरण-जिस समय रामचंद्र महामुनि नन्दस्थली नगरी में आहारार्थ आये, उस समय उनके पड़गाहन के समय इतना कोलाहल हुआ कि हाथियों ने आलानस्तंभ तोड़ दिये। अनेकों स्त्रियाँ झारी आदि लेकर खड़ी हो गयी, अनेकों पुरुष जल भरे कलश ले लेकर आ गये। हे स्वामिन्! यहाँ आइये, हे स्वामिन्! यहाँ ठहरिये। इत्यादि से पड़गाहन कर रहे थे।’’

कोलाहलेन लोकस्य यतस्तेन च तेजसा। आलानविपुलस्तंभान् बंभंजु: कुंजरा अपि।।२९।।

—पद्मपुराण पृ. १२०, पृ. ३९८

प्रश्न-क्या साधुओं का आहार देखने के लिए लोग इकट्ठे हो सकते हैं ?

उत्तर – हाँ, आहार दान देखकर भी अनुमोदना से वैसा ही पुण्य मिल जाता है। यथा—‘‘राजा वङ्कासंघ वन में आहार दे रहे थे। उनके मंत्री आदिकों ने देखा, पुण्यबन्ध किया और नकुल, सूकर, वानर तथा सिंह ने भी देखा। राजा वङ्कासंघ ने आहार के बाद मुनि से सभी के पूर्वभव पूछे। मुनि ने पूर्वभव बताकर भविष्य भी बताया कि ये मंत्री आदि और नकुल आदि सभी आप के साथ—साथ सुख भोगते हुए आपके ही पुत्र होकर मोक्ष जायेंगे। अभी इन नकुल, सिंह आदि जीवों ने आहारदान की अनुमोदना से उत्तम भोगभूमि की आयु का बंध किया है।’’

भवद्दानानुमोदेन बद्धायुष्का: कुरुष्वमी। ततोऽमौ भीतिमुत्सृज्य स्थिता धर्मश्रर्वािथन:।

— आदिपुराण प. ८, पृ. १८७

‘‘अकृतपुण्य बालक मुनि के आहार को देखते हुए अपने को धन्य मान रहा था, द्वितीय दिन ही मरकर आहारदान की अनुमोदना के प्रभाव से स्वर्ग चला गया। पुन: कालांतर में धन्यकुमार होकर नवनिधिओं के भोगों को प्राप्त हुआ है।’’पुण्यास्रवकथाकोश पृ. ३२४ ।

प्रश्न-क्या साधु श्रावक के लिए ग्राम में या राजसभा में या श्रावक के घर आदि में जा सकते हैं ?

उत्तर – हाँ, विशेष धर्मलाभ कराने हेतु कदाचित् जा सकते हैंं यथा—‘‘एक बार कनकपुर शहर के राजा धनदत्त और श्रीवंदक मन्त्री के साथ राजमहल की छत पर बैठे थे। आकाश में जाते हुए चारण ऋषि को देखकर उनका आह्वान किया। उन्होंने आकर धर्मोपदेश दिया, जिससे श्रीवंदक बुद्धधर्मी जैन बन गया। पुन: श्रीवंदक बौद्ध गुरु के भड़काने से राज्यसभा में मुनियों की चर्चा करने पर झूठ बोल दिया कि मैंने चारण मुनि नहीं देखे हैं। तत्काल ही उसकी आँखें फूट गई।’’आराधना क. को., कथा नं. १७ । ‘‘जिनसेन स्वामी ने आदि पुराण में वङ्कासंघ श्रीमती के वर्णन में शृंगार रस का वर्णन किया है। लोगों को उनके चारित्र पर आशंका होने से उन्होंने राजसभा में सबको बुलाकर स्वयं खड़े होकर उसी शृंगार रसयुक्त काव्य को पढ़ा। उनकी निर्विकारिता देखकर विकार को प्राप्त हुए अनेक लोग उसने क्षमा याचना करने लगे। वङ्कासंघ और श्रीमती के जीव जब भोगभूमि में आर्य—आर्या थे, तब किसी समय दो चराण मुनि आकाश मार्ग से वहां भोगभूमि में उनके पास पहुँचे। उन्हें धर्मोपदेश दिया, सम्यक्त्व ग्रहण कराया और बताया कि तुम्हारे महाबल विद्याधर की पर्याय में मैं तुम्हारा स्वयं बुद्ध मंत्री था। उसी समय के धर्म प्रेम से मैं यहाँ तुम्हें संबोधने आया हूँ।’’आदिपुराण प. ८, पृ. २०१ ‘‘मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र लक्ष्मण के मोह से छूटकर जब बोध को प्राप्त हुए, तब सभा में विराजमान थे। उसी समय अर्हदास सेठ उनके दर्शन हेतु आये, सो राम ने उससे मुनि संघ की कुशलता पूछी। सेठ ने कहा—हे महाराज! आपके इस कष्ट से पृथ्वीतल पर मुनि भी परम व्यथा को प्राप्त हुए हैं। मुनिसुव्रत भगवान् की वंश परम्परा के धारक आकाशगामी भगवान् सुव्रत नामक मुनिराज आपकी दशा जान यहाँ आये हुए हैं। सुनकर रामचन्द्र तत्क्षण ही मुनि के समीप गये।’’

उवाच स महाराज व सनेन तवामुना। व्यसनं परमं प्राप्ता यतयोऽपि महीतले।।११।।

अवबुध्य विबन्धात्मा किल व्योमचरो मुनि:। सुव्रतो भगवान् प्राप मुनिसुव्रतवंशभृत्।।१२।।

— पद्म पृ. प. ११८, पृ. ३९२

‘‘जिस समय युद्ध भूमि में भीष्म पितामह बाण से आहत होकर मरणोन्मुख हो गये, उस समय आकाशमार्ग से हंस और परमहंस नामक चारण मुनि वहाँ आये। उन्होंने उपदेश देकर सल्लेखना ग्रहण करा दी। वे भीष्म पितामह मर कर ब्रह्मस्वर्ग में देव हो गये।।’’पांडवपुराण, पृ. ४१२ ।

प्रश्न-क्या मुनि किसी की गलती बिना पूछे कह सकते हैं ?

उत्तर – कदाचित् कह भी सकते हैं। यथा-‘‘एक मुनि ने रात्रि में एक महिला के पास व्यभिचार की इच्छा से जाते हुए एक व्यक्ति को देखा और ‘मत जावो’ ऐसा कहां उसने कहा क्यों ? तब मुनि ने बताया वह तुम्हारी जन्मदात्री माता है।’’ ‘‘जब कनकोदरी ने जिनप्रतिमा का अनादर किया था, तब संयमश्री आर्यिका ने आहार के लिए वहाँ प्रवेश किया। ऐसी घटना से आहार न करके मौन छोड़कर उसे शिक्षा दी। क्योंकि साधुजन बिना पूछे हुए भी अज्ञानी जन को उपदेश देने लगते हैं।’’पद्मपुराण पर्व १७।

प्रश्न-क्या साधु रात्रि में बोल सकते हैं ?

उत्तर – हाँ, कदाचित् बोल सकते हैं। ग्रंथों में रात्रि में बोलने के उदाहरण मिलते हैं। यथा—‘‘मुनि ने रात्रि में यक्षिल को व्याभिचार के लिये जाते हुए रोका।’ अन्य उदाहरण भी है— ‘‘दुखी धनदत्त सूर्यास्त हो जाने पर मुनियों के आश्रम में पहुँचा और वहाँ पानी माँगा। उनमें से एक मुनि ने समझाया कि रात्रि में अमृत भी पीना उचित नहीं है, फिर पानी को तो बात ही क्या है ?’’

तत्रैकश्रमणोऽवोचत् मधुरं परिसान्त्वयन्। रात्रावत्यमृतं युत्तंकं न पातुं किं पुनर्जलम् ।।३२।।

—पद्म पु. प. १०६, पृ. ३०१

अन्यत्र भी है—अकृतपुण्य को ढूंढते हुए सेठ अशोक ने उसे देखा, वह भागने लगा, समझाने पर भी भागता ही गया, तब संध्या हो गई है—ऐसा सोचकर सेठ वापस चला गया। वह बालक वहीं वन में एक गुफा के द्वार पर जा खड़ा हुआ। उसका द्वार पाषाण से ढँका हुआ था। अन्दर से मुनिराज किसी शिष्य धर्म का स्वरूप समझा रहे थे। उसने सुना। अनंतर व्याघ्र ने आकर उसे खा लिया, वह मर कर देव हो गया।

प्रश्न-क्या साधु यात्रा कर सकते हैं ?

उत्तर – मूलाचार, आचारसार आदि में तो मुनियों के ईर्यापथसमिति में यात्रा आदि हेतु ही मुख्य बताये हैं तथा पुराणों में भी उदाहरण मिलते हैंं तथा—‘‘अरविन्द मुनिराज ससंघ सम्मेदशिखर की यात्रा के लिये जा रहे थे। एक वन में हाथी ने उपद्रव किया। अनंतर मुनिराज को देखकर बोध को प्राप्त हुआ, मुनिराज से अणुव्रत लेकर आगे जाकर वही जीव भगवान पार्श्वनाथ हुआ है।’’. ……..संध्या वभूवेति ततोऽनुयातुं, युत्तंकं न मे साधुजनेन दूष्या। ……..तत्रांतरस्थो मुनिरागमार्थं, भव्याय जिज्ञासुरुवाच सूत्रम्।। —धन्यकुमार च. पृ. ६०।और भी अनेक उदाहरण हैं। ‘‘धन्यकुमार चरित्र में मुनि द्वारा रात्रि में उपदेश देने का वर्णन आता है।’’

प्रश्न-क्या साधु भगवान् का अभिषेक देख सकते हैं ?

उत्तर – हाँ, देख सकते हैं। विशेष अभिषेक के समय तो साधु सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु और शांतिभक्ति पढ़कर वंदना करें, ऐसा आचारसार आदि में विधान है, जो नैमित्तिक क्रिया में बताया जा चुका है। अभिषेक विधान में भी कहा है कि ‘‘महाभिषेक लक्षण जिनधर्म की प्रभावना के लिये है। निग्र्रंथों के आचार्यों ! आप लोग प्रसन्न होइये, यहाँ पधारिये। कोई प्रश्न करता है कि क्या महाभिषेक के समय निर्ग्रंथ आचार्य ही आते हैं, अन्य यति नहीं आते हैं ? तो ऐसी बात नहीं है, ‘‘निर्ग्रंथार्या:’’ ऐसा कहने से सभी दिगम्बर मुनि, आर्य—देशव्रती (क्षुल्लक, ऐलक आदि) और आर्यिकायें, इन सबका ग्रहण हो जाता है। इसलिये सभी यहाँ आइये।’’निर्ग्रंथार्या: प्रसादं कुरुत पदमिहाधत्त सद्धर्मदीप्त्यै।’’ वृत्ति:—महाभिषेकलक्षणसमीचीनजिनधर्मप्रभावनायै। अत्राह कश्चित्—अत्र महाभिषेकसमये कि निर्ग्रंथार्या आचार्यवर्या एव समायांति अन्ये यतयो नायंति ? तन्न, ….. निर्ग्रंथार्या इत्युत्तेकं सर्वेऽपि दिगम्बरा:, आर्या देशव्रतिन: आर्यिकाश्च भवंति।’’ —अभिषेकपाठसंग्रह:, पृ. ११७ आदिपुराण में भी कहा है—‘मेरु पर्वत के मस्तक पर स्फुरयमान होता हुआ, जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक का जल—प्रवाह हम सबकी रक्षा करें, जिसे कि इन्द्रों ने बड़े आनन्द से, देवियों ने आश्चर्य से, देवों के हाथियों ने सूंड ऊँची उठाकर बड़े भय से, चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने एकाग्रचित होकर बड़े आदर से और विद्याधरों ने ‘यह क्या है’ ऐसी शंका करते हुए देखा था।’’ 

सानंदं त्रिदशेश्वरै: सचकितं देवीभिरुत्पुष्करै:, सत्रासं सुरवारणै: प्रणिहितैरात्तादरं चारणै:। साशंकं गगने चरै किमिदमित्यालोकितो य: स्फरन् , मेरोर्मूिच्छन स नोऽवताज्जिविभोर्जन्मोत्सवाम्भाप्लव:।।२१६।।

—आदिपुराण पृ. १३, पृ. ३०३

प्रश्न-क्या साधु भक्तों के भव भवांतर बतलाते हैं ?

उत्तर – हाँ, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी मुनि पूछने पर बतलाते हैं। प्रथमानुयोग में ऐसे अनेकों उदाहरण देखने को मिलते हैं।

प्रश्न-क्या स्त्रियाँ मुनियों के चरण आदि का स्पर्श कर सकती हैं ?

उत्तर – चंदना ने जब भगवान् महावीर का पड्गाहन किया, उस समय आहार देने में वह अकेली थी। उसने चरण प्रलाक्षण आदि नवधा भक्ति अवश्य की होगी। ‘‘जब राजा ने यशोधर मुनिराज के गले में मृतक सर्प डाला था, तब मालूम होने पर रानी चेलना राजा के साथ रात्रि में ही वहाँ गई। उसने मुनि के शरीर से चिंवटी दूर कर मुलायम वस्त्र से अवशिष्ट कीड़ियों को भी दूर कर गरम पानी से धोया और संताप की निवृत्ति के लिए शरीर पर शीतल चंदन आदि का लेप किया।’’श्रेणिकचरित सर्ग ९, पृ. १६७ । महामुनि ने भी महिला के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया—ऐसा कथन है। यथा—गुरुदेव प्रीिंतकर मुनि ने आर्य वङ्कासंघ और आर्या श्रीमती को उपदेश देकर उन्हें सम्यक्त्व ग्रहण कराया। पुन: जिन्होंने हर्षसूचक चिन्हों से अपने मनोरथ की सिद्धि को प्रकट किया है ऐसे दोनों दंपतियों को दोनों ही मुनिराज धर्मप्रेम से बार—बार स्पर्श कर रहे थे।’’

तौ दम्पती कृतानंदसंदिंशतमनोरथौ। मुनीन्द्रौ धर्मसंवेगाच्चिरस्यास्पृक्षतां मुहु:।।१५४।।

—आदिपुराण प. ९, पृ. २०३

प्रश्न-क्या साधु श्रावकों को मंत्र व्रत आदि दे सकते हैं ?

 उत्तर – धर्मप्रभावना, परोपकार आदि की इच्छा से दे सकते हैं। मुनिराज ने ही मैना सुन्दरी को पति का कुष्ट दूर होने हेतु सिद्धचक्र विधान जाप्य आदि का अनुष्ठान बताया था। सभी व्रतों की कथाओं में भी मुनियों के द्वारा ही व्रत दिये जाने का विधान है। यदि श्रावक बिना गुरु के कोई व्रत लेते हैं, तो उसका फल नहीं कहा है। मूलाचार और मूलाराधना में भी धर्मप्रभावना आदि हेतु स्वयं भी मंत्रादि कर सकते हैं, ऐसा कहा है। जैसा कि कंदर्पी आदि भावनाओं के वर्णन में बताया जा चुका है। धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत और भूतबली मुनियों की योग्यता की परीक्षा हेतु मंत्र जपने को दिया था। यदि कोई साधु किसी को मिथ्यात्व से छुड़ाकर धर्म में लगाते हैं। सच्चे मंत्रादि द्वारा उसे कार्यसिद्धि का प्रलोभन देकर कुदेव आदि की भक्ति से निवृत्ति करते हैं, तो कोई दोष नहीं है।

 प्रश्न-क्या साधु जहाँ विहार करते हैं, वहाँ शुभ होता है ?

उत्तर – अवश्य, तपस्वियों के प्रभाव से अचिन्त्य लाभ होता है। यथा—‘‘रावण के मरने के बाद उसी दिन अंतिम प्रहर में अनंतवीर्य मुनिराज छप्पन हजार आकाशगामी मुनियों के साथ वहाँ आकर ‘कुसुमायुध’ नामक उद्यान में ठहर गये। उसी रात्रि में अनंतवीर्य महामुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।’’ गौतमस्वामी कहते हैं कि ‘‘यदि रावण के जीवित रहते हुए वे महामुनि लंका में आये होते तो लक्ष्मण के साथ रावण की घनी प्रीति हो जाती, क्योंकि जिस देश में ऋद्धिधारी मुनिराज और केवली विद्यमान रहते हैं, वहाँ दो सौ योजन (४०० कोष) तक पृथ्वी स्वर्ग के सदृश सर्वं प्रकार के उपद्रवों से रहित हो जाती है और उनके निकट रहने वाले राजा बैर रहित हो जाते हैं।’’

रावणे जीवति प्राप्तौ यदि स्यात् स महामुनि:।
लक्ष्मणेन समं प्रीतिर्जाता स्यात्तस्य पुष्कला।।५४।।

-पद्मपुराण प. ७८, पृ. ८०

यहाँ तो ऋद्धिधारी मुनि की बात है। सामान्य मुनियों के विहार से भी शुभ होता है। अन्य संप्रदाय में भी कहा है—‘‘हे अर्जुन ! तुम रथ पर चढ़ जाओ और गांडीव धनुष को भी धारण करो। मैं इस पृथ्वी को जीती हुई सी समझ रहा हूँ, चूंकि सामने निर्ग्रंथ यति दिख रहे हैं।’’आरुरोह रथं पार्थं ! गांडीवं चापि धारय। निर्जितां मेदिनीं मन्ये निर्ग्रंथो यतिरग्रत:। ऐसा श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा। ज्योतिषशास्त्र में भी कहा है—‘‘पद्मिनी स्त्रियाँ राजहंस और निर्ग्रंथ तपोधन जिस देश में रहते हैं, उस देश में शुभ—मंगल हो जाता है।’’

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