प्रश्न २६० -स्वामी श्री समन्तभद्राचार्य के अनुसार श्रावकों के अष्टमूलगुण कौन से हैं ?
उत्तर –तीन मकार का त्याग और पाँच अणुव्रतों का पालन ये ८ मूलगुण रत्नकरण्डश्रावकाचार में बताये गये हैं।
उत्तर –तीन मकार का त्याग और पाँच अणुव्रतों का पालन ये ८ मूलगुण रत्नकरण्डश्रावकाचार में बताये गये हैं।
प्रश्न २६१ -पाँच अणुव्रत कौन-कौन से हैं ?
उत्तर -अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाण अणुव्रत ये पाँच अणुव्रत कहलाते हैं।
उत्तर -अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाण अणुव्रत ये पाँच अणुव्रत कहलाते हैं।
प्रश्न २६२ -पुरुषार्थ सिद्धि उपाय ग्रंथ में कौन से आठ मूलगुण बताये गये हैं ?
उत्तर –पाँच उदुम्बर फलों का त्याग एवं तीन मकारों का त्याग ये आठ मूलगुण हैं।
उत्तर –पाँच उदुम्बर फलों का त्याग एवं तीन मकारों का त्याग ये आठ मूलगुण हैं।
प्रश्न २६३ -अन्य तृतीय प्रकार का अष्टमूलगुण किसने कहाँ बताया है ?
उत्तर –१. मध्य त्याग २. मांस त्याग ३. मधु का त्याग ४. रात्रि भोजन त्याग ५. पंच उदुम्बर फलों का त्याग ६. पंचपरमेष्ठी की स्तुति ७. जीव दया पालन ८. जल छानकर पीना ये अष्टमूलगुण श्रावकों के लिए पं. श्री आशाधर जी ने सागारधर्मामृत ग्रंथ में बताया है।
उत्तर –१. मध्य त्याग २. मांस त्याग ३. मधु का त्याग ४. रात्रि भोजन त्याग ५. पंच उदुम्बर फलों का त्याग ६. पंचपरमेष्ठी की स्तुति ७. जीव दया पालन ८. जल छानकर पीना ये अष्टमूलगुण श्रावकों के लिए पं. श्री आशाधर जी ने सागारधर्मामृत ग्रंथ में बताया है।
प्रश्न २६४ -अणुव्रतों का पालन करने से क्या फल मिलता है ?
उत्तर –अणुव्रतों को पालने वाले श्रावक-श्राविका नियम से स्वर्ग सुखों को प्राप्त करते हैं। जैसे-अणुबम संसारी प्राणियों को नष्ट करने में सक्षम होता है वैसे ही अणुव्रत कर्मों को नष्ट करने में सक्षम हैं तथा परम्परा से मोक्ष प्राप्त कराने में भी समर्थ हैं।
उत्तर –अणुव्रतों को पालने वाले श्रावक-श्राविका नियम से स्वर्ग सुखों को प्राप्त करते हैं। जैसे-अणुबम संसारी प्राणियों को नष्ट करने में सक्षम होता है वैसे ही अणुव्रत कर्मों को नष्ट करने में सक्षम हैं तथा परम्परा से मोक्ष प्राप्त कराने में भी समर्थ हैं।
प्रश्न २६५ -महाव्रत के कितने भेद हैं ?
उत्तर –पाँच भेद हैं-अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत।
उत्तर –पाँच भेद हैं-अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत।
प्रश्न २६६ -इन व्रतों को महाव्रत संज्ञा क्यों है ?
उत्तर –ये व्रत चूँकि स्वयं फल को देने वाले हैं तथा इनको तीर्थंकर आदि महापुरुष धारण करते हैं इसलिए इन्हें महाव्रत की संज्ञा प्राप्त है।
उत्तर –ये व्रत चूँकि स्वयं फल को देने वाले हैं तथा इनको तीर्थंकर आदि महापुरुष धारण करते हैं इसलिए इन्हें महाव्रत की संज्ञा प्राप्त है।
प्रश्न २६७ -पाँच समितियाँ कौन सी हैं ?
उत्तर -ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं।
उत्तर -ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं।
प्रश्न २६८ -पंचेन्द्रिय निरोध का क्या मतलब है ?
उत्तर –स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँचों इन्द्रियों को अनुशासित कर अपने वश में रखने का नाम पंचेन्द्रिय निरोध है।
उत्तर –स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँचों इन्द्रियों को अनुशासित कर अपने वश में रखने का नाम पंचेन्द्रिय निरोध है।
प्रश्न २६९ -षट् आवश्यक कौन-कौन से हैं ?
उत्तर –समता, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
उत्तर –समता, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
प्रश्न २७० -दिगम्बर मुनियों के कितने मूलगुण होते हैं ?
उत्तर –२८ मूलगुण होते हैं। यथा-५ महाव्रत, ५ समिति, ५ पंचेन्द्रिय- निरोध, ६ आवश्यक, केशलोंच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन (खड़े होकर भोजन करना) दिन में एक बार भोजन करना ये ५+५+५+६+७·=२८ मूलगुण दिगम्बर जैन मुनियों के होते हैं।
उत्तर –२८ मूलगुण होते हैं। यथा-५ महाव्रत, ५ समिति, ५ पंचेन्द्रिय- निरोध, ६ आवश्यक, केशलोंच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन (खड़े होकर भोजन करना) दिन में एक बार भोजन करना ये ५+५+५+६+७·=२८ मूलगुण दिगम्बर जैन मुनियों के होते हैं।
प्रश्न २७१ -इन अट्ठाईस मूलगुणों में से आर्यिकाओं के कितने मूलगुण होते हैं ?
उत्तर –आर्यिकाओं के भी मुनियों के समान ही अट्ठाईस मूलगुण होते हैं।
प्रश्न २७२ -उनके अचेलक और खड़े होकर भोजन करना ये दो मूलगुण तो हैं नहीं, अत: २६ मूलगुण ही मानना चाहिए ?
उत्तर –पूज्य माताजी के गुरु आचार्य श्री वीरसागर महाराज कहा करते थे कि नग्नता के स्थान पर एक श्वेत साड़ी पहनना और बैठकर भोजन करना ये आगम की आज्ञानुसार, आर्यिकाओं के मूलगुण ही माने गये हैं अत: आर्यिकाओं के २८ मूलगुण ही होते हैं ऐसी मूलाचारानुसार आचार्यश्री शांतिसागर परम्परा की वाणी है।
उत्तर –पूज्य माताजी के गुरु आचार्य श्री वीरसागर महाराज कहा करते थे कि नग्नता के स्थान पर एक श्वेत साड़ी पहनना और बैठकर भोजन करना ये आगम की आज्ञानुसार, आर्यिकाओं के मूलगुण ही माने गये हैं अत: आर्यिकाओं के २८ मूलगुण ही होते हैं ऐसी मूलाचारानुसार आचार्यश्री शांतिसागर परम्परा की वाणी है।
प्रश्न २७३ -आर्यिका अवस्था में समाधिमरण करके किस स्वर्ग तक पद प्राप्त हो सकता है ?
उत्तर –सोलह स्वर्ग तक इन्द्र-प्रतीन्द्र देव आदि की पदवी आर्यिकाएँ समाधिमरण करके प्राप्त कर सकती हैं।
उत्तर –सोलह स्वर्ग तक इन्द्र-प्रतीन्द्र देव आदि की पदवी आर्यिकाएँ समाधिमरण करके प्राप्त कर सकती हैं।
प्रश्न २७४ -द्रव्यानुयोग किसे कहते हैं ?
उत्तर –जिन ग्रंथों में जीवादिक सप्त तत्व, नव पदार्थों का वर्णन हो, उन्हें द्रव्यानुयोगविषयक ग्रंथ कहते हैं।
उत्तर –जिन ग्रंथों में जीवादिक सप्त तत्व, नव पदार्थों का वर्णन हो, उन्हें द्रव्यानुयोगविषयक ग्रंथ कहते हैं।
प्रश्न २७५ -द्रव्य के कितने भेद हैं ?
उत्तर –द्रव्य के छह भेद हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
उत्तर –द्रव्य के छह भेद हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
प्रश्न २७६ -नवपदार्थ कौन-कौन से हैं ?
उत्तर –जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये ९ पदार्थ हैं।
उत्तर –जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये ९ पदार्थ हैं।
प्रश्न २७७ -द्रव्यानुयोग का सर्वाधिक प्राचीन कौन सा ग्रंथ है ?
उत्तर –समयसार ग्रंथ जो कि आज से दो हजार वर्ष पुराना है। प्रश्न २७८ -आर्यिकाओं को शुक्लध्यान हो सकता है या नहीं ?
उत्तर -नहीं।
उत्तर –समयसार ग्रंथ जो कि आज से दो हजार वर्ष पुराना है। प्रश्न २७८ -आर्यिकाओं को शुक्लध्यान हो सकता है या नहीं ?
उत्तर -नहीं।
प्रश्न २७९ -उन्हें स्वरूपाचरण चारित्र होता है या नहीं ?
उत्तर –नहीं।
उत्तर –नहीं।
प्रश्न २८० -आजकल कुछ विद्वान चतुर्थ गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण मानते हैं तथा पंचम गुणस्थानवर्ती आर्यिकाओं को स्वरूपाचरण क्यों नहीं हो सकता है ?
उत्तर –स्वरूपाचरण चारित्र दिगम्बर महामुनियों के अतिरिक्त किसी को भी नहीं हो सकता है। जैसा कि छहढाला में भी कहा है ‘‘यों है सकल संयमचरित, सुनिये स्वरूपाचरण अब। जिस होत प्रगटे आपनी निधि, मिटे पर की प्रवृत्ति सब।।’’ अर्थात् शुक्लध्यान की अवस्था में ही मुनियों को स्वरूपाचरण चारित्र होता है। आर्यिका एवं श्रावकादि को स्वरूपाचरण चारित्र कदापि नहीं हो सकता है।
उत्तर –स्वरूपाचरण चारित्र दिगम्बर महामुनियों के अतिरिक्त किसी को भी नहीं हो सकता है। जैसा कि छहढाला में भी कहा है ‘‘यों है सकल संयमचरित, सुनिये स्वरूपाचरण अब। जिस होत प्रगटे आपनी निधि, मिटे पर की प्रवृत्ति सब।।’’ अर्थात् शुक्लध्यान की अवस्था में ही मुनियों को स्वरूपाचरण चारित्र होता है। आर्यिका एवं श्रावकादि को स्वरूपाचरण चारित्र कदापि नहीं हो सकता है।
प्रश्न २८१ -चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि असंयमी मनुष्यों के कोई चारित्र माना गया है या नहीं?
उत्तर –सामान्यतया असंयत सम्यग्दृष्टि को चारित्र नहीं होता है। हाँ! चारित्रपाहुड़ ग्रंथ में सम्यक्त्वरूप सदाचरण को सम्यक्त्वाचरण चारित्र कह दिया है।
उत्तर –सामान्यतया असंयत सम्यग्दृष्टि को चारित्र नहीं होता है। हाँ! चारित्रपाहुड़ ग्रंथ में सम्यक्त्वरूप सदाचरण को सम्यक्त्वाचरण चारित्र कह दिया है।
प्रश्न २८२ -आत्मा के कितने भेद हैं ?
उत्तर –तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।
उत्तर –तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।
प्रश्न २८३ -बहिरात्मा का क्या लक्षण है?
उत्तर -शरीर, पुत्र, मित्र, मकान, वैभव आदि को आत्मस्वरूप मानने वाला, उनके संयोग-वियोग में निज आत्मा को एकान्त से सुखी-दुखी अनुभव करने वाला बहिरात्मा कहलाता है।
उत्तर -शरीर, पुत्र, मित्र, मकान, वैभव आदि को आत्मस्वरूप मानने वाला, उनके संयोग-वियोग में निज आत्मा को एकान्त से सुखी-दुखी अनुभव करने वाला बहिरात्मा कहलाता है।
प्रश्न २८४ -अन्तरात्मा किसे कहते हैं ?
उत्तर –जो आत्मा और शरीर को तथा अन्य समस्त परवस्तुओं को आत्मा से भिन्न समझकर उनके संयोग-वियोग में आत्मा को सुखी-दु:खी अनुभव नहीं करते हैं वे अन्तरात्मा कहलाते हैं। प्रश्न २८५ -परमात्मा कौन कहलाते हैं ?
उत्तर –कर्मों का नाश करने वाले अरहन्त और सिद्ध भगवान परमात्मा कहलाते हैं।
उत्तर –जो आत्मा और शरीर को तथा अन्य समस्त परवस्तुओं को आत्मा से भिन्न समझकर उनके संयोग-वियोग में आत्मा को सुखी-दु:खी अनुभव नहीं करते हैं वे अन्तरात्मा कहलाते हैं। प्रश्न २८५ -परमात्मा कौन कहलाते हैं ?
उत्तर –कर्मों का नाश करने वाले अरहन्त और सिद्ध भगवान परमात्मा कहलाते हैं।
प्रश्न २८६ -परमात्मा के कितने भेद हैं ?
उत्तर –दो भेद हैं-सकल परमात्मा, निकल परमात्मा।
उत्तर –दो भेद हैं-सकल परमात्मा, निकल परमात्मा।
प्रश्न २८७ -सकल परमात्मा किन्हें कहते हैं ?
उत्तर –चार घातिया कर्मों का नाश करने वाले शरीर सहित अरिहंत परमेष्ठी जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं तब तक सकल परमात्मा की संज्ञा से जाने जाते हैं।
उत्तर –चार घातिया कर्मों का नाश करने वाले शरीर सहित अरिहंत परमेष्ठी जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं तब तक सकल परमात्मा की संज्ञा से जाने जाते हैं।
प्रश्न २८८ -निकल परमात्मा का क्या लक्षण है ?
उत्तर –आठों कर्मों का नाश करने वाले, शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी निकल परमात्मा कहे जाते हैं।
उत्तर –आठों कर्मों का नाश करने वाले, शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी निकल परमात्मा कहे जाते हैं।
प्रश्न २७९ -अन्तरात्मा के कितने भेद हैं ?
उत्तर –तीन भेद हैं-उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम अन्तरात्मा, जघन्य अन्तरात्मा।
उत्तर –तीन भेद हैं-उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम अन्तरात्मा, जघन्य अन्तरात्मा।
प्रश्न २९० -इन तीनो की क्या पहचान है ?
उत्तर –बारहवें गुणस्थान वाले मुनिराज उत्तम अन्तरात्मा हैं। पाँचवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान वाले देशसंयमी एवं सकलसंयमी मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयमी सम्यग्दृष्टि नर-नारी आदि जघन्य अन्तरात्मा हैं।
उत्तर –बारहवें गुणस्थान वाले मुनिराज उत्तम अन्तरात्मा हैं। पाँचवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान वाले देशसंयमी एवं सकलसंयमी मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयमी सम्यग्दृष्टि नर-नारी आदि जघन्य अन्तरात्मा हैं।
प्रश्न २९१ -आर्यिकाएँ कौन सी आत्मा हैं ?
उत्तर –मध्यम अन्तरात्मा की श्रेणी में आर्यिकाएँ आती हैं।
उत्तर –मध्यम अन्तरात्मा की श्रेणी में आर्यिकाएँ आती हैं।
प्रश्न २९२ -नय किसे कहते हैं ?
उत्तर –वस्तु के एक-एक अंश को कहने वाला नय कहलाता है।
उत्तर –वस्तु के एक-एक अंश को कहने वाला नय कहलाता है।
प्रश्न २९३ -नय के कितने भेद हैं ?
उत्तर –दो भेद हैं-व्यवहारनय, निश्चयनय।
उत्तर –दो भेद हैं-व्यवहारनय, निश्चयनय।
प्रश्न २९४ -व्यवहार नय के अनुसार ज्ञानमती माताजी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर –व्यवहारनयानुसार ज्ञानमती माताजी एक महिला हैं, साध्वी हैं, गणिनी माताजी हैं।
उत्तर –व्यवहारनयानुसार ज्ञानमती माताजी एक महिला हैं, साध्वी हैं, गणिनी माताजी हैं।
प्रश्न २९५ -निश्चयनयानुसार उनका क्या स्वरूप है ?
उत्तर –निश्चयनय से वे शुद्ध-बुद्ध-नित्य-निरंजन-परमात्मास्वरूप भगवान आत्मा हैं।
उत्तर –निश्चयनय से वे शुद्ध-बुद्ध-नित्य-निरंजन-परमात्मास्वरूप भगवान आत्मा हैं।
प्रश्न २९६ -व्यवहार और निश्चयनय के कथन में इतनी भिन्नता क्यों है ?
उत्तर –क्योंकि व्यवहार नय कर्मोपाधि से सहित आत्मा का कथन करता है और निश्चयनय कर्मोपाधि से रहित शुद्ध आत्मा का कथन करता है। दोनों नयों में शक्ति और व्यक्ति का अन्तर है अर्थात् निश्चय नय अमूर्तिक आत्मा की शक्ति बताता है और व्यवहार नय व्यक्त रूप में प्रकट स्थिति का कथन करता है।
उत्तर –क्योंकि व्यवहार नय कर्मोपाधि से सहित आत्मा का कथन करता है और निश्चयनय कर्मोपाधि से रहित शुद्ध आत्मा का कथन करता है। दोनों नयों में शक्ति और व्यक्ति का अन्तर है अर्थात् निश्चय नय अमूर्तिक आत्मा की शक्ति बताता है और व्यवहार नय व्यक्त रूप में प्रकट स्थिति का कथन करता है।
प्रश्न २९७ -व्यवहारनय से ज्ञानमती माताजी ने कौन सी शक्ति प्रगट की है ?
उत्तर –व्यवहारनय से पूज्य माताजी अपने मूलगुणों का पालन करती हैं, शिष्यों को शिक्षा देती हैं, जगह-जगह भ्रमण करके अहिंसा धर्म का उपदेश देती हैं।
उत्तर –व्यवहारनय से पूज्य माताजी अपने मूलगुणों का पालन करती हैं, शिष्यों को शिक्षा देती हैं, जगह-जगह भ्रमण करके अहिंसा धर्म का उपदेश देती हैं।
प्रश्न २९८ -निश्चयनय की अपेक्षा उन्होंने अपनी आत्मशक्ति किस रूप में प्रगट की है ?
उत्तर –निश्चयनय से आत्मा अनन्त शक्तिमान है, इस बात का रहस्य जानकर ही उन्होंने उसे प्रकट करने हेतु इस दुरूह त्याग को स्वीकार किया है। समस्त व्यवहारिक क्रियाएँ करते हुए भी आत्मसिद्धि की ओर ही उनका परम लक्ष्य रहता है।
उत्तर –निश्चयनय से आत्मा अनन्त शक्तिमान है, इस बात का रहस्य जानकर ही उन्होंने उसे प्रकट करने हेतु इस दुरूह त्याग को स्वीकार किया है। समस्त व्यवहारिक क्रियाएँ करते हुए भी आत्मसिद्धि की ओर ही उनका परम लक्ष्य रहता है।
प्रश्न २९९ -निश्चयनय से ज्ञानमती माताजी के साथ गुरु-शिष्य संबंध कैसे बनेगा ?
उत्तर –निश्चयनय से माताजी का न कोई गुरु है और न कोई शिष्य है। उनकी आत्मा ही उनका वास्तविक गुरु और वास्तविक शिष्य है।
उत्तर –निश्चयनय से माताजी का न कोई गुरु है और न कोई शिष्य है। उनकी आत्मा ही उनका वास्तविक गुरु और वास्तविक शिष्य है।
प्रश्न ३०० -क्या पंचमकाल में निश्चयनयस्वरूप आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो सकती है ?
उत्तर –नहीं, पंचमकाल में निश्चयनयस्वरूप आत्मतत्त्व की श्रद्धा मात्र हो सकती है प्राप्ति नहीं।
उत्तर –नहीं, पंचमकाल में निश्चयनयस्वरूप आत्मतत्त्व की श्रद्धा मात्र हो सकती है प्राप्ति नहीं।
प्रश्न ३०१ -तब इस कलिकाल में नर-नारियों को मुनि-आर्यिका के व्रत धारणकर घोर कष्ट सहने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर –कई भवों में तपस्या का अभ्यास करने वाले मनुष्य ही आत्मसिद्धिपूर्वक मोक्ष प्राप्त कर पाते हैं यही आज के युग में मुनि-आर्यिका व्रत धारण करने में हेतु है।
उत्तर –कई भवों में तपस्या का अभ्यास करने वाले मनुष्य ही आत्मसिद्धिपूर्वक मोक्ष प्राप्त कर पाते हैं यही आज के युग में मुनि-आर्यिका व्रत धारण करने में हेतु है।
प्रश्न ३०२ -द्रव्यानुयोग की सार्थकता हमारे जीवन में क्या होनी चाहिए ?
उत्तर –हम भी द्रव्यदृष्टि से अपने शुद्ध आत्मतत्त्व की श्रद्धा करते हुए व्यवहार दृष्टि से उसे प्रगट करने हेतु व्रत, नियम, संयम का यथाशक्ति पालन करें, यही मानव जीवन में द्रव्यानुयोग की सार्थकता समझना चाहिए।
उत्तर –हम भी द्रव्यदृष्टि से अपने शुद्ध आत्मतत्त्व की श्रद्धा करते हुए व्यवहार दृष्टि से उसे प्रगट करने हेतु व्रत, नियम, संयम का यथाशक्ति पालन करें, यही मानव जीवन में द्रव्यानुयोग की सार्थकता समझना चाहिए।
प्रश्न ३०३ -द्रव्यानुयोग किसे कहते हैं ?
उत्तर –जिस अनुयोग के ग्रंथों में द्रव्यों का विवेचन रहता है उन्हें द्रव्यानुयोग कहते हैं। जैसे-द्रव्यसंग्रह, समयसार, नियमसार आदि।
उत्तर –जिस अनुयोग के ग्रंथों में द्रव्यों का विवेचन रहता है उन्हें द्रव्यानुयोग कहते हैं। जैसे-द्रव्यसंग्रह, समयसार, नियमसार आदि।
प्रश्न ३०४ -पुद्गल का क्या लक्षण है ?
उत्तर –जिसमें पूरण-गलन स्वभाव पाया जाता है उसे पुद्गल कहते हैं। जैसे-शरीर, लकड़ी आदि।
उत्तर –जिसमें पूरण-गलन स्वभाव पाया जाता है उसे पुद्गल कहते हैं। जैसे-शरीर, लकड़ी आदि।
प्रश्न ३०५ -आत्मा का क्या लक्षण है ?
उत्तर –जिसमें चैतन्य गुण पाया जाता है उस अक्षय, अविनाशी जीव द्रव्य को आत्मा कहते हैं।
उत्तर –जिसमें चैतन्य गुण पाया जाता है उस अक्षय, अविनाशी जीव द्रव्य को आत्मा कहते हैं।
प्रश्न ३०६ -जीव द्रव्य के कितने अधिकार हैं जिनसे उसकी पहचान होती है ?
उत्तर -जीव के नौ अधिकार हैं। जैसे-१. जीवत्व २. उपयोगमयत्व ३. अमूर्तत्व ४. कर्तृत्व ५. स्वदेहप्रमाणत्व ६. भोक्तृत्व ७. संसारित्व ८. सिद्धत्व ९. स्वाभाविक ऊर्ध्वगमनत्व।
उत्तर -जीव के नौ अधिकार हैं। जैसे-१. जीवत्व २. उपयोगमयत्व ३. अमूर्तत्व ४. कर्तृत्व ५. स्वदेहप्रमाणत्व ६. भोक्तृत्व ७. संसारित्व ८. सिद्धत्व ९. स्वाभाविक ऊर्ध्वगमनत्व।
प्रश्न ३०७ -पुद्गल के कितने गुण होते हैं ?
उत्तर –स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये ४ गुण मुख्यरूप से पुद्गल के होते हैं।
उत्तर –स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये ४ गुण मुख्यरूप से पुद्गल के होते हैं।
प्रश्न ३०८ -स्पर्श के कितने भेद हैं ?
उत्तर –८ भेद हैं-हल्का, भारी, कड़ा, नरम, रूखा, चिकना, ठण्डा, गरम।
उत्तर –८ भेद हैं-हल्का, भारी, कड़ा, नरम, रूखा, चिकना, ठण्डा, गरम।
प्रश्न ३०९ -रस कितने प्रकार का है ?
उत्तर –पाँच प्रकार का है-खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला, चरपरा।
उत्तर –पाँच प्रकार का है-खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला, चरपरा।
प्रश्न ३१० -गंध के कितने भेद हैं ?
उत्तर –दो भेद हैं-सुगंध और दुर्गन्ध।
उत्तर –दो भेद हैं-सुगंध और दुर्गन्ध।
प्रश्न ३११ -वर्ण के कितने भेद हैं ?
उत्तर –पाँच भेद हैं-काला, सफेद, नीला, पीला, लाल।
उत्तर –पाँच भेद हैं-काला, सफेद, नीला, पीला, लाल।
प्रश्न ३१२ -परमाणु किसे कहते हैं ?
उत्तर –पुद्गल के जिस अणु का दूसरा भाग न किया जा सके उसे परमाणु कहते हैं।
उत्तर –पुद्गल के जिस अणु का दूसरा भाग न किया जा सके उसे परमाणु कहते हैं।
प्रश्न ३१३ -स्कन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर –पुद्गल के दो अणुओं से लेकर संख्यात, असंख्यात अणुओं का जहाँ एकत्रीकरण हो जाता है, वही परमाणुओं का समूह स्कध कहलाता है।
उत्तर –पुद्गल के दो अणुओं से लेकर संख्यात, असंख्यात अणुओं का जहाँ एकत्रीकरण हो जाता है, वही परमाणुओं का समूह स्कध कहलाता है।
प्रश्न ३१४ -घातिया और अघातिया कर्म क्या होते हैं ?
उत्तर –जो आत्मा के गुणों का घात करते हैं वे घातिया कर्म कहलाते हैं और जो आत्मा के साथ रहते हुए भी आत्मा के गुणों को नष्ट नहीं करते हैं, वे अघातिया कर्म होते हैं।
उत्तर –जो आत्मा के गुणों का घात करते हैं वे घातिया कर्म कहलाते हैं और जो आत्मा के साथ रहते हुए भी आत्मा के गुणों को नष्ट नहीं करते हैं, वे अघातिया कर्म होते हैं।
प्रश्न ३१५ -वे कर्म कौन-कौन से हैं ?
उत्तर –घातिया कर्म ४ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। अघातिया कर्म भी ४ हैं-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र।
उत्तर –घातिया कर्म ४ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। अघातिया कर्म भी ४ हैं-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र।
प्रश्न ३१६ -वर्तमान का मानव कितने कर्मों का नाश कर सकता है ?
उत्तर –वर्तमान का युग कलियुग कहलाता है। यहाँ का मानव पूर्णरूप से किसी कर्म का नाश नहीं कर सकता है इसीलिए आज अरिहन्त और सिद्ध ये दो परमेष्ठी नहीं हैं मात्र उनके प्रतिबिम्ब- मूर्तियाँ मंदिरों में विराजमान हैं तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन परमेष्ठी प्रत्यक्ष में देखे जा रहे हैं।
उत्तर –वर्तमान का युग कलियुग कहलाता है। यहाँ का मानव पूर्णरूप से किसी कर्म का नाश नहीं कर सकता है इसीलिए आज अरिहन्त और सिद्ध ये दो परमेष्ठी नहीं हैं मात्र उनके प्रतिबिम्ब- मूर्तियाँ मंदिरों में विराजमान हैं तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन परमेष्ठी प्रत्यक्ष में देखे जा रहे हैं।
प्रश्न ३१७ -ध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर –चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान।
उत्तर –चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान।
प्रश्न ३१८ -आर्तध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर –अपने इष्ट का वियोग एवं अनिष्ट का संयोग होने पर सतत उसी का चिंतन करते रहना आर्तध्यान कहलाता है।
उत्तर –अपने इष्ट का वियोग एवं अनिष्ट का संयोग होने पर सतत उसी का चिंतन करते रहना आर्तध्यान कहलाता है।
प्रश्न ३१९ -आर्तध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर –चार भेद हैं-इष्टवियोगज, अनिष्ट संयोगज, वेदनाजन्य और निदानज।
उत्तर –चार भेद हैं-इष्टवियोगज, अनिष्ट संयोगज, वेदनाजन्य और निदानज।
प्रश्न ३२० -इन चारों के लक्षण बताइए ?
उत्तर –इष्ट वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति का सतत प्रयास एवं चिन्तन करते हुए दुखी रहना इष्टवियोगज आर्तध्यान है। अनिष्ट का संयोग होने पर उसे दूर करने का सतत प्रयत्न एवं चिंतन करते हुए दुखी रहना अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है। शरीर में रोगादि के निमित्त से तीव्र वेदना होने पर शरीर की ही चिन्ता करते रहना वेदनाजन्य आर्तध्यान है। पुण्य कर्म करते हुए आगामी भव के लिए भोगों की आकांक्षा करके तज्जन्य कर्मबंध कर लेना निदानज आर्तध्यान कहलाता है।
उत्तर –इष्ट वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति का सतत प्रयास एवं चिन्तन करते हुए दुखी रहना इष्टवियोगज आर्तध्यान है। अनिष्ट का संयोग होने पर उसे दूर करने का सतत प्रयत्न एवं चिंतन करते हुए दुखी रहना अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है। शरीर में रोगादि के निमित्त से तीव्र वेदना होने पर शरीर की ही चिन्ता करते रहना वेदनाजन्य आर्तध्यान है। पुण्य कर्म करते हुए आगामी भव के लिए भोगों की आकांक्षा करके तज्जन्य कर्मबंध कर लेना निदानज आर्तध्यान कहलाता है।
प्रश्न ३२१ -रौद्रध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर – कुर परिणामों का होना रौद्रध्यान कहलाता है। उत्तर -चार भेद हैं-हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी
उत्तर – कुर परिणामों का होना रौद्रध्यान कहलाता है। उत्तर -चार भेद हैं-हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी
प्रश्न ३२३ -चारों रौद्रध्यानों के अलग-अलग लक्षण क्या हैं ?
उत्तर –पर की हिंसा में आनन्द मानना हिंसानन्दी रौद्रध्यान है। झूठ बोलने या बुलवाने में आनन्दानुभूति होना मृषानन्दी रौद्रध्यान है। चोरी करने या करवाने में प्रसन्नता का अनुभव करना चौर्यानन्दी रौद्रध्यान है। अतिपरिग्रह का संचय करके हर्षित होना परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान है।
उत्तर –पर की हिंसा में आनन्द मानना हिंसानन्दी रौद्रध्यान है। झूठ बोलने या बुलवाने में आनन्दानुभूति होना मृषानन्दी रौद्रध्यान है। चोरी करने या करवाने में प्रसन्नता का अनुभव करना चौर्यानन्दी रौद्रध्यान है। अतिपरिग्रह का संचय करके हर्षित होना परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान है।
प्रश्न ३२४ -आर्त-रौद्रध्यान किस गुणस्थान तक के जीवों को हो सकते हैं ?
उत्तर –आर्तध्यान पहले गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक के जीवों के होता है तथा रौद्रध्यान पाँचवें गुणस्थान तक ही होता है, इससे ऊपर नहीं।
उत्तर –आर्तध्यान पहले गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक के जीवों के होता है तथा रौद्रध्यान पाँचवें गुणस्थान तक ही होता है, इससे ऊपर नहीं।
प्रश्न ३२५ -धर्मध्यान का क्या लक्षण है ?
उत्तर –आर्त-रौद्र दोनों ध्यानों से हटकर जिनधर्म के प्रति अनुराग भाव करके एकाग्रपरिणति होना धर्मध्यान कहलाता है।
उत्तर –आर्त-रौद्र दोनों ध्यानों से हटकर जिनधर्म के प्रति अनुराग भाव करके एकाग्रपरिणति होना धर्मध्यान कहलाता है।
प्रश्न ३२६ -धर्मध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर –चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय संस्थानविचय।
उत्तर –चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय संस्थानविचय।
प्रश्न ३२७ -चारों धर्मध्यानों के लक्षण बताएँ ?
उत्तर –सर्वज्ञ प्रणीत जैनागम को प्रमाण मानना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। प्राणियों के मिथ्यादर्शन ज्ञान-चारित्र को दूर करके सन्मार्ग के प्रचार पर विचार करना अपायविचय धर्मध्यान है। अष्टकर्मों के फल का विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान है और तीन लोक के आकार का विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है।
उत्तर –सर्वज्ञ प्रणीत जैनागम को प्रमाण मानना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। प्राणियों के मिथ्यादर्शन ज्ञान-चारित्र को दूर करके सन्मार्ग के प्रचार पर विचार करना अपायविचय धर्मध्यान है। अष्टकर्मों के फल का विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान है और तीन लोक के आकार का विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है।
प्रश्न ३२८ -धर्मध्यान कौन से गुणस्थान तक रहता है ?
उत्तर -अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि के उत्कृष्टरूप से साक्षात् धर्मध्यान होता है तथा चतुर्थ, पंचम एवं छठे गुणस्थान वाले जीवों के भी धर्मध्यान ही होता है।
उत्तर -अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि के उत्कृष्टरूप से साक्षात् धर्मध्यान होता है तथा चतुर्थ, पंचम एवं छठे गुणस्थान वाले जीवों के भी धर्मध्यान ही होता है।
प्रश्न ३२९ -शुक्लध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर –चार भेद हैं-पृथक्त्ववितकॅ, एकत्ववितकॅ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवर्ति।
उत्तर –चार भेद हैं-पृथक्त्ववितकॅ, एकत्ववितकॅ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवर्ति।
प्रश्न ३३० -ये शुक्लध्यान किन जीवों के होते हैं ?
उत्तर –पूर्वज्ञानधारी श्रुतकेवली मुनियों के पृथक्त्ववितकॅॅ और एकत्व-वितकॅ शुक्लध्यान होते हैं। सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरहन्त परमेष्ठियों के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ल-ध्यान होता है तथा अयोगकेवली के व्युपरतक्रियानिवर्ति नाम का शुक्लध्यान होता है।
उत्तर –पूर्वज्ञानधारी श्रुतकेवली मुनियों के पृथक्त्ववितकॅॅ और एकत्व-वितकॅ शुक्लध्यान होते हैं। सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरहन्त परमेष्ठियों के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ल-ध्यान होता है तथा अयोगकेवली के व्युपरतक्रियानिवर्ति नाम का शुक्लध्यान होता है।
प्रश्न ३३१ -ध्यान का उत्कृष्ट लक्षण किन जीवों में घटित होता है ?
उत्तर –उत्तम संहननधारी जीवों के एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक होता है।
उत्तर –उत्तम संहननधारी जीवों के एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक होता है।
प्रश्न ३३२ -देवदर्शन की प्रतिज्ञा में किस सती का नाम प्रसिद्ध हुआ है ?
उत्तर –सती मनोवती ने गजमोती चढ़ाकर प्रतिदिन देवदर्शन करने की प्रतिज्ञा ली थी।
उत्तर –सती मनोवती ने गजमोती चढ़ाकर प्रतिदिन देवदर्शन करने की प्रतिज्ञा ली थी।
प्रश्न ३३३ -मनोवती सती को किस स्थान पर देवों द्वारा निर्मित मंदिर प्राप्त हुआ था ?
उत्तर –रतनपुरी (रौनाही) में, जो भगवान धर्मनाथ की जन्मभूमि है।
उत्तर –रतनपुरी (रौनाही) में, जो भगवान धर्मनाथ की जन्मभूमि है।
प्रश्न ३३४ -सती अंजना को २२ वर्ष तक पति वियोग क्यों सहना पड़ा था ?
उत्तर –क्योंकि किसी पूर्व भव में उसने रानी कनकोदरी की पर्याय में सौत की ईष्र्या के कारण जिनेन्द्र प्रतिमा को बावड़ी में डालकर अपमान किया था।
उत्तर –क्योंकि किसी पूर्व भव में उसने रानी कनकोदरी की पर्याय में सौत की ईष्र्या के कारण जिनेन्द्र प्रतिमा को बावड़ी में डालकर अपमान किया था।
प्रश्न ३३५ -सती चन्दना की बेड़ियाँ कैसे कटी थीं ?
उत्तर –तीर्थंकर महावीर को आहार देने की उत्कृष्ट भावना से उनका पड़गाहन करते ही चन्दना की बेड़ियाँ टूट गईं, उसके मुंडे हुए सिर पर केश आ गये एवं उसका कोदों का भात शालिधान्य बन गया था।
उत्तर –तीर्थंकर महावीर को आहार देने की उत्कृष्ट भावना से उनका पड़गाहन करते ही चन्दना की बेड़ियाँ टूट गईं, उसके मुंडे हुए सिर पर केश आ गये एवं उसका कोदों का भात शालिधान्य बन गया था।
प्रश्न ३३६ -किस सती के प्रभाव से काला नाग पुष्पहार बन गया था ?
उत्तर –सती सोमा के रात्रि भोजन के प्रभाव से उसको मारने की इच्छा से सास के व्दारा घड़े में रखा गया नाग भी सोमा के छूने पर पुष्पहार बन गया था।
उत्तर –सती सोमा के रात्रि भोजन के प्रभाव से उसको मारने की इच्छा से सास के व्दारा घड़े में रखा गया नाग भी सोमा के छूने पर पुष्पहार बन गया था।
प्रश्न ३३७ -मुनि के गले में मरा हुआ सर्प किस राजा ने डाला था ?
उत्तर –राजा श्रेणिक ने।
उत्तर –राजा श्रेणिक ने।
प्रश्न ३३८ -मुनि ने अपने गले से सर्प निकालकर क्यों नहीं फैका ?
उत्तर –क्योंकि वे भावलिंगी सच्चे मुनि थे जो कि उपसर्गों से विचलित नहीं होते थे।
उत्तर –क्योंकि वे भावलिंगी सच्चे मुनि थे जो कि उपसर्गों से विचलित नहीं होते थे।
प्रश्न ३३९ -पुन: उनका उपसर्ग किसने दूर किया था ?
उत्तर –रानी चेलना ने राजा श्रेणिक के साथ जाकर मुनि के गले में पड़ा हुआ सर्प निकालकर उनका उपसर्ग दूर किया था।
उत्तर –रानी चेलना ने राजा श्रेणिक के साथ जाकर मुनि के गले में पड़ा हुआ सर्प निकालकर उनका उपसर्ग दूर किया था।
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