प्रश्न-४२५ प्राण क्या है?
उत्तर-४२५ जिसके सद्भाव से जीव में जीवितपने का और वियोग होने पर मरणपने का व्यवहार है उसको प्राण कहते हैं।
प्रश्न-४२६ प्राण के कितने भेद हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-४२६ प्राण के दस भेद हैं-स्पर्शन आदि पाँच इंद्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और स्वासोच्छ्वास ये दस प्राण हैं।
उत्तर-४२६ प्राण के दस भेद हैं-स्पर्शन आदि पाँच इंद्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और स्वासोच्छ्वास ये दस प्राण हैं।
प्रश्न-४२७ एकेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४२७ एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इंद्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास ये चार प्राण होते हैं।
प्रश्न-४२८ दो इंद्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४२८ दो इंद्रिय जीव के रसना इंद्रिय और वचनबल के बढ़ जाने से छह प्राण हो जाते हैं।
उत्तर-४२८ दो इंद्रिय जीव के रसना इंद्रिय और वचनबल के बढ़ जाने से छह प्राण हो जाते हैं।
प्रश्न-४२९ तीन इंद्रिय और चार इंद्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४२९ तीन इंद्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, घ्रास ये तीन इंद्रिय, वचनबल, कायबल, आयु और स्वासोच्छ्वास ये सात प्राण और चार इंद्रिय जीव इन सात प्राणों के अतिरिक्त एक चक्षु इंद्रिय बढ़ जाती है।
उत्तर-४२९ तीन इंद्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, घ्रास ये तीन इंद्रिय, वचनबल, कायबल, आयु और स्वासोच्छ्वास ये सात प्राण और चार इंद्रिय जीव इन सात प्राणों के अतिरिक्त एक चक्षु इंद्रिय बढ़ जाती है।
प्रश्न-४३० असैनी पंचेन्द्रिय और सैनी पंचेन्द्रिय के कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४३० असैनी पंचेन्द्रिय के ऊपर लिखे आठ प्राणों के अतिरिक्त एक कर्णेन्द्रिय बढ़कर ९ प्राण व सैनी पंचेन्द्रिय जीव के मनोबल के भी बढ़ जाने से दस प्राण होते हैं।
उत्तर-४३० असैनी पंचेन्द्रिय के ऊपर लिखे आठ प्राणों के अतिरिक्त एक कर्णेन्द्रिय बढ़कर ९ प्राण व सैनी पंचेन्द्रिय जीव के मनोबल के भी बढ़ जाने से दस प्राण होते हैं।
प्रश्न-४३१ किस गति में कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-४३१ तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीव होते हैं अत: चार प्राण से लेकर दसों प्राण तक होते हैं। देव, नारकी और मनुष्यों में दसों प्राण होते हैं।
उत्तर-४३१ तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीव होते हैं अत: चार प्राण से लेकर दसों प्राण तक होते हैं। देव, नारकी और मनुष्यों में दसों प्राण होते हैं।
प्रश्न-४३२ संज्ञा किसे कहते हैं?
उत्तर-४३२ जिनसे संक्लेशित होकर और जिनके विषय का सेवन करके यह जीव दोनों जन्म में दु:ख उठाता है, उसे संज्ञा कहते हैं।
उत्तर-४३२ जिनसे संक्लेशित होकर और जिनके विषय का सेवन करके यह जीव दोनों जन्म में दु:ख उठाता है, उसे संज्ञा कहते हैं।
प्रश्न-४३३ संज्ञा के कितने भेद हैं?
उत्तर-४३३ संज्ञा के चार भेद हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह।
उत्तर-४३३ संज्ञा के चार भेद हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह।
प्रश्न-४३४ आहार संज्ञा किसे कहते हैं?
उत्तर-४३४ असाता वेदनीय के तीव्र उदय से या उदीरणा होने से इस जीव का जो भोजन की वांछा होती है वह आहार संज्ञा है।
उत्तर-४३४ असाता वेदनीय के तीव्र उदय से या उदीरणा होने से इस जीव का जो भोजन की वांछा होती है वह आहार संज्ञा है।
प्रश्न-४३५ भय संज्ञा का लक्षण बताओ?
उत्तर-४३५ भयकर्म का तीव्र उदय या उदीरणा होने से जीव को जो भाग जाने, छिपने आदि की इच्छा होती है वह भय संज्ञा है।
उत्तर-४३५ भयकर्म का तीव्र उदय या उदीरणा होने से जीव को जो भाग जाने, छिपने आदि की इच्छा होती है वह भय संज्ञा है।
प्रश्न-४३६ मैथुन संज्ञा की परिभाषा बताओ?
उत्तर-४३६ वदे कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा आदि से तथा विट पुरुषों की संगति आदि से जो कामसेवन की इच्छा होती है वह मैथुन संज्ञा है।
उत्तर-४३६ वदे कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा आदि से तथा विट पुरुषों की संगति आदि से जो कामसेवन की इच्छा होती है वह मैथुन संज्ञा है।
प्रश्न-४३७ परिग्रह संज्ञा का लक्षण बताओ?
उत्तर-४३७ लोभ कर्म के तीव्र उदय या उदीरणा से वस्त्र, स्त्री, धन, धान्य आदि परिग्रह को ग्रहण करने की व उनके अर्जन आदि की इच्छा है या उनमें जो ममत्व परिणाम है वह परिग्रह संज्ञा है।
उत्तर-४३७ लोभ कर्म के तीव्र उदय या उदीरणा से वस्त्र, स्त्री, धन, धान्य आदि परिग्रह को ग्रहण करने की व उनके अर्जन आदि की इच्छा है या उनमें जो ममत्व परिणाम है वह परिग्रह संज्ञा है।
प्रश्न-४३८ क्या एकेन्द्रिय जीवों में ये चारों संज्ञाएँ हैं, अगर हैं तो कैसे?
उत्तर-४३८ हाँ, एकेन्द्रिय जीवों में ये चारों संज्ञाएँ हैं जैसे वृक्ष में भोजन की इच्छा है यदि खाद, पानी, हवा आदि न मिले तो वे सूख जाते हैं अर्थात् मर जाते हैं। भय भी है, लाजवंती का झाड़ छूते ही सिकुड़ जाता है। यदि वृक्ष की जड़ के पास धन गाड़ दिया जावे तो जड़ उसी तरफ को फैल जाती है।
उत्तर-४३८ हाँ, एकेन्द्रिय जीवों में ये चारों संज्ञाएँ हैं जैसे वृक्ष में भोजन की इच्छा है यदि खाद, पानी, हवा आदि न मिले तो वे सूख जाते हैं अर्थात् मर जाते हैं। भय भी है, लाजवंती का झाड़ छूते ही सिकुड़ जाता है। यदि वृक्ष की जड़ के पास धन गाड़ दिया जावे तो जड़ उसी तरफ को फैल जाती है।
प्रश्न-४३९ क्या हम इन संज्ञाओं को नष्ट कर सकते हैं?
उत्तर-४३९ हाँ, हम इन संज्ञाओं को नष्ट कर महापुरुष भगवान भी बन सकते हैं मात्र जरूरी है तो इन सबसे विरक्ति होने की।
उत्तर-४३९ हाँ, हम इन संज्ञाओं को नष्ट कर महापुरुष भगवान भी बन सकते हैं मात्र जरूरी है तो इन सबसे विरक्ति होने की।
प्रश्न-४४० पर्याप्ति किसे कहते हैं?
उत्तर-४४० जब यह जीव एक शरीर को छोड़कर (मरकर) दूसरे शरीर को ग्रहण करता है उस समय ग्रहण किये गये शरीर आदि के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को शरीर या इंद्रिय आदि खप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति कहते हैं।
उत्तर-४४० जब यह जीव एक शरीर को छोड़कर (मरकर) दूसरे शरीर को ग्रहण करता है उस समय ग्रहण किये गये शरीर आदि के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को शरीर या इंद्रिय आदि खप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति कहते हैं।
प्रश्न-४४१ पर्याप्ति के कितने भेद हैं?
उत्तर-४४१ पर्याप्ति के छ: भेद हैं-आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन।
उत्तर-४४१ पर्याप्ति के छ: भेद हैं-आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन।
प्रश्न-४४२ एकेन्द्रिय जीव के कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं?
उत्तर-४४२ एकेन्द्रिय जीव के प्रारंभ की चार पर्याप्तियाँ होती हैं।
उत्तर-४४२ एकेन्द्रिय जीव के प्रारंभ की चार पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न-४४३ विकलत्रय, असैनी पंचेन्द्रिय तथा सैनी पंचेन्द्रिय के कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं?
उत्तर-४४३ विकलत्रय व असैनी पंचेन्द्रिय की पाँच और सैनी पंचेन्द्रिय की छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।
उत्तर-४४३ विकलत्रय व असैनी पंचेन्द्रिय की पाँच और सैनी पंचेन्द्रिय की छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रश्न-४४४ पर्याप्तियों को पूर्ण होने में कितना समय लगता है?
उत्तर-४४४ सभी पर्याप्तियों को पूर्ण होने में अन्तमुहूर्त-४८ मिनट लगता है।
उत्तर-४४४ सभी पर्याप्तियों को पूर्ण होने में अन्तमुहूर्त-४८ मिनट लगता है।
प्रश्न-४४५ माता के गर्भ में छहों पर्याप्तियाँ कितने मिनथ् में पूर्ण होती हैं?
उत्तर-४४५ मनुष्यों की माता के गर्भ में जल के बुलबुले के समान शरीर में आते ही ४८ मिनट के भीतर ही भीतर ये छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं।
प्रश्न-४४६ अपर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं?
उत्तर-४४६ जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं और मर जाते हैं उनका शरीर पूरा ही नहीं बन पाता है वह अपर्याप्तक जीव हैं।
उत्तर-४४६ जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं और मर जाते हैं उनका शरीर पूरा ही नहीं बन पाता है वह अपर्याप्तक जीव हैं।
प्रश्न-४४७ दोइंद्रिय जीव के कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं?
उत्तर-४४७ दो इंद्रिय जीव के पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं, मन नहीं होता।
उत्तर-४४७ दो इंद्रिय जीव के पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं, मन नहीं होता।
प्रश्न-४४८ मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर-४४८ जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीवों को अन्वेषण (खोज) किया जाय, उनको ही मार्गणा कहते हैं।
उत्तर-४४८ जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीवों को अन्वेषण (खोज) किया जाय, उनको ही मार्गणा कहते हैं।
प्रश्न-४४९ ये कैसे होती हैं?
उत्तर-४४९ ये अपने-अपने कर्म के उदय से होती हैं।
उत्तर-४४९ ये अपने-अपने कर्म के उदय से होती हैं।
प्रश्न-४५० मार्गणाएँ कितनी होती हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-४५० मार्गणाएँ चौदह होती हैं उनके नाम हैं-गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार।
उत्तर-४५० मार्गणाएँ चौदह होती हैं उनके नाम हैं-गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार।
प्रश्न-४५१ गति मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर-४५१ चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं उसके चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति।
उत्तर-४५१ चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं उसके चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति।
प्रश्न-४५२ इंद्रिय मार्गणा वा काय मार्गणा का लक्षण बताओ?
उत्तर-४५२ जो इंद्र के समान हो अथवा आत्मा के लिंग को इंद्रिय कहते हैं। इसके ५ भेद हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से होन वाली आत्मा की पर्याय को काय कहते हैं इसके ६ भेद हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,
उत्तर-४५२ जो इंद्र के समान हो अथवा आत्मा के लिंग को इंद्रिय कहते हैं। इसके ५ भेद हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से होन वाली आत्मा की पर्याय को काय कहते हैं इसके ६ भेद हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,
वनस्पति ओर त्रसकाय।
प्रश्न-४५३ योग किसे कहते हैं योग के १४ भेदों के नाम बताओ?
उत्तर-४५३ शरीर नाम कर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव को जो कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं उसके १४ भेद निम्न हैं-सत्य, असत्य, उभय और अनुभय ये चार मनोयोग, इन्हीं सत्यादि के चार वचनयोग, औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण ये सात काययोग।
उत्तर-४५३ शरीर नाम कर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव को जो कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं उसके १४ भेद निम्न हैं-सत्य, असत्य, उभय और अनुभय ये चार मनोयोग, इन्हीं सत्यादि के चार वचनयोग, औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण ये सात काययोग।
प्रश्न-४५४ वेद मार्गणा किसे कहते हैं वेद के भेदों को बताते हुए द्रव्यवेद व भाववेद का लक्षण बताओ?
उत्तर-४५४ वेद नामक नोकषाय के उदय से उत्पन्न हुई जीव के मैथुन की अभिलाषा को भाव वेद कहते हैं और नामकर्म के उदय से अविर्भूत जीव के चिन्ह विशेष को द्रव्यवेद कहते हैं। वेद के ३ भेद हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद।
उत्तर-४५४ वेद नामक नोकषाय के उदय से उत्पन्न हुई जीव के मैथुन की अभिलाषा को भाव वेद कहते हैं और नामकर्म के उदय से अविर्भूत जीव के चिन्ह विशेष को द्रव्यवेद कहते हैं। वेद के ३ भेद हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद।
प्रश्न-४५५ कषाय मार्गणा का लक्षण बताते हुए उसके १६ भेद बताओ?
उत्तर-४५५ जो आत्मा के सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र रूप परिणामों को कषे-घाते, उसको कषाय कहते हैं उसके १६ भेद हैं-अनंतानुबंधी, क्रोध, मान, माया, लोभ। अप्रत्याख्यानादि क्रोध, मान, माया, लोभ। प्रत्ख्यानादि क्रोध, मान, माया, लोभ।
उत्तर-४५५ जो आत्मा के सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र रूप परिणामों को कषे-घाते, उसको कषाय कहते हैं उसके १६ भेद हैं-अनंतानुबंधी, क्रोध, मान, माया, लोभ। अप्रत्याख्यानादि क्रोध, मान, माया, लोभ। प्रत्ख्यानादि क्रोध, मान, माया, लोभ।
प्रश्न-४५६ ज्ञान मार्गणा का लक्षण बताओ?
उत्तर-४५६ जो त्रिकाल विषयक समस्त पदार्थों को जाने वह ज्ञान है अथवा आत्मा को जानने का गुण ज्ञान गुण है उसके ८ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल तथा कुमति, कुश्रुत, कुअवधि।
उत्तर-४५६ जो त्रिकाल विषयक समस्त पदार्थों को जाने वह ज्ञान है अथवा आत्मा को जानने का गुण ज्ञान गुण है उसके ८ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल तथा कुमति, कुश्रुत, कुअवधि।
प्रश्न-४५७ संयम और दर्शन लेश्या की परिभाषा लिखो? इनके भेद बताओ?
उत्तर-४५७ व्रत धारण, समिति पालन, कषायनिग्रह, योगों का त्याग और इंद्रिय विजय को संयम कहते हैं। उसके ६ भेद है-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय और यथाख्यात ये ५ संयम तथा देशसंयम और असंयम। सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के केवल सामन्य अंश को ग्रहण करने वाला दर्शन है उसके चार भेद हैं-चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन और केवलदर्शन।
उत्तर-४५७ व्रत धारण, समिति पालन, कषायनिग्रह, योगों का त्याग और इंद्रिय विजय को संयम कहते हैं। उसके ६ भेद है-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय और यथाख्यात ये ५ संयम तथा देशसंयम और असंयम। सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के केवल सामन्य अंश को ग्रहण करने वाला दर्शन है उसके चार भेद हैं-चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन और केवलदर्शन।
प्रश्न-४५८ लेश्या मार्गणा का लक्षण बताते हुए उनके छ: भेदों को बताओ साथ ही यह भी बताओ कि उनमें से कौन शुभ और कौन अशुभ?
उत्तर-४५८ कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं इनके छ: भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म व शुक्ल। इनमें प्रारंभ की ३ अशुभ और शेष ३ शुभ हैं।
उत्तर-४५८ कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं इनके छ: भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म व शुक्ल। इनमें प्रारंभ की ३ अशुभ और शेष ३ शुभ हैं।
प्रश्न-४५९ भेद मार्गणा का लक्षण बताते हुए उनके भेदों का भी लक्षण लिखो?
उत्तर-४५९ जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य है उसे भव्य कहते हैं भव्य मार्गणा के २ भेद हैं-भव्य और अभव्य। जिनकी सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों, उन्हें भव्य कहते हैं जो इन दोनों से अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति की योग्यता से रहित हों वह अभव्य हैं।
उत्तर-४५९ जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य है उसे भव्य कहते हैं भव्य मार्गणा के २ भेद हैं-भव्य और अभव्य। जिनकी सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों, उन्हें भव्य कहते हैं जो इन दोनों से अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति की योग्यता से रहित हों वह अभव्य हैं।
प्रश्न-४६० सम्यक्त्व मार्गणा का लक्षण व भेद बताओ?
उत्तर-४६० निेन्द्र देव द्वारा कथित छह द्रव्यादि का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है इस मार्गणा के छ: भेद हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सासादन और मिथ्यात्व।
उत्तर-४६० निेन्द्र देव द्वारा कथित छह द्रव्यादि का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है इस मार्गणा के छ: भेद हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सासादन और मिथ्यात्व।
प्रश्न-४६१ संज्ञा और आहार मार्गणा की परिभाषा लिखो?
उत्तर-४६१ नो इंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या उससे उत्पन्न ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा जिसके हो उसको संज्ञी कहते हैं इस मार्गणा के दो भेद कहे हैं-संज्ञी व असंज्ञी। औदारिक आदि शरीर और पर्याप्ति के योग्य पुद्गलों के आहार ग्रहण करने को आहार कहते हैं इस मार्गणा के आहार और अनाहार ऐसे दो भेद हैं।
उत्तर-४६१ नो इंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या उससे उत्पन्न ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा जिसके हो उसको संज्ञी कहते हैं इस मार्गणा के दो भेद कहे हैं-संज्ञी व असंज्ञी। औदारिक आदि शरीर और पर्याप्ति के योग्य पुद्गलों के आहार ग्रहण करने को आहार कहते हैं इस मार्गणा के आहार और अनाहार ऐसे दो भेद हैं।
प्रश्न-४६२ चौदह मार्गणाओं के उत्तर भेद कितने हैं?
उत्तर-४६२ चौदह मार्गणाओं के उत्तर भेद ६ हैं।
उत्तर-४६२ चौदह मार्गणाओं के उत्तर भेद ६ हैं।
प्रश्न-४६३ तुम्हारे कितनी मार्गणाएँ हैं?
उत्तर-४६३ हमारे १४ मार्गणएँ हैं।
उत्तर-४६३ हमारे १४ मार्गणएँ हैं।
प्रश्न-४६४ गुणस्थान किसे कहते हैं? गुणस्थान के भेद बताओ?
उत्तर-४६४ दर्शन मोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम आदि अवस्था के होने पर जीव के जो परिणाम होते हैं, उन परिणामों को गुणस्थान कहते हैं। इनके १४ भेद हैं—१. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत, ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसांपराय, ११. उपशांतमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली जिन और १४. अयोगकेवली जिन।
उत्तर-४६४ दर्शन मोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम आदि अवस्था के होने पर जीव के जो परिणाम होते हैं, उन परिणामों को गुणस्थान कहते हैं। इनके १४ भेद हैं—१. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत, ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसांपराय, ११. उपशांतमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली जिन और १४. अयोगकेवली जिन।
प्रश्न ४६५ ये किनके निमित्त से होते हैं?
उत्तर-४६५ ये गुणस्थान योग और मोह के निमित्त से होते हैं।
उत्तर-४६५ ये गुणस्थान योग और मोह के निमित्त से होते हैं।
प्रश्न-४६६ मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं? क्या मिथ्यादृष्टि जीव सच्चा धर्म अच्छा लगता है?
उत्तर-४६६ मिथ्यात्त्व प्रकृति के उदय से होने वाले तत्त्वार्थ के अश्रद्धान को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव को कभी सच्चा धर्म अच्छा नहीं लगता।
उत्तर-४६६ मिथ्यात्त्व प्रकृति के उदय से होने वाले तत्त्वार्थ के अश्रद्धान को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव को कभी सच्चा धर्म अच्छा नहीं लगता।
प्रश्न-४६७ सासादन गुणस्थान का लक्षण बताओ?
उत्तर-४६७ उपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त कल में जब कम एक समय या अधिक से अधिक छ: आवली प्रामण काल शेष रहे उतने काल में अनंतानुबंधी क्रोधादि चार कषाय में से किसी एक का उदय आ जाने से सम्यक्त्व की विराधना हो जाने पर सासादन गुणस्थान होता है।
उत्तर-४६७ उपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त कल में जब कम एक समय या अधिक से अधिक छ: आवली प्रामण काल शेष रहे उतने काल में अनंतानुबंधी क्रोधादि चार कषाय में से किसी एक का उदय आ जाने से सम्यक्त्व की विराधना हो जाने पर सासादन गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४६८ मिश्र गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४६८ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्व रूप परिणाम न होकर जो मिश्ररूप परिणाम होता है उसे मिश्र गुणस्थान कहते हैं।
उत्तर-४६८ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्व रूप परिणाम न होकर जो मिश्ररूप परिणाम होता है उसे मिश्र गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न-४६९ सम्यक्त्व के कितने भेद हैं उसकी परिभाषा लिखो?
उत्तर-४६९ दर्शनमोहनीय और अनंतानुबंधी कषाय के उपशम आदि के होने पर जीव को तो तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप परिणाम होता है वह सम्यक्त्व के ३ भेद हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व।
उत्तर-४६९ दर्शनमोहनीय और अनंतानुबंधी कषाय के उपशम आदि के होने पर जीव को तो तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप परिणाम होता है वह सम्यक्त्व के ३ भेद हैं-उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व।
प्रश्न-४७० ये तीनों सम्यक्त्व किस प्रकार के होते हैं?
उत्तर-४७० दर्शन मोहनीय की ३ और अनंतानुबंधी की चार ऐसी सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम और क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यक्त्व होता है।
प्रश्न-४७१ अविरत सम्यग्दृष्टि किसे कहते हैं?
उत्तर-४७१ इस गुणस्थान वाला जीव जिनेन्द्र कथित प्रवचन का श्रद्धान है तथा इंद्रियों के विषय आदि से विरत नहीं हुआ है इसलिए सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
उत्तर-४७१ इस गुणस्थान वाला जीव जिनेन्द्र कथित प्रवचन का श्रद्धान है तथा इंद्रियों के विषय आदि से विरत नहीं हुआ है इसलिए सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
प्रश्न-४७२ देशविरत गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४७२ सम्यग्दृष्टि अणुव्रत आदि एक देशव्रत रूप परिणाम को देशविरतगुणस्थान कहते हैं। देशव्रती जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से महाव्रत रूप पूर्ण संयम नहीं होता है।
उत्तर-४७२ सम्यग्दृष्टि अणुव्रत आदि एक देशव्रत रूप परिणाम को देशविरतगुणस्थान कहते हैं। देशव्रती जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से महाव्रत रूप पूर्ण संयम नहीं होता है।
प्रश्न-४७३ प्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४७३ प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सकल संयम रूप मुनिव्रत तो हो चुके हैं किन्तु संज्वलन कषाय और नोकषाय के उदय से संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है अत: इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं।
उत्तर-४७३ प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सकल संयम रूप मुनिव्रत तो हो चुके हैं किन्तु संज्वलन कषाय और नोकषाय के उदय से संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है अत: इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं।
प्रश्न-४७४ अप्रमत्तविरत गुणस्थान का लक्षण बताओ?
उत्तर-४७४ संज्वलन कषाय और नोकषाय का मन्द उदय होने से संयमी मुनि के प्रमादरहित संयमभाव होता है तब यह अप्रमत्तविरत गुणस्थान होता है।
उत्तर-४७४ संज्वलन कषाय और नोकषाय का मन्द उदय होने से संयमी मुनि के प्रमादरहित संयमभाव होता है तब यह अप्रमत्तविरत गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४७५ इसके कितने भेद हैं उनकी परिभाषा लिखो?
उत्तर-४७५ इसके दो भेद हैं—स्रवस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमतत। जब मुनि शरीर और आत्मा के भेद विज्ञान में तथा ध्यान में लीन रहते हैं तब स्वस्थान अप्रमत्त होता है और जब श्रेणी के सम्मुख होते हुए ध्यान में प्रथम अध:प्रवृतकरण रूप परिणाम होता है तब सातिशय अप्रमत्त होता है।
उत्तर-४७५ इसके दो भेद हैं—स्रवस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमतत। जब मुनि शरीर और आत्मा के भेद विज्ञान में तथा ध्यान में लीन रहते हैं तब स्वस्थान अप्रमत्त होता है और जब श्रेणी के सम्मुख होते हुए ध्यान में प्रथम अध:प्रवृतकरण रूप परिणाम होता है तब सातिशय अप्रमत्त होता है।
प्रश्न-४७६ स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त में से आज कौन से परिणाम वाले मुनि हैं?
उत्तर-४७६ आजकल पंचमकाल में स्वस्थान अप्रमत्त मुनि हो सकते हैं सातिशय अप्रमत्त परिणाम वाले नहीं हो सकते हैं।
उत्तर-४७६ आजकल पंचमकाल में स्वस्थान अप्रमत्त मुनि हो सकते हैं सातिशय अप्रमत्त परिणाम वाले नहीं हो सकते हैं।
प्रश्न-४७७ अपूर्वकरण गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४७७ जिस समय भावों की विशुद्धि से उत्तरोत्तर अपूर्व परिणाम होते जायें अर्थात् भिन्न समयवर्ती मुनि के परिणाम विसदृश
ही हों, उसको अपूर्वकरण कहते हैं।
प्रश्न-४७८ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान किसे कहते हैं?
उत्तर-४७८ जिस गुणस्थान में एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणाम सदृश ही हों और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश ही हों, उसको अनिवृत्तिकरण कहते हैं।
उत्तर-४७८ जिस गुणस्थान में एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणाम सदृश ही हों और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश ही हों, उसको अनिवृत्तिकरण कहते हैं।
प्रश्न-४७९ सूक्ष्मसांपराय व उपशांतमोह गुणस्थान का लक्षण बताओ?
उत्तर-४७९ अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त लोभ कषाय के उदय को अनुभव करते हुए जीव के सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान होता है और सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम होने से अत्यंत निर्मल यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले मुनि के उपशांतमोह गुणस्थान होता है।
उत्तर-४७९ अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त लोभ कषाय के उदय को अनुभव करते हुए जीव के सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान होता है और सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम होने से अत्यंत निर्मल यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले मुनि के उपशांतमोह गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८० क्षीणकषाय गुणस्थान किसे होता है?
उत्तर-४८० मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे जल के सदृश निर्मल परिणाम वाले निग्रंथ मुनि को ही क्षीणकषाय नामक गुणस्थान होता है।
उत्तर-४८० मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे जल के सदृश निर्मल परिणाम वाले निग्रंथ मुनि को ही क्षीणकषाय नामक गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८१ सयोगकेवली जिन व अयोगकेवली जिन कौन कहलाते हैं?
उत्तर-४८१ घातिया कर्म की ४७, अघातिया कर्मों की १६ इस तरह ६३ प्रकृतियों के सर्वथा नाश हो जाने से केवलज्ञान प्रकट हो जाता है उस समय अनंत चतुष्टय और नवकेवल लब्धि प्रगट हो जाती है किन्तु योग पाया जाता हे इसलिए वे अरिहंत परमात्मा सयोगकेवली जिन कहलाते हैं तथा सम्पूर्ण योगों से रहित केवली भगवान अघाति कर्मों का अभाव कर मुक्त होने के सम्मुख हुए अयोगकेवली जिन कहलाते हैं। इस गुणस्थान में अरिहंत भगवान शेष ८४ प्रकृतियों को नष्ट करके सर्व कर्मरहित सिद्ध हो जाते हैं और एक समय में लोक के शिखर पर पहुँच जाते हैं।
उत्तर-४८१ घातिया कर्म की ४७, अघातिया कर्मों की १६ इस तरह ६३ प्रकृतियों के सर्वथा नाश हो जाने से केवलज्ञान प्रकट हो जाता है उस समय अनंत चतुष्टय और नवकेवल लब्धि प्रगट हो जाती है किन्तु योग पाया जाता हे इसलिए वे अरिहंत परमात्मा सयोगकेवली जिन कहलाते हैं तथा सम्पूर्ण योगों से रहित केवली भगवान अघाति कर्मों का अभाव कर मुक्त होने के सम्मुख हुए अयोगकेवली जिन कहलाते हैं। इस गुणस्थान में अरिहंत भगवान शेष ८४ प्रकृतियों को नष्ट करके सर्व कर्मरहित सिद्ध हो जाते हैं और एक समय में लोक के शिखर पर पहुँच जाते हैं।
प्रश्न-४८२ सम्यग्दृष्टि श्रावक का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८२ सम्यग्दृष्टि श्रावक का चौथा गुणस्थान होता है।
उत्तर-४८२ सम्यग्दृष्टि श्रावक का चौथा गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८३ व्रतियों का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८३ व्रतियों का पंचम गुणस्थान होता है।
उत्तर-४८३ व्रतियों का पंचम गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८४ मुनियों का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८४ मुनियों का छठां-सातवां गुणस्थान होता है।
उत्तर-४८४ मुनियों का छठां-सातवां गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८५ आर्यिकाओं का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८५ आर्यिकाओं का पाँचवा गुणस्थान होता है।
उत्तर-४८५ आर्यिकाओं का पाँचवा गुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८६ क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं का कौन सा गुणस्थान होता है?
उत्तर-४८६ क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं का भी पंचमगुणस्थान होता है।
उत्तर-४८६ क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं का भी पंचमगुणस्थान होता है।
प्रश्न-४८७ श्रेणी किसे कहते हैं?
उत्तर-४८७ जिन परिणामों से चारित्र मोहनीय की शेष २१ प्रकृतियों का क्रम से उपशम या क्षय किया जाता है उन परिणामों को श्रेणी कहते हैं।
उत्तर-४८७ जिन परिणामों से चारित्र मोहनीय की शेष २१ प्रकृतियों का क्रम से उपशम या क्षय किया जाता है उन परिणामों को श्रेणी कहते हैं।
प्रश्न-४८८ श्रेणी के कितने भेद हैं? उसको परिभाषित करो?
उत्तर-४८८ श्रेणी के दो भेद हैं-उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी। जहाँ मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम किया जाय वह उपशम श्रेणी है और जहाँ क्षय किया जाय वह क्षपक श्रेणी है।
उत्तर-४८८ श्रेणी के दो भेद हैं-उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी। जहाँ मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम किया जाय वह उपशम श्रेणी है और जहाँ क्षय किया जाय वह क्षपक श्रेणी है।
प्रश्न-४८९ उपशम श्रेणी किस गुणस्थान में होती है?
उत्तर-४८९ आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक उपशम श्रेणी होती है।
उत्तर-४८९ आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक उपशम श्रेणी होती है।
प्रश्न-४९० किस श्रेणी वाला जीव गिरता है?
उत्तर-४९० उपशम श्रेणी वाला जीव नियम से नीचे गिरता है।
उत्तर-४९० उपशम श्रेणी वाला जीव नियम से नीचे गिरता है।
प्रश्न-४९१ क्षपक श्रेणी के कौन-कौन से गुणस्थान हैं?
उत्तर-४९१ आठवें, नवें, दसवें और बारहवें गुणस्थान में क्षपक श्रेणी होती है।
उत्तर-४९१ आठवें, नवें, दसवें और बारहवें गुणस्थान में क्षपक श्रेणी होती है।
प्रश्न-४९२ क्षपक श्रेणी वाला जीव क्यों नहीं गिरता है?
उत्तर-४९२ इसमें चढ़ने वाला जीव नियम से घातिया कर्मों का नाशकर केवली भगवान हो जाता है।
उत्तर-४९२ इसमें चढ़ने वाला जीव नियम से घातिया कर्मों का नाशकर केवली भगवान हो जाता है।
प्रश्न-४९३ जीव समास किसे कहते हैं उनके भेद बताओ?
उत्तर-४९३ जिनके द्वारा अनेक जीव संग्रह किये जाऐं उन्हें जीव समास कहते हैं। जीव समास के १४ भेद हैं-एकेन्द्रिय के बादर और सूक्ष्म ऐसे दो भेद, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के सैनी-असैनी ऐसे दो भेद, इस प्रकार सात भेद हो जाते हैं इन्हें पर्याप्त अपर्याप्त ऐसे दो गुणा करने पर जीव समास के १४ भेद हो जाते हैं।
उत्तर-४९३ जिनके द्वारा अनेक जीव संग्रह किये जाऐं उन्हें जीव समास कहते हैं। जीव समास के १४ भेद हैं-एकेन्द्रिय के बादर और सूक्ष्म ऐसे दो भेद, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के सैनी-असैनी ऐसे दो भेद, इस प्रकार सात भेद हो जाते हैं इन्हें पर्याप्त अपर्याप्त ऐसे दो गुणा करने पर जीव समास के १४ भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-४९४ इन भेदों में से किनमें बादर और किनमें सूक्ष्म जीव पाये जाते हैं?
उत्तर-४९४ एकेन्द्रिय के पृथ्वी आदि पाँचों भेदों में बादर और सूक्ष्म भेद पाये जाते हैं, बाकी के सभी त्रस जीव बादर ही होते हैं।
उत्तर-४९४ एकेन्द्रिय के पृथ्वी आदि पाँचों भेदों में बादर और सूक्ष्म भेद पाये जाते हैं, बाकी के सभी त्रस जीव बादर ही होते हैं।
प्रश्न-४९५ किस कर्म के उदय से बादर जीव होते हैं?
उत्तर-४९५ बादर नामकर्म के उदय से बादर जीव होते हैं।
उत्तर-४९५ बादर नामकर्म के उदय से बादर जीव होते हैं।
प्रश्न-४९६ बादर किसे कहते हैं?
उत्तर-४९६ जो शरीर दूसरे को रोकने वाला हो अथवा जो स्वयं दूसरे से रूके, उसको बादर कहते हैं। दिखने वाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये सब बादर जीव के शरीर है। दिखने वाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये सब बादर जीव के शरीर हैं।
उत्तर-४९६ जो शरीर दूसरे को रोकने वाला हो अथवा जो स्वयं दूसरे से रूके, उसको बादर कहते हैं। दिखने वाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये सब बादर जीव के शरीर है। दिखने वाले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये सब बादर जीव के शरीर हैं।
प्रश्न-४९७ सूक्ष्म जीव किस कर्म के उदय से होते हैं?
उत्तर-४९७ सूक्ष्म नामकर्म के उदय से सूक्ष्म जीव होते हैं।
उत्तर-४९७ सूक्ष्म नामकर्म के उदय से सूक्ष्म जीव होते हैं।
प्रश्न-४९८ सूक्ष्म जीव के लक्षण बताओ?
उत्तर-४९८ जो शरीर दूसरे को न तो रोके और न स्वयं से रूके उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं।
उत्तर-४९८ जो शरीर दूसरे को न तो रोके और न स्वयं से रूके उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं।
प्रश्न-४९९ सूक्ष्म जीव कहाँ रहते हैं?
उत्तर-४९९ सूक्ष्म जीव तीन लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं जैसे कि तिल में तेल भरा हुआ है। सूक्ष्म जीव सर्वत्र निराधार हैं।
उत्तर-४९९ सूक्ष्म जीव तीन लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं जैसे कि तिल में तेल भरा हुआ है। सूक्ष्म जीव सर्वत्र निराधार हैं।
प्रश्न-५०० योनि किसे कहते हैं? उसके भेद बताओ?
उत्तर-५०० जन्म लेने के आधार स्थान को योनि कहते हैं उसके दो भेद होते हैं-१. आकारयोनि २. गुणयोनि।
उत्तर-५०० जन्म लेने के आधार स्थान को योनि कहते हैं उसके दो भेद होते हैं-१. आकारयोनि २. गुणयोनि।
प्रश्न-५०१ शंखावर्त, कूर्मोन्नत व वंशपत्र योनि किसे कहते हैं?
उत्तर-५०१ शंखावर्त योनि में गर्भ नहीं रहता है। जिससे तीर्थंकर आदि महापुरुष जन्म लेते हैं वह कर्मोन्नत योनि योनि है और साधारण पुरुष जिससे जन्म लें वह वंशपत्र योनि कहलाती है।
उत्तर-५०१ शंखावर्त योनि में गर्भ नहीं रहता है। जिससे तीर्थंकर आदि महापुरुष जन्म लेते हैं वह कर्मोन्नत योनि योनि है और साधारण पुरुष जिससे जन्म लें वह वंशपत्र योनि कहलाती है।
प्रश्न-५०२ गुणयोनि के कितने भेद हैं?
उत्तर-५०२ गुणयोनि के नौ भेद हैं-सचित्र, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्र, शीतोष्ण व संवृत-विवृत। गुणयोनि के विस्तार से चौरासी लाख भेद भी होते हैं।
उत्तर-५०२ गुणयोनि के नौ भेद हैं-सचित्र, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्र, शीतोष्ण व संवृत-विवृत। गुणयोनि के विस्तार से चौरासी लाख भेद भी होते हैं।
प्रश्न-५०३ तुम्हारा जन्म किस योनि से हुआ है?
उत्तर-५०३ हमारा जन्म वंशपत्र योनि से हुआ है।
उत्तर-५०३ हमारा जन्म वंशपत्र योनि से हुआ है।
प्रश्न-५०४ चौरासी लाख योनियों के भेद गिनाओ?
उत्तर-५०४ नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनमें से प्रत्येक की सात-सात लाख, प्रत्येक वनस्पति की १० लाख, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय इनमें से प्रत्येक की २-२ लाख। देव, नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय इनमें से प्रत्येक की चार-चार लाख और मनुष्य की १४ लाख। ऐसे सब मिलाकर ८४ लाख योनियाँ होती हैं।
उत्तर-५०४ नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनमें से प्रत्येक की सात-सात लाख, प्रत्येक वनस्पति की १० लाख, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय इनमें से प्रत्येक की २-२ लाख। देव, नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय इनमें से प्रत्येक की चार-चार लाख और मनुष्य की १४ लाख। ऐसे सब मिलाकर ८४ लाख योनियाँ होती हैं।
प्रश्न-५०५ जन्म किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५०५ एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करना जन्म कहलाता है, जन्म के तीन भेद हैं-सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद।
उत्तर-५०५ एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करना जन्म कहलाता है, जन्म के तीन भेद हैं-सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद।
प्रश्न-५०६ सम्मूच्र्छन जन्म किसे कहते हैं?
उत्तर-५०६ माता-पिता के रजवीर्य के बिना ही शरीर योग्य पुद्गल परमाणुओं द्वारा शरीर की रचना हो जाता सम्मूर्छन जन्म है।
उत्तर-५०६ माता-पिता के रजवीर्य के बिना ही शरीर योग्य पुद्गल परमाणुओं द्वारा शरीर की रचना हो जाता सम्मूर्छन जन्म है।
प्रश्न-५०७ गर्भ जन्म का लक्षण बताओ?
उत्तर-५०७ माता के गर्भ में रज और वीर्य के मिलने से जो शरीर की रचना होती है उसे गर्भ जन्म कहते हैं।
उत्तर-५०७ माता के गर्भ में रज और वीर्य के मिलने से जो शरीर की रचना होती है उसे गर्भ जन्म कहते हैं।
प्रश्न-५०८ उपपाद जन्म किसे कहते हैं?
उत्तर-५०८ माता-पिता से रजोवीर्य के बिना ही निश्चिय स्थान पर पुद्गल परमाणुओं से शरीर बन जाना उपपाद जन्म है।
उत्तर-५०८ माता-पिता से रजोवीर्य के बिना ही निश्चिय स्थान पर पुद्गल परमाणुओं से शरीर बन जाना उपपाद जन्म है।
प्रश्न-५०९ किन जीवों के कौन सा जन्म होता है?
उत्तर-५०९ देव और नारकी के उपपाद जन्म होता है। एकेन्द्रिय से लेकर चार इंद्रिय तक जीव सम्मूर्छन ही होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के कुछ सम्मूर्छन होते हैं, कुछ गर्भ जन्म वाले होते हैं। मनुष्य गर्भजन्म वाले होते हैं किन्तु लब्धपर्याप्तक मनुष्य होते हैं, वे दिखते नहीं हैं।
उत्तर-५०९ देव और नारकी के उपपाद जन्म होता है। एकेन्द्रिय से लेकर चार इंद्रिय तक जीव सम्मूर्छन ही होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के कुछ सम्मूर्छन होते हैं, कुछ गर्भ जन्म वाले होते हैं। मनुष्य गर्भजन्म वाले होते हैं किन्तु लब्धपर्याप्तक मनुष्य होते हैं, वे दिखते नहीं हैं।
प्रश्न-५१० गर्भ जन्म के कितने भेद हैं?
उत्तर-५१० गर्भ जन्म के तीन भेद हैं—जरायुज, अण्डज और पोतज।
उत्तर-५१० गर्भ जन्म के तीन भेद हैं—जरायुज, अण्डज और पोतज।
प्रश्न-५११ जरायुज किसे कहते हैं?
उत्तर-५११ जन्म के समय शरीर पर रुधिर तथा मांस की खोल सी लिपटी रहती है उसे जरायु या जेर कहते हैं। उससे जो भी उत्पन्न होते हैं वे जरायुज हैं जैसे-गाय, भैंस, मनुष्य आदि।
उत्तर-५११ जन्म के समय शरीर पर रुधिर तथा मांस की खोल सी लिपटी रहती है उसे जरायु या जेर कहते हैं। उससे जो भी उत्पन्न होते हैं वे जरायुज हैं जैसे-गाय, भैंस, मनुष्य आदि।
प्रश्न-५१२ अण्डज और पोतज में क्या अंतर है?
उत्तर-५१२ जो जीव अण्डे से उत्पन्न हों वह अण्डज हैं जैसे—कबूतर, चिड़ियाँ आदि और पैदा होते समय जिनके शरीर पर कोई आवरण नहीं रहता है जो जन्मते ही चलने-फिरने लगते हैं वे पोत जन्म वाले हैं। जैसे-हरिण, सिंह आदि।
उत्तर-५१२ जो जीव अण्डे से उत्पन्न हों वह अण्डज हैं जैसे—कबूतर, चिड़ियाँ आदि और पैदा होते समय जिनके शरीर पर कोई आवरण नहीं रहता है जो जन्मते ही चलने-फिरने लगते हैं वे पोत जन्म वाले हैं। जैसे-हरिण, सिंह आदि।
प्रश्न-५१३ तुम्हारा कौन सा जन्म है?
उत्तर-५१३ हमारा जन्म जरायुज है।
उत्तर-५१३ हमारा जन्म जरायुज है।
प्रश्न-५१४ अवगाहना किसे कहते हैं?
उत्तर-५१४ शरीर की ऊँचाई को अवगाहना कहते हैं।
उत्तर-५१४ शरीर की ऊँचाई को अवगाहना कहते हैं।
प्रश्न-५१५ पंचेन्द्रियों में से किन्हीं एक-एक की अवगाहना बताओ?
उत्तर-५१५ एकेन्द्रिय में कमल की कुछ अधिक एक हजार योजन, द्वीन्द्रिय में शंख की बाहर योजन, तीन इंद्रिय में चींटी की तीन कोश, चार इंद्रिय में भ्रमर की एक योजन और पंचेन्द्रिय में महामत्स्य के शरीर की अवगाहना एक हजार धनुष होती है।
उत्तर-५१५ एकेन्द्रिय में कमल की कुछ अधिक एक हजार योजन, द्वीन्द्रिय में शंख की बाहर योजन, तीन इंद्रिय में चींटी की तीन कोश, चार इंद्रिय में भ्रमर की एक योजन और पंचेन्द्रिय में महामत्स्य के शरीर की अवगाहना एक हजार धनुष होती है।
प्रश्न-५१६ सबसे उत्कृष्ट अवगाहना किसकी है?
उत्तर-५१६ सबसे उत्कृष्ट अवगाहना महामत्स्य की है।
उत्तर-५१६ सबसे उत्कृष्ट अवगाहना महामत्स्य की है।
प्रश्न-५१७ मनुष्यों की सबसे बड़ी अवगाहना व सबसे छोटी अवगाहना कितनी है?
उत्तर-५१७ मनुष्यों की सबसे बड़ी अवगाहना सवा पाँच सौ धनुष की और सबसे छोटी एक हाथ की होती है।
उत्तर-५१७ मनुष्यों की सबसे बड़ी अवगाहना सवा पाँच सौ धनुष की और सबसे छोटी एक हाथ की होती है।
प्रश्न-५१८ एक योजन में कितने मील व एक धनुष में कितने हाथ होते हैं?
उत्तर-५१८ एक योजन में आइ मील एवं एक धनुष में चार हाथ होते हैं।
उत्तर-५१८ एक योजन में आइ मील एवं एक धनुष में चार हाथ होते हैं।
प्रश्न-५१९ पाँचों इंद्रियों के जीवों की जघन्य अवगाहना कितनी है?
उत्तर-५१९ पाँचों इंद्रियों के जीवों की जघन्य अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होती है।
उत्तर-५१९ पाँचों इंद्रियों के जीवों की जघन्य अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होती है।
प्रश्न-५२० शंख आदि जीवों की सबसे बड़ी अवगाहना कहाँ है?
उत्तर-५२० शंख आदि जीवों की सबसे बड़ी अवगाहना इस जम्बूद्वीप से असंख्यात द्वीप समुद्रों के बाद होने वाले अंतिम स्वयभूरमण द्वीप और समुद्र के जीवों में होती है।
उत्तर-५२० शंख आदि जीवों की सबसे बड़ी अवगाहना इस जम्बूद्वीप से असंख्यात द्वीप समुद्रों के बाद होने वाले अंतिम स्वयभूरमण द्वीप और समुद्र के जीवों में होती है।
प्रश्न-५२१ मनुष्य का सबसे बड़ा और सबसे छोटा शरीर किस काल में होता है?
उत्तर-५२१ मनुष्य का सबसे बड़ा शरीर चतुर्थ काल के आदि में और सबसे छोटा शरीर छठे काल में होता है।
उत्तर-५२१ मनुष्य का सबसे बड़ा शरीर चतुर्थ काल के आदि में और सबसे छोटा शरीर छठे काल में होता है।
प्रश्न-५२२ प्रमाण किसे कहते हैं?
उत्तर-५२२ ‘सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्’ सच्चे ज्ञान को प्रमाण कहते हैं अथवा जो वस्तु के सर्वदेश को जानता है उस ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।
उत्तर-५२२ ‘सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्’ सच्चे ज्ञान को प्रमाण कहते हैं अथवा जो वस्तु के सर्वदेश को जानता है उस ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।
प्रश्न-५२३ ज्ञान के कितने भेद हैं?
उत्तर-५२३ ज्ञान के ५ भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान।
उत्तर-५२३ ज्ञान के ५ भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान।
प्रश्न-५२४ इनमें से कितने ज्ञान परोक्ष व कितने प्रत्यक्ष हैं?
उत्तर-५२४ इनमें से मति, श्रुत ज्ञान परोक्ष व बाकी के तीन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
उत्तर-५२४ इनमें से मति, श्रुत ज्ञान परोक्ष व बाकी के तीन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
प्रश्न-५२५ कौन से ज्ञान विकल प्रत्यक्ष और कौन से सकल प्रत्यक्ष हैं?
उत्तर-५२५ इनमें से अवधि, मन:पर्यय विकल प्रत्यक्ष है तथा केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।
उत्तर-५२५ इनमें से अवधि, मन:पर्यय विकल प्रत्यक्ष है तथा केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।
प्रश्न-५२६ मति ज्ञान किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५२६ इंद्रिय और मन की सहायता से जो पदार्थों का ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। इसके ४ भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा।
उत्तर-५२६ इंद्रिय और मन की सहायता से जो पदार्थों का ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। इसके ४ भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा।
प्रश्न-५२७ दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-५२७ वस्तु के सत्ता मात्र ग्रहण को दर्शन कहते हैं।
उत्तर-५२७ वस्तु के सत्ता मात्र ग्रहण को दर्शन कहते हैं।
प्रश्न-५२८ अवग्रह व ईहा में क्या अंतर है?
उत्तर-५२८ दर्शन के बाद हुए शुक्ल, कृष्ण आदि विशेष ज्ञान को अवग्रह कहते हैं जैसे नेत्र से सफेद वस्तु को जानना और
उत्तर-५२८ दर्शन के बाद हुए शुक्ल, कृष्ण आदि विशेष ज्ञान को अवग्रह कहते हैं जैसे नेत्र से सफेद वस्तु को जानना और
अवग्रह से ज्ञान पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा ईहा है। जैसे-यह सफेद रूप वाली वस्तु बगुला है या पताका?
प्रश्न-५२९ अवाय और धारणा की परिभाषा लिखो?
उत्तर-५२९ विशेष चिन्हों द्वारा निर्णय हो जाने को अवाय कहते हैं जैसे-पंख फड़फड़ाना आदि से बगुले का निश्चय होना। ज्ञान विषय को कालांतर में नहीं भूलने को धारणा कहते हैं।
उत्तर-५२९ विशेष चिन्हों द्वारा निर्णय हो जाने को अवाय कहते हैं जैसे-पंख फड़फड़ाना आदि से बगुले का निश्चय होना। ज्ञान विषय को कालांतर में नहीं भूलने को धारणा कहते हैं।
प्रश्न-५३० इन चार भेदों की अपेक्षा से मतिज्ञान के कितने भेद हो जाते हैं?
उत्तर-५३० इन चार भेदों की अपेक्षा से मतिज्ञान के ३३६ भेद हो जाते हैं।
उत्तर-५३० इन चार भेदों की अपेक्षा से मतिज्ञान के ३३६ भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-५३१ श्रुतज्ञान किसे कहते हैं इनके मूल भेद कितने हैं?
उत्तर-५३१ मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का जो विशेष रूप से ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यह मतिज्ञान पूर्वक होता है। इसके मूल में दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट।
उत्तर-५३१ मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का जो विशेष रूप से ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यह मतिज्ञान पूर्वक होता है। इसके मूल में दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट।
प्रश्न-५३२ अंगबाह्य व अंगप्रविष्ट के कितने भेद हैं?
उत्तर-५३२ अंगबाह्य के वंदना, सामायिक आदि अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के बाहर भेद हैं—आचारंग, सूत्रकृतांग, स्थानांग,समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंत:कृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये द्वादशांग कहलाते हैं।
उत्तर-५३२ अंगबाह्य के वंदना, सामायिक आदि अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के बाहर भेद हैं—आचारंग, सूत्रकृतांग, स्थानांग,समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंत:कृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये द्वादशांग कहलाते हैं।
प्रश्न-५३३ अवधिज्ञान व मन:पर्यय ज्ञान में भेद बताओे? साथ ही इन दोनों के भेद बताओ?
उत्तर-५३३ मर्यादा लिए हुए रूपी पदार्थ का इंद्रियादि की सहायता बिना जो ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय और भव ही जिसमें निमित्त हो वह भवप्रत्यय है। जो व्रत, नियम आदि से, कर्म के क्षयोपशम से होता है वह गुणप्रत्यय है। काल आदि की मर्यादा लिए हुए परकीय मनोगत रूपी पदार्थ को जो ज्ञान होता है उसे मन:पर्यय कहते हैं। इसके दो भेद हैं-श्रजुमती व विपुलमती।
उत्तर-५३३ मर्यादा लिए हुए रूपी पदार्थ का इंद्रियादि की सहायता बिना जो ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय और भव ही जिसमें निमित्त हो वह भवप्रत्यय है। जो व्रत, नियम आदि से, कर्म के क्षयोपशम से होता है वह गुणप्रत्यय है। काल आदि की मर्यादा लिए हुए परकीय मनोगत रूपी पदार्थ को जो ज्ञान होता है उसे मन:पर्यय कहते हैं। इसके दो भेद हैं-श्रजुमती व विपुलमती।
प्रश्न-५३४ भवप्रत्यय अवधिज्ञान किनको होता है?
उत्तर-५३४ भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकी को होता है।
उत्तर-५३४ भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकी को होता है।
प्रश्न-५३५ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान किनको होता है?
उत्तर-५३५ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंच को होता है।
उत्तर-५३५ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंच को होता है।
प्रश्न-५३६ केवल ज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-५३६ सब द्रव्यों को तथा उसकी सर्वपर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान लोकालोकाप्रकाशी है।
उत्तर-५३६ सब द्रव्यों को तथा उसकी सर्वपर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान लोकालोकाप्रकाशी है।
प्रश्न-५३७ वर्तमान में कितने ज्ञान यहाँ हो सकते हैं?
उत्तर-५३७ वर्तमान में यहाँ मति और श्रुत ये दो ज्ञान हो सकते हैं।
उत्तर-५३७ वर्तमान में यहाँ मति और श्रुत ये दो ज्ञान हो सकते हैं।
प्रश्न-५३८ न्यायग्रंथों में प्रमाण के कितने भेद बताये हैं?
उत्तर-५३८ न्यायग्रंथों में भी प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद किये हैं।
उत्तर-५३८ न्यायग्रंथों में भी प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद किये हैं।
प्रश्न-५३९ उसमें प्रत्यक्ष के व परोक्ष के कितने भेद हैं?
उत्तर-५३९ उसमें प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दो भेद हैं तथा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से मतिज्ञान को लिया है और पारमार्थिक प्रत्यक्ष के विकल-सकल दो भेद करके विकल में अवधि मन:पर्यय को और सकल में केवलज्ञान को लिया है। परोक्ष
प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिधान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पाँच भेद किये हैं। उनमें से आगम प्रमाण में श्रुतज्ञान को लिया है।
प्रश्न-५४० नय किसे कहते हैं? नय के कितने भेद हैं?
उत्तर-५४० वस्तु के एक देश जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं उसमें मूल में तो दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वैसे नय के सात भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत।
उत्तर-५४० वस्तु के एक देश जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं उसमें मूल में तो दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वैसे नय के सात भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत।
प्रश्न-५४१ द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय में क्या अंतर है?
उत्तर-५४१ जो नय द्रव्य को जानता है वह द्रव्यार्थिक है, जो पर्याय को जानता है वह पर्यायार्थिक नय है।
उत्तर-५४१ जो नय द्रव्य को जानता है वह द्रव्यार्थिक है, जो पर्याय को जानता है वह पर्यायार्थिक नय है।
प्रश्न-५४२ अध्यात्मभाषा से नय के भेद व उनके लक्षण बताओ?
उत्तर-५४२ अध्यात्मभाषा से भी नय के २ भेद हैं-निश्चयनय और व्यवहारनय। वस्तु के स्वभाव को कहने वाला निश्चयनय है। कर्म के निमित्त होने वाले औपाधिक भाव को ग्रहण करने वाला व्यवहारनय है।
उत्तर-५४२ अध्यात्मभाषा से भी नय के २ भेद हैं-निश्चयनय और व्यवहारनय। वस्तु के स्वभाव को कहने वाला निश्चयनय है। कर्म के निमित्त होने वाले औपाधिक भाव को ग्रहण करने वाला व्यवहारनय है।
प्रश्न-५४३ निश्चयनय और व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव कैसा है?
उत्तर-५४३ निश्चयनय की अपेक्षा से संसारी जीव भी चैतन्यमय प्राणों वाला है, सकल विमल केवलज्ञान केवलदर्शन रूप है, अमूर्तिक है, अपने ही शुद्ध भावों का कत्र्ता है, आकार सहित, असंख्यात लोकप्रमाण प्रदेश वाला है, अपना अनंतज्ञान सुख आदि गुणों का भोक्ता है, शुद्ध है, सिद्ध है और स्वभाव से उद्र्धगमन करने वाला है। व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव दस प्राणों से जीवित रहने वाला है। मति ज्ञानावरण आदि कर्म क्षयोपशम के अनुसार मति श्रुत आदि क्षयोपशम ज्ञानसहित है, कर्मबंध से सहित होने से मूर्तिक है, ज्ञानावरण आदि पुद्गल द्रव्य कर्मों का कत्र्ता है, नामकर्म के उदय से प्राप्त हुए छोटे या बड़े शरीर में ही रहने वाला है क्योंकि आत्मा के प्रदेशों का संकोच या विस्तार हो जाता है।
उत्तर-५४३ निश्चयनय की अपेक्षा से संसारी जीव भी चैतन्यमय प्राणों वाला है, सकल विमल केवलज्ञान केवलदर्शन रूप है, अमूर्तिक है, अपने ही शुद्ध भावों का कत्र्ता है, आकार सहित, असंख्यात लोकप्रमाण प्रदेश वाला है, अपना अनंतज्ञान सुख आदि गुणों का भोक्ता है, शुद्ध है, सिद्ध है और स्वभाव से उद्र्धगमन करने वाला है। व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव दस प्राणों से जीवित रहने वाला है। मति ज्ञानावरण आदि कर्म क्षयोपशम के अनुसार मति श्रुत आदि क्षयोपशम ज्ञानसहित है, कर्मबंध से सहित होने से मूर्तिक है, ज्ञानावरण आदि पुद्गल द्रव्य कर्मों का कत्र्ता है, नामकर्म के उदय से प्राप्त हुए छोटे या बड़े शरीर में ही रहने वाला है क्योंकि आत्मा के प्रदेशों का संकोच या विस्तार हो जाता है।
प्रश्न-५४४ किसके उदय से जीव भोक्ता है, किसकी प्राप्ति से अशुद्ध है व किसलिए संसारी है?
उत्तर-५४४ कर्म के उदय से प्राप्त सुख-दु:ख को भोक्ता है, गुणस्थान, मार्गणा आदि को प्राप्त होने से अशुद्ध है व संसार में परिभ्रमण करने से संसारी है।
उत्तर-५४४ कर्म के उदय से प्राप्त सुख-दु:ख को भोक्ता है, गुणस्थान, मार्गणा आदि को प्राप्त होने से अशुद्ध है व संसार में परिभ्रमण करने से संसारी है।
प्रश्न-५४५ स्याद्वाद किसे कहते हैं?
उत्तर-५४५ स्याद्-कथंचित् रूप से ‘वाद’-कथन करने वाले को स्याद्वाद कहते हैं। यह सर्वथा एकान्त का त्याग करने वाला और कथंचित् शब्द के अर्थ को कहने वाला है जैसे जीव कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है।
उत्तर-५४५ स्याद्-कथंचित् रूप से ‘वाद’-कथन करने वाले को स्याद्वाद कहते हैं। यह सर्वथा एकान्त का त्याग करने वाला और कथंचित् शब्द के अर्थ को कहने वाला है जैसे जीव कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है।
प्रश्न-५४६ स्याद्वाद किसकी अपेक्षा रखता है?
उत्तर-५४६ स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखता है।
उत्तर-५४६ स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखता है।
प्रश्न-५४७ सप्तभंगी का लक्षण और नाम बताओ?
उत्तर-५४७ प्रश्न के निमित्त से एक ही वस्तु में अविरोध रूप विधि और प्रतिषेध की कल्पना सप्तभंगी है। जैसे-१. स्यात् अस्ति, २. स्यात् नास्ति, ३. स्यात् अस्तिनास्ति, ४. स्यात् अव्यक्तत्य, ५. स्यात् नास्ति अवक्तव्य, ६. स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य।
उत्तर-५४७ प्रश्न के निमित्त से एक ही वस्तु में अविरोध रूप विधि और प्रतिषेध की कल्पना सप्तभंगी है। जैसे-१. स्यात् अस्ति, २. स्यात् नास्ति, ३. स्यात् अस्तिनास्ति, ४. स्यात् अव्यक्तत्य, ५. स्यात् नास्ति अवक्तव्य, ६. स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य।
प्रश्न-५४८ सप्त भंगी को आत्मा में कैसे घटित करेंगे?
उत्तर-५४८ सप्तभंगी को आत्मा मेें इस प्रकार घटित करेंगे-मेरी आत्मा कथंचित्- अपने स्वरूप से अस्तिरूप है। मेरी आत्मा कथंचित् पद अचेतन आदि परस्वरूप से ‘नास्तिरूप’ है। मेरी आत्मा कथंचित् स्वपर स्वरूपादि से एक साथ न कही जा सकने से अवक्तव्य है। मेरी आत्मा कथंचित् स्वरूप से अस्तिरूप और एक साथ दोनों धर्मों को नहीं सकने से ‘अस्तिअव्यक्तव्य’ है। मेरी आत्मा स्वपर स्वरूप से क्रम से कही जाने से और दोनों धर्मों को एक साथ नहीं कहे जा सकने से अस्ति-नास्ति ‘अव्यक्तव्य’ है।
उत्तर-५४८ सप्तभंगी को आत्मा मेें इस प्रकार घटित करेंगे-मेरी आत्मा कथंचित्- अपने स्वरूप से अस्तिरूप है। मेरी आत्मा कथंचित् पद अचेतन आदि परस्वरूप से ‘नास्तिरूप’ है। मेरी आत्मा कथंचित् स्वपर स्वरूपादि से एक साथ न कही जा सकने से अवक्तव्य है। मेरी आत्मा कथंचित् स्वरूप से अस्तिरूप और एक साथ दोनों धर्मों को नहीं सकने से ‘अस्तिअव्यक्तव्य’ है। मेरी आत्मा स्वपर स्वरूप से क्रम से कही जाने से और दोनों धर्मों को एक साथ नहीं कहे जा सकने से अस्ति-नास्ति ‘अव्यक्तव्य’ है।
प्रश्न-५४९ सप्तभंगी कहाँ घटित होते हैं?
उत्तर-५४९ प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक धर्मों में ये सात भंग घटित होते हैं।
उत्तर-५४९ प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक धर्मों में ये सात भंग घटित होते हैं।
प्रश्न-५५० अनेकांत किसे कहते हैं? उदाहरण देकर समझाओ?
उत्तर-५५० प्रत्येक वस्तु में अस्तित्व, नास्तित्व, एक, अनेक भेद, अभेद आदि अनंत धर्म पाये जाते हैं अनेक अंत (धर्म) को कहने
उत्तर-५५० प्रत्येक वस्तु में अस्तित्व, नास्तित्व, एक, अनेक भेद, अभेद आदि अनंत धर्म पाये जाते हैं अनेक अंत (धर्म) को कहने
वाला अनेकांत है। जैसे-जिनदत्त सेठ किसी का पिता हे, किसी का पुत्र है, किसी का चाचा है, किसी का भतीजा है। पिता, पुत्र भाई, भतीजा, चाचा आदि अनेक धर्म उसमें मौजूद हैं। जिसका पिता है, उसी का पुत्र नहीं है किन्तु पुत्र का पिता है और अपने पिता कापुत्र है वैसे ही प्रत्येक वस्तु जिस रूप से अस्तिरूप है उसी रूप से नास्तिरूप नहीं है किन्तु अपने स्वरूप से अस्तिरूप और पररूप से नास्तिरूप है। यह अनेकांत संशय रूप या छल रूप नहीं है वन् अपनी-अपनी अपेक्षा से वस्तु के यथार्थ धर्म को कहने वाला है। यही अनेकांत है।
प्रश्न-५५१ अनेकांत को जैन धर्म के लिए क्या माना है?
उत्तर-५५१ अनेकांत को जैन धर्म का प्राण माना है।
उत्तर-५५१ अनेकांत को जैन धर्म का प्राण माना है।
प्रश्न-५५२ उपयोग के कितने भेद हैं?
उत्तर-५५२ उपयोग के दो भेद हैं-१. ज्ञानोपयोग २. दर्शनोपयोग।
उत्तर-५५२ उपयोग के दो भेद हैं-१. ज्ञानोपयोग २. दर्शनोपयोग।
प्रश्न-५५३ ज्ञानोपयोग के कितने भेद हैं?
उत्तर-५५३ ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यय और केवलज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत व कुअवधि ये तीन अज्ञान।
उत्तर-५५३ ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यय और केवलज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत व कुअवधि ये तीन अज्ञान।
प्रश्न-५५४ दर्शनोपयोग के कितने भेद हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-५५४ दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन व केवल दर्शन।
उत्तर-५५४ दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन व केवल दर्शन।
प्रश्न-५५५ ध्यान किसे कहते हैं?
उत्तर-५५५ किसी एक विषय में चित्त को रोकना ध्यान है।
उत्तर-५५५ किसी एक विषय में चित्त को रोकना ध्यान है।
प्रश्न-५५६ ध्यान के कितने भेद हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-५५६ ध्यान के चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
उत्तर-५५६ ध्यान के चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
प्रश्न-५५७ आर्तध्यान किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५५७ दु:ख में होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं इसके चार भेद हैं-इष्टवियोगज, अनिष्ट संयोगज, पीड़ाजन्य और निदान आर्तध्यान।
उत्तर-५५७ दु:ख में होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं इसके चार भेद हैं-इष्टवियोगज, अनिष्ट संयोगज, पीड़ाजन्य और निदान आर्तध्यान।
प्रश्न-५५८ इष्ट वियोगज आर्तध्यान व अनष्टि संयोगज आर्तध्यान में भेद बताओ?
उत्तर-५५८ इष्ट का वियोग हो जाने पर बार-बार चिंतवन इष्टवियोगज का संयोग हो जाने पर बार-बार उससे दूर होने का सोचना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है।
उत्तर-५५८ इष्ट का वियोग हो जाने पर बार-बार चिंतवन इष्टवियोगज का संयोग हो जाने पर बार-बार उससे दूर होने का सोचना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है।
प्रश्न-५५९ पीड़ाजन्य आर्तध्यान और निदान जन्य आर्तध्यान का लक्षण बताओ?
उत्तर-५५९ शरीर के रोग की पीड़ा होने से बार-बार दूर होने का सोचना पीड़ाजन्य आर्तध्यान है। आगामी काल में सुखों की इच्छा करना ‘इस व्रत के फल से मैं राजा हो जाऊँ’ आदि सोचना निदान आर्तध्यान है।
उत्तर-५५९ शरीर के रोग की पीड़ा होने से बार-बार दूर होने का सोचना पीड़ाजन्य आर्तध्यान है। आगामी काल में सुखों की इच्छा करना ‘इस व्रत के फल से मैं राजा हो जाऊँ’ आदि सोचना निदान आर्तध्यान है।
प्रश्न-५६० रौद्रधर्म किसे कहते हैं उनके भेद बताते हुए उनकी परिभाषा लिखो?
उत्तर-५६० व्रूर परिणामों से होने वाला ध्यान रौद्रध्यान है। इसके चार भेद हैं-हिंसा में आनंद मानना हिंसानंदी रौद्रध्यान है, झूठ बोलने में आनंद मानना मृषानंदी रौद्रध्यान है। चोरी में आनंद मानना चौर्यानंदी रौद्रध्यान है। परिग्रह के अतिसंग्रह में आनंद मानना परिग्रहानंदी रौद्रध्यान है।
उत्तर-५६० व्रूर परिणामों से होने वाला ध्यान रौद्रध्यान है। इसके चार भेद हैं-हिंसा में आनंद मानना हिंसानंदी रौद्रध्यान है, झूठ बोलने में आनंद मानना मृषानंदी रौद्रध्यान है। चोरी में आनंद मानना चौर्यानंदी रौद्रध्यान है। परिग्रह के अतिसंग्रह में आनंद मानना परिग्रहानंदी रौद्रध्यान है।
प्रश्न-५६१ धर्मध्यान किसे कहते हैं?
उत्तर-५६१ धर्म विशिष्ट ध्यान को धर्म ध्यान कहते हैं।
उत्तर-५६१ धर्म विशिष्ट ध्यान को धर्म ध्यान कहते हैं।
प्रश्न-५६२ धर्मध्यान के कितने भेद होते हैं? नाम बताओ?
उत्तर-५६२ धर्मध्यान के भी चार भेद होते हैं—आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय तथा संस्थानविचय धर्मध्यान।
उत्तर-५६२ धर्मध्यान के भी चार भेद होते हैं—आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय तथा संस्थानविचय धर्मध्यान।
प्रश्न-५६३ आज्ञाविचय धर्मध्यान और अपाय विचय धर्मध्यान में क्या अंतर है?
उत्तर-५६३ युक्ति और उदाहरण की गति न होने पर आगम की प्रमाणता से वस्तु के श्रद्धान का विचार करना आज्ञाविचय धर्मध्यान और संसार में भटकते हुए जीव कैसे मोक्षमार्ग में लगें या कैसे भी हों, मैं इन्हें मोक्षमार्ग में लगा दूँ ऐसा चिंतवन करना अपायविचय धर्मध्यान है।
उत्तर-५६३ युक्ति और उदाहरण की गति न होने पर आगम की प्रमाणता से वस्तु के श्रद्धान का विचार करना आज्ञाविचय धर्मध्यान और संसार में भटकते हुए जीव कैसे मोक्षमार्ग में लगें या कैसे भी हों, मैं इन्हें मोक्षमार्ग में लगा दूँ ऐसा चिंतवन करना अपायविचय धर्मध्यान है।
प्रश्न-५६४ विपाक विचय धर्मध्यान का लक्षण बताओ?
उत्तर-५६४ कर्मों के उदय से सुख दु:ख होता है इत्यादि चिंतवन करना विपाक विचय धर्मध्यान है।
उत्तर-५६४ कर्मों के उदय से सुख दु:ख होता है इत्यादि चिंतवन करना विपाक विचय धर्मध्यान है।
प्रश्न-५६५ संस्थानविचय धर्मध्यान का लक्षण व भेद बताओ?
उत्तर-५६५ लोक के आकार का विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है इसके चार भेद हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत।
उत्तर-५६५ लोक के आकार का विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है इसके चार भेद हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत।
प्रश्न-५६६ ध्यान के चार विकल्प कौन से हैं?
उत्तर-५६६ ध्यान के चार विकल्प हैं-ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल।
उत्तर-५६६ ध्यान के चार विकल्प हैं-ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल।
प्रश्न-५६७ शुक्ल ध्यान किसे कहते हैं, उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५६७ शुद्ध ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं इसके भी चार भेद हैं—१. पृथक्त्ववितर्क, २. एकत्ववितर्क, ३.सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, ४. व्युपरक्रियानिवृत्ति।
उत्तर-५६७ शुद्ध ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं इसके भी चार भेद हैं—१. पृथक्त्ववितर्क, २. एकत्ववितर्क, ३.सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, ४. व्युपरक्रियानिवृत्ति।
प्रश्न-५६८ कौन से शुक्लध्यान मुनियों को व कौन से केवली भगवान को होते हैं?
उत्तर-५६८ इनमें से पहले के दो शुक्लध्यान श्रेणी में चढ़ने वाले मुनियों को होते हैं और शेष दो शुक्ल ध्यान केवली भगवान के होते हैं।
उत्तर-५६८ इनमें से पहले के दो शुक्लध्यान श्रेणी में चढ़ने वाले मुनियों को होते हैं और शेष दो शुक्ल ध्यान केवली भगवान के होते हैं।
प्रश्न-५६९ जीव का लक्षण क्या है उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५६९ जीव का लक्षण है चेतना। इसके दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन।
उत्तर-५६९ जीव का लक्षण है चेतना। इसके दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन।
प्रश्न-५७० आत्मा का स्वभाव क्या है तथा इस आत्मा में कौन से गुण भरे हैं?
उत्तर-५७० आत्मा का स्वभाव जानना और देखना है तथा इस आत्मा में अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य आदि गुण भरे हुए हैं।
उत्तर-५७० आत्मा का स्वभाव जानना और देखना है तथा इस आत्मा में अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य आदि गुण भरे हुए हैं।
प्रश्न-५७१ क्या आत्मा के जन्म, मरण इत्यादि होेते हैं?
उत्तर-५७१ नही, आत्मा के जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग, शोक कुछ भी नहीं है।
उत्तर-५७१ नही, आत्मा के जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग, शोक कुछ भी नहीं है।
प्रश्न-५७२ क्या आत्मा में कोई वेद है?
उत्तर-५७२ नहीं, आत्मा में स्त्री पुरुष, नपुंसक आदि कोई वेद नहीं है।
उत्तर-५७२ नहीं, आत्मा में स्त्री पुरुष, नपुंसक आदि कोई वेद नहीं है।
प्रश्न-५७३ क्या आत्मा की कोई गति है?
उत्तर-५७३ नहीं, आत्मा की मनुष्य, देव आदि कोई गति नहीं है।
उत्तर-५७३ नहीं, आत्मा की मनुष्य, देव आदि कोई गति नहीं है।
प्रश्न-५७४ आत्मा कहाँ विराजमान है?
उत्तर-५७४ देहरूपी देवालय में यह भगवान आत्मा विराजमान है।
उत्तर-५७४ देहरूपी देवालय में यह भगवान आत्मा विराजमान है।
प्रश्न-५७५ शरीर का क्या लक्षण है?
उत्तर-५७५ यह शरीर अत्यंत अपवित्र सात धातु और उपधातु से बना हुआ है। नष्ट होने वाला है, अचेतन है, ज्ञान-दर्शन से शून्य है, जन्म-मरण से युक्त है तथा स्त्री पुरुषादि अवस्थायें, मनुष्य आदि शरीर धारण करता है जो कि पुद्गल की पर्यायें हैं।
उत्तर-५७५ यह शरीर अत्यंत अपवित्र सात धातु और उपधातु से बना हुआ है। नष्ट होने वाला है, अचेतन है, ज्ञान-दर्शन से शून्य है, जन्म-मरण से युक्त है तथा स्त्री पुरुषादि अवस्थायें, मनुष्य आदि शरीर धारण करता है जो कि पुद्गल की पर्यायें हैं।
प्रश्न-५७६ शरीर से ममता कैसे घटती है?
उत्तर-५७६ जब यह जीव दृढ़ श्रद्धान करके बार-बार अपने स्वरूप का विचार करता है तब शरीर से उसकी ममता घटती जाती है और वह चारित्र धारण कर कठिन से कठिन तपश्चरण करके कर्मों का नाशकर पूर्ण सुखी हो जाता है।
उत्तर-५७६ जब यह जीव दृढ़ श्रद्धान करके बार-बार अपने स्वरूप का विचार करता है तब शरीर से उसकी ममता घटती जाती है और वह चारित्र धारण कर कठिन से कठिन तपश्चरण करके कर्मों का नाशकर पूर्ण सुखी हो जाता है।
प्रश्न-५७७ जब देहरूपी देवालय में यह आत्मा भगवान रूप में है फिर तपश्चरण की क्या जरूरत है?
उत्तर-५७७ जैसे दूध में घी है यह विश्वासकर दही बिलोकर मक्खन निकालकर तपाकर उसका घी निकाला जाता है ऐसे ही प्रत्येक जीव के शरीर में भगवान आत्मा शक्ति रूप से मौजूद है जिसे सम्यक् चारित्र और तप के द्वारा उस आत्मा में लगे हुए कर्मों को हटाकर आत्मा के अनंत गुणों को प्रकट कर परमात्मा बनाया जाता है।
उत्तर-५७७ जैसे दूध में घी है यह विश्वासकर दही बिलोकर मक्खन निकालकर तपाकर उसका घी निकाला जाता है ऐसे ही प्रत्येक जीव के शरीर में भगवान आत्मा शक्ति रूप से मौजूद है जिसे सम्यक् चारित्र और तप के द्वारा उस आत्मा में लगे हुए कर्मों को हटाकर आत्मा के अनंत गुणों को प्रकट कर परमात्मा बनाया जाता है।
प्रश्न-५७८ संसारी अवस्था में आत्मा को परमात्मा मानने वाले को हम क्या संज्ञा दे सकते हैं?
उत्तर-५७८ संसारी अवस्था में आत्मा को परमात्मा मानने वाले को हम मिथ्यादृष्टि की संज्ञा में लेते हैं।
उत्तर-५७८ संसारी अवस्था में आत्मा को परमात्मा मानने वाले को हम मिथ्यादृष्टि की संज्ञा में लेते हैं।
प्रश्न-५७९ क्या व्यवहार नय झूठा है?
उत्तर-५७९ निश्चय नय जब व्यवहारनय की अपेक्षा करता है तब वह सच्चा है और व्यवहारनय जब निश्चयनय की अपेक्षा करता है तब वह सच्चा है अन्यथा एक नय के हठ को पकड़ने से जीव मिथ्यादृष्टि बन जाते हैं।
उत्तर-५७९ निश्चय नय जब व्यवहारनय की अपेक्षा करता है तब वह सच्चा है और व्यवहारनय जब निश्चयनय की अपेक्षा करता है तब वह सच्चा है अन्यथा एक नय के हठ को पकड़ने से जीव मिथ्यादृष्टि बन जाते हैं।
प्रश्न-५८० संसार किसे कहते हैं?
उत्तर-५८० ‘‘चतुर्गतौ संसरणं संसार:’’ चतुर्गति में संसरण करना-परिभ्रमण करना इसका नाम संसार है।
उत्तर-५८० ‘‘चतुर्गतौ संसरणं संसार:’’ चतुर्गति में संसरण करना-परिभ्रमण करना इसका नाम संसार है।
प्रश्न-५८१ संसारी किसे कहते हैं?
उत्तर-५८१ ‘संसार एशां सन्ति ते संसारिण:’ यह संसार जिन जीवों के पाया जाता है वे संसारी कहलाते हैं।
उत्तर-५८१ ‘संसार एशां सन्ति ते संसारिण:’ यह संसार जिन जीवों के पाया जाता है वे संसारी कहलाते हैं।
प्रश्न-५८२ संसार के कितने भेद हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-५८२ संसार के पाँच भेद हैं उनके नाम हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। इन्हें परिवर्तन भी कहते हैं।
उत्तर-५८२ संसार के पाँच भेद हैं उनके नाम हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। इन्हें परिवर्तन भी कहते हैं।
प्रश्न-५८३ द्रव्य संसार के दो भेद कौन से हैं?
उत्तर-५८३ द्रव्य संसार के दो भेद हैं-१. कर्म द्रव्य परिवर्तन। २. नोकर्म द्रव्य परिवर्तन।
प्रश्न-५८४ कर्मद्रव्य परिवर्तन के कौन-कौन से कारण हैं इनमें प्रधान कारण कौन से हैं?
उत्तर-५८४ कर्म द्रव्य परिवर्तन के पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इनमें मिथ्यात्व और कषाय प्रधान हैं।
उत्तर-५८४ कर्म द्रव्य परिवर्तन के पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इनमें मिथ्यात्व और कषाय प्रधान हैं।
प्रश्न-५८५ क्षेत्र परिवर्तन की परिभाषा वे भेद बताओ?
उत्तर-५८५ लोकाकाश के ३४३ राजुओं में सभी जीव उनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके है। क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद हैं-स्वक्षेत्र परिवर्तन, परक्षेत्र परिवर्तन।
उत्तर-५८५ लोकाकाश के ३४३ राजुओं में सभी जीव उनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके है। क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद हैं-स्वक्षेत्र परिवर्तन, परक्षेत्र परिवर्तन।
प्रश्न-५८६ हमारे साथ कौन-कौन से परिवर्तन लगे हैं?
उत्तर-५८६ हमारे साथ ये पाँचों ही परिवर्तन लगे हुए हैं।
उत्तर-५८६ हमारे साथ ये पाँचों ही परिवर्तन लगे हुए हैं।
प्रश्न-५८७ क्या यह पंचपरावर्तन समाप्त हो सकता है? यदि हाँ तो कैसे?
उत्तर-५८७ जब इस जीव को सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है तब पंचपरावर्तन समाप्त हो जाता है।
उत्तर-५८७ जब इस जीव को सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है तब पंचपरावर्तन समाप्त हो जाता है।
प्रश्न-५८८ सम्यग्दृष्टि जीव यदि सम्यक्त्व से च्युत होकर अधिक से अधिक संसार में भ्रमण करे तो कब तक करेगा?
उत्तर-५८८ सम्यग्दृष्टि जीव यदि सम्यक्त्व से च्युत होकर अधिक से अधिक संसार में भ्रमण करे तो वह अर्ध पुद्गल परावर्तन मात्र काल तक भ्रमण करता है।
उत्तर-५८८ सम्यग्दृष्टि जीव यदि सम्यक्त्व से च्युत होकर अधिक से अधिक संसार में भ्रमण करे तो वह अर्ध पुद्गल परावर्तन मात्र काल तक भ्रमण करता है।
प्रश्न-५८९ अनुयोग कितने होते हैं, उनके नाम बताओ?
उत्तर-५८९ अनुयोग चार होते हैं उनके नाम हैं-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग।
उत्तर-५८९ अनुयोग चार होते हैं उनके नाम हैं-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग।
प्रश्न-५९० चार अनुयोगों में हमें पहले कौन से अनुयाग का ग्रंथ पढ़ना चाहिये?
उत्तर-५९० चार अनुयोगों में हमें पहले पहले प्रथमानुयोग नामक अनुयोग के ग्रंथ पढ़ना चाहिये।
उत्तर-५९० चार अनुयोगों में हमें पहले पहले प्रथमानुयोग नामक अनुयोग के ग्रंथ पढ़ना चाहिये।
प्रश्न-५९१ प्रथमानुयोग का लक्षण बताओ?
उत्तर-५९१ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को, किसी एक महापुरुष के चरित को, त्रेसठ शलाका पुरुषों के पुराण को कहता है, पुण्य रूप है, रत्नत्रय मय बोधि और समाधि का खजाना है, उस समीचीन ज्ञान को प्रथमानुयोग कहते हैं।
उत्तर-५९१ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को, किसी एक महापुरुष के चरित को, त्रेसठ शलाका पुरुषों के पुराण को कहता है, पुण्य रूप है, रत्नत्रय मय बोधि और समाधि का खजाना है, उस समीचीन ज्ञान को प्रथमानुयोग कहते हैं।
प्रश्न-५९२ करणानुयोग की परिभाषा बताओ?
उत्तर-५९२ जो लोक-अलोक के विभाग को, छह काल के परिवर्तन को, चारों गतियों के परिभ्रमण को और संसार के पाँच परिवर्तन को कहता है। तीन लोक का सम्पूर्ण चित्र दर्पण के समान झलकता है, उस शास्त्र को करणानुयोग कहते हैं।
उत्तर-५९२ जो लोक-अलोक के विभाग को, छह काल के परिवर्तन को, चारों गतियों के परिभ्रमण को और संसार के पाँच परिवर्तन को कहता है। तीन लोक का सम्पूर्ण चित्र दर्पण के समान झलकता है, उस शास्त्र को करणानुयोग कहते हैं।
प्रश्न-५९३ चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग में क्या अंतर है?
उत्तर-५९३ जो श्रावक और मुनि के आचरण रूप चारित्र का वर्णन करता है, उनके चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के साधनों को बतलाता है वह चरणानुयोग शास्त्र है यही मोक्षमहल में चढ़ने वालों का चरण रखने के लिए सीढ़ी के समान है तथा जीव-अजीव तत्त्वों को, पुण्य-पाप को, आस्रव, संवर, बंध और मोक्ष इन सभी तत्त्वों को सही-सही समझता है वह दीपक के समान द्रव्यों को प्रकट दिखलाने वाला द्रव्यानुयोग है।
उत्तर-५९३ जो श्रावक और मुनि के आचरण रूप चारित्र का वर्णन करता है, उनके चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के साधनों को बतलाता है वह चरणानुयोग शास्त्र है यही मोक्षमहल में चढ़ने वालों का चरण रखने के लिए सीढ़ी के समान है तथा जीव-अजीव तत्त्वों को, पुण्य-पाप को, आस्रव, संवर, बंध और मोक्ष इन सभी तत्त्वों को सही-सही समझता है वह दीपक के समान द्रव्यों को प्रकट दिखलाने वाला द्रव्यानुयोग है।
प्रश्न-५९४ पाप किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-५९४ अशुभ कर्मों का करना पाप कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह।
उत्तर-५९४ अशुभ कर्मों का करना पाप कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह।
प्रश्न-५९५ हिंसा किसे कहते हैं?
उत्तर-५९५ प्रमाद से अपने या दूसरों के प्राणों का घात करने को हिंसा कहते हैं।
उत्तर-५९५ प्रमाद से अपने या दूसरों के प्राणों का घात करने को हिंसा कहते हैं।
प्रश्न-५९६ इस पाप के करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-५९६ इस पाप के करने वाले हिंसक, निर्दयी व हत्यारे कहलाते हैं।
उत्तर-५९६ इस पाप के करने वाले हिंसक, निर्दयी व हत्यारे कहलाते हैं।
प्रश्न-५९७ हिंसा नामक पाप में कौन प्रसिद्ध हुआ है?
उत्तर-५९७ हिंसा नामक पाप में राजा यशोधर प्रसिद्ध हुआ।
उत्तर-५९७ हिंसा नामक पाप में राजा यशोधर प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-५९८ उसने क्या किया था?
उत्तर-५९८ उसने शांति के लिए अपनी माता की प्ररेणा से आटे का मुर्गा बनाकर चंडमारी देवी के समक्ष बलि चढ़ई।
प्रश्न-५९९ इसका उन्हें क्या फल मिला?
उत्तर-५९९ इस संकल्पी हिंसा के पाप से वे पुत्र व माता मरकर मयूर-कुत्ता, मगर-सांप, मत्स्य-मगर, बकरा-बकरी, बकरा और भैंसा, मुर्गा-मुर्गी इन छ: भवों में गये पुन: छठें भव में मरते समय णमोकार मंत्र श्रवण कर राजा यशोमति की रानी से युगलिया पुत्र हुए। बाल्यकाल में वैराग्य होने से दीक्षा ले क्षुल्लक-क्षुल्लिका बन गये। एक समय जल्लाद के द्वारा बलि के लिए ले जाने पर क्षुल्लक द्वारा पूर्व भव सुनाने पर राजा अहिंसक हो गया।
उत्तर-५९९ इस संकल्पी हिंसा के पाप से वे पुत्र व माता मरकर मयूर-कुत्ता, मगर-सांप, मत्स्य-मगर, बकरा-बकरी, बकरा और भैंसा, मुर्गा-मुर्गी इन छ: भवों में गये पुन: छठें भव में मरते समय णमोकार मंत्र श्रवण कर राजा यशोमति की रानी से युगलिया पुत्र हुए। बाल्यकाल में वैराग्य होने से दीक्षा ले क्षुल्लक-क्षुल्लिका बन गये। एक समय जल्लाद के द्वारा बलि के लिए ले जाने पर क्षुल्लक द्वारा पूर्व भव सुनाने पर राजा अहिंसक हो गया।
प्रश्न-६०० झूठ किसे कहते हैं? इस पाप को करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६०० जिस बात को, जिस चीज को जैसा देखा या सुना हो वैसा न कहना झूठ है तथा जिन वचनों से धर्म, धर्मात्मा या किसी भी प्राणी का घात हो जावे ऐसे सत्य वचन भी झूठ कहलाते हैं। इस पाप को करने वाले झूठे व दगाबाज कहलाते हैं।
उत्तर-६०० जिस बात को, जिस चीज को जैसा देखा या सुना हो वैसा न कहना झूठ है तथा जिन वचनों से धर्म, धर्मात्मा या किसी भी प्राणी का घात हो जावे ऐसे सत्य वचन भी झूठ कहलाते हैं। इस पाप को करने वाले झूठे व दगाबाज कहलाते हैं।
प्रश्न-६०१ हिंसा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-६०१ हिंसा चार प्रकार की होती है-संकल्पी, आरम्भी, विरोधी और उद्यमी।
उत्तर-६०१ हिंसा चार प्रकार की होती है-संकल्पी, आरम्भी, विरोधी और उद्यमी।
प्रश्न-६०२ श्रावक के लिए कौन सी हिंसा छोड़ना आवश्यक है?
उत्तर-६०२ श्रावक के लिए संकल्पी हिंसा छोड़ना आवश्यक है।
उत्तर-६०२ श्रावक के लिए संकल्पी हिंसा छोड़ना आवश्यक है।
प्रश्न-६०३ द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा किसे कहते हैं?
उत्तर-६०३ द्रव्य हिंसा ‘किसी प्राणी का घात कर दिया जाए’ वह है और भाव हिंसा वह है कि जो मात्र मन में किसी जीव को मारने की भावना कर ले।
उत्तर-६०३ द्रव्य हिंसा ‘किसी प्राणी का घात कर दिया जाए’ वह है और भाव हिंसा वह है कि जो मात्र मन में किसी जीव को मारने की भावना कर ले।
प्रश्न-६०४ पाप का फल कब प्राप्त होता है?
उत्तर-६०४ पाप का फल भव-भवान्तरों तक प्राप्त होता है।
उत्तर-६०४ पाप का फल भव-भवान्तरों तक प्राप्त होता है।
प्रश्न-६०५ झूठ बोलने में प्रसिद्ध राजा का नाम बताते हुए कथा को संक्षेप में लिखो?
उत्तर-६०५ झूठ बोलने में राजा वसु प्रसिद्ध हुए हैं कथा इस प्रकार है-पर्वत, नारद और वसु तीनों एक ही गुरु के पास पढ़े हुए थे। किसी समय पर्वत ने सभा में ‘‘अजैर्यष्टव्यं’’ सूत्र का अर्थ बकरों से होम करना चाहिए, ऐसा कर दिया। उस समय नारद पंडित ने कहा कि गुरुजी ने बताया था कि अज-अर्थात् पुराने धान से होम करना चाहिए। पर्वत नहीं माना। तब वह न्याय के लिए राजा वसु की सभा में गया। राजा ने पर्वत की माता के कहने से पर्वत की बात का समर्थन कर दिया। सबके मना करने पर भी राजा नहीं मान, झूठ बोलता गया। बस! इस पाप से राजा का सिंहासन पृथ्वी में धंस गया और वह मरकर नरक चला गया।
उत्तर-६०५ झूठ बोलने में राजा वसु प्रसिद्ध हुए हैं कथा इस प्रकार है-पर्वत, नारद और वसु तीनों एक ही गुरु के पास पढ़े हुए थे। किसी समय पर्वत ने सभा में ‘‘अजैर्यष्टव्यं’’ सूत्र का अर्थ बकरों से होम करना चाहिए, ऐसा कर दिया। उस समय नारद पंडित ने कहा कि गुरुजी ने बताया था कि अज-अर्थात् पुराने धान से होम करना चाहिए। पर्वत नहीं माना। तब वह न्याय के लिए राजा वसु की सभा में गया। राजा ने पर्वत की माता के कहने से पर्वत की बात का समर्थन कर दिया। सबके मना करने पर भी राजा नहीं मान, झूठ बोलता गया। बस! इस पाप से राजा का सिंहासन पृथ्वी में धंस गया और वह मरकर नरक चला गया।
प्रश्न-६०६ चोरी किसे कहते हैं?
उत्तर-६०६ बिना दिये किसी की गिरी, पड़ी, रखी या भूली हुई वस्तु को ग्रहण करना अथवा उठाकर किसी को दे देना चोरी है।
उत्तर-६०६ बिना दिये किसी की गिरी, पड़ी, रखी या भूली हुई वस्तु को ग्रहण करना अथवा उठाकर किसी को दे देना चोरी है।
प्रश्न-६०७ इस पाप के करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६०७ इस पाप को करने वाले चोर कहलाते हैं।
उत्तर-६०७ इस पाप को करने वाले चोर कहलाते हैं।
प्रश्न-६०८ चोरी करने से क्या फल मिलता है?
उत्तर-६०८ चोरी करने से नरकों के, तिर्यंचों के और मनुष्यों के भी दु:ख भोगने पड़ते हैं।
उत्तर-६०८ चोरी करने से नरकों के, तिर्यंचों के और मनुष्यों के भी दु:ख भोगने पड़ते हैं।
प्रश्न-६०९ कुशील किसे कहते हैं?
उत्तर-६०९ पराई स्त्री के साथ या पर पुरुष के साथ रमने को कुशील की संज्ञा दी गयी है।
उत्तर-६०९ पराई स्त्री के साथ या पर पुरुष के साथ रमने को कुशील की संज्ञा दी गयी है।
प्रश्न-६१० इस पाप को करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६१० इस पाप को करने वाले व्यभिचारी, जार, बदमाश कहलाते हैं तथा लोक में बुरी नजर से देखे जाते हैं।
उत्तर-६१० इस पाप को करने वाले व्यभिचारी, जार, बदमाश कहलाते हैं तथा लोक में बुरी नजर से देखे जाते हैं।
प्रश्न-६११ रावण ने क्या बुरा किया?
उत्तर-६११ रावण ने सीता के रूप पर मुग्ध होकर उसका हरण कर लिया।
उत्तर-६११ रावण ने सीता के रूप पर मुग्ध होकर उसका हरण कर लिया।
प्रश्न-६१२ रावण की मृत्यु कैसे हुई और वह मरकर कहाँ गया?
उत्तर-६१२ युद्ध में राम के भाई लक्ष्मण के द्वारा उसकी मृत्यु हुई और वह मरकर नरक में चला गया।
उत्तर-६१२ युद्ध में राम के भाई लक्ष्मण के द्वारा उसकी मृत्यु हुई और वह मरकर नरक में चला गया।
प्रश्न-६१३ सीता की अग्नि परीक्षा क्यों दी और उसका फल क्या मिला था?
उत्तर-६१३ सीातने अपने शील की रक्षा व सतीत्व हेतु अग्नि परीक्षा दी जिससे अग्नि भी जलमयी सरोवर बन गयी और देवों ने भी आकर जयकार किया।
उत्तर-६१३ सीातने अपने शील की रक्षा व सतीत्व हेतु अग्नि परीक्षा दी जिससे अग्नि भी जलमयी सरोवर बन गयी और देवों ने भी आकर जयकार किया।
प्रश्न-६१४ जो परस्त्री सेवन करते हैं उनको कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-६१४ जो परस्त्री सेवन करते हैं उनको नरक गति अवश्य ही मिलती है।
उत्तर-६१४ जो परस्त्री सेवन करते हैं उनको नरक गति अवश्य ही मिलती है।
प्रश्न-६१५ कोई माता अपने बालक का नाम रावण क्यों नहीं रखती?
उत्तर-६१५ कुशील नामक पाप में बदनाम होने के कारण प्रत्येक माता अपने बालक का नाम रावण नहीं रखना चाहती।
उत्तर-६१५ कुशील नामक पाप में बदनाम होने के कारण प्रत्येक माता अपने बालक का नाम रावण नहीं रखना चाहती।
प्रश्न-६१६ परिग्रह की परिभाषा बताओ?
उत्तर-६१६ जमीन, मकान, धन, धान्य, गाय, बैल इत्यादि से मोह रखना, इन्हीं संसरी चीजों के इकट्ठे करने में लालसा रखना परिग्रह कहलाता है।
उत्तर-६१६ जमीन, मकान, धन, धान्य, गाय, बैल इत्यादि से मोह रखना, इन्हीं संसरी चीजों के इकट्ठे करने में लालसा रखना परिग्रह कहलाता है।
प्रश्न-६१७ इस पाप के करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६१७ इस पाप के करने वाले लोभी, बहुधंधी व कंजूस कहलाते हैं।
उत्तर-६१७ इस पाप के करने वाले लोभी, बहुधंधी व कंजूस कहलाते हैं।
प्रश्न-६१८ सेठ का नाम पिण्याकगंध कैसे पड़ा? इसकी कथा संक्षेप में बताओ?
उत्तर-६१८ एक सेठ जिसके पास करोड़ो का धन था लेकिन धन होते हुए भी वह कंजूस था। न किसी को कुछ देता, न खाता और न ही ठीक से पहनता। यहाँ कि कि तेल खल खाकर पेट भर लेता था अत: उसके शरीर से खल की गंध आने लगी इसीलिए उसका नाम ‘‘पिण्याकगंध’’ नाम प्रसिद्ध हो गया। वह अपने बच्चों से कहता कि पड़ोसी बच्चों के साथ कुश्ती खेलो बस उनके शरीर का तेल तुम्हारे शरीर मेें लग जाएगा। किसी समय राजा का तालाब खोदते समय एक नौकर को सोने की सलाइयों से भरा एक संदूक मिला। एक-एक करके उसने लोहे के भाव से अट्ठानवे सलाइयाँ खरीद लीं किन्तु वे सलाइयाँ सोने की थीं। राजा के यहाँ इसका सब भेद खुल जाने से राजा ने उसका सब धन लूटकर उसके कुटुम्बीजनों को जेल में डाल दिया। इस घटना को सुनकर पिण्याकगंध अपने पैर तोड़कर अतिलोभ से मरकर नरक चला गया।
उत्तर-६१८ एक सेठ जिसके पास करोड़ो का धन था लेकिन धन होते हुए भी वह कंजूस था। न किसी को कुछ देता, न खाता और न ही ठीक से पहनता। यहाँ कि कि तेल खल खाकर पेट भर लेता था अत: उसके शरीर से खल की गंध आने लगी इसीलिए उसका नाम ‘‘पिण्याकगंध’’ नाम प्रसिद्ध हो गया। वह अपने बच्चों से कहता कि पड़ोसी बच्चों के साथ कुश्ती खेलो बस उनके शरीर का तेल तुम्हारे शरीर मेें लग जाएगा। किसी समय राजा का तालाब खोदते समय एक नौकर को सोने की सलाइयों से भरा एक संदूक मिला। एक-एक करके उसने लोहे के भाव से अट्ठानवे सलाइयाँ खरीद लीं किन्तु वे सलाइयाँ सोने की थीं। राजा के यहाँ इसका सब भेद खुल जाने से राजा ने उसका सब धन लूटकर उसके कुटुम्बीजनों को जेल में डाल दिया। इस घटना को सुनकर पिण्याकगंध अपने पैर तोड़कर अतिलोभ से मरकर नरक चला गया।
प्रश्न-६१९ व्यसन किसे कहते हैं?
उत्तर-६१९ जिस काम को बार-बार करने की आदत पड़ जाती है उसे व्यसन कहते हैं अथवा दु:खों को व्यसन कहते हैं।
उत्तर-६१९ जिस काम को बार-बार करने की आदत पड़ जाती है उसे व्यसन कहते हैं अथवा दु:खों को व्यसन कहते हैं।
प्रश्न-६२० व्यसन कितने होते हैं?
उत्तर-६२० व्यसन सात होते हैं— जुआ खेलना, मांस, मद, वेश्यागमन, शिकार। चोरी, पररमणी रमण, सातों व्यसन निवर।। जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यागमन, शिकार करना, चोरी करना व परस्त्री सेवन ये ७ व्यसन हैं।
प्रश्न-६२१ जुआ व्यसन किसे कहते हैं? इस व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६२१ जिसमें हार-जीत का व्यवहार हो उसे जुआ कहते हैं यह रुपये-पैसे लगाकर खेला जाता है। इस व्यसन में धर्मराज युधिष्ठिर प्रसिद्ध हुए।
उत्तर-६२१ जिसमें हार-जीत का व्यवहार हो उसे जुआ कहते हैं यह रुपये-पैसे लगाकर खेला जाता है। इस व्यसन में धर्मराज युधिष्ठिर प्रसिद्ध हुए।
प्रश्न-६२२ सभी व्यसनों का मूल क्या है?
उत्तर-६२२ जुआ खेलना सभी व्यसनों का मूल है।
उत्तर-६२२ जुआ खेलना सभी व्यसनों का मूल है।
प्रश्न-६२३ जुआ खेलने से क्या हानि होती है?
उत्तर-६२३ जुआ खेलने से आगे जाकर धर्म तथा धन दोनों का सर्वनाश हो जाता है।
उत्तर-६२३ जुआ खेलने से आगे जाकर धर्म तथा धन दोनों का सर्वनाश हो जाता है।
प्रश्न-६२४ मांस व्यसन किसे कहते हैं?
उत्तर-६२४ कच्चे, पके हुए या पकते हुए किसी भी अवस्था में माँस के टुकड़े या अनंतानंत त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है इसका सेवन करना माँस व्यसन कहलाता है।
उत्तर-६२४ कच्चे, पके हुए या पकते हुए किसी भी अवस्था में माँस के टुकड़े या अनंतानंत त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है इसका सेवन करना माँस व्यसन कहलाता है।
प्रश्न-६२५ इसके सेवन से क्या होता है?
उत्तर-६२५ इसके सेवन से महापाप का बंध होता है।
उत्तर-६२५ इसके सेवन से महापाप का बंध होता है।
प्रश्न-६२६ मांस भक्षण करने वाले क्या कहलाते हैं और कहाँ जाते हैं?
उत्तर-६२६ माँस भक्षण करने वाले मांसाहारी कहलाते हैं और दुर्गति में चले जाते हैं।
उत्तर-६२६ माँस भक्षण करने वाले मांसाहारी कहलाते हैं और दुर्गति में चले जाते हैं।
प्रश्न-६२७ मांस व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६२७ मांस व्यसन में बक नामक राजा प्रसिद्ध हुआ।
उत्तर-६२७ मांस व्यसन में बक नामक राजा प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६२८ क्या शक्कर आदि से बनी हुई जीव के आकार की कोई वस्तु खानी चाहिए?
उत्तर-६२८ नहीं, शक्कर आदि से बनी हुई जीव के आकार की बनी कोई वस्तु नहीं खानी चाहिए इसमें भी पाप बंध होता है।
उत्तर-६२८ नहीं, शक्कर आदि से बनी हुई जीव के आकार की बनी कोई वस्तु नहीं खानी चाहिए इसमें भी पाप बंध होता है।
प्रश्न-६२९ व्यसन से क्या-क्या हानियाँ होती हैं?
उत्तर-६२९ व्यसनों से धन, धर्म, समय व शरीर तो बेकार होता है साथ ही इस लोक में निंदा होने के साथ-साथ परलोक में भी महान दु:खों को भोगना पड़ता है।
उत्तर-६२९ व्यसनों से धन, धर्म, समय व शरीर तो बेकार होता है साथ ही इस लोक में निंदा होने के साथ-साथ परलोक में भी महान दु:खों को भोगना पड़ता है।
प्रश्न-६३० अंडे, मांस, शराब का सेवन करना धर्म है या पाप का कारण है?
उत्तर-६३० अंडे, मांस व शराब का सेवन करना पाप का कारण है।
उत्तर-६३० अंडे, मांस व शराब का सेवन करना पाप का कारण है।
प्रश्न-६३१ जुएँ के कारण कौन से महापुरुषों को वन-वन भटकना पड़ा?
उत्तर-६३१ जुएँ के कारण पाँचों पांडवों को वन-वन भडकना पड़ा।
उत्तर-६३१ जुएँ के कारण पाँचों पांडवों को वन-वन भडकना पड़ा।
प्रश्न-६३२ मदिरापान व्यसन क्या है? इसके करने से क्या होता है?
उत्तर-६३२ गुड़, महुआ आदि को सड़ाकर शराब बनाई जाती है। इसमें प्रतिक्षण अनंतानंत सम्मूर्छन त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं इसको सेवन करना मदिरपान नामक व्यसन है। इसमें मादकता होने से पीते ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है और न करने योग्य कार्य कर डालता है। इस मदिरापान से लोग मांस खाना, वेश्या सेवन करना आदि पापों से नहीं बच पाते हैं और सभी व्यसनों के शिकार बन जाते हैं।
उत्तर-६३२ गुड़, महुआ आदि को सड़ाकर शराब बनाई जाती है। इसमें प्रतिक्षण अनंतानंत सम्मूर्छन त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं इसको सेवन करना मदिरपान नामक व्यसन है। इसमें मादकता होने से पीते ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है और न करने योग्य कार्य कर डालता है। इस मदिरापान से लोग मांस खाना, वेश्या सेवन करना आदि पापों से नहीं बच पाते हैं और सभी व्यसनों के शिकार बन जाते हैं।
प्रश्न-६३३ मदिरापान व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६३३ मदिरापान नामक व्यसन में शंबु आदि यादव कुमार प्रसिद्ध हुए हैं।
उत्तर-६३३ मदिरापान नामक व्यसन में शंबु आदि यादव कुमार प्रसिद्ध हुए हैं।
प्रश्न-६३४ वेश्यागमन व्यसन किसे कहते हैं? इसका सेवन करने वाले क्या कहलाते हैं?
उत्तर-६३४ वेश्या के घर आना-जाना, उसके साथ रमण करना वेश्या सेवन कहलाता है। वेश्यागामी लोग व्यभिचारी, लुच्चे, नीच कहलाते हैं।
उत्तर-६३४ वेश्या के घर आना-जाना, उसके साथ रमण करना वेश्या सेवन कहलाता है। वेश्यागामी लोग व्यभिचारी, लुच्चे, नीच कहलाते हैं।
प्रश्न-६३५ इस व्यसन के सेवी कहाँ जाते हैं? सुगति में या दुर्गति में?
उत्तर-६३५ इस व्यसन के सेवी इस भव में कीर्ति और धन का नाश करके परभव में दुर्गति में चले जाते हैं।
उत्तर-६३५ इस व्यसन के सेवी इस भव में कीर्ति और धन का नाश करके परभव में दुर्गति में चले जाते हैं।
प्रश्न-६३६ वेश्यासेवन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६३६ वेश्यासेवन में सेठ भानुदत्त का पुत्र चारुदत्त प्रसिद्ध हुआ।
उत्तर-६३६ वेश्यासेवन में सेठ भानुदत्त का पुत्र चारुदत्त प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६३७ शिकार किसे कहते हैं?
उत्तर-६३७ रसना इंद्रिय की लोलुपता से या अपना शौक पूरा करने के लिए अथवा कौतुक के निमित्त बेचारे निरपराधी, भयभीत, वनवासी पशु-पक्षियों को मारना शिकार कहलाता है।
उत्तर-६३७ रसना इंद्रिय की लोलुपता से या अपना शौक पूरा करने के लिए अथवा कौतुक के निमित्त बेचारे निरपराधी, भयभीत, वनवासी पशु-पक्षियों को मारना शिकार कहलाता है।
प्रश्न-६३८ इस पाप के करने वाले के क्या फल मिलता है?
उत्तर-६३८ इस पाप को करने वाले मनुष्य अनंतकाल तक संसार में दु:ख उठाते हैं।
उत्तर-६३८ इस पाप को करने वाले मनुष्य अनंतकाल तक संसार में दु:ख उठाते हैं।
प्रश्न-६३९ इस व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६३९ इस व्यसन में उज्जयिनी का राजा ब्रह्मदत्त प्रसिद्ध हुआ।
उत्तर-६३९ इस व्यसन में उज्जयिनी का राजा ब्रह्मदत्त प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६४० चोरी किसे कहते हैं।
उत्तर-६४० बिना दिये हुए किसी की कोई भी वस्तु ले लेना चोरी है।
उत्तर-६४० बिना दिये हुए किसी की कोई भी वस्तु ले लेना चोरी है।
प्रश्न-६४१ दूसरे से धन हड़पने वाले मनुष्यों को क्या कष्ट सहना पड़ता है?
उत्तर-६४१ दूसरों से धन हड़पने वाले मनुष्य इस लोक और परलोक में अनेक कष्ट सहते हैं। उन पर मनुष्य तो क्या माता-पिता
उत्तर-६४१ दूसरों से धन हड़पने वाले मनुष्य इस लोक और परलोक में अनेक कष्ट सहते हैं। उन पर मनुष्य तो क्या माता-पिता
भी विश्वास नहीं करते तथा राजा द्वारा भी दण्ड मिलता है।
प्रश्न-६४२ चोरी नामक व्यसन में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६४२ चोरी नामक व्यसन में सत्यघोष (शिवभूति ब्राह्मण) प्रसिद्ध हुआ।
उत्तर-६४२ चोरी नामक व्यसन में सत्यघोष (शिवभूति ब्राह्मण) प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६४३ परस्त्री सेवन नामक व्यसन की परिभाषा बताओ?
उत्तर-६४३ धर्मानुकूल अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय दूसरी स्त्रियों के साथ रमण करना परस्त्री सेवन कहलाता है।
उत्तर-६४३ धर्मानुकूल अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय दूसरी स्त्रियों के साथ रमण करना परस्त्री सेवन कहलाता है।
प्रश्न-६४४ मूलगुण किसे कहते हैं?
उत्तर-६४४ जो गुणों में मूल हैं उन्हें मूलगुण कहते हैं।
उत्तर-६४४ जो गुणों में मूल हैं उन्हें मूलगुण कहते हैं।
प्रश्न-६४५ द्वितीय प्रकार से अष्टमूल गुण कौन-कौन से हैं?
उत्तर-६४५ मद्य त्याग, मांस त्याग, मघु त्याग, रात्रि भोजन त्याग, पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, जीव दया का पालन करना, जल छानकर पीना और पंच परमेष्ठी को नमस्कार करना ये द्वितीय प्रकार से अष्टमूल गुण होते हैं।
उत्तर-६४५ मद्य त्याग, मांस त्याग, मघु त्याग, रात्रि भोजन त्याग, पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, जीव दया का पालन करना, जल छानकर पीना और पंच परमेष्ठी को नमस्कार करना ये द्वितीय प्रकार से अष्टमूल गुण होते हैं।
प्रश्न-६४६ पहले आठ मूलगुण दूसरे में शामिल हैं या नहीं?
उत्तर-६४६ पहले आठ मूलगुण दूसरे में शामिल हैं।
उत्तर-६४६ पहले आठ मूलगुण दूसरे में शामिल हैं।
प्रश्न-६४७ पाँच उदुम्बर फलों के नाम बताओ?
उत्तर-६४७ बड़, पीपल, पाकर, कठूमर और गूलर ये पाँच प्रकार के उदुम्बर फल होते हैं।
उत्तर-६४७ बड़, पीपल, पाकर, कठूमर और गूलर ये पाँच प्रकार के उदुम्बर फल होते हैं।
प्रश्न-६४८ शहद खाने से क्या-क्या दोष हैं?
उत्तर-६४८ जब एक बिन्दु मात्र भी शहद खाने से सात गाँव जलाने का पाप है तो शहद खाने में महादोष है।
उत्तर-६४८ जब एक बिन्दु मात्र भी शहद खाने से सात गाँव जलाने का पाप है तो शहद खाने में महादोष है।
प्रश्न-६४९ शाकाहार एवं मांसाहार में क्या-क्या अंतर है?
उत्तर-६४९ जो पेड़ से पैदा हो वह शाकाहार तथा जो पेट से उत्पन्न वा मांस अण्डे आदि से निर्मित हो वह मांसाहार है।
प्रश्न-६५० कौन-कौन से व्यसन अहितकारी होते हैं?
उत्तर-६५० सभी व्यसन अहितकारी होते हैं।
उत्तर-६५० सभी व्यसन अहितकारी होते हैं।
प्रश्न-६५१ चमड़े की बनी वस्तुएँ काम में क्यों नहीं लेनी चाहिए?
उत्तर-६५१ चमड़े की बनी वस्तुएँ इसलिए काम में नहीं लेना चाहिए क्योंकि चमड़ा जानवरों की खाल से बनता है इसलिए अपवित्र होता है।
उत्तर-६५१ चमड़े की बनी वस्तुएँ इसलिए काम में नहीं लेना चाहिए क्योंकि चमड़ा जानवरों की खाल से बनता है इसलिए अपवित्र होता है।
प्रश्न-६५२ लिपिस्टिक, नेलपालिश व शैम्पू में क्या दोष है?
उत्तर-६५२ लिपिस्टिक, नेलपालिश व शैम्पू में जानवरों की आँख, खून आदि का प्रयोग होता है अत: इसमें महान दोष है।
उत्तर-६५२ लिपिस्टिक, नेलपालिश व शैम्पू में जानवरों की आँख, खून आदि का प्रयोग होता है अत: इसमें महान दोष है।
प्रश्न-६५३ धूम्रपान से क्या-क्या हानियाँ हैं?
उत्तर-६५३ धूम्रपान से धन, शरीर व समय बरबाद होता है तथा कैंसर जैसी घातक बीमारियाँ हो जाती हैं।
उत्तर-६५३ धूम्रपान से धन, शरीर व समय बरबाद होता है तथा कैंसर जैसी घातक बीमारियाँ हो जाती हैं।
प्रश्न-६५४ सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-६५४ सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थ इनका श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन है।
उत्तर-६५४ सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थ इनका श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न-६५५ यह कितने अंगों से सहित व कितने दोनों से रहित होता हैं?
उत्तर-६५५ यह नि:शंकित आदि आठ अंगों से सहित व शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता इन पच्चीस दोषों से रहित होता है।
उत्तर-६५५ यह नि:शंकित आदि आठ अंगों से सहित व शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता इन पच्चीस दोषों से रहित होता है।
प्रश्न-६५६ सच्चे देव किसे कहते हैं?
उत्तर-६५६ जो दोष रहित वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं वे ही आप्त-सच्चे देव कहलाते हैं। ये ४६ गुण सहित और १८ दोष
उत्तर-६५६ जो दोष रहित वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं वे ही आप्त-सच्चे देव कहलाते हैं। ये ४६ गुण सहित और १८ दोष
रहित होते हैं। इन्हें ही अर्हंत परमेष्ठी कहते हैं।
प्रश्न-६५७ सच्चे शास्त्र का लक्षण बताओ?
उत्तर-६५७ सर्वज्ञ देव के द्वारा कथित, पूर्वापर विरोध से रहित, सभी जीवों को हितकारी ऐसे सच्चे तत्त्वों का जिसमें उपदेश है वे ही सच्चे शास्त्र हैं।
उत्तर-६५७ सर्वज्ञ देव के द्वारा कथित, पूर्वापर विरोध से रहित, सभी जीवों को हितकारी ऐसे सच्चे तत्त्वों का जिसमें उपदेश है वे ही सच्चे शास्त्र हैं।
प्रश्न-६५८ सच्चे गुरु की विशेषता बताओ?
उत्तर-६५८ जो विषयों की आशा से रहित और परिग्रह के त्यागी हैं तथा ज्ञान, ध्यान व तप में लवलीन रहते हैं वे निग्र्रंथ साधु ही सच्चे गुरु हैं।
उत्तर-६५८ जो विषयों की आशा से रहित और परिग्रह के त्यागी हैं तथा ज्ञान, ध्यान व तप में लवलीन रहते हैं वे निग्र्रंथ साधु ही सच्चे गुरु हैं।
प्रश्न-६५९ सम्यग्दर्शन के आठ अगं कौन-कौन से हैं?
उत्तर-६५९ नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़ दृष्टि, उपगूहन, स्थिति-करण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं।
उत्तर-६५९ नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़ दृष्टि, उपगूहन, स्थिति-करण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं।
प्रश्न-६६० नि:शंकित अंग किसे कहते हैं? इस अंग में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६६० तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य प्रकार से नहीं हो सकता है इस प्रकार दृढ़ता रखना, उसमें किंचित् शंका नहीं करना नि:शंकित अंग है। इस अंग में राजा अरिमथन का ललितांग (अंजन चोर) नामक पुत्र प्रसिद्ध हुआ।
उत्तर-६६० तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य प्रकार से नहीं हो सकता है इस प्रकार दृढ़ता रखना, उसमें किंचित् शंका नहीं करना नि:शंकित अंग है। इस अंग में राजा अरिमथन का ललितांग (अंजन चोर) नामक पुत्र प्रसिद्ध हुआ।
प्रश्न-६६१ नि:कांसित अंग किसे कहते हैं? इस अंग में किसने प्रसिद्धि प्राप्त की?
उत्तर-६६१ संसार के सुख कर्मों के अधीन हैं, विनश्वर हैं, दु:खों से मिश्रित हैं और पापों के बीज हैं ऐसे सुखों की आकांक्षा नहीं करना नि:कांक्षित अंग है। इस अंग में सेठ प्रियदत्त की पुत्री अनंमती ने प्रसिद्धि प्राप्त की।
उत्तर-६६१ संसार के सुख कर्मों के अधीन हैं, विनश्वर हैं, दु:खों से मिश्रित हैं और पापों के बीज हैं ऐसे सुखों की आकांक्षा नहीं करना नि:कांक्षित अंग है। इस अंग में सेठ प्रियदत्त की पुत्री अनंमती ने प्रसिद्धि प्राप्त की।
प्रश्न-६६२ निर्विचिकित्सा अंग का लक्षण बताओ? उद्दायन राजा ने इसका पालन किस प्रकार से किया?
उत्तर-६६२ स्वभाव से अपवित्र किन्तु रत्न.य से पवित्र ऐसे मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना, इनके गुणों में प्रीति करना निर्विचिकित्सा अंग है। उद्दायन राजा ने मायावी कुष्टरोगी मुनि (जो कि स्वर्ग के देव थे) के वमन कर देने पर चौकर चाकर के उस दुर्गन्धित वमन से पलायमान हो जाने पर विनयपूर्वक मुनिराज की सेवा सुश्रूषा करके इस निर्विचिकित्सा अंग का पालन किया था।
उत्तर-६६२ स्वभाव से अपवित्र किन्तु रत्न.य से पवित्र ऐसे मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना, इनके गुणों में प्रीति करना निर्विचिकित्सा अंग है। उद्दायन राजा ने मायावी कुष्टरोगी मुनि (जो कि स्वर्ग के देव थे) के वमन कर देने पर चौकर चाकर के उस दुर्गन्धित वमन से पलायमान हो जाने पर विनयपूर्वक मुनिराज की सेवा सुश्रूषा करके इस निर्विचिकित्सा अंग का पालन किया था।
प्रश्न-६६३ अमूढ़दृष्टि अंग की परिभाषा बताते हुए रेवती रानी की कथा संक्षेप में बताओ?
उत्तर-६६३ दु:खों में पहुँचाने वाले मिथ्यामार्ग और मिथ्यामार्ग में चलने वालों में सम्मति नहीं देना, उनसे सम्पर्क नहीं रखना, उनकी प्रशंसा नहीं करना अमूढ़ दृष्टि अंग है। दक्षिण मथुरा में दिगम्बर गुरु गुप्ताचार्य के पास क्षुल्लक चन्द्रप्रभ रहते थे। उन्होंने आकाशगामिनी आदि विद्या को नहीं छोड़ने से मुनिपद नहीं लिया था। एक दिन वह तीर्थ वंदना हेतु मथुरा आने लगे तब गुरु से आज्ञा लेकर गुरु से किसी से कुछ कहने के लिए पूछा तब गुरु ने सुव्रत मुनिराज को नमोऽस्तु और रेवती रानी को आशीर्वाद कहा। तीन बार पूछने पर भी उन्होंने यही उत्तर दिया तब क्षुल्लक महाराज वहाँ आकर सुव्रत मुनि को नमस्कार कह रेवती रानी के पास आ गये और रानी की परीक्षा हेतु कभी ब्रह्मा, कभी श्रीकृष्ण, कभी महादेव और कभी अरिहंत भगवान का समवसरण तैयार कर दिया परन्तु रानी ने उन सब को सत्न न माना। अनंतर वह क्षुल्लक विद्या के बल से रोगी क्षुल्लक का वेश बनाकर रानी के यहाँ आये। रानी द्वारा विनयपूर्वक सुश्रूषा कर आहार दान देने पर उन्होंने वमन कर दिया। तब रानी ने भक्ति से सफाई की। तब क्षुल्लक जी अपने असली रूप में आ रानी को आशीर्वाद देकर चले गये।
उत्तर-६६३ दु:खों में पहुँचाने वाले मिथ्यामार्ग और मिथ्यामार्ग में चलने वालों में सम्मति नहीं देना, उनसे सम्पर्क नहीं रखना, उनकी प्रशंसा नहीं करना अमूढ़ दृष्टि अंग है। दक्षिण मथुरा में दिगम्बर गुरु गुप्ताचार्य के पास क्षुल्लक चन्द्रप्रभ रहते थे। उन्होंने आकाशगामिनी आदि विद्या को नहीं छोड़ने से मुनिपद नहीं लिया था। एक दिन वह तीर्थ वंदना हेतु मथुरा आने लगे तब गुरु से आज्ञा लेकर गुरु से किसी से कुछ कहने के लिए पूछा तब गुरु ने सुव्रत मुनिराज को नमोऽस्तु और रेवती रानी को आशीर्वाद कहा। तीन बार पूछने पर भी उन्होंने यही उत्तर दिया तब क्षुल्लक महाराज वहाँ आकर सुव्रत मुनि को नमस्कार कह रेवती रानी के पास आ गये और रानी की परीक्षा हेतु कभी ब्रह्मा, कभी श्रीकृष्ण, कभी महादेव और कभी अरिहंत भगवान का समवसरण तैयार कर दिया परन्तु रानी ने उन सब को सत्न न माना। अनंतर वह क्षुल्लक विद्या के बल से रोगी क्षुल्लक का वेश बनाकर रानी के यहाँ आये। रानी द्वारा विनयपूर्वक सुश्रूषा कर आहार दान देने पर उन्होंने वमन कर दिया। तब रानी ने भक्ति से सफाई की। तब क्षुल्लक जी अपने असली रूप में आ रानी को आशीर्वाद देकर चले गये।
प्रश्न-६६४ उपगूहन अंग का लक्षण बताओ? इस अंग में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-६६४ यह मोक्षमार्ग स्वयं शुद्ध है अज्ञानी और असमर्थ जनों के द्वारा कोई दोष हो जाने पर उनके दोषों को ढ़क देना (प्रकट नहीं होने देना) उपगूहन अंग कहलाता है। इस अंग में ताम्रलिप्ता नगरी के जिनेन्द्र भक्त सेठ प्रसिद्ध हुए।
उत्तर-६६४ यह मोक्षमार्ग स्वयं शुद्ध है अज्ञानी और असमर्थ जनों के द्वारा कोई दोष हो जाने पर उनके दोषों को ढ़क देना (प्रकट नहीं होने देना) उपगूहन अंग कहलाता है। इस अंग में ताम्रलिप्ता नगरी के जिनेन्द्र भक्त सेठ प्रसिद्ध हुए।
प्रश्न-६६५ स्थितिकरण अंग किसे कहते हैं इस अंग में प्रसिद्ध मुनिराज की कथा संक्षेप में बताओ?
उत्तर-६६५ सम्यक्दर्शन से या सम्यक्चारित्र से यदि कोई चलायमान हो रहा हो तो धर्म के प्रेम से जैसे बने वैसे उसको धर्म में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंश है। किसी समय वारिषेण मुनिराज पलास कूट ग्राम में आहारार्थ आए। मंत्री पुष्पडाल ने उन्हें आहार दिया और उनको पहुँचाने के लिए कुछ देर तक साथ चलने लगा। मुनि बचपन के मित्र होने से वैराग्य का उपदेश दे दीक्षा दे दी। किन्तु पुष्पडाल अपनी स्त्री को भुला नहीं सके। धीरे-धीरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये। किसी समय ये दोनों साधु राजगृही आ गये। तब पुष्पडाल अपनी स्त्री से मिलने के लिए चल पड़े। वारिषेण मुनि उनका अंतरंग समझ उनके साथ सीधे अपने राजमहल पहुँचे और अपनी माँ से अपनी बत्तीसों स्त्रियों को बुलाकर उनका उपभोग करने को कहा तब पुष्पडाल को वास्तविक वैराग्य हो गया तब वारिषेण मुनि ने वन में पहुँचकर प्रायश्चित से शुद्धकर उन्हें मुनिपद में स्थित कर दिया।
उत्तर-६६५ सम्यक्दर्शन से या सम्यक्चारित्र से यदि कोई चलायमान हो रहा हो तो धर्म के प्रेम से जैसे बने वैसे उसको धर्म में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंश है। किसी समय वारिषेण मुनिराज पलास कूट ग्राम में आहारार्थ आए। मंत्री पुष्पडाल ने उन्हें आहार दिया और उनको पहुँचाने के लिए कुछ देर तक साथ चलने लगा। मुनि बचपन के मित्र होने से वैराग्य का उपदेश दे दीक्षा दे दी। किन्तु पुष्पडाल अपनी स्त्री को भुला नहीं सके। धीरे-धीरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये। किसी समय ये दोनों साधु राजगृही आ गये। तब पुष्पडाल अपनी स्त्री से मिलने के लिए चल पड़े। वारिषेण मुनि उनका अंतरंग समझ उनके साथ सीधे अपने राजमहल पहुँचे और अपनी माँ से अपनी बत्तीसों स्त्रियों को बुलाकर उनका उपभोग करने को कहा तब पुष्पडाल को वास्तविक वैराग्य हो गया तब वारिषेण मुनि ने वन में पहुँचकर प्रायश्चित से शुद्धकर उन्हें मुनिपद में स्थित कर दिया।
प्रश्न-६६६ वात्सल्य अंग का लक्षण बताते हुए यह बताओ कि किस प्रकार विष्णुकुमार मुनिराज ने इसका पालन किया?
उत्तर-६६६ कपट भावों से रहित होकर सद्भावनापूर्वक सहधर्मी बन्धुओं का यथायोग्य आदर करना वात्सल्य अंग है अर्थात् धर्मात्मा के प्रति एक साहजिक अकृत्रिम स्नेह होना वात्सल्यभाव कहलाता है। विष्णुकुमार मुनिराज ने इसका पालन सात सौ मुनियों पर आये उपसर्ग को दूर करके किया हुआ यूँ कि विष्णुकुमार मुनि के बड़े भाई राजा पद्म के चारों मंत्रियों बलि, वृहस्पति, नमुच और प्रहलाद ने उनसे वर प्राप्त किया था और उसे धरोहर के रूप में राजा के पास रख दिया। एक समय अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों को वहाँ ठहरा जान जिन धर्म के द्वेषी उन मंत्रियों ने राजा से वर के रूप में सात दिन का राज्य मांगकर उन मुनियों को चारों तरफ से घेर कर यज्ञ के बहाने आग लगा दी। उधर मिथिला नगरी में श्रवण नक्षत्र कंपित होते देख श्रुतसागर मुनि के मुख से हाहाकार शब्द सुन पास में बैठे क्षुल्लक से सारा वृतान्त जान व स्वयं को विक्रिया ऋद्धि युक्तजान विष्णु कुमार मुनिराज ने वामन का वेश धारण उन मंत्रियों से पैर भूमि मांगकर अपनी विक्रिया प्रगटकर उन मुनियों का उपसर्ग दूर किया।
उत्तर-६६६ कपट भावों से रहित होकर सद्भावनापूर्वक सहधर्मी बन्धुओं का यथायोग्य आदर करना वात्सल्य अंग है अर्थात् धर्मात्मा के प्रति एक साहजिक अकृत्रिम स्नेह होना वात्सल्यभाव कहलाता है। विष्णुकुमार मुनिराज ने इसका पालन सात सौ मुनियों पर आये उपसर्ग को दूर करके किया हुआ यूँ कि विष्णुकुमार मुनि के बड़े भाई राजा पद्म के चारों मंत्रियों बलि, वृहस्पति, नमुच और प्रहलाद ने उनसे वर प्राप्त किया था और उसे धरोहर के रूप में राजा के पास रख दिया। एक समय अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों को वहाँ ठहरा जान जिन धर्म के द्वेषी उन मंत्रियों ने राजा से वर के रूप में सात दिन का राज्य मांगकर उन मुनियों को चारों तरफ से घेर कर यज्ञ के बहाने आग लगा दी। उधर मिथिला नगरी में श्रवण नक्षत्र कंपित होते देख श्रुतसागर मुनि के मुख से हाहाकार शब्द सुन पास में बैठे क्षुल्लक से सारा वृतान्त जान व स्वयं को विक्रिया ऋद्धि युक्तजान विष्णु कुमार मुनिराज ने वामन का वेश धारण उन मंत्रियों से पैर भूमि मांगकर अपनी विक्रिया प्रगटकर उन मुनियों का उपसर्ग दूर किया।
प्रश्न-६६७ प्रभावना अंग का लक्षण बताओ? इसमें किसने प्रसिद्धि प्राप्त की?
उत्तर-६६७ चारों तरफ से फैल हुए अज्ञान रूपी अंधकार को जैसे बने बैसे हटाकर जैन धर्म के माहात्म्य को फैलाना प्रभावना है। इस अंग में वङ्काकुमार नामक मुनिराज ने प्रसिाद्ध प्राप्त की।
उत्तर-६६७ चारों तरफ से फैल हुए अज्ञान रूपी अंधकार को जैसे बने बैसे हटाकर जैन धर्म के माहात्म्य को फैलाना प्रभावना है। इस अंग में वङ्काकुमार नामक मुनिराज ने प्रसिाद्ध प्राप्त की।
प्रश्न-६६८ रत्नत्रय किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-६६८ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं। इसके दो भेद हैं- १. व्यवहार रत्नत्रय २. निश्चय रत्नत्रय
उत्तर-६६८ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं। इसके दो भेद हैं- १. व्यवहार रत्नत्रय २. निश्चय रत्नत्रय
प्रश्न-६६९ व्यवहार सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-६६९ जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरुओं का २५ दोष रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है।
उत्तर-६६९ जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरुओं का २५ दोष रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है।
प्रश्न-६७० सम्यक्त्व के २५ मलदोष कौन-कौन से हैं?
उत्तर-६७० शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता ये सम्यक्त्व के २५ मलदोष हैं।
उत्तर-६७० शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता ये सम्यक्त्व के २५ मलदोष हैं।
प्रश्न-६७१ इन पच्चीस मलदोषों से रहित जीव कहाँ-कहाँ जन्म नहीं लेता है?
उत्तर-६७१ इन पच्चीस मलदोषों से रहित सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में, नरकों में, कुभोगभूमि में, स्त्री पर्याय और नपुंसक पर्याय में, भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिषी देव-देवियों में तथा कल्पवासी देव-देवियों में जन्म नहीं लेता। यदि कदाचित् पहले नर्क की आयु बांध ली है पीछे सम्यक्त्व हुआ तो प्रधान नरक में ही जाता है। इसके अलावा वह नीच घरानों में वह दरिद्र कुल में जन्म नहीं लेता, अल्पायुधारी भी नहीं होता।
उत्तर-६७१ इन पच्चीस मलदोषों से रहित सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में, नरकों में, कुभोगभूमि में, स्त्री पर्याय और नपुंसक पर्याय में, भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिषी देव-देवियों में तथा कल्पवासी देव-देवियों में जन्म नहीं लेता। यदि कदाचित् पहले नर्क की आयु बांध ली है पीछे सम्यक्त्व हुआ तो प्रधान नरक में ही जाता है। इसके अलावा वह नीच घरानों में वह दरिद्र कुल में जन्म नहीं लेता, अल्पायुधारी भी नहीं होता।
प्रश्न-६७२ सम्यक्त्वी जीव कौन-कौन से पदों को प्राप्त करता है?
उत्तर-६७२ सम्यक्त्वी जीव उत्कृष्ट ऋद्धि सहित देव, इंद्र, बलभद्र, चक्रवर्ती और तीर्थंकर का पद प्राप्त कर लेता है।
उत्तर-६७२ सम्यक्त्वी जीव उत्कृष्ट ऋद्धि सहित देव, इंद्र, बलभद्र, चक्रवर्ती और तीर्थंकर का पद प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न-६७३ क्या सम्यक्त्व के बिना कोई मोक्ष जा सकते हैं?
उत्तर-६७३ नहीं, बिना सम्यक्त्व के कोई मोक्ष नहीं जा सकते हैं।
उत्तर-६७३ नहीं, बिना सम्यक्त्व के कोई मोक्ष नहीं जा सकते हैं।
प्रश्न-६७४ इन आठों अंगोें में से एक या दो अंग न हों तो क्या हानि है?
उत्तर-६७४ इन आठों अंगों में एक या दो अंग न होने पर वह जीव सम्यग्दृष्टि नहीं कहला सकता।
उत्तर-६७४ इन आठों अंगों में एक या दो अंग न होने पर वह जीव सम्यग्दृष्टि नहीं कहला सकता।
प्रश्न-६७५ क्षायिक सम्यग्दर्शन कौन सी गति के जीवों को होता है?
उत्तर-६७५ क्षायिक सम्यग्दर्शन मनुष्य गति के जीवों को होता है।
उत्तर-६७५ क्षायिक सम्यग्दर्शन मनुष्य गति के जीवों को होता है।
प्रश्न-६७६ अनादि मिथ्यादृष्टि को सबसे पहले कौन सा सम्यग्दर्शन होता है?
उत्तर-६७६ अनादि मिथ्यादृष्टि को सबसे पहले प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है।
उत्तर-६७६ अनादि मिथ्यादृष्टि को सबसे पहले प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है।
प्रश्न-६७७ कार्य की सिद्धि में मुख्य कारण कौन से हैं?
उत्तर-६७७ कार्य की सिद्धि में मुख्य कारण हैं- १. निमित्त २. उपादन
उत्तर-६७७ कार्य की सिद्धि में मुख्य कारण हैं- १. निमित्त २. उपादन
प्रश्न-६७८ स्त्रियों को कौन सा सम्यग्दर्शन हो सकता है?
उत्तर-६७८ स्त्रियों को उपशम और क्षयोपशम सम्यग्दर्शन हो सकता है।
उत्तर-६७८ स्त्रियों को उपशम और क्षयोपशम सम्यग्दर्शन हो सकता है।
प्रश्न-६७९ पंगु कौन है?
उत्तर-६७९ ‘‘यथार्थ तीर्थयात्रा न करने वाला’’
उत्तर-६७९ ‘‘यथार्थ तीर्थयात्रा न करने वाला’’
प्रश्न-६८० लूला कौन है?
उत्तर-६८० ‘‘हाथ का दुरुपयोग करने वाला’’
उत्तर-६८० ‘‘हाथ का दुरुपयोग करने वाला’’
प्रश्न-६८१ जगत में घातकी कौन है?
उत्तर-६८१ ‘‘विश्वासघातकी’’
उत्तर-६८१ ‘‘विश्वासघातकी’’
प्रश्न-६८२ जगत में स्वैराचार की विरोधनी दीक्षा कौन सी है?
उत्तर-६८२ ‘‘जैनी दीक्षा’’
उत्तर-६८२ ‘‘जैनी दीक्षा’’
प्रश्न-६८३ षट्कायिक जीवों की रक्षा करने वाला कौन है?
उत्तर-६८३ ‘‘महाव्रती’’
उत्तर-६८३ ‘‘महाव्रती’’
प्रश्न-६८४ महाऔषधि क्या है?
उत्तर-६८४ ‘‘जिनवचन’’
उत्तर-६८४ ‘‘जिनवचन’’
प्रश्न-६८५ यथार्थ ज्ञान का कारण क्या है?
त्तर-६८५ ‘‘सम्यग्दर्शन’’
त्तर-६८५ ‘‘सम्यग्दर्शन’’
प्रश्न-६८६ पूर्ण ज्ञान का बीज क्या है?
उत्तर-६८६ ‘‘भाव श्रुत का विकास होना’’
उत्तर-६८६ ‘‘भाव श्रुत का विकास होना’’
प्रश्न-६८७ स्वाध्याय का अभिप्राय क्या है?
उत्तर-६८७ ‘‘भावश्रुत का विकास होना’’
उत्तर-६८७ ‘‘भावश्रुत का विकास होना’’
प्रश्न-६८८ स्वाध्याय का अभिप्राय क्या है?
उत्तर-६८८ ‘‘भावश्रुत विकसित करना’’
उत्तर-६८८ ‘‘भावश्रुत विकसित करना’’
प्रश्न-६८९ कामदेव का निर्मूलन करने वाला कौन है?
उत्तर-६८९ ‘‘जिनेन्द्र भगवान’’
उत्तर-६८९ ‘‘जिनेन्द्र भगवान’’
प्रश्न-६९० प्राचीन सच्चा इतिहास क्या है?
उत्तर-६९० ‘‘प्रथमानुयोग’’
उत्तर-६९० ‘‘प्रथमानुयोग’’
प्रश्न-६९१ वीरों का वीर कौन है?
उत्तर-६९१ ‘‘मोहराज, यमराज और कामराज इनको जीतने वाला’’
उत्तर-६९१ ‘‘मोहराज, यमराज और कामराज इनको जीतने वाला’’
प्रश्न-६९२ सच्चा शास्त्र पढ़ने का सार क्या है?
उत्तर-६९२ ‘‘स्व आत्मा का सहारा लेना’’
उत्तर-६९२ ‘‘स्व आत्मा का सहारा लेना’’
प्रश्न-६९३ पाप से बचाने वाला कौन है?
उत्तर-६९३ ‘‘सच्चे गुरु’’
उत्तर-६९३ ‘‘सच्चे गुरु’’
प्रश्न-६९४ अलौकिक सभा कौन सी है?
उत्तर-६९४ ‘‘समवसरण’’
उत्तर-६९४ ‘‘समवसरण’’
प्रश्न-६९५ प्रथम कन्या को शिक्षा देने वाला कौन है?
उत्तर-६९५ ‘‘भगवान ऋषभेदव’’
उत्तर-६९५ ‘‘भगवान ऋषभेदव’’
प्रश्न-६९६ साधक को एक अवस्था हितकारी है वह कौन सी अवस्था है?
उत्तर-६९६ ‘‘ध्याता, ध्यान, ध्येय वर्जित अवस्था’’
उत्तर-६९६ ‘‘ध्याता, ध्यान, ध्येय वर्जित अवस्था’’
प्रश्न-६९७ संसार का कारण क्या है?
उत्तर-६९७ ‘‘जीव की विकार परिणति’’
उत्तर-६९७ ‘‘जीव की विकार परिणति’’
प्रश्न-६९८ सब लोगों को आकर्षित करने वाली सातिशय पुण्य प्रकृति कौन सी है?
उत्तर-६९८ ‘‘तीर्थंकर प्रकृति’’
उत्तर-६९८ ‘‘तीर्थंकर प्रकृति’’
प्रश्न-६९९ स्त्री पर्याय में अंतिम धर्मपुरुषार्थ कौन सा है?
उत्तर-६९९ ‘‘आर्यिका दीक्षा’’
उत्तर-६९९ ‘‘आर्यिका दीक्षा’’
प्रश्न-७०० मानव का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर ७०० ‘‘मन का सदुपयोग करना’’।
प्रश्न-७०१ अनाहत मंत्र कौन सा है?
उत्तर-७०१ ‘‘र्हं’’।
उत्तर-७०१ ‘‘र्हं’’।
प्रश्न-७०२ जगत में अपराजित महामंत्र कौन सा है?
उत्तर-७०२ ‘‘णमोकार’’।
उत्तर-७०२ ‘‘णमोकार’’।
प्रश्न-७०३ निरंजन स्थान कौन सा है?
उत्तर-७०३ ‘‘सिद्धालय’’।
उत्तर-७०३ ‘‘सिद्धालय’’।
प्रश्न-७०४ पूजनीय अवस्था कौन सी है?
उत्तर-७०४ ‘‘जीवन्मुक्त अवस्था’’।
उत्तर-७०४ ‘‘जीवन्मुक्त अवस्था’’।
प्रश्न-७०५ गृहस्थ अवस्था और त्यागी अवस्था में चलित न होने वाला एक कौन है?
उत्तर-७०५ ‘‘तीर्थंकर’’।
उत्तर-७०५ ‘‘तीर्थंकर’’।
प्रश्न-७०६ पूर्णज्ञान कौन सा है?
उत्तर-७०६ ‘‘केवलज्ञान’’।
उत्तर-७०६ ‘‘केवलज्ञान’’।
प्रश्न-७०७ सर्व अनुभवों में सर्वश्रेष्ठ अनुभव कौन सा है?
उत्तर-७०७ ‘‘स्वशुद्धात्मानुभव’’।
उत्तर-७०७ ‘‘स्वशुद्धात्मानुभव’’।
प्रश्न-७०८ उत्कृष्ट ध्यान कौन सा है?
उत्तर-७०८ ‘‘स्वशुद्धत्म ध्यान’’।
उत्तर-७०८ ‘‘स्वशुद्धत्म ध्यान’’।
प्रश्न-७०९ पूर्ण स्वतंत्रता हेतु कौन सी योनि होना आवश्यक है?
उत्तर-७०९ ‘‘मनुष्ययोनि’’।
उत्तर-७०९ ‘‘मनुष्ययोनि’’।
प्रश्न-७१० तीर्थंकर प्रकृति बंध करने के लिए सर्वश्रेष्ठ कौन है?
उत्तर-७१० ‘‘आर्यपुरुष’’।
उत्तर-७१० ‘‘आर्यपुरुष’’।
प्रश्न-७११ सार्वधर्म का उदय एक विशेष धर्म में है वह कौन सा है?
उत्तर-७११ ‘‘स्वाभाविक आत्मधर्म में’’।
उत्तर-७११ ‘‘स्वाभाविक आत्मधर्म में’’।
प्रश्न-७१२ सनातन धर्म कौन सा है?
उत्तर-७१२ ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’।
उत्तर-७१२ ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’।
प्रश्न-७१३ साक्षात स्वशुद्धात्मपरिचय करने हेतु एक विशेष गति कौन सी है?
उत्तर-७१३ ‘‘मनुष्यगति’’।
उत्तर-७१३ ‘‘मनुष्यगति’’।
प्रश्न-७१४ अखण्ड मोक्षमार्ग कौन से क्षेत्र में चालू है?
उत्तर-७१४ ‘‘विदेह क्षेत्र में’’।
उत्तर-७१४ ‘‘विदेह क्षेत्र में’’।
प्रश्न-७१५ विदेह क्षेत्र में सदैव कौन सा धर्म विराजमान रहता है?
उत्तर-७१५ ‘‘जैन धर्म’’
उत्तर-७१५ ‘‘जैन धर्म’’
प्रश्न-७१६ सर्व जीवों को सुख देने वाला धर्म कौन सा है?
उत्तर-७१६ ‘‘स्वाभाविक आत्मधर्म’’।
उत्तर-७१६ ‘‘स्वाभाविक आत्मधर्म’’।
प्रश्न-७१७ अंतब्र्राह्म लक्ष्मी द्योतक एक अक्षर कौन सा है?
उत्तर-७१७ ‘‘श्री’’।
उत्तर-७१७ ‘‘श्री’’।
प्रश्न-७१८ संपूर्ण जगत में स्वतंत्रता का पाठ देने वाली पाठशाला कौन सी है?
उत्तर-७१८ ‘‘दिगम्बर जैन मंदिर’’।
उत्तर-७१८ ‘‘दिगम्बर जैन मंदिर’’।
प्रश्न-७१९ निर्विकारता का पाठ पढ़ाने वाली आदर्श मूर्ति कौन सी है?
उत्तर-७१९ ‘‘अरिहंत की मूर्ति’’
उत्तर-७१९ ‘‘अरिहंत की मूर्ति’’
प्रश्न-७२० जगत में एक संस्कार संस्कृति कौन सी श्रेष्ठ है?
उत्तर-७२० ‘‘मूल भारतीय’’
उत्तर-७२० ‘‘मूल भारतीय’’
प्रश्न-७२१ मुख्य अठारह भाषा और उत्तर सात सौ भाषा एक ही बार में निकलने वाली एक ध्वनि कौन सी है?
उत्तर-७२१ ‘‘अरिहंत की दिव्य ध्वनि’’
उत्तर-७२१ ‘‘अरिहंत की दिव्य ध्वनि’’
प्रश्न-७२२ जगत् में सहज सुन्दर निर्विकारी वीर मुद्रा कौन सी है?
उत्तर-७२२ ‘‘वीतराग दिगम्बर जिनमुद्रा’’
उत्तर-७२२ ‘‘वीतराग दिगम्बर जिनमुद्रा’’
प्रश्न-७२३ आजकल एक ही वस्तु दुर्लभ है वह क्या है?
उत्तर-७२३ ‘‘सम्यक् बोधिलाभ’’
उत्तर-७२३ ‘‘सम्यक् बोधिलाभ’’
प्रश्न-७२४ स्वार्थ तो बहुत से हैं, पर सच्चा स्वार्थ क्या हैं?
उत्तर-७२४ ‘‘स्वात्मकल्याण’’
उत्तर-७२४ ‘‘स्वात्मकल्याण’’
प्रश्न-७२५ सुधारक कौन है?
उत्तर-७२५ जिसकी सम्यक् धारणा है।
उत्तर-७२५ जिसकी सम्यक् धारणा है।
प्रश्न-७२६ आत्मोन्नति का कारण कौन सा है?
उत्तर-७२६ ‘‘स्वशुद्धात्म पे्रम’’
उत्तर-७२६ ‘‘स्वशुद्धात्म पे्रम’’
प्रश्न-७२७ एक भाव कौन सा श्रेष्ठ है?
उत्तर-७२७ ‘‘सम्यक् साम्यभाव’’
उत्तर-७२७ ‘‘सम्यक् साम्यभाव’’
प्रश्न-७२८ केवलज्ञान का कारण क्या है?
उत्तर-७२८ ‘‘भेदविज्ञान’’
उत्तर-७२८ ‘‘भेदविज्ञान’’
प्रश्न-७२९ लोक में महापातकी कौन है?
उत्तर-७२९ ‘‘आत्मघातकी’’
उत्तर-७२९ ‘‘आत्मघातकी’’
प्रश्न-७३० सर्व पाप का भागीदार कौन है?
उत्तर-७३० ‘‘आत्मद्रोही’’
उत्तर-७३० ‘‘आत्मद्रोही’’
प्रश्न-७३१ भयास्पद क्या है?
उत्तर-७३१ ‘‘विकारी परिणाम परिणति’’
उत्तर-७३१ ‘‘विकारी परिणाम परिणति’’
प्रश्न-७३२ अनंत दु:खों का कारण क्या है?
उत्तर-७३२ ‘‘उल्टा अभिप्राय’’
उत्तर-७३२ ‘‘उल्टा अभिप्राय’’
प्रश्न-७३३ सर्व कर्म में बलवान कर्म कौन सा है?
उत्तर-७३३ ‘‘मोहनीय’’
उत्तर-७३३ ‘‘मोहनीय’’
प्रश्न-७३४ राष्ट्रोन्नति की नींव क्या है?
उत्तर-७३४ ‘‘आत्मोन्नति’’
उत्तर-७३४ ‘‘आत्मोन्नति’’
प्रश्न-७३५ जगत में हितकारी धर्म कौन सा है?
उत्तर-७३५ ‘‘स्वधर्म’’
उत्तर-७३५ ‘‘स्वधर्म’’
प्रश्न-७३६ संसार का कारण क्या है?
उत्तर-७३६ ‘‘देहात्मबुद्धि’’
उत्तर-७३६ ‘‘देहात्मबुद्धि’’
प्रश्न-७३७ मंगल क्या है?
उत्तर-७३७ ‘‘निर्दोष परमात्मा का नाम’’
उत्तर-७३७ ‘‘निर्दोष परमात्मा का नाम’’
प्रश्न-७३८ लोकोत्तम क्या है?
उत्तर-७३८ ‘‘केवली प्रणीत धर्म’’
उत्तर-७३८ ‘‘केवली प्रणीत धर्म’’
प्रश्न-७३९ स्वावलम्बन किसे कहते हैं?
उत्तर-७३९ ‘‘स्वशुद्धात्मा का अवलम्बन लेना’’
उत्तर-७३९ ‘‘स्वशुद्धात्मा का अवलम्बन लेना’’
प्रश्न-७४० जगत् का आदर्श नेता कौन है?
उत्तर-७४० ‘‘भगवान जिन’’
उत्तर-७४० ‘‘भगवान जिन’’
प्रश्न-७४१ सत्त्याग का पाठ पढ़ाने वाला एक धर्म कौन सा है?
उत्तर-७४१ ‘‘जैनधर्म’’
उत्तर-७४१ ‘‘जैनधर्म’’
प्रश्न-७४२ शुद्धि को आवश्यक मानने वाला कौन है?
उत्तर-७४२ ‘‘जैन’’
उत्तर-७४२ ‘‘जैन’’
प्रश्न-७४३ जगत में सुखी कौन है?
उत्तर-७४३ ‘‘स्वशुद्धात्मा का सहारा लेने वाला’’
उत्तर-७४३ ‘‘स्वशुद्धात्मा का सहारा लेने वाला’’
प्रश्न-७४४ संपूर्ण जगत में याचना रहित आहार करने वाला कौन है?
उत्तर-७४४ ‘‘दिगम्बर जैन साधु’’
उत्तर-७४४ ‘‘दिगम्बर जैन साधु’’
प्रश्न-७४५ वस्तु स्वभाव को धर्म मानने वाला धर्म कौन सा है?
उत्तर-७४५ ‘‘जैन धर्म’’
उत्तर-७४५ ‘‘जैन धर्म’’
प्रश्न-७४६ मंत्र में शक्ति प्रगट करने वाला पंचपदवाचक अक्षर क्या है?
उत्तर-७४६ ‘‘ॐ’’
उत्तर-७४६ ‘‘ॐ’’
प्रश्न-७४७ संसारी जीव के साथ एक द्रव्य का संयोग संबंध है वह कौन सा है?
उत्तर-७४७ ‘‘विकारी पुद्गलद्रव्य’’
उत्तर-७४७ ‘‘विकारी पुद्गलद्रव्य’’
प्रश्न-७४८ लोक में रूपी द्रव्य कौन सा है?
उत्तर-७४८ ‘‘पुद्गल’’
उत्तर-७४८ ‘‘पुद्गल’’
प्रश्न-७४९ संसार में इंद्रियों को प्यारी वस्तु क्या है?
उत्तर-७४९ ‘‘पुद्गल की विकारी आत्मा’’
उत्तर-७४९ ‘‘पुद्गल की विकारी आत्मा’’
प्रश्न-७५० अनाथ कौन है?
उत्तर-७५० ‘‘बहिरात्मा’’
उत्तर-७५० ‘‘बहिरात्मा’’
प्रश्न-७५१ परद्रव्यपर्याय में आसक्त होने वाला कौन है?
उत्तर-७५१ ‘‘मूढ़ात्मा’’
उत्तर-७५१ ‘‘मूढ़ात्मा’’
प्रश्न-७५२ संसार में विपरीत ज्ञानी कौन है?
उत्तर-७५२ ‘‘वस्तु स्वरूप का न जानने वाला’’
उत्तर-७५२ ‘‘वस्तु स्वरूप का न जानने वाला’’
प्रश्न-७५३ जगत में अस्वस्थ कौन है?
उत्तर-७५३ ‘‘पर पर्याय में रत रहने वाला’’
उत्तर-७५३ ‘‘पर पर्याय में रत रहने वाला’’
प्रश्न-७५४ ठग किसे कहा है?
उत्तर-७५४ ‘‘अपनी आत्मा को ठगने वाला’’
उत्तर-७५४ ‘‘अपनी आत्मा को ठगने वाला’’
प्रश्न-७५५ सच्चा सुख कौन सा है?
उत्तर-७५५ ‘‘निराकुलता’’ प्र
उत्तर-७५५ ‘‘निराकुलता’’ प्र
प्रश्न-७५६ उपेक्षा का कारण क्या है?
उत्तर-७५६ ‘‘पर की अपेक्षा’’
उत्तर-७५६ ‘‘पर की अपेक्षा’’
प्रश्न-७५७ संसार में आवश्यक क्या है?
उत्तर-७५७ ‘‘अनावश्यक वस्तु का त्याग करना’’
उत्तर-७५७ ‘‘अनावश्यक वस्तु का त्याग करना’’
प्रश्न-७५८ अशांति का कारण क्या है?
उत्तर-७५८ ‘‘शंकित दृष्टि’’
उत्तर-७५८ ‘‘शंकित दृष्टि’’
प्रश्न-७५९ कलह का कारण क्या है?
उत्तर-७५९ ‘‘शंशय’’
उत्तर-७५९ ‘‘शंशय’’
प्रश्न-७६० चिंता कौन सी उपर्युक्त है?
उत्तर-७६० ‘‘स्वात्मचिंता’’
उत्तर-७६० ‘‘स्वात्मचिंता’’
प्रश्न-७६१ संसार में सार क्या है?
उत्तर-७६१ ‘‘सद्वैराग्य सार’’
उत्तर-७६१ ‘‘सद्वैराग्य सार’’
प्रश्न-७६२ इस समय मुख्य तप क्या है?
उत्तर-७६२ ‘‘स्वाध्याय’’
उत्तर-७६२ ‘‘स्वाध्याय’’
प्रश्न-७६३ सच्चा आप्त कौन है?
उत्तर-७६३ ‘‘अरिहंत’’
उत्तर-७६३ ‘‘अरिहंत’’
प्रश्न-७६४ धर्म का मूल क्या है?
उत्तर-७६४ ‘‘दया’’
उत्तर-७६४ ‘‘दया’’
प्रश्न-७६५ संसार में महापाप किसे कहा है?
उत्तर-७६५ ‘‘प्रमाद योग पूर्वक आत्मिक परिणति करना’’
उत्तर-७६५ ‘‘प्रमाद योग पूर्वक आत्मिक परिणति करना’’
प्रश्न-७६६ राष्ट्रभक्षक कौन है?
उत्तर-७६६ ‘‘उच्च संस्कार संस्कृति से रहित असंयमी’’
उत्तर-७६६ ‘‘उच्च संस्कार संस्कृति से रहित असंयमी’’
प्रश्न-७६७ परतंत्रता का कारण क्या है?
उत्तर-७६७ ‘‘बुरी आदत’’
उत्तर-७६७ ‘‘बुरी आदत’’
प्रश्न-७६८ जगत में दु:खी कौन है?
उत्तर-७६८ ‘‘अविचार में रत होने वाला’’
उत्तर-७६८ ‘‘अविचार में रत होने वाला’’
प्रश्न-७६९ बुरा शब्द एक ही है, वह क्या है?
उत्तर-७६९ ‘‘इज्जत लेने वाला शब्द’’
उत्तर-७६९ ‘‘इज्जत लेने वाला शब्द’’
प्रश्न-७७० धैर्य शाली कौन है?
उत्तर-७७० ‘‘सम्यग्ज्ञानी’’
उत्तर-७७० ‘‘सम्यग्ज्ञानी’’
प्रश्न-७७१ निर्भय कौन है?
उत्तर-७७१ ‘‘सम्यग्दृष्टि’’
उत्तर-७७१ ‘‘सम्यग्दृष्टि’’
प्रश्न-७७२ निश्चिन्त कौन है?
उत्तर-७७२ ‘‘कर्म सिद्धांत पर अचल विश्वास रखने वाला’’
उत्तर-७७२ ‘‘कर्म सिद्धांत पर अचल विश्वास रखने वाला’’
प्रश्न-७७३ पश्चाताप का कारण क्या है?
उत्तर-७७३ ‘‘मन को गिरवी रखना’’
उत्तर-७७३ ‘‘मन को गिरवी रखना’’
प्रश्न-७७४ इस लोक में निंदक एक ही है, वह कौन है?
उत्तर-७७४ ‘‘परिंनदा करने वाला’’
उत्तर-७७४ ‘‘परिंनदा करने वाला’’
प्रश्न-७७५ संसार से डरने वाला कौन है?
उत्तर-७७५ ‘‘मुमुक्षु’’
उत्तर-७७५ ‘‘मुमुक्षु’’
प्रश्न-७७६ संसार में वेप्रिक कौन है?
उत्तर-७७६ ‘‘सच्चा फकीर’’
उत्तर-७७६ ‘‘सच्चा फकीर’’
प्रश्न-७७७ संसार में सुप्त कौन है?
उत्तर-७७७ ‘‘विषयांथ’’
उत्तर-७७७ ‘‘विषयांथ’’
प्रश्न-७७८ अंधा कौन है?
उत्तर-७७८ ‘‘निर्विकार मूर्ति न देखने वाला’’
उत्तर-७७८ ‘‘निर्विकार मूर्ति न देखने वाला’’
प्रश्न-७७९ संसार में मूक कौन है?
उत्तर-७७९ ‘‘अरिहंत का नाम न लेने वाला’’
प्रश्न-७८० बहरा कौन है?
उत्तर-७८० ‘‘यथार्थ शास्त्र न सुनने वाला’’
उत्तर-७८० ‘‘यथार्थ शास्त्र न सुनने वाला’’
प्रश्न-७८१ मोक्ष का मार्ग क्या है?
उत्तर-७८१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।
उत्तर-७८१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।
प्रश्न-७८२ मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी कौन सी है?
उत्तर-७८२ मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन है।
उत्तर-७८२ मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न-७८३ मिथ्यात्व किसे कहते हैं?
उत्तर-७८३ विपरीत या गलत धारणा का नाम मिथ्यात्व है अथवा सच्चे देव, शास्त्र व गुरु पर श्रद्धान न करना या झूठे देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान करना मिथ्यात्व है।
उत्तर-७८३ विपरीत या गलत धारणा का नाम मिथ्यात्व है अथवा सच्चे देव, शास्त्र व गुरु पर श्रद्धान न करना या झूठे देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान करना मिथ्यात्व है।
प्रश्न-७८४ मिथ्यात्व के कितने भेद हैं? गृहीत व अगृहीत मिथ्यात्व में क्या अंतर है?
उत्तर-७८४ मिथ्यात्व के मुख्य दो भेद हैं-१. गृहीत मिथ्यात्व २. अगृहीत मिथ्यात्व। पर के उपदेश आदि से कुदेवादि में जो श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं और अनादिकाल से बिना किसी के उपदेश के शरीर को ही आत्मा मानना व पुत्र, धन आदि में अपनत्व करना अथवा कुदेवादि की भक्ति करना अगृहीत मिथ्यात्व है।
उत्तर-७८४ मिथ्यात्व के मुख्य दो भेद हैं-१. गृहीत मिथ्यात्व २. अगृहीत मिथ्यात्व। पर के उपदेश आदि से कुदेवादि में जो श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं और अनादिकाल से बिना किसी के उपदेश के शरीर को ही आत्मा मानना व पुत्र, धन आदि में अपनत्व करना अथवा कुदेवादि की भक्ति करना अगृहीत मिथ्यात्व है।
प्रश्न-७८५ मिथ्यात्व के ५ भेद कौन से हैं?
उत्तर-७८५ मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं-१. एकान्त २. विपरीत ३. विनय, ४ संशय ५. अज्ञान
उत्तर-७८५ मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं-१. एकान्त २. विपरीत ३. विनय, ४ संशय ५. अज्ञान
प्रश्न-७८६ विपरीत और विनय मिथ्यात्व का लक्षण बताओ?
उत्तर-७८६ अधर्म को मानना विपरीत मिथ्यात्व है जैसे-यह मानना कि हिंसा से स्वार्गदि की प्राप्ति होती है और सच्चे देव-गुरु तथा झूठे गुरु-देव आदि सबकी समान विनय करना विनय मिथ्यात्व है।
उत्तर-७८६ अधर्म को मानना विपरीत मिथ्यात्व है जैसे-यह मानना कि हिंसा से स्वार्गदि की प्राप्ति होती है और सच्चे देव-गुरु तथा झूठे गुरु-देव आदि सबकी समान विनय करना विनय मिथ्यात्व है।
प्रश्न-७८७ एकांत और अज्ञान मिथ्यात्व में क्या अंतर है?
उत्तर-७८७ जीवादि वस्तु को सर्वथा नित्य अथवा अनित्य ही मानना इत्यादि एकान्त मिथ्यात्व है। जीवादि पदार्थों को ‘यही है, इसी प्रकार से है’ इस तरह सही स्वरूप को न समझना अज्ञान मिथ्यात्व है।
उत्तर-७८७ जीवादि वस्तु को सर्वथा नित्य अथवा अनित्य ही मानना इत्यादि एकान्त मिथ्यात्व है। जीवादि पदार्थों को ‘यही है, इसी प्रकार से है’ इस तरह सही स्वरूप को न समझना अज्ञान मिथ्यात्व है।
प्रश्न-७८८ संशय मिथ्यात्व किसे कहते हैं?
उत्तर-७८८ सच्चे या झूठे धर्म में से किसी एक का निश्चय नहीं होना संशय मिथ्यात्व है। जैसे-वस्त्र सहित वेष से मोक्ष होता है या निर्गंरथ मुद्रा से इत्यादि संशय करते रहना।
उत्तर-७८८ सच्चे या झूठे धर्म में से किसी एक का निश्चय नहीं होना संशय मिथ्यात्व है। जैसे-वस्त्र सहित वेष से मोक्ष होता है या निर्गंरथ मुद्रा से इत्यादि संशय करते रहना।
प्रश्न-७८९ मिथ्यात्व के अधिक से अधिक कितने भेद हो जाते हैं?
उत्तर-७८९ मिथ्यात्व के अधिक से अधिक १३ भेद हो जाते हैं।
उत्तर-७८९ मिथ्यात्व के अधिक से अधिक १३ भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-७९० श्रीवंदक और संघ श्री का क्या सम्बंध था?
उत्तर-७९० श्री वंदक राजा धनदत्त का मंत्री बौद्धधर्मी था और संघ श्री बौद्ध गुरु थे अर्थात् उन दोनों में गुरु-शिष्य का संबंध था।
उत्तर-७९० श्री वंदक राजा धनदत्त का मंत्री बौद्धधर्मी था और संघ श्री बौद्ध गुरु थे अर्थात् उन दोनों में गुरु-शिष्य का संबंध था।
प्रश्न-७९१ श्री वंदक की आँखें क्यों फूट गयीं?
उत्तर-७९१ श्री वंदक की आँखें मुनिनिन्दा और मिथ्यात्व के पाप से फूट गयीं।
उत्तर-७९१ श्री वंदक की आँखें मुनिनिन्दा और मिथ्यात्व के पाप से फूट गयीं।
प्रश्न-७९२ मिथ्यात्व क्यों बुरा है?
उत्तर-७९२ मिथ्यात्व अनंत काल तक संसार में दु:ख देने वाला है इसलिए बुरा है।
उत्तर-७९२ मिथ्यात्व अनंत काल तक संसार में दु:ख देने वाला है इसलिए बुरा है।
प्रश्न-७९३ दान किसे कहते हैं?
उत्तर-७९३ स्व और पर के अनुग्रह के लिए अपना धन आदि वस्तु का देना दान कहलाता है।
उत्तर-७९३ स्व और पर के अनुग्रह के लिए अपना धन आदि वस्तु का देना दान कहलाता है।
प्रश्न-७९४ दान के कितने भेद हैं व कौन-कौन से हैं?
उत्तर-७९४ दान के चार भेद हैं-आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान।
उत्तर-७९४ दान के चार भेद हैं-आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान।
प्रश्न-७९५ पात्र किसे कहते हैं? उनके कितने भेद हैं?
उत्तर-७९५ जिनको दान दिया जाता है उन्हें पात्र कहते हैं। उनके तीन भेद हैं- १. सत्पात्र २. कुपात्र ३. अपात्र
उत्तर-७९५ जिनको दान दिया जाता है उन्हें पात्र कहते हैं। उनके तीन भेद हैं- १. सत्पात्र २. कुपात्र ३. अपात्र
प्रश्न-७९६ सत्पात्र के कितने व कौन-कौन से भेद हैं?
उत्तर-७९६ सत्पात्र के तीन भेद हैं- १. उत्तम पात्र – नग्न दिगम्बर साधु २. मध्यम पात्र- आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक तथा व्रती ३. जघन्य पात्र- व्रतरहित सम्यग्दृष्टि श्रावक
उत्तर-७९६ सत्पात्र के तीन भेद हैं- १. उत्तम पात्र – नग्न दिगम्बर साधु २. मध्यम पात्र- आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक तथा व्रती ३. जघन्य पात्र- व्रतरहित सम्यग्दृष्टि श्रावक
प्रश्न-७९७ कुपात्र व अपात्र का लक्षण बताते हुए यह बताओ कि कुपात्र व अपात्र में दिये हुए दान का क्या फल मिलता है?
उत्तर-७९७ सम्यक्त्व रहित मिथ्या तप करने वाले कुपात्र एवं सम्यक्त्व तथा व्रतरहित जीव अपात्र कहलाते हैं। कुपात्र के दान से कुभोगभूमि मिलती है और अपात्र में दिया गया दान व्यर्थ चला जाता है।
उत्तर-७९७ सम्यक्त्व रहित मिथ्या तप करने वाले कुपात्र एवं सम्यक्त्व तथा व्रतरहित जीव अपात्र कहलाते हैं। कुपात्र के दान से कुभोगभूमि मिलती है और अपात्र में दिया गया दान व्यर्थ चला जाता है।
प्रश्न-७९८ नवधाभक्ति के नाम बताते हुए उनका लक्षण बताओ?
उत्तर-७९८ पड़गाहन, उच्चासन, पाद प्रक्षाल, पूजन, नमस्कार करना, मन, वचन, काय की शुद्धि और आहार जल शुद्ध यह नवधाभक्ति हे। आये हुए साधुओं को देखकर उनका पड़गाहन करना, नमस्कार आदि करना तथा मन, वचन, काय की शुद्धि बोलकर भोजन की शुद्धि कहना नवधाभक्ति कहलाती है।
उत्तर-७९८ पड़गाहन, उच्चासन, पाद प्रक्षाल, पूजन, नमस्कार करना, मन, वचन, काय की शुद्धि और आहार जल शुद्ध यह नवधाभक्ति हे। आये हुए साधुओं को देखकर उनका पड़गाहन करना, नमस्कार आदि करना तथा मन, वचन, काय की शुद्धि बोलकर भोजन की शुद्धि कहना नवधाभक्ति कहलाती है।
प्रश्न-७९९ दाता के सात गुण कौन-कौन से माने हैं?
उत्तर-७९९ श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विवेक, अलोभ, क्षमा और सत्य ये दाता के सात गुण माने गये हैं।
उत्तर-७९९ श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विवेक, अलोभ, क्षमा और सत्य ये दाता के सात गुण माने गये हैं।
प्रश्न-८०० अक्षीणऋद्धि का क्या फल है?
उत्तर-८०० अक्षीणऋाद्ध के माहात्म्य से खाने योग्य वस्तु अक्षीण अर्थात् बढ़ती ही चली जाती हैं।
उत्तर-८०० अक्षीणऋाद्ध के माहात्म्य से खाने योग्य वस्तु अक्षीण अर्थात् बढ़ती ही चली जाती हैं।
प्रश्न-८०१ धन्यकुमार की कहानी संक्षेप में बताओ?
उत्तर-८०१ भोगवती नगरी के राजा कामवृष्टि की रानी मिष्टदाना के गर्भ में पापी बालक के आते ही राजा की मृत्यु हो गयी और राजा के नौकर सुकृतपुण्य के हाथ में राज्य चला गया। माता ने बालक को पुण्य हीन जानकर उसका नाम अकृतपुण्य रख दिया और पराई मजदूरी कर उसका पालन किया। किसी दिन वह बालक सुकृतपुण्य के खेत पर काम करने गया। राजा ने अपने स्वामी का पुत्र जान उसे कुछ दीनारें मजदूरी में दी परन्तु वह अंगार बन गर्इं जब उसे उसकी इच्छानुसार चने दिये। यह देख माता वह नगर छोड़ दूसरे नगर में एक सेठ के घर काम करने लगी। एक दिन सेठ के घर बच्चों को खीर खाते देख इसने भी खीर माँगी तब वह बालक के हाथों पिटा तब दयालु सेठ ने उसकी माँ को खीर बनाने का समान दे दिया। माँ उसे समझाकर कि ‘कोई मुनि आवे तो रोक लेना’ स्वयं जल भरने चली गयी तभी उधर से एक साधु आ गये बालक ने जबरन उन्हें रोक लिया, इतने में उसकी माँ आ गयी और विधिवत् पड़गाहन कर खीर का आहार दिया वह मुनि अक्षीणऋद्धि धारी थे अत: उसने वह खीर पूरे गाँव वालों को खिलाई पर खत्न न हुई। आहार दान की अनुमोदना के कारण ही वह बालक आगे चलकर धन्यकुमार हुआ।
उत्तर-८०१ भोगवती नगरी के राजा कामवृष्टि की रानी मिष्टदाना के गर्भ में पापी बालक के आते ही राजा की मृत्यु हो गयी और राजा के नौकर सुकृतपुण्य के हाथ में राज्य चला गया। माता ने बालक को पुण्य हीन जानकर उसका नाम अकृतपुण्य रख दिया और पराई मजदूरी कर उसका पालन किया। किसी दिन वह बालक सुकृतपुण्य के खेत पर काम करने गया। राजा ने अपने स्वामी का पुत्र जान उसे कुछ दीनारें मजदूरी में दी परन्तु वह अंगार बन गर्इं जब उसे उसकी इच्छानुसार चने दिये। यह देख माता वह नगर छोड़ दूसरे नगर में एक सेठ के घर काम करने लगी। एक दिन सेठ के घर बच्चों को खीर खाते देख इसने भी खीर माँगी तब वह बालक के हाथों पिटा तब दयालु सेठ ने उसकी माँ को खीर बनाने का समान दे दिया। माँ उसे समझाकर कि ‘कोई मुनि आवे तो रोक लेना’ स्वयं जल भरने चली गयी तभी उधर से एक साधु आ गये बालक ने जबरन उन्हें रोक लिया, इतने में उसकी माँ आ गयी और विधिवत् पड़गाहन कर खीर का आहार दिया वह मुनि अक्षीणऋद्धि धारी थे अत: उसने वह खीर पूरे गाँव वालों को खिलाई पर खत्न न हुई। आहार दान की अनुमोदना के कारण ही वह बालक आगे चलकर धन्यकुमार हुआ।
प्रश्न-८०२ वृषभसेना ने पूर्वजन्म में क्या-क्या पुण्या किया था जिससे औषधि ऋद्धि हुई?
उत्तर-८०२ वृषभसेना ने पूर्वजन्म में मुनि के कष्ट दूर करने के लिए उनकी औषधि दान पूर्वक भरपूर सेवा सुश्रूषा की जिससे वह अगले भव में जाकर वृषभसेना हुई जिसको औषधि ऋद्धि प्राप्त थी।
उत्तर-८०२ वृषभसेना ने पूर्वजन्म में मुनि के कष्ट दूर करने के लिए उनकी औषधि दान पूर्वक भरपूर सेवा सुश्रूषा की जिससे वह अगले भव में जाकर वृषभसेना हुई जिसको औषधि ऋद्धि प्राप्त थी।
प्रश्न-८०३ औषधिदान दान का लक्षण बताओ इससे हमें क्या फल मिलता है?
उत्तर-८०३ उत्तम आदि पात्रों को किसी प्रकार का रोग हो जाने पर शुद्ध प्रासुक औषधि का दान देना औषधिदान है। यह दान भव-भव में निरोग शरीर प्रदान करके अंत में मोक्ष प्रदान करने वाला है।
उत्तर-८०३ उत्तम आदि पात्रों को किसी प्रकार का रोग हो जाने पर शुद्ध प्रासुक औषधि का दान देना औषधिदान है। यह दान भव-भव में निरोग शरीर प्रदान करके अंत में मोक्ष प्रदान करने वाला है।
प्रश्न-८०४ शास्त्रदान का लक्षण बताओ? शास्त्रदान से क्या फल मिलता है?
उत्तर-८०४ जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित और गणधर आदि मुनियों द्वारा रचित शास्त्र को सच्चे शास्त्र कहते हैं। ऐसे आचार्य प्रणति निर्दोष आगम ग्रंथों को मुद्रण कराकर उत्तम पात्रों को देना या विद्यालय खोलना, धार्मिक शिक्षण की व्यवस्था करना आदि शास्त्रदान कहलाता है इसके दान से केवलज्ञान प्राप्त होता है।
उत्तर-८०४ जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित और गणधर आदि मुनियों द्वारा रचित शास्त्र को सच्चे शास्त्र कहते हैं। ऐसे आचार्य प्रणति निर्दोष आगम ग्रंथों को मुद्रण कराकर उत्तम पात्रों को देना या विद्यालय खोलना, धार्मिक शिक्षण की व्यवस्था करना आदि शास्त्रदान कहलाता है इसके दान से केवलज्ञान प्राप्त होता है।
प्रश्न-८०५ शास्त्रदान में कौन प्रसिद्ध हुआ? कथा संक्षेप में बताओ?
उत्तर-८०५ शास्त्रदान में एक ग्वाला प्रसिद्ध हुुआ कथा इस प्रकार से है—कुरुमरी गाँव में एक ग्वाले ने एक बार जंगल के वृक्ष की कोटर में एक जैन ग्रंथ देखा। उसे घर ले जाकर उसकी पूजा करता था एक दिन वह ग्रंथ एक मुनिराज को दान में दे दिया वह ग्वाला मर कर उसी गाँव के चौधरी का पुत्र हो गया। एक दिन उन्हीं मुनि को देख जातिस्मरण हो जाने से दीक्षित हो मुनि हो गया। कालान्तर में वह जीव राजा कौंडेश हो गया। राज्य सुखों को भोगकर राजा ने मुनिदीक्षा ले ली, चूँकि ग्वाले के जन्म में शास्त्रदान दिया था जिससे वह थोड़े ही दिनों में द्वादशांग के पारगामी श्रुतकेवली बन गये।
उत्तर-८०५ शास्त्रदान में एक ग्वाला प्रसिद्ध हुुआ कथा इस प्रकार से है—कुरुमरी गाँव में एक ग्वाले ने एक बार जंगल के वृक्ष की कोटर में एक जैन ग्रंथ देखा। उसे घर ले जाकर उसकी पूजा करता था एक दिन वह ग्रंथ एक मुनिराज को दान में दे दिया वह ग्वाला मर कर उसी गाँव के चौधरी का पुत्र हो गया। एक दिन उन्हीं मुनि को देख जातिस्मरण हो जाने से दीक्षित हो मुनि हो गया। कालान्तर में वह जीव राजा कौंडेश हो गया। राज्य सुखों को भोगकर राजा ने मुनिदीक्षा ले ली, चूँकि ग्वाले के जन्म में शास्त्रदान दिया था जिससे वह थोड़े ही दिनों में द्वादशांग के पारगामी श्रुतकेवली बन गये।
प्रश्न-८०६ अभयदान का लक्षण बताते हुए उसका फल बताओ?
उत्तर-८०६ उत्तम आदि पात्रों को धर्मानुकूल वसतिका में ठहराना अथवा नई वसतिका बनवाकर साधुओं के लिए सुविधा कराना अभयदान है। इस दान के प्रभाव से प्राणी निर्भय होकर मोक्षमार्ग के विघ्नों को दूर करके निर्भय मोक्ष पद प्राप्त कर लेते हैं।
उत्तर-८०६ उत्तम आदि पात्रों को धर्मानुकूल वसतिका में ठहराना अथवा नई वसतिका बनवाकर साधुओं के लिए सुविधा कराना अभयदान है। इस दान के प्रभाव से प्राणी निर्भय होकर मोक्षमार्ग के विघ्नों को दूर करके निर्भय मोक्ष पद प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न-८०७ उपकरण दान में क्या-क्या दे सकते हैं?
उत्तर-८०७ उपकरण दान में मुनि आर्यिका को पिच्छी-कमण्डलु देना, आर्यिका-क्षुल्लिका को साड़ी, ऐलक-क्षुल्लक को कोपीन-चादर आदि देना तथा लेखनी, स्याही, कागज आदि देना भी उपकरणदान कहलाता है।
उत्तर-८०७ उपकरण दान में मुनि आर्यिका को पिच्छी-कमण्डलु देना, आर्यिका-क्षुल्लिका को साड़ी, ऐलक-क्षुल्लक को कोपीन-चादर आदि देना तथा लेखनी, स्याही, कागज आदि देना भी उपकरणदान कहलाता है।
प्रश्न-८०८ सूकर और व्याघ्र कौन थे और मरकर कहाँ गये?
उत्तर-८०८ कुम्हार का जीव सूकर था तथा नाई का जीव व्याघ्र था जिसमें कुम्हार ने मुनि को वसतिका में ठहराया था और नाई ने मुनि को निकालकर एक सन्यासी हो ठहराया था।सूकर के भाव मुनि रक्षा के थे अत: वह स्वर्ग गया और व्याघ्र हिंसा के भाव से नरक गया।
उत्तर-८०८ कुम्हार का जीव सूकर था तथा नाई का जीव व्याघ्र था जिसमें कुम्हार ने मुनि को वसतिका में ठहराया था और नाई ने मुनि को निकालकर एक सन्यासी हो ठहराया था।सूकर के भाव मुनि रक्षा के थे अत: वह स्वर्ग गया और व्याघ्र हिंसा के भाव से नरक गया।
प्रश्न-८०९ दानदत्ति और दयादत्ति में क्या अंतर है?
उत्तर-८०९ उपर्युक्त चार प्रकार से पात्रों को दान देना दानदत्ति है। और दीन, दु:खी, अन्धे, लंगड़े, रोगी आदि को करुणापूर्वक भोजन, वस्त, औषधि आदि दान देना दयादत्ति है।
उत्तर-८०९ उपर्युक्त चार प्रकार से पात्रों को दान देना दानदत्ति है। और दीन, दु:खी, अन्धे, लंगड़े, रोगी आदि को करुणापूर्वक भोजन, वस्त, औषधि आदि दान देना दयादत्ति है।
प्रश्न-८१० अन्वयदत्ति का लक्षण बताओ?
उत्तर-८१० अपने पुत्र को घुर का भार सौंपकर आप निश्चिन्त हो धर्माराधन करना अन्वयदत्ति है।
उत्तर-८१० अपने पुत्र को घुर का भार सौंपकर आप निश्चिन्त हो धर्माराधन करना अन्वयदत्ति है।
प्रश्न-८११ चार प्रकार के दानों में सर्वश्रेष्ठ दान कौन सा है?
उत्तर-८११ चार प्रकार के दानों में सर्वश्रेष्ठ दान आहारदान है।
उत्तर-८११ चार प्रकार के दानों में सर्वश्रेष्ठ दान आहारदान है।
प्रश्न-८१२ गति किसे कहते हैं?
उत्तर-८१२ जो एक पर्याय से दूसरी पर्याय में ले जाये वह गति है।
उत्तर-८१२ जो एक पर्याय से दूसरी पर्याय में ले जाये वह गति है।
प्रश्न-८१३ गतियाँ कितनी होती हैं नाम बताओ?
उत्तर-८१३ गतियाँ चार होती हैं-मनुष्यगति, देवगति, तिर्यंच गति और नरगगति।
उत्तर-८१३ गतियाँ चार होती हैं-मनुष्यगति, देवगति, तिर्यंच गति और नरगगति।
प्रश्न-८१४ नरक गति किसे कहते हैं?
उत्तर-८१४ नामकर्म के उदय से नरक में जन्म लोन नरक गति है।
उत्तर-८१४ नामकर्म के उदय से नरक में जन्म लोन नरक गति है।
प्रश्न-८१५ नरक गति में क्या-क्या दु:ख हैं?
उत्तर-८१५ नरक में हर समय मार-काट का दु:ख ही होता रहता है, सुख का लेश भी नहीं है।
उत्तर-८१५ नरक में हर समय मार-काट का दु:ख ही होता रहता है, सुख का लेश भी नहीं है।
प्रश्न-८१६ तिर्यंचगति किसे कहते हैं?
उत्तर-८१६ नामकर्म के उदय से जीव तिर्यंच होते हैं।
उत्तर-८१६ नामकर्म के उदय से जीव तिर्यंच होते हैं।
प्रश्न-८१७ मनुष्यगति का लक्षण बताओ?
उत्तर-८१७ नामकर्म के उदय से मनुष्य में जन्म लेकर स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक होते हैं।
उत्तर-८१७ नामकर्म के उदय से मनुष्य में जन्म लेकर स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक होते हैं।
प्रश्न-८१८ देवगति का लक्षण बताओ?
उत्तर-८१८ नामकर्म के उदय से देवों में उत्तम वैक्रियक शरीर प्राप्त करके दिव्य सुखों का भोग करते हैं।
उत्तर-८१८ नामकर्म के उदय से देवों में उत्तम वैक्रियक शरीर प्राप्त करके दिव्य सुखों का भोग करते हैं।
प्रश्न-८१९ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह से कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-८१९ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह से नरक गति मितती है।
उत्तर-८१९ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह से नरक गति मितती है।
प्रश्न-८२० मायाचारी करने से कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-८२० मायाचारी करने से तिर्यंच गति मिलती है।
उत्तर-८२० मायाचारी करने से तिर्यंच गति मिलती है।
प्रश्न-८२१ अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह से कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-८२१ अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह से मनुष्य गति मिलती है।
उत्तर-८२१ अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह से मनुष्य गति मिलती है।
प्रश्न-८२२ सरल स्वभाव एवं निर्मल परिणाम से कौन सी गति मिलती है?
उत्तर-८२२ सरल स्वभाव और निर्मल परिणाम से देवगति मिलती है।
उत्तर-८२२ सरल स्वभाव और निर्मल परिणाम से देवगति मिलती है।
प्रश्न-८२३ संसार में सबसे दुर्लभ पर्याय व दुर्लभ गति कौन सी है?
उत्तर-८२३ संसार में सबसे दुर्लभ पर्याय मनुष्य पर्याय और दुर्लभ गति मनुष्य गति है।
उत्तर-८२३ संसार में सबसे दुर्लभ पर्याय मनुष्य पर्याय और दुर्लभ गति मनुष्य गति है।
प्रश्न-८२४ चारों गतियों में सबसे अच्छी गति कौन सी है और क्यों?
उत्तर-८२४ चारों गतियों में सबसे अच्छी गति मनुष्य गति है क्योंकि हम मनुष्य गति से ही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर मोक्ष जा सकते हैं।
उत्तर-८२४ चारों गतियों में सबसे अच्छी गति मनुष्य गति है क्योंकि हम मनुष्य गति से ही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर मोक्ष जा सकते हैं।
प्रश्न-८२५ पेड़-पौधे कौन सी गति के जीव हैं?
उत्तर-८२५ पेड़-पौधे तिर्यंचगति के जीव हैं।
उत्तर-८२५ पेड़-पौधे तिर्यंचगति के जीव हैं।
प्रश्न-८२६ पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायुकायिक जीव कौन सी गति के जीव हैं?
उत्तर-८२६ पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायुकायिक तिर्यंच गति के जीव हैं।
उत्तर-८२६ पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायुकायिक तिर्यंच गति के जीव हैं।
प्रश्न-८२७ तुम किस गति में हो?
उत्तर-८२७ हम मनुष्य गति में हैं।
उत्तर-८२७ हम मनुष्य गति में हैं।
प्रश्न-८२८ बंदर, हाथी, चींटी और स्त्री किस गति में हैं?
उत्तर-८२८ बंदर, हाथी तथा चींटी तो तिर्यंचगति के जीव हैं और स्त्री मनुष्यगति में हैं।
उत्तर-८२८ बंदर, हाथी तथा चींटी तो तिर्यंचगति के जीव हैं और स्त्री मनुष्यगति में हैं।
प्रश्न-८२९ कर्म किसे कहते हैं?
उत्तर-८२९ जो आत्मा को परतन्त्र करता है, दु:ख देता है, संसार में परिभ्रमण कराता है, उसे कर्म कहते हैं।
उत्तर-८२९ जो आत्मा को परतन्त्र करता है, दु:ख देता है, संसार में परिभ्रमण कराता है, उसे कर्म कहते हैं।
प्रश्न-८३० कर्मों के मूल भेद कितने हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-८३० कर्म के मूल आठ भेद हैं-१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय।
उत्तर-८३० कर्म के मूल आठ भेद हैं-१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय।
प्रश्न-८३१ कर्म के दो भेद कौन से हैं और उनके लक्षण क्या हैं?
उत्तर-८३१ कर्म के दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भाव कर्म। पुद्गल के पिण्ड को द्रव्यकर्म कहते हैं और उसमें जो फल देने की शक्ति है वह भावकर्म है अथवा कर्म के निमित्त से जो आत्मा के राग, द्वेष, अज्ञान आदि भाव होते हैं वह भावकर्म है।
उत्तर-८३१ कर्म के दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भाव कर्म। पुद्गल के पिण्ड को द्रव्यकर्म कहते हैं और उसमें जो फल देने की शक्ति है वह भावकर्म है अथवा कर्म के निमित्त से जो आत्मा के राग, द्वेष, अज्ञान आदि भाव होते हैं वह भावकर्म है।
प्रश्न-८३२ वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन कर्मों के अलावा शेष चार कर्मों के लक्षण बताओ?
उत्तर-८३२ ज्ञानावरण-जो आत्मा के ज्ञान गुण को ढ़कता है उसे ज्ञानावरण कहते है। दर्शनावरण-जो आत्मा के दर्शन गुण को ढ़कता है उसे दर्शनावरण कहते है। मोहनीय-जिनके उदय से जीव अपने स्वरूप को भूलकर अन्य को अपना समझने लगता है वह मोहनीय है। अंतराय-जो दान, लाभ आदि में विघ्न डालता है उसे अंतराय कहते हैं।
उत्तर-८३२ ज्ञानावरण-जो आत्मा के ज्ञान गुण को ढ़कता है उसे ज्ञानावरण कहते है। दर्शनावरण-जो आत्मा के दर्शन गुण को ढ़कता है उसे दर्शनावरण कहते है। मोहनीय-जिनके उदय से जीव अपने स्वरूप को भूलकर अन्य को अपना समझने लगता है वह मोहनीय है। अंतराय-जो दान, लाभ आदि में विघ्न डालता है उसे अंतराय कहते हैं।
प्रश्न-८३३ अघातिया कर्मों के नाम बताते हुए उनकी परिभाषा बताओ?
उत्तर-८३३ अघातिया कर्मों के नाम व परिभाषा—वेदनीय-जो आत्मा को सुख-दु:ख देता है वह वेदनीय है। आयु-जो जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में किसी एक शरीर में रोके रखता है वह आयु है। नाम-जिससे शरीर और अंगोपांग आदि की रचना होती है उसे नामकर्म कहते हैं। गोत्र-जिससे जीव उच्च अथवा नीच कुल में पैदा होता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं।
उत्तर-८३३ अघातिया कर्मों के नाम व परिभाषा—वेदनीय-जो आत्मा को सुख-दु:ख देता है वह वेदनीय है। आयु-जो जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में किसी एक शरीर में रोके रखता है वह आयु है। नाम-जिससे शरीर और अंगोपांग आदि की रचना होती है उसे नामकर्म कहते हैं। गोत्र-जिससे जीव उच्च अथवा नीच कुल में पैदा होता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं।
प्रश्न-८३४ आस्रव किसे कहते हैं? इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८३४ कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं। इसके दो भेद हैं-पुण्यास्रव व पापस्रव।
उत्तर-८३४ कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं। इसके दो भेद हैं-पुण्यास्रव व पापस्रव।
प्रश्न-८३५ ज्ञानावरणीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८३५ ज्ञानी से ईष्र्या करना, ज्ञानी के साधनों में विघ्न डालना, आने ज्ञान को छिपाना, दूसरों को नहीं बताना, गुरु का नाम छिपाना, ज्ञान का गर्व करना इत्यादि कार्यों से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है।
उत्तर-८३५ ज्ञानी से ईष्र्या करना, ज्ञानी के साधनों में विघ्न डालना, आने ज्ञान को छिपाना, दूसरों को नहीं बताना, गुरु का नाम छिपाना, ज्ञान का गर्व करना इत्यादि कार्यों से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८३६ दर्शनावरण कर्म के आस्रव के क्या कारण है?
उत्तर-८३६ जिनेन्द्र भगवान के दशनों में विघ्न डालना, किसी की आँख फोड़ना, दिन में सोना, मुनियों को देखकर ग्लानि करना, अपनी दृष्टि का गर्व करना इत्यादि से दर्शनवरण कर्म का आस्रव होता है।
उत्तर-८३६ जिनेन्द्र भगवान के दशनों में विघ्न डालना, किसी की आँख फोड़ना, दिन में सोना, मुनियों को देखकर ग्लानि करना, अपनी दृष्टि का गर्व करना इत्यादि से दर्शनवरण कर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८३७ असाता वेदनीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८३७ अपने को अथवा दूसरे को दु:ख उत्पन्न करना, शोक करना, रोना-विलाप करना, जीव वध करना इत्यादि कार्यों से असाता वेदनीय का आस्रव होता है। प्रश्न-८३८ साता वेदनीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८३८ जीव दया करना, दान करना, संयम पालना, वात्सल्य करना, वैयावृत्ति करना आदि कार्यों से साता वेदनीय का आस्रव होता है।
उत्तर-८३७ अपने को अथवा दूसरे को दु:ख उत्पन्न करना, शोक करना, रोना-विलाप करना, जीव वध करना इत्यादि कार्यों से असाता वेदनीय का आस्रव होता है। प्रश्न-८३८ साता वेदनीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८३८ जीव दया करना, दान करना, संयम पालना, वात्सल्य करना, वैयावृत्ति करना आदि कार्यों से साता वेदनीय का आस्रव होता है।
प्रश्न-८३९ दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८३९ सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्म में दोष लगाना आदि से दर्शन मोहनीय का आस्रव होता है।
उत्तर-८३९ सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्म में दोष लगाना आदि से दर्शन मोहनीय का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४० चारत्रि मोहनीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८४० कषायों की तीव्रता रखना, चारित्र में दोष लगाना, मलिन भाव करना आदि से चारित्र मोहनीय का आस्रव होता है।
उत्तर-८४० कषायों की तीव्रता रखना, चारित्र में दोष लगाना, मलिन भाव करना आदि से चारित्र मोहनीय का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४१ नरकायु का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४१ बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह से नरकायु का आस्रव होता है।
उत्तर-८४१ बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह से नरकायु का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४२ तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४२ मायाचारी से तिर्यंचायु, थोड़ा आरंभ और थोड़े परिग्रह से मनुष्यायु और सम्यक्त्व, व्रतपालन, देश संयम, बालतप आदि से देवायु का आस्रव होता है।
उत्तर-८४२ मायाचारी से तिर्यंचायु, थोड़ा आरंभ और थोड़े परिग्रह से मनुष्यायु और सम्यक्त्व, व्रतपालन, देश संयम, बालतप आदि से देवायु का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४३ शुभ नाम कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८४३ मन, वचन, काय को सरल रखना, धर्मात्मा से विसंवाद नहीं करना, षोडशकारणभावना आदि से शुभ नामकर्म का आस्रव होता है।
उत्तर-८४३ मन, वचन, काय को सरल रखना, धर्मात्मा से विसंवाद नहीं करना, षोडशकारणभावना आदि से शुभ नामकर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४४ अशुभ नामकर्म का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४४ कुटिल भाव, झगड़ा, कलह आदि से अशुभ नाम कर्म का आस्रव होता है।
उत्तर-८४४ कुटिल भाव, झगड़ा, कलह आदि से अशुभ नाम कर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४५ नीच गोत्र के आस्रव के क्या कारण हैं?
उत्तर-८४५ दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा करना, दूसरों के गुणों को ढ़कना और अपने झूठे गुणों का बखान करना, मद करना आदि से नीच गोत्र का आस्रव होता है।
उत्तर-८४५ दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा करना, दूसरों के गुणों को ढ़कना और अपने झूठे गुणों का बखान करना, मद करना आदि से नीच गोत्र का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४६ उच्च गोत्र का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४६ दूसरे की प्रशंसा करना, अपनी निंदा करना, दूसरे के दोषों को ढ़कना, अपने दोषों को प्रकट करना, गुरुओं के प्रति विनम्र प्रवृत्ति रखना, विनय करना आदि से उच्च गोत्र का आस्रव होता है।
उत्तर-८४६ दूसरे की प्रशंसा करना, अपनी निंदा करना, दूसरे के दोषों को ढ़कना, अपने दोषों को प्रकट करना, गुरुओं के प्रति विनम्र प्रवृत्ति रखना, विनय करना आदि से उच्च गोत्र का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४७ अंतराय कर्म का आस्रव कैसे होता है?
उत्तर-८४७ दान देने वाले को रोक देना, आश्रितों को धर्मस्थान नहीं करने देना, देव-द्रव्य-मंदिर के द्रव्य को हड़प जाना, दूसरों की भोगादि वस्तु या शक्ति में विघ्न डालना आदि से अंतराय कर्म का आस्रव होता है।
उत्तर-८४७ दान देने वाले को रोक देना, आश्रितों को धर्मस्थान नहीं करने देना, देव-द्रव्य-मंदिर के द्रव्य को हड़प जाना, दूसरों की भोगादि वस्तु या शक्ति में विघ्न डालना आदि से अंतराय कर्म का आस्रव होता है।
प्रश्न-८४८ आस्रव के १०८ भेद कैसे होते हैं?
उत्तर-८४८ समरंभ, समारंभ, आरंभ, मन, वचन, काय ये तीन, कृत, कारित, अनुमोदना ये तीन और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय। इनका परस्पर गुणा करने से आस्रव के १०८ भेद होते हैं।
उत्तर-८४८ समरंभ, समारंभ, आरंभ, मन, वचन, काय ये तीन, कृत, कारित, अनुमोदना ये तीन और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय। इनका परस्पर गुणा करने से आस्रव के १०८ भेद होते हैं।
प्रश्न-८४९ बंध के कारण कितने हैं?
उत्तर-८४९ बंध के कारण-मिथ्यादर्शन १. अविरति-१२, प्रमाद-१५, कषाय-२५ और योग-१५ ये सब कर्म बंधन के कारण हैं।
उत्तर-८४९ बंध के कारण-मिथ्यादर्शन १. अविरति-१२, प्रमाद-१५, कषाय-२५ और योग-१५ ये सब कर्म बंधन के कारण हैं।
प्रश्न-८५० बंध किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८५०.कषाय सहित जीव जो कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बंध है। इसके चार भेद हैं-प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध।
प्रश्न-८५१प्रकृति बंध तथा स्थितिबंध में क्या अंतर है?
उत्तर-८५१ कर्मों का ज्ञानादि के ढ़कने का स्वभाव होना प्रकृति बंध है और कर्मों में आत्मा के साथ रहने की मर्यादा स्थितिबंध है।
उत्तर-८५१ कर्मों का ज्ञानादि के ढ़कने का स्वभाव होना प्रकृति बंध है और कर्मों में आत्मा के साथ रहने की मर्यादा स्थितिबंध है।
प्रश्न-८५२अनुभाग बंध किसे कहते हैं?
उत्तर-८५२कर्मों में तीव्र मंद आदि फल देने की शक्ति अनुभाग बंध है।
उत्तर-८५२कर्मों में तीव्र मंद आदि फल देने की शक्ति अनुभाग बंध है।
प्रश्न-८५३ प्रकृति बंध के मूल भेद व उत्तर भेद कितने हैं?
उत्तर-८५३ प्रकृति बंध के मूल भेद आठ हैं-१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. नाम ७. गोत्र और ८. अंतराय और भेद १४८ हैं।
उत्तर-८५३ प्रकृति बंध के मूल भेद आठ हैं-१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. नाम ७. गोत्र और ८. अंतराय और भेद १४८ हैं।
प्रश्न-८५४ कर्मों के १४८ भेद किस प्रकार से हुए?
उत्तर-८५४ ज्ञानावरण के ५, दर्शनावरण के ९, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु के ४, नाम के ९३, गोत्र के २ और अंतराय के ५ ऐसे १४८ उत्तर भेद हैं।
उत्तर-८५४ ज्ञानावरण के ५, दर्शनावरण के ९, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु के ४, नाम के ९३, गोत्र के २ और अंतराय के ५ ऐसे १४८ उत्तर भेद हैं।
प्रश्न-८५५ ज्ञानावरण के ५ भेदों के नाम बताओ?
उत्तर-८५५ ज्ञानावरण के ५ भेद हैं-१. मतिज्ञानावरण २. श्रुतज्ञानावरण ३.अवधिज्ञानावरण ४. मन:पर्ययज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण।
उत्तर-८५५ ज्ञानावरण के ५ भेद हैं-१. मतिज्ञानावरण २. श्रुतज्ञानावरण ३.अवधिज्ञानावरण ४. मन:पर्ययज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण।
प्रश्न-८५६ दर्शनावरण के कितने भेद हैं?
उत्तर-८५६ दर्शनावरण के ९ भेद हैं—१. चक्षुदर्शनावरण २. अचक्षुदर्शनावरण ३. अवधिदर्शनावरण ४. केवलदर्शनावरण ५. निद्रा ६. निद्रानिद्रा ७. प्रचला ८. प्रचलाप्रचला ९. स्त्यानगृद्धि।
उत्तर-८५६ दर्शनावरण के ९ भेद हैं—१. चक्षुदर्शनावरण २. अचक्षुदर्शनावरण ३. अवधिदर्शनावरण ४. केवलदर्शनावरण ५. निद्रा ६. निद्रानिद्रा ७. प्रचला ८. प्रचलाप्रचला ९. स्त्यानगृद्धि।
प्रश्न-८५७ पाँचों निद्राओं के लक्षण बताओ?
उत्तर-८५७ निद्रा-जिस कर्म के उदय से निद्रा आती है उसे निद्रा दर्शनावरण कहते हैं। निद्रानिद्रा-जिसके उदय से नींद पर नींद आती है उसे निद्रानिद्रा कहते हैं। प्रचला-जिसके उदय से प्राणी कुछ जागता है, कुछ सोता है उसे प्रचला कहते हैं। प्रचलाप्रचला-जिसके उदय से सोते समय मुख से लार बहती है और आंगोपांग भी चलते हैं उसे प्रचलाप्रचला कहते हैं। स्त्यानगृद्धि-जिसके उदय से प्राणी सोते समय नानाप्रकार के भयंकर काम कर डालता है और जागने पर कुछ मालूम नहीं रहता कि मैंने क्या किया है उसे स्त्यानगृद्धि कहते हैं।
उत्तर-८५७ निद्रा-जिस कर्म के उदय से निद्रा आती है उसे निद्रा दर्शनावरण कहते हैं। निद्रानिद्रा-जिसके उदय से नींद पर नींद आती है उसे निद्रानिद्रा कहते हैं। प्रचला-जिसके उदय से प्राणी कुछ जागता है, कुछ सोता है उसे प्रचला कहते हैं। प्रचलाप्रचला-जिसके उदय से सोते समय मुख से लार बहती है और आंगोपांग भी चलते हैं उसे प्रचलाप्रचला कहते हैं। स्त्यानगृद्धि-जिसके उदय से प्राणी सोते समय नानाप्रकार के भयंकर काम कर डालता है और जागने पर कुछ मालूम नहीं रहता कि मैंने क्या किया है उसे स्त्यानगृद्धि कहते हैं।
प्रश्न-८५८ वेदनीय के भेदों को बताते हुए साता वेदनीय का लक्षण बताओ?
उत्तर-८५८ वेदनीय के दो भेद हैं-१. सातावेदनीय २. असातावेदनीय। सातावेदनीय-जिस कर्म के उदय से शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार की सुख सामग्री मिले या सुख मिले उसे साता वेदनीय कहते हैं।
उत्तर-८५८ वेदनीय के दो भेद हैं-१. सातावेदनीय २. असातावेदनीय। सातावेदनीय-जिस कर्म के उदय से शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार की सुख सामग्री मिले या सुख मिले उसे साता वेदनीय कहते हैं।
प्रश्न-८५९ मोहनीय के मूल और उत्तर भेदों के नाम बताओ?
उत्तर-८५९ मोहनीय के मूल दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय और इसके उत्तरभेद २८ हैं। दर्शनमोहनीय के ३ भेद और चारित्रमोहनीय के पहले दो भेद हैं-कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय। कषायवेदनीय के १६ भेद और अकषायवेदनीय के ९ भेद ऐसे दर्शनमोह के ३ और चारित्रमोहनीय के २५ मिलकर २८ भेद हुए।
उत्तर-८५९ मोहनीय के मूल दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय और इसके उत्तरभेद २८ हैं। दर्शनमोहनीय के ३ भेद और चारित्रमोहनीय के पहले दो भेद हैं-कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय। कषायवेदनीय के १६ भेद और अकषायवेदनीय के ९ भेद ऐसे दर्शनमोह के ३ और चारित्रमोहनीय के २५ मिलकर २८ भेद हुए।
प्रश्न-८६० दर्शनमोहनीय किसे कहते हैं उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८६०जो आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करता है उसे दर्शनमोहनीय कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व।
उत्तर-८६०जो आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करता है उसे दर्शनमोहनीय कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व।
प्रश्न-८६१चारित्रमोहनीय किसे कहते हैं? इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८६१जिस कर्म के उदय से आत्मा के चारित्र गुण का घात होता है उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं। इसके दो भेद हैं-कषाय वेदनीय और अकषाय वेदनीय।
उत्तर-८६१जिस कर्म के उदय से आत्मा के चारित्र गुण का घात होता है उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं। इसके दो भेद हैं-कषाय वेदनीय और अकषाय वेदनीय।
प्रश्न-८६२ कषायवेदनीय व अकषायवेदनीय में क्या अंतर है?
उत्तर-८६२ जो आत्मा के गुण-शुभ या शुद्ध भाव को कषाय है, नष्ट करता है उसे कषायवेदनीय कहते हैं तथा जो क्रोधादि की तरह आत्मा के गुणों का घात नहीं करे किन्तु किंचित् घात करे अथवा कषाय के साथ-साथ अपना फल देवे वह अकषाय वेदनीय है।
उत्तर-८६२ जो आत्मा के गुण-शुभ या शुद्ध भाव को कषाय है, नष्ट करता है उसे कषायवेदनीय कहते हैं तथा जो क्रोधादि की तरह आत्मा के गुणों का घात नहीं करे किन्तु किंचित् घात करे अथवा कषाय के साथ-साथ अपना फल देवे वह अकषाय वेदनीय है।
प्रश्न-८६३ नव नो कषाय के लक्षण बताओ?
उत्तर-८६३ हास्य-जिसके उदय से हँसी आवे। इति-जिसके उदय से इंद्रिय के विषयों में राग हो। अरति-जिसके उदय से विषयों में द्वेष हो। शोक-जिसके उदय से शोक या चिंता हो। भय-जिसके उदय से डर या उद्वेग हो। जुगुप्सा-जिसके उदय से दूसरे से ग्लानि हो। स्त्रीवेद-जिसके उदय से पुरुष से रमण की इच्छा हो। पुंवेद-जिसके उदय से स्त्री से रमने की इच्छा हो। नपुंसवेद-जिसके उदय से स्त्री-पुरुष दोनों से रमने की इच्छा हो।
उत्तर-८६३ हास्य-जिसके उदय से हँसी आवे। इति-जिसके उदय से इंद्रिय के विषयों में राग हो। अरति-जिसके उदय से विषयों में द्वेष हो। शोक-जिसके उदय से शोक या चिंता हो। भय-जिसके उदय से डर या उद्वेग हो। जुगुप्सा-जिसके उदय से दूसरे से ग्लानि हो। स्त्रीवेद-जिसके उदय से पुरुष से रमण की इच्छा हो। पुंवेद-जिसके उदय से स्त्री से रमने की इच्छा हो। नपुंसवेद-जिसके उदय से स्त्री-पुरुष दोनों से रमने की इच्छा हो।
प्रश्न-८६४ आयु कर्म के कितने भेद हैं? मनुष्यायु और देवायु में क्या अंतर है?
उत्तर-८६४ आयु कर्म के चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु। जिस कर्म के उदय से प्राणी देव के शरीर में रुका हुआ हो उसे देवायु और जिस कर्म के उदय से प्राणी मनुष्य के प्राणी मनुष्य के प्राणी मनुष्य के शरीर के रुका हो उसे मनुष्यायु कहते हैं।
उत्तर-८६४ आयु कर्म के चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु। जिस कर्म के उदय से प्राणी देव के शरीर में रुका हुआ हो उसे देवायु और जिस कर्म के उदय से प्राणी मनुष्य के प्राणी मनुष्य के प्राणी मनुष्य के शरीर के रुका हो उसे मनुष्यायु कहते हैं।
प्रश्न-८६५ नामकर्म के ९३ भेद कौन-कौन से हैं?
उत्तर-८६५ गति ४, जाति ५, शरीर ५, आंगोपांग ३, निर्माण १, बंधन ५, संघात ५, संस्थान ६, संहनन ६, स्पर्श ८, रस ५, गंध २, वर्ण ५, आनुपूर्वी ४, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, प्रत्येक, साधारण, त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दु:स्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और तीर्थंकर ये ९३ प्रकृतियाँ हैं।
उत्तर-८६५ गति ४, जाति ५, शरीर ५, आंगोपांग ३, निर्माण १, बंधन ५, संघात ५, संस्थान ६, संहनन ६, स्पर्श ८, रस ५, गंध २, वर्ण ५, आनुपूर्वी ४, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, प्रत्येक, साधारण, त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दु:स्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और तीर्थंकर ये ९३ प्रकृतियाँ हैं।
प्रश्न-८६६ गति किसे कहते हैं इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८६६ जिस कर्म के उदय से प्राणी दूसरे भव या पर्याय में जाता है, वह गति है। उसके चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति।
उत्तर-८६६ जिस कर्म के उदय से प्राणी दूसरे भव या पर्याय में जाता है, वह गति है। उसके चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति।
प्रश्न-८६७ जाति किसे कहते हैं इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८६७ जिस कर्म के उदय से अनेक प्राणियों में अविरोधी समान अवस्था प्राप्त होती है उसे जाति कहते हैं इसके पाँच भेद हैं—एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पंचेन्द्रिय जाति।
उत्तर-८६७ जिस कर्म के उदय से अनेक प्राणियों में अविरोधी समान अवस्था प्राप्त होती है उसे जाति कहते हैं इसके पाँच भेद हैं—एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पंचेन्द्रिय जाति।
प्रश्न-८६८ शरीर का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताओ?
उत्तर-८६८ जिस कर्म के उदय से प्राणी की शरीर रचना होती है वह शरीर है। उसके ५ भेद हैं—औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण।
उत्तर-८६८ जिस कर्म के उदय से प्राणी की शरीर रचना होती है वह शरीर है। उसके ५ भेद हैं—औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण।
प्रश्न-८६९ आंगोपांग का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताओ?
उत्तर-८६९ जिस कर्म के उदय से अंग और उपांग की रचना होती है, उसे आंगोपांग कहते हैं। इसमे तीन भेद हैं—औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियक शरीर आंगोपांग और आहाकर शरीर आंगोपांग।
उत्तर-८६९ जिस कर्म के उदय से अंग और उपांग की रचना होती है, उसे आंगोपांग कहते हैं। इसमे तीन भेद हैं—औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियक शरीर आंगोपांग और आहाकर शरीर आंगोपांग।
प्रश्न-८७० निर्माण किसे कहते हैं?
उत्तर-८७० जिस कर्म के उदय से आंगोपांग की यथास्थान और यथाप्रमाण रचना होती है वह निर्माण है।
उत्तर-८७० जिस कर्म के उदय से आंगोपांग की यथास्थान और यथाप्रमाण रचना होती है वह निर्माण है।
प्रश्न-८७१ बंधन नाम कर्म का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताओ?
उत्तर-८७१ शरीर नामकर्म के उदय से ग्रहण किये गये पुद्गल स्कंधों का परस्पर मिलन जिस कर्म के उदय से होता है उसे बंधन नामकर्म कहते हैं इसके ५ भेद हैं—औदारिक बंधन, वैक्रियक बंधन, आहारक बंधन, तैजस बंधन और कार्माण बंधन।
उत्तर-८७१ शरीर नामकर्म के उदय से ग्रहण किये गये पुद्गल स्कंधों का परस्पर मिलन जिस कर्म के उदय से होता है उसे बंधन नामकर्म कहते हैं इसके ५ भेद हैं—औदारिक बंधन, वैक्रियक बंधन, आहारक बंधन, तैजस बंधन और कार्माण बंधन।
प्रश्न-८७२ संघात किसे कहते हैं वह कितने प्रकार का है?
उत्तर-८७२ जिस कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीर के प्रदेशों का परस्पर छिद्ररहित एकमेकपना होता है वह संघात है। उसके पाँच भेद हैं—औदारिक संघात, वैक्रियक संघात, आहारक संघात, तैजस संघात और कार्माण संघात।
उत्तर-८७२ जिस कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीर के प्रदेशों का परस्पर छिद्ररहित एकमेकपना होता है वह संघात है। उसके पाँच भेद हैं—औदारिक संघात, वैक्रियक संघात, आहारक संघात, तैजस संघात और कार्माण संघात।
प्रश्न-८७३ संस्थान का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताइए?
उत्तर-८७३ जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है वह संस्थान है। इसके छ: भेद हैं-समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान और हुंडकसंस्थान।
उत्तर-८७३ जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है वह संस्थान है। इसके छ: भेद हैं-समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान और हुंडकसंस्थान।
प्रश्न-८७४ स्पर्श किसे कहते हैं इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८७४ जिस कर्म के उदय से शरीर में स्पर्श हो वह स्पर्श है। इसके आठ भेद हैं—कोमल, कठोर, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष।
उत्तर-८७४ जिस कर्म के उदय से शरीर में स्पर्श हो वह स्पर्श है। इसके आठ भेद हैं—कोमल, कठोर, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष।
प्रश्न-८७५ रस किसे कहते हैं इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-८७५ जिस कर्म के उदय से शरीर में रस हो वह रस है, इसके पाँच भेद हैं—तिक्त (चरपरा), कटुक (कडुवा), कषाय (कषायला), आम्ल (खट्टा) और मधुर (मीठा)
उत्तर-८७५ जिस कर्म के उदय से शरीर में रस हो वह रस है, इसके पाँच भेद हैं—तिक्त (चरपरा), कटुक (कडुवा), कषाय (कषायला), आम्ल (खट्टा) और मधुर (मीठा)
प्रश्न-८७६ गंध का लक्षण बताते हुए उसके भेदों को बताओ?
उत्तर-८७६जिस कर्म के उदय से शरीर में गंध हो उसके दो भेद हैं—सुगंध और दुर्गन्ध।
उत्तर-८७६जिस कर्म के उदय से शरीर में गंध हो उसके दो भेद हैं—सुगंध और दुर्गन्ध।
प्रश्न-८७७ वर्ण के कितने भेद हैं?
उत्तर-८७७ जिस कर्म के उदय से शरीर में रूप हो उसके पाँच भेद हैं—नील, शुक्ल, कृष्ण, रक्त और पीत।
उत्तर-८७७ जिस कर्म के उदय से शरीर में रूप हो उसके पाँच भेद हैं—नील, शुक्ल, कृष्ण, रक्त और पीत।
प्रश्न-८७८आनुपूव्र्य का लक्षण बताते हुए उसके भेद बताओ?
उत्तर-८७८जिस कर्म के उदय से अन्य गति को जाते हुए प्राणी का आकार विग्रहगति में पूर्व शरीर के आकार का रहता है। इसके चार भेद हैं—नरकगत्यानुपूर्व, तिर्यग्गत्यानुपूर्व, मनुष्यगत्यानुपूर्व, देवगत्यानुपूर्व।
उत्तर-८७८जिस कर्म के उदय से अन्य गति को जाते हुए प्राणी का आकार विग्रहगति में पूर्व शरीर के आकार का रहता है। इसके चार भेद हैं—नरकगत्यानुपूर्व, तिर्यग्गत्यानुपूर्व, मनुष्यगत्यानुपूर्व, देवगत्यानुपूर्व।
प्रश्न-८७९ अगुरुलघु किसे कहते हैं?
उत्तर-८७९ जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर लोहे के गोले की तरह भारी और आक की रुई की तरह हल्का नहीं होवे, वह अगुरुलघु है।
उत्तर-८७९ जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर लोहे के गोले की तरह भारी और आक की रुई की तरह हल्का नहीं होवे, वह अगुरुलघु है।
प्रश्न-८८० उपघात और परघात में क्या अंतर है?
उत्तर-८८० जिस कर्म के उदय से अपने ही घातक आंगोपांग होते हैं वह उपघात है और जिस कर्म के उदय से पर के घातक अंगोपांग होते हैं।
उत्तर-८८० जिस कर्म के उदय से अपने ही घातक आंगोपांग होते हैं वह उपघात है और जिस कर्म के उदय से पर के घातक अंगोपांग होते हैं।
प्रश्न-८८१आतप और उद्योत का लक्षण बताओ?
उत्तर-८८१ जिस कर्म के उदय से आतपकारी शरीर होता है ‘‘इसका उदय सूर्य के विमान में स्थित बादर पृथ्वीकायिक जीवों के होता है’’ वह आतप है। उद्योत उसे कहते हैं जिस कर्म के उदय से उद्योत रूप शरीर हो। इसका उदय चंद्रमा के विमान में स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के तथा जुगनू आदि जीवों के होता है।
उत्तर-८८१ जिस कर्म के उदय से आतपकारी शरीर होता है ‘‘इसका उदय सूर्य के विमान में स्थित बादर पृथ्वीकायिक जीवों के होता है’’ वह आतप है। उद्योत उसे कहते हैं जिस कर्म के उदय से उद्योत रूप शरीर हो। इसका उदय चंद्रमा के विमान में स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के तथा जुगनू आदि जीवों के होता है।
प्रश्न-८८२ विहायोगति का लक्षण बताते हुए उनके भेद बताओ?
उत्तर-८८२ जिस कर्म के उदय से आकाश में गमन होता है। इसके दो भेद हैं—प्रशस्तविहायोगति और अप्रशस्तविहायोगति।
उत्तर-८८२ जिस कर्म के उदय से आकाश में गमन होता है। इसके दो भेद हैं—प्रशस्तविहायोगति और अप्रशस्तविहायोगति।
प्रश्न-८८३ प्रत्येक शरीर और साधारण में क्या अंतर है?
उत्तर-८८३ जिस कर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है वह प्रत्येक शरीर है। और जिस कर्म के उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी होते हैं।
उत्तर-८८३ जिस कर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है वह प्रत्येक शरीर है। और जिस कर्म के उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी होते हैं।
प्रश्न-८८४ त्रस और स्थावर का लक्षण बताओ?
उत्तर-८८४ जिस कर्म के उदय से द्वीन्द्रिय आदि जीवों में जन्म होता है वह त्रस है तथा जिस कर्म के उदय से एकेन्द्रिय जीवों में जन्म होता है।
उत्तर-८८४ जिस कर्म के उदय से द्वीन्द्रिय आदि जीवों में जन्म होता है वह त्रस है तथा जिस कर्म के उदय से एकेन्द्रिय जीवों में जन्म होता है।
प्रश्न-८८५ सुभग और दुर्भम में क्या अंतर है?
उत्तर-८८५ जिस कर्म के उदय से दूसरों को अपने से प्रीति होती है वह सुभग है तथा जिस कर्म के उदय से रूपादि गुणों से युक्त होने पर भी दूसरे जीवों को अप्रीति होती है।
उत्तर-८८५ जिस कर्म के उदय से दूसरों को अपने से प्रीति होती है वह सुभग है तथा जिस कर्म के उदय से रूपादि गुणों से युक्त होने पर भी दूसरे जीवों को अप्रीति होती है।
प्रश्न-८८६ सुस्वर व दुस्वर किसे कहते हैं?
उत्तर-८८६ जिस कर्म के उदय से अच्छा स्वर हो वह सुस्वर तथा जिस कर्म के उदय से खराब स्वर हो वह दुस्वर है।
उत्तर-८८६ जिस कर्म के उदय से अच्छा स्वर हो वह सुस्वर तथा जिस कर्म के उदय से खराब स्वर हो वह दुस्वर है।
प्रश्न-८८७ शुभ और अशुभ का लक्षण बताइये?
उत्तर-८८७ जिस कर्म के उदय से मस्तक आदि अवयव सुन्दर मालूम हो वह शुभ है तथा जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव मनोहर नहीं मालूम हो वह अशुभ है।
उत्तर-८८७ जिस कर्म के उदय से मस्तक आदि अवयव सुन्दर मालूम हो वह शुभ है तथा जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव मनोहर नहीं मालूम हो वह अशुभ है।
प्रश्न-८८८ बादर तथा सूक्ष्म की परिभाषा बताओ?
उत्तर-८८८ जिस कर्म से दूसरों को रोकने और दूसरों से रुकने वाला शरीर प्राप्त हो वह बादर तथा जिस कर्म के उदय से दूसरों को नहीं रोकने वाला शरीर प्राप्त हो वह सूक्ष्म है।
उत्तर-८८८ जिस कर्म से दूसरों को रोकने और दूसरों से रुकने वाला शरीर प्राप्त हो वह बादर तथा जिस कर्म के उदय से दूसरों को नहीं रोकने वाला शरीर प्राप्त हो वह सूक्ष्म है।
प्रश्न-८८९ पर्याप्ति तथा अपर्याप्ति में क्या अंतर है?
उत्तर-८८९ जिस कर्म के उदय से अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जावें वह पर्याप्ति और जिस कर्म के उदय से पर्याप्तियों की पूर्णता न हो, बीच में ही मरण हो जावे वह अपर्याप्ति है।
उत्तर-८८९ जिस कर्म के उदय से अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जावें वह पर्याप्ति और जिस कर्म के उदय से पर्याप्तियों की पूर्णता न हो, बीच में ही मरण हो जावे वह अपर्याप्ति है।
प्रश्न-८९०स्थिर तथा अस्थिर नाम कर्म का लक्षण बताओ?
उत्तर-८९०जिस कर्म के उदय से शरीर के रस आदि धातु तथा वात पित्तादि उपधातु अपने-अपने स्थान में ठीक रहें, अनेक व्रत उपवास आदि से भी शिथिलता न आवे वह स्थिर तथा जिस कर्म के उदय से शरीर की धातु-उपधातुएँ अपने स्थान में स्थिर नहीं रहें, किंचित् उपवास आदि से शरीर अस्वस्थ हो जावे वह अस्थिर नामकर्म है। प्रश्न-८९१ आदेय तथा अनादेय में अंतर बताओ?
उत्तर-८९१ जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रभा रहती है वह आदेय और जिस कर्म के उदय से शरीर में कांति नहीं होती है वह अनादेय है।
उत्तर-८९१ जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रभा रहती है वह आदेय और जिस कर्म के उदय से शरीर में कांति नहीं होती है वह अनादेय है।
प्रश्न-८९२ यश:कीर्ति तथा अयश:कीर्ति का लक्षण बताओ?
उत्तर-८९२ जिस कर्म के उदय से अपना पुण्य गुण जगत् में प्रकट हो अर्थात् संसार में अपनी तारीफ होवे वह यश:कीर्ति तथा जिस कर्म के उदय से जीव की निन्दा होती है वह अयश:कीर्ति है।
उत्तर-८९२ जिस कर्म के उदय से अपना पुण्य गुण जगत् में प्रकट हो अर्थात् संसार में अपनी तारीफ होवे वह यश:कीर्ति तथा जिस कर्म के उदय से जीव की निन्दा होती है वह अयश:कीर्ति है।
प्रश्न-८९३ तीर्थंकर पद की प्राप्ति किस नाम कर्म के उदय से होती है?
उत्तर-८९३ तीर्थंकर पद की प्राप्ति तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म के उदय से होती है।
प्रश्न-८९४ गोत्र कर्म के कितने भेद हैं उनके नाम लिखो?
उत्तर-८९४ गोत्र कर्म के दो भेद हैं-उच्च गोत्र और नीच गोत्र।
उत्तर-८९३ तीर्थंकर पद की प्राप्ति तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म के उदय से होती है।
प्रश्न-८९४ गोत्र कर्म के कितने भेद हैं उनके नाम लिखो?
उत्तर-८९४ गोत्र कर्म के दो भेद हैं-उच्च गोत्र और नीच गोत्र।
प्रश्न-८९५अंतराय कर्म के भेदों को बताते हुए दानान्तराय का लक्षण बताओ?
उत्तर-८९५ अंतराय कर्म के ५ भेद हैं-दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीर्यांतराय।
उत्तर-८९५ अंतराय कर्म के ५ भेद हैं-दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीर्यांतराय।
प्रश्न-८९६ पुण्य और पाप प्रकृति की कुल संख्या कितनी है?
उत्तर-८९६ पुण्य प्रकृति और पाप प्रकृति की कुल संख्या १६८ है।
उत्तर-८९६ पुण्य प्रकृति और पाप प्रकृति की कुल संख्या १६८ है।
प्रश्न-८९७ पुण्य प्रकृतियों के नाम बताओ?
उत्तर-८९७ सातावेदनीय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु, उच्च गोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, शरीर ५, बंधन ५, संघात ५, आंगोपांग ३, शुभ स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के २०, समचतुरस संस्थान, वङ्कावृषभनाराचसंहनन, अगुरुलघु, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, प्रशस्त्तविहायोगति, प्रत्येक शरीर, त्रस, सुभग, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर के ६८ पुण्य प्रकृतियाँ हैं।
उत्तर-८९७ सातावेदनीय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु, उच्च गोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, शरीर ५, बंधन ५, संघात ५, आंगोपांग ३, शुभ स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के २०, समचतुरस संस्थान, वङ्कावृषभनाराचसंहनन, अगुरुलघु, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, प्रशस्त्तविहायोगति, प्रत्येक शरीर, त्रस, सुभग, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर के ६८ पुण्य प्रकृतियाँ हैं।
प्रश्न-८९८ बंध, उदय और सत्त्व का लक्षण बताओ?
उत्तर-८९८ कर्मों का आत्मा से संबंध होना बंध है। स्थिति को पूरी करके कर्म के फल देने को उदय कहते हैं। आत्मा से पुद्गल का कर्म रूप रहना सत्त्व है।
उत्तर-८९८ कर्मों का आत्मा से संबंध होना बंध है। स्थिति को पूरी करके कर्म के फल देने को उदय कहते हैं। आत्मा से पुद्गल का कर्म रूप रहना सत्त्व है।
प्रश्न-८९९ आत्मा के साथ कर्मों का संबंध कब से है?
उत्तर-८९९ आत्मा के साथ कर्मों का संबंध अनादि काल से है।
उत्तर-८९९ आत्मा के साथ कर्मों का संबंध अनादि काल से है।
प्रश्न-९००यह सारा विश्व कब से बना है?
उत्तर-८९० यह सम्पूर्ण विश्व अनादि निधन है, इसे न तो किसी ने बनाया है और न कोई नष्ट कर सकता है।
उत्तर-८९० यह सम्पूर्ण विश्व अनादि निधन है, इसे न तो किसी ने बनाया है और न कोई नष्ट कर सकता है।
प्रश्न-९०१ आपमें कितने कर्म हैं?
उत्तर-९०१ हममें सभी कर्म हैं।
उत्तर-९०१ हममें सभी कर्म हैं।
प्रश्न-९०२ कौन सा कर्म विशेष दु:खदायी है?
उत्तर-९०२ मोहनीय कर्म विशेष दु:खदायी है।
उत्तर-९०२ मोहनीय कर्म विशेष दु:खदायी है।
प्रश्न-९०३ जीवों को कर्म बंध कब होता है?
उत्तर-९०३ कोई भी जीव जो अच्छे या बुरे भाव करता है या बुरे वचन बोलता है अथवा बुरे कार्य करता है, उसी के अनुसार पुण्य और पापरूपी कर्मों का बंध होता है। प्रश्न-९०४ सुन्दर शरीर किस कर्म के उदय से प्राप्त होता है?
उत्तर-९०४ शुभ नाम कर्म के उदय से सुन्दर शरीर प्राप्त होता है।
उत्तर-९०३ कोई भी जीव जो अच्छे या बुरे भाव करता है या बुरे वचन बोलता है अथवा बुरे कार्य करता है, उसी के अनुसार पुण्य और पापरूपी कर्मों का बंध होता है। प्रश्न-९०४ सुन्दर शरीर किस कर्म के उदय से प्राप्त होता है?
उत्तर-९०४ शुभ नाम कर्म के उदय से सुन्दर शरीर प्राप्त होता है।
प्रश्न-९०५ उच्च नीच कुल में उत्पन्न कराना कौन से कर्म का काम है?
उत्तर-९०५ उच्च नीच कुल में उत्पन्न कराना उच्च नीच गोत्र कर्म का काम है।
उत्तर-९०५ उच्च नीच कुल में उत्पन्न कराना उच्च नीच गोत्र कर्म का काम है।
प्रश्न-९०६ कितनी कर्म प्रकृतियों का नाश होने पर अर्हन्त अवस्था प्राप्त होती है?
उत्तर-९०६ ६३ कर्म प्रकृतियों का नाश होने पर अर्हन्त अवस्था प्राप्त होती है।
उत्तर-९०६ ६३ कर्म प्रकृतियों का नाश होने पर अर्हन्त अवस्था प्राप्त होती है।
प्रश्न-९०७ भलाई करने पर भी निन्दा मिलना किस कर्म के उदय से?
उत्तर-९०७ अयश:कीर्ति नामकर्म के उदय से भलाई करने पर भी निन्दा मिलती है।
उत्तर-९०७ अयश:कीर्ति नामकर्म के उदय से भलाई करने पर भी निन्दा मिलती है।
प्रश्न-९०८ दान आदि धर्म कार्यों में जो विघ्न डालता है उसे कौन से कर्म का बंध होता है?
उत्तर-९०८ दान आदि धर्म कार्यों में जो विघ्न डालता है उसे दानांतराय कर्म का बंध होता है।
उत्तर-९०८ दान आदि धर्म कार्यों में जो विघ्न डालता है उसे दानांतराय कर्म का बंध होता है।
प्रश्न-९०९ ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानने से क्या-क्या दोष आते हैं?
उत्तर-९०९ यदि ईश्वर परम पिता दयालु भगवान है तो वह किसी को भी दु:ख क्यों देता है। यदि कहो कि उस जीव ने पाप किया था तो उस ईश्वर ने पाप की रचना क्यों की और पानी मनुष्य क्यों बनाए इसीलिए भगवान किसी के सुख-दु:ख का कत्र्ता नहीं है या सृष्टि का कत्र्ता नहीं है।
उत्तर-९०९ यदि ईश्वर परम पिता दयालु भगवान है तो वह किसी को भी दु:ख क्यों देता है। यदि कहो कि उस जीव ने पाप किया था तो उस ईश्वर ने पाप की रचना क्यों की और पानी मनुष्य क्यों बनाए इसीलिए भगवान किसी के सुख-दु:ख का कत्र्ता नहीं है या सृष्टि का कत्र्ता नहीं है।
प्रश्न-९१० कर्मों का बंध कैसे होता है?
उत्तर-९१० कोई भी जीव जो अच्छे या बुरे भाव करता है या बुरे वचन बोलता है अथवा बुरे कार्य करता है उसी के अनुसार पुण्य और पाप रूपी कर्मों का बंध होता है। प्रश्न-९११ क्या हर कोई जीव परमात्मा बन सकता है?
उत्तर-९११ हाँ, प्रत्येक जीव तपश्चरण कर अपने आत्मस्वरूप की प्राप्ति कर परमात्मा बन सकता है।
उत्तर-९१० कोई भी जीव जो अच्छे या बुरे भाव करता है या बुरे वचन बोलता है अथवा बुरे कार्य करता है उसी के अनुसार पुण्य और पाप रूपी कर्मों का बंध होता है। प्रश्न-९११ क्या हर कोई जीव परमात्मा बन सकता है?
उत्तर-९११ हाँ, प्रत्येक जीव तपश्चरण कर अपने आत्मस्वरूप की प्राप्ति कर परमात्मा बन सकता है।
प्रश्न-९१२ रत्नत्रय के कितने भेद हैं?
उत्तर-९१२ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं।
उत्तर-९१२ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं।
प्रश्न-९१३ व्यवहार सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-९१३ जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का २५ दोष रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
उत्तर-९१३ जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का २५ दोष रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न-९१४ व्यवहार सम्यग्ज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-९१४ तत्त्वों के स्वरूप को संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय दोष रहित जैसा का तैसा जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
उत्तर-९१४ तत्त्वों के स्वरूप को संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय दोष रहित जैसा का तैसा जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
प्रश्न-९१५ व्यवहार सम्यग्चारित्र किसे कहते हैं? इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-९१५ अशुभ-पापक्रियाओं से हटकर शुभ-पुण्यक्रियाओं में प्रवृत्ति करना सम्यग्चारित्र कहलाता है। इसके दो भेद हैं-सकल चारित्र एवं विकल चारित्र।
उत्तर-९१५ अशुभ-पापक्रियाओं से हटकर शुभ-पुण्यक्रियाओं में प्रवृत्ति करना सम्यग्चारित्र कहलाता है। इसके दो भेद हैं-सकल चारित्र एवं विकल चारित्र।
प्रश्न-९१६ सकलचारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर-९१६ सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी मुनियों के चारित्र को सकलचारित्र कहते हैं, यह पाँच महाव्रत आदि २८ मूलगुण रूप होता है।
उत्तर-९१६ सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी मुनियों के चारित्र को सकलचारित्र कहते हैं, यह पाँच महाव्रत आदि २८ मूलगुण रूप होता है।
प्रश्न-९१७ विकल चारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर-९१७ श्रावक के एकदेश चारित्र को विकलचारित्र कहते हैं इसके अणुव्रत आदि १२ व्रतों से १२ भेद होते हैं और दर्शन प्रतिमा आदि ११ प्रतिमा से ११ भेद होते हैं। प्रश्न-९१८ निश्चय सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-९१८ परद्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा का श्रद्धान करना निश्चय सम्यग्दर्शन है।
उत्तर-९१७ श्रावक के एकदेश चारित्र को विकलचारित्र कहते हैं इसके अणुव्रत आदि १२ व्रतों से १२ भेद होते हैं और दर्शन प्रतिमा आदि ११ प्रतिमा से ११ भेद होते हैं। प्रश्न-९१८ निश्चय सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं?
उत्तर-९१८ परद्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा का श्रद्धान करना निश्चय सम्यग्दर्शन है।
प्रश्न-९१९ निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यग्चारित्र में क्या अंतर है?
उत्तर-९१९ परद्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा को जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान तथा पंचेन्द्रिय विषयों से और कषायों से रहित होकर निर्विकल्प शुद्ध आत्मा के स्वरूप में लीन होना निश्चय सम्यग्चारित्र है।
उत्तर-९१९ परद्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा को जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान तथा पंचेन्द्रिय विषयों से और कषायों से रहित होकर निर्विकल्प शुद्ध आत्मा के स्वरूप में लीन होना निश्चय सम्यग्चारित्र है।
प्रश्न-९२० व्यवहार रत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय में क्या अंतर है?
उत्तर-९२० व्यवहार रत्नत्रय साधन है और निश्चयरत्नत्रय साध्य है अर्थात् व्यवहार रत्नत्रय के होने पर भी निश्चय रत्नत्रय प्रकट होता है पहले नहीं होता।
उत्तर-९२० व्यवहार रत्नत्रय साधन है और निश्चयरत्नत्रय साध्य है अर्थात् व्यवहार रत्नत्रय के होने पर भी निश्चय रत्नत्रय प्रकट होता है पहले नहीं होता।
प्रश्न-९२१ छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों का कौन सा रत्नत्रय होता है?
उत्तर-९२१ छठें गुणस्थानवर्ती मुनियों के व्यवहार रत्नत्रय होता है।
उत्तर-९२१ छठें गुणस्थानवर्ती मुनियों के व्यवहार रत्नत्रय होता है।
प्रश्न-९२२ निश्चय रत्नत्रय किन्हें होता है?
उत्तर-९२२ निश्यच रत्नत्रय निर्विकल्प ध्यान की एकाग्र परिणति में सातवें, आठवें आदि गुणस्थनवर्ती मुनियों के ही होता है।
उत्तर-९२२ निश्यच रत्नत्रय निर्विकल्प ध्यान की एकाग्र परिणति में सातवें, आठवें आदि गुणस्थनवर्ती मुनियों के ही होता है।
प्रश्न-९२३ निश्चय रत्नत्रय श्रावकों को होता है या नहीं?
उत्तर-९२३ निश्चय रत्नत्रय श्रावकों को नहीं होता है।
उत्तर-९२३ निश्चय रत्नत्रय श्रावकों को नहीं होता है।
प्रश्न-९२४ भावनाएँ कितनी होती हैं?
उत्तर-९२४ भावनाएँ बारह होती हैं।
उत्तर-९२४ भावनाएँ बारह होती हैं।
प्रश्न-९२५ बारह भावनाओं के नाम बताओ?
उत्तर-९२५ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ये बारह भावनाएँ हैं।
उत्तर-९२५ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ये बारह भावनाएँ हैं।
प्रश्न-९२६एकत्व भावना और धर्म भावना का क्या लक्षण है?
उत्तर-९२६ एकत्व भावना— आप अकेला अवतरै, मरे अकेला होय। यों कबहू इस जीव को, साथी सगा न कोय।। धर्म भावना— जांचे सुरतरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन। बिन जांचे बिन चिंतये, धर्म सकल सुख दैन।।
उत्तर-९२६ एकत्व भावना— आप अकेला अवतरै, मरे अकेला होय। यों कबहू इस जीव को, साथी सगा न कोय।। धर्म भावना— जांचे सुरतरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन। बिन जांचे बिन चिंतये, धर्म सकल सुख दैन।।
प्रश्न-९२७ अशरण और अशुचि भावना सुनाओ?
उत्तर-९२७ अशरण भावना- दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार। मरती बिरियां जीव को, कोई न राखनहार।। अशुचि भावना- दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़-पींजरा देह। भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह।।
उत्तर-९२७ अशरण भावना- दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार। मरती बिरियां जीव को, कोई न राखनहार।। अशुचि भावना- दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़-पींजरा देह। भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह।।
प्रश्न-९२८ सल्लेखना किसे कहते हैं?
उत्तर-९२८ मरण के निकट आने पर गृह हो छोड़कर अथवा घर में अन्नादि आहार को धीरे-धीरे छोड़ते हुए क्रम से कषायों को भी कृश करते हुए परस्पर में सभी को क्षमाकर व कराकर नि:शल्य हो णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुए मरना सल्लेखना कहलाती है।
उत्तर-९२८ मरण के निकट आने पर गृह हो छोड़कर अथवा घर में अन्नादि आहार को धीरे-धीरे छोड़ते हुए क्रम से कषायों को भी कृश करते हुए परस्पर में सभी को क्षमाकर व कराकर नि:शल्य हो णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुए मरना सल्लेखना कहलाती है।
प्रश्न-९२९ सल्लेखना कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर-९२९ सल्लेखना दो प्रकार की होती है—१. यम सल्लेखना २. नियम सल्लेखना।
उत्तर-९२९ सल्लेखना दो प्रकार की होती है—१. यम सल्लेखना २. नियम सल्लेखना।
प्रश्न-९३० लब्धियाँ कितनी होती हैं नाम बतावें?
उत्तर-९३० लब्धियाँ पाँच होती हैं—क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण।
उत्तर-९३० लब्धियाँ पाँच होती हैं—क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण।
प्रश्न-९३१ ये लब्धियाँ कौन भी भव्य को तथा कौन सी अभव्य को होती हैं?
उत्तर-९३१ पहले की चार लब्धियाँ भव्य-अभव्य दोनों को हो सकती हैं किन्तु पाँचवीं करणलब्धि भव्यजीव को ही होती है।
उत्तर-९३१ पहले की चार लब्धियाँ भव्य-अभव्य दोनों को हो सकती हैं किन्तु पाँचवीं करणलब्धि भव्यजीव को ही होती है।
प्रश्न-९३२ करण लब्धि किसे कहते हैं तथा इसके कितने भेद हैं?
उत्तर-९३२ अभव्य के योग्य ऐसे चार लब्धि रूप परिणामों को समाप्त करना करण लब्धि है। इसके तीन भेद हैं-अध:करण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण।
उत्तर-९३२ अभव्य के योग्य ऐसे चार लब्धि रूप परिणामों को समाप्त करना करण लब्धि है। इसके तीन भेद हैं-अध:करण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण।
प्रश्न-९३३ लेश्या कितनी होती हैं उनके नाम बताओ?
उत्तर-९३३ लेश्याएँ छह होती हैं-कृष्ण, नील, कपोत। पीत, पद्म व शुक्ल।
उत्तर-९३३ लेश्याएँ छह होती हैं-कृष्ण, नील, कपोत। पीत, पद्म व शुक्ल।
प्रश्न-९३४ इनमें से कौन सी लेश्या शुभ होती हैं और कौन सी अशुभ होती हैं?
उत्तर-९३४ सच्चे देव किसे कहते हैं?
उत्तर-९३४ सच्चे देव किसे कहते हैं?
प्रश्न-९३५ जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं तथा अर्हंत, तीर्थंकर, जिनेन्द्र आदि नामों से कहे जाते हैं वे सच्चे देव कहलाते हैं।
उत्तर-९३५ सच्चे शास्त्र का लक्षण बताओ?
उत्तर-९३५ सच्चे शास्त्र का लक्षण बताओ?
प्रश्न-९३६ जो सर्वज्ञ देव का कहा हुआ है और उन्हीं के वचनों के आधार पर आचार्यों द्वारा कहा गया है वही सच्चा शास्त्र है।
उत्तर-९३६ सच्चे गुरु की परिभाषा लिखो?
उत्तर-९३६ सच्चे गुरु की परिभाषा लिखो?
प्रश्न-९३७ जो विषयों की आशा से रहित हैं, सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह से रहित हैं, नग्न दिगम्बर मुनि हैं वे सच्चे गुरु हैं।
उत्तर-९३७ देव, शास्त्र, गुरु इन तीनों में से आज कौन-कौन है?
उत्तर-९३७ देव, शास्त्र, गुरु इन तीनों में से आज कौन-कौन है?
प्रश्न-९३८ देव, शास्त्र, व गुरु इन तीनों में से वर्तमान में सभी हैं।
उत्तर-९३८ इनके दर्शन से क्या फल मिलता है?
उत्तर-९३८ इनके दर्शन से क्या फल मिलता है?
प्रश्न-९३९ इनके दर्शन से पुण्य कर्म का बंध तथा पाप कर्म का नाश होता है।
उत्तर-९३९ दर्शन करते समय क्या-क्या चढ़ाना चाहिए?
उत्तर-९३९ दर्शन करते समय क्या-क्या चढ़ाना चाहिए?
प्रश्न-९४० दर्शन करते समय क्या-क्या चढ़ाना चाहिए?
उत्तर-९४० दर्शन करते समय चावल, लौंग, सुपारी, फल आदि चढ़ाना चाहिए।
उत्तर-९४० दर्शन करते समय चावल, लौंग, सुपारी, फल आदि चढ़ाना चाहिए।
प्रश्न-९४१ मंदिर के दरवाजे पर प्रवेश करते समय क्या बोलना चाहिए?
उत्तर-९४१ मंदिर के दरवाजे पर प्रवेश करते समय बोलना चाहिए-ॐ जय जय जय, नि:सही, नि:सही, नि:सही, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु।
उत्तर-९४१ मंदिर के दरवाजे पर प्रवेश करते समय बोलना चाहिए-ॐ जय जय जय, नि:सही, नि:सही, नि:सही, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु।
प्रश्न-९४२ देवदर्शन कैसे करना चाहिए?
उत्तर-९४२ भगवान के समक्ष दोनों हाथ जोड़कर खड़े होकर णमोकार मंत्र पढ़ें पुन: भगवान की तीन प्रदक्षिणा दें। बंधी मुट्ठी से अंगूठा भीतर करके चावल के पाँच पुंज भगवान के समक्ष चढ़ाकर अरिंहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु बोलें पुन: कोई विनती पढ़कर दर्शन करना चाहिए।
उत्तर-९४२ भगवान के समक्ष दोनों हाथ जोड़कर खड़े होकर णमोकार मंत्र पढ़ें पुन: भगवान की तीन प्रदक्षिणा दें। बंधी मुट्ठी से अंगूठा भीतर करके चावल के पाँच पुंज भगवान के समक्ष चढ़ाकर अरिंहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु बोलें पुन: कोई विनती पढ़कर दर्शन करना चाहिए।
प्रश्न-९४३ भगवान के सामने कितने पुंज चढ़ाने चाहिए?
उत्तर-९४३ भगवान के सामने अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय, साधु बोलकर क्रम से पुंज चढ़ावें।
उत्तर-९४३ भगवान के सामने अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय, साधु बोलकर क्रम से पुंज चढ़ावें।
प्रश्न-९४४ सरस्वती अर्थात् जिनवाणी के सामने कितने पुंज चढ़ाना चाहिए?
उत्तर-९४४ सरस्वती अर्थात् जिनवाणी के सामने प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम: बोलकर ….. ऐसे चार पुंज चढ़ावें।
उत्तर-९४४ सरस्वती अर्थात् जिनवाणी के सामने प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम: बोलकर ….. ऐसे चार पुंज चढ़ावें।
प्रश्न-९४५ गुरु के दर्शन करते समय कितने पुंज चढ़ाने चाहिए?
उत्तर-९४५गुरु के दर्शन करते समय … ऐसे तीन पुंज सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र बोलकर चढ़ावें।
उत्तर-९४५गुरु के दर्शन करते समय … ऐसे तीन पुंज सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र बोलकर चढ़ावें।
प्रश्न-९४६ गंधोदक लेते समय क्या मंत्र बोलना चाहिए?
उत्तर-९४६ गंधोदक लेने का मंत्र— निर्मल से निर्मिल अति, अधनाशक सुखसीर। बंदू जिन अभिषेक कृत, यह गंधोदक नीर।।
उत्तर-९४६ गंधोदक लेने का मंत्र— निर्मल से निर्मिल अति, अधनाशक सुखसीर। बंदू जिन अभिषेक कृत, यह गंधोदक नीर।।
प्रश्न-९४७ अणुव्रत किसे कहते हैं? इनके नाम बताओ?
उत्तर-९४७ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों के अणु अर्थात् एक देश त्याग को अणुव्रत कहते हैं।
उत्तर-९४७ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों के अणु अर्थात् एक देश त्याग को अणुव्रत कहते हैं।
प्रश्न-९४८ अहिंसाणुव्रत का लक्षण बताओ इसमें किसने प्रसिद्ध प्राप्त की?
उत्तर-९४८ मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से संकल्पपूर्वक (इरादापूर्वक) किसी क्रम जीव को नहीं मारना अहिंसा अणुव्रत है इसमें यमपाल चाण्डल ने प्रसिद्धि प्राप्त की।
उत्तर-९४८ मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से संकल्पपूर्वक (इरादापूर्वक) किसी क्रम जीव को नहीं मारना अहिंसा अणुव्रत है इसमें यमपाल चाण्डल ने प्रसिद्धि प्राप्त की।
प्रश्न-९४९ सत्याणुव्रत का लक्षण बताओ इसमें कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-९४९ स्वयं स्थूल झूठ न बोले, न दूसरों से बुलवाये और ऐसे सच भी नहीं बोले कि जिससे धर्म आदि पर संकट आ जावे, सो सत्याणुव्रत है इसमें सत्यघोष प्रसिद्ध हुआ। प्रश्न-९५०अचौर्याणुव्रत किसे कहते हैं इस व्रत में किसने प्रसिद्धि प्राप्त की?
उत्तर-९५० किसी का रखा हुआ, पड़ा हुआ, भूला हुआ अथवा बिना दिया हुआ धन पैसा आदि द्रव्य नहीं लेना और न उठाकर किसी को देना अचौर्यणुव्रत कहलाता है इसमें वारिषेण मुनिराज ने प्रसिद्ध प्राप्त की।
उत्तर-९४९ स्वयं स्थूल झूठ न बोले, न दूसरों से बुलवाये और ऐसे सच भी नहीं बोले कि जिससे धर्म आदि पर संकट आ जावे, सो सत्याणुव्रत है इसमें सत्यघोष प्रसिद्ध हुआ। प्रश्न-९५०अचौर्याणुव्रत किसे कहते हैं इस व्रत में किसने प्रसिद्धि प्राप्त की?
उत्तर-९५० किसी का रखा हुआ, पड़ा हुआ, भूला हुआ अथवा बिना दिया हुआ धन पैसा आदि द्रव्य नहीं लेना और न उठाकर किसी को देना अचौर्यणुव्रत कहलाता है इसमें वारिषेण मुनिराज ने प्रसिद्ध प्राप्त की।
प्रश्न-९५१ब्रह्मचर्याणुव्रत किसे कहते हैं इस व्रत में कौन प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर-९५१अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य स्त्री के साथ कामसेवन नहीं करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत कहलाता है। इसमें सती सीता प्रसिद्ध हुईं।
उत्तर-९५१अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य स्त्री के साथ कामसेवन नहीं करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत कहलाता है। इसमें सती सीता प्रसिद्ध हुईं।
प्रश्न-९५२ परिग्रह पारिमाणव्रत का लक्षण बताओ? इस व्रत में कौन प्रसिद्ध हुए?
उत्तर-९५२ धन, धान्य, मकान आदि वस्तुओं का जीवन भर के लिए परिमाण कर लेना, उससे अधिक की बांछा नहीं करना परिग्रह परिणाम अणुव्रत है इस व्रत में हस्तिनापुर के राजा जयकुमार प्रसिद्ध हुए।
उत्तर-९५२ धन, धान्य, मकान आदि वस्तुओं का जीवन भर के लिए परिमाण कर लेना, उससे अधिक की बांछा नहीं करना परिग्रह परिणाम अणुव्रत है इस व्रत में हस्तिनापुर के राजा जयकुमार प्रसिद्ध हुए।
प्रश्न-९५३पंचाणुव्रत पालन करने वालों को नरक गति होती है या नहीं?
उत्तर-९५३ पंचाणुव्रत पालन करने वालों को नरक गति नहीं मिलती, प्रत्युत नियम से स्वर्ग पता है।
उत्तर-९५३ पंचाणुव्रत पालन करने वालों को नरक गति नहीं मिलती, प्रत्युत नियम से स्वर्ग पता है।
प्रश्न-९५४श्रावक के कितने भेद हैं?
उत्तर-९५४ श्रावक के तीन भेद हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक।
उत्तर-९५४ श्रावक के तीन भेद हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक।
प्रश्न-९५५ पाक्षिक श्रावक का लक्षण बताओ?
उत्तर-९५५ जिसके हिंसादि पाँचों पापों का त्याग रूप व्रत है तथा जो अभ्यास रूप से श्रावक धर्म पालन करता है उसको पाक्षिक श्रावक या प्रारूध देससंयमी कहते हैं।
उत्तर-९५५ जिसके हिंसादि पाँचों पापों का त्याग रूप व्रत है तथा जो अभ्यास रूप से श्रावक धर्म पालन करता है उसको पाक्षिक श्रावक या प्रारूध देससंयमी कहते हैं।
प्रश्न-९५६ नैष्ठिक श्रावक किसे कहते हैं?
उत्तर-९५६ जो निरतिचार प्रतिमा रूप से श्रावक धर्म का पालन करता है उसको नैष्ठिक या घटमान देशसंयमी कहते हैं। प्रश्न-९५७पाक्षिक श्रावक सप्त व्यसन में प्रवृत्त होगा या नहीं?
उत्तर-९५७ पाक्षिक श्रावक सप्त व्यसन में प्रवृत्त नहीं होगा। प्रश्न-९५८श्रावक के १२ व्रत कौन से हैं?
उत्तर-९५८ ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत व ४ शिक्षाव्रत ये श्रावक के १२ व्रत हैं।
उत्तर-९५६ जो निरतिचार प्रतिमा रूप से श्रावक धर्म का पालन करता है उसको नैष्ठिक या घटमान देशसंयमी कहते हैं। प्रश्न-९५७पाक्षिक श्रावक सप्त व्यसन में प्रवृत्त होगा या नहीं?
उत्तर-९५७ पाक्षिक श्रावक सप्त व्यसन में प्रवृत्त नहीं होगा। प्रश्न-९५८श्रावक के १२ व्रत कौन से हैं?
उत्तर-९५८ ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत व ४ शिक्षाव्रत ये श्रावक के १२ व्रत हैं।
प्रश्न-९५९ गुणव्रत किसे कहते हैं? उनके कितने भेद हैं?
उत्तर-९५९ जो गुणव्रतों को बढ़ाते हैं अथवा उसमें दृढ़ता या मजबूती लाने वाले होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं उसके तीन भेद हैं-दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत।
उत्तर-९५९ जो गुणव्रतों को बढ़ाते हैं अथवा उसमें दृढ़ता या मजबूती लाने वाले होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं उसके तीन भेद हैं-दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत।
प्रश्न-९६० दिग्व्रत किसे कहते हैं?
उत्तर-९६०लोभ या आरंभ के घटाने के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा जीवन भर के लिए कर लेना दिग्व्रत कहलाता है। जैसे-किसी ने पूर्व दिशा में वंग देश, पश्चिम में सिन्धु नदी, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में कन्याकुमारी से आगे जीवन पर्यंत नहीं जाने का नियम कर लिया है।
उत्तर-९६०लोभ या आरंभ के घटाने के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा जीवन भर के लिए कर लेना दिग्व्रत कहलाता है। जैसे-किसी ने पूर्व दिशा में वंग देश, पश्चिम में सिन्धु नदी, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में कन्याकुमारी से आगे जीवन पर्यंत नहीं जाने का नियम कर लिया है।
प्रश्न-९६१अनर्थदण्डव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर-९६१ मर्यादा के बाहर भी बिना प्रयोजन ही जिन कार्यों में पाप का आरंभ होता है उन निरर्थक कार्यों का त्याग करना अनर्थ दण्डव्रत कहलाता है।
उत्तर-९६१ मर्यादा के बाहर भी बिना प्रयोजन ही जिन कार्यों में पाप का आरंभ होता है उन निरर्थक कार्यों का त्याग करना अनर्थ दण्डव्रत कहलाता है।
प्रश्न-९६२ अनर्थदण्डव्रत के भेदों को लक्षण सहित बताओ?
उत्तर-९६२ पापोपदेश—पापवद्र्धक कार्यों का उपदेश देना, हिंसादान-शास्त्र या जहर आदि मांगने से देना, अपध्यान-किसी का बुरा सोचना, दुश्रुति-मिथ्याशास्त्रों का पढ़ना और प्रमादचर्या-बिना कारण पानी आदि गिराना ये अनर्थदण्डव्रत के पाँच भेद हैं।
उत्तर-९६२ पापोपदेश—पापवद्र्धक कार्यों का उपदेश देना, हिंसादान-शास्त्र या जहर आदि मांगने से देना, अपध्यान-किसी का बुरा सोचना, दुश्रुति-मिथ्याशास्त्रों का पढ़ना और प्रमादचर्या-बिना कारण पानी आदि गिराना ये अनर्थदण्डव्रत के पाँच भेद हैं।
प्रश्न-९६३ भोगोपभोग परिमाण व्रत किसे कहते हैं?
उत्तर-९६३ दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर भी प्रयोजनभूत भोजन, वस्त्र आदि भोग-उपभोग की वस्तुओं का परिमाण करके शेष का जीवन भर के लिए त्याग कर देना भोगोपभोग परिमाणव्रत कहलाता है।
उत्तर-९६३ दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर भी प्रयोजनभूत भोजन, वस्त्र आदि भोग-उपभोग की वस्तुओं का परिमाण करके शेष का जीवन भर के लिए त्याग कर देना भोगोपभोग परिमाणव्रत कहलाता है।
प्रश्न-९६४ भोग और उपभोग में क्या अंतर है?
उत्तर-९६४ जो वस्तु एक बार भोगने में आती है उसे भोग कहते हैं जैसे-भोजन-पान आदि। तथा जो वस्तु बार-बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहते हैं जैसे-वस्त्र-आभूषण आदि।
उत्तर-९६४ जो वस्तु एक बार भोगने में आती है उसे भोग कहते हैं जैसे-भोजन-पान आदि। तथा जो वस्तु बार-बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहते हैं जैसे-वस्त्र-आभूषण आदि।
प्रश्न-९६५ शिक्षाव्रत किसे कहते हैं? उसके कितने भेद हैं?
उत्तर-९६५ जिन व्रतों के पालन करने में मुनिव्रत के पालन करने की शिक्षा मिलती है उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य।
उत्तर-९६५ जिन व्रतों के पालन करने में मुनिव्रत के पालन करने की शिक्षा मिलती है उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य।
प्रश्न-९६६ देशावकाशिक व्रत का लक्षण उदाहरण सहित बताओ?
उत्तर-९६६ दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर भी दिन, महीना आदि के लिए गली, मुहल्ला, नगर आदि का नियम करके आगे नहीं जाना देशावकाशिक व्रत है। जैसे-किसी ने आष्टान्हिका में अपने मुहल्ले से बाहर नहीं जाने का नियम लिया और उसके आगे नहीं जाएगा तो उसका यह प्रथम शिक्षाव्रत है।
उत्तर-९६६ दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर भी दिन, महीना आदि के लिए गली, मुहल्ला, नगर आदि का नियम करके आगे नहीं जाना देशावकाशिक व्रत है। जैसे-किसी ने आष्टान्हिका में अपने मुहल्ले से बाहर नहीं जाने का नियम लिया और उसके आगे नहीं जाएगा तो उसका यह प्रथम शिक्षाव्रत है।
प्रश्न-९६७ सामायिक व्रत की परिभाषा बताओ?
उत्तर-९६७ श्रावक प्रसन्नमना होकर वन में, गृह में अथवा चैत्यालय में पांचों पापों का त्याग करके विधिवत् सामायिक करें, यह कि सामायिक व्रत है।
उत्तर-९६७ श्रावक प्रसन्नमना होकर वन में, गृह में अथवा चैत्यालय में पांचों पापों का त्याग करके विधिवत् सामायिक करें, यह कि सामायिक व्रत है।
प्रश्न-९६८ प्रोषध तथा उपवास में कया अंतर है?
उत्तर-९६८ एक बार शुद्ध भोजन करना प्रोषध है तथा चारों प्रकार के आहार को छोड़ना उपवास है।
प्रश्न-९६९वैयावृत्य शिक्षाव्रत का लक्षण उदाहरण सहित बताओ?
उत्तर-९६९ गृहत्यागी तपस्वी मुनियों को अपनी संपत्ति के अनुसार शुद्ध आहार, औषधि, शास्त्रादि-उपकरण और वसतिका का दान देना वैयावृत्य नाम का चौथा शिक्षाव्रत है। जैसे-मुनियों के गुणों में अनुराग करते हुए उनके चरणों को दबाना, उनके ऊपर आई आपत्ति को दूर करना तथा नवधा भक्ति से उन्हें आहारदान देना आदि।
उत्तर-९६८ एक बार शुद्ध भोजन करना प्रोषध है तथा चारों प्रकार के आहार को छोड़ना उपवास है।
प्रश्न-९६९वैयावृत्य शिक्षाव्रत का लक्षण उदाहरण सहित बताओ?
उत्तर-९६९ गृहत्यागी तपस्वी मुनियों को अपनी संपत्ति के अनुसार शुद्ध आहार, औषधि, शास्त्रादि-उपकरण और वसतिका का दान देना वैयावृत्य नाम का चौथा शिक्षाव्रत है। जैसे-मुनियों के गुणों में अनुराग करते हुए उनके चरणों को दबाना, उनके ऊपर आई आपत्ति को दूर करना तथा नवधा भक्ति से उन्हें आहारदान देना आदि।
प्रश्न-९७०आहारदान देने से क्या फल मिलता है?
उत्तर-९७० घर में पंचसूना आदि आरंभ से जो पाप संचित होता है वह गृहत्यागी मुनियों के आहारदान से नष्ट हो जाता है।
उत्तर-९७० घर में पंचसूना आदि आरंभ से जो पाप संचित होता है वह गृहत्यागी मुनियों के आहारदान से नष्ट हो जाता है।
प्रश्न-९७१ वैयावृत्य शिक्षाव्रत को अन्य ग्रंथों में क्या नाम दिया है?
उत्तर-९७१वैयावृत्य शिक्षाव्रत को अन्य ग्रंथों में अतिथिसंविभाग व्रत का नाम दिया है।
उत्तर-९७१वैयावृत्य शिक्षाव्रत को अन्य ग्रंथों में अतिथिसंविभाग व्रत का नाम दिया है।
प्रश्न-९७२ क्या सल्लेखना को भी व्रत माना गया है?
उत्तर-९७२ हाँ, श्रावकों के लिए सल्लेखना भी एक व्रत माना गया है।
उत्तर-९७२ हाँ, श्रावकों के लिए सल्लेखना भी एक व्रत माना गया है।
प्रश्न-९७३ प्रतिमा किसे कहते हैं?
उत्तर-९७३ सम्यग्दर्शन, अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत और सल्लेखना इन गुणों को धारण करने वाले श्रावक के ग्यारह पदा या स्थान होते हैं, इन्हें प्रतिमा कहते हैं।
उत्तर-९७३ सम्यग्दर्शन, अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत और सल्लेखना इन गुणों को धारण करने वाले श्रावक के ग्यारह पदा या स्थान होते हैं, इन्हें प्रतिमा कहते हैं।
प्रश्न-९७४ग्यारह प्रतिमाओं के नाम बताओ?
उत्तर-९७४१. दर्शन २. व्रत ३. सामायिक ४. प्रोषधोपवास ५. सचित्तत्याग ६. रात्रिभोजन त्याग ७. ब्रह्मचर्य ८. आरंभ त्याग ९. परिग्रह त्याग १०. अनुमति त्याग और ११. उद् दिष्ट त्याग ये ग्यारह प्रतिमाएँ हैं।
उत्तर-९७४१. दर्शन २. व्रत ३. सामायिक ४. प्रोषधोपवास ५. सचित्तत्याग ६. रात्रिभोजन त्याग ७. ब्रह्मचर्य ८. आरंभ त्याग ९. परिग्रह त्याग १०. अनुमति त्याग और ११. उद् दिष्ट त्याग ये ग्यारह प्रतिमाएँ हैं।
प्रश्न-९७५ दर्शन प्रतिमा एवं व्रत प्रतिमा का लक्षण बताओ?
उत्तर-९७५ जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त, शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी, पंच परमेष्ठी के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने वाला और सच्चे मार्ग पर चलने वाला है वह दर्शनप्रतिमाधारी कहलाता है वह श्रावक पंच उदुम्बर और व्यसनों का तथा रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्यागी होता है तथा जो शल्यरहित होकर निरतिचार, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन करता है वह व्रत प्रतिमाधारी कहलाता है। इस प्रतिमा में सामायिक व्रत में दो समय सामायिक और विधिवत् देव पूजन करना आवश्यक होता है।
उत्तर-९७५ जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त, शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी, पंच परमेष्ठी के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने वाला और सच्चे मार्ग पर चलने वाला है वह दर्शनप्रतिमाधारी कहलाता है वह श्रावक पंच उदुम्बर और व्यसनों का तथा रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्यागी होता है तथा जो शल्यरहित होकर निरतिचार, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन करता है वह व्रत प्रतिमाधारी कहलाता है। इस प्रतिमा में सामायिक व्रत में दो समय सामायिक और विधिवत् देव पूजन करना आवश्यक होता है।
प्रश्न-९७६ सामायिक प्रतिमा किसे कहते हैं?
उत्तर-९७६प्रतिदिन प्रात: मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों कालों में कम से कम दो घड़ी तक विधिपूर्वक अतिचाररहित सामायिक करना सामायिक प्रतिमा कहलाती है।
उत्तर-९७६प्रतिदिन प्रात: मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों कालों में कम से कम दो घड़ी तक विधिपूर्वक अतिचाररहित सामायिक करना सामायिक प्रतिमा कहलाती है।
प्रश्न-९७७ चौथी प्रतिमा का नाम बताते हुए उसका लक्षण बताओ?
उत्तर-९७७ चौथी प्रतिमा का नाम प्रोषधोपवास प्रतिमा है। प्रत्येक महीने की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी, ऐसे चार पर्वों में अपनी शक्ति को न छिपाकर धर्मध्यान में लीन होते हुए प्रोषध को अथवा उपवास को अवश्य करना प्रोषध प्रतिमा का लक्षण है।
उत्तर-९७७ चौथी प्रतिमा का नाम प्रोषधोपवास प्रतिमा है। प्रत्येक महीने की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी, ऐसे चार पर्वों में अपनी शक्ति को न छिपाकर धर्मध्यान में लीन होते हुए प्रोषध को अथवा उपवास को अवश्य करना प्रोषध प्रतिमा का लक्षण है।
प्रश्न-९७८ उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य प्रोषध का लक्षण बताओ?
उत्तर-९७८ उत्कृष्ट प्रोषध प्रतिमा में सप्तमी और नवमी को एक बार शुद्ध भोजन और अष्टमी को उपवास होता है। जघन्य में अष्टमी को एक बार भोजन होता है। मध्यम में कई भेद हो जाते हैं।
उत्तर-९७८ उत्कृष्ट प्रोषध प्रतिमा में सप्तमी और नवमी को एक बार शुद्ध भोजन और अष्टमी को उपवास होता है। जघन्य में अष्टमी को एक बार भोजन होता है। मध्यम में कई भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-९७९ सचित्तत्याग प्रतिमा कौन सी प्रतिमा है? लक्षण बताओ?
उत्तर-९७९ कच्चे फल-फूल पीना सचित्तत्याग प्रतिमा कहलाती है।
उत्तर-९७९ कच्चे फल-फूल पीना सचित्तत्याग प्रतिमा कहलाती है।
प्रश्न-९८० छठीं एवं सातवीं प्रतिमा का नाम बताते हुए उसकी परिभाषा बताओ?
उत्तर-९८० छठीं प्रतिमा रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा है तथा सातवीं प्रतिमा ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। जो दयालु श्रावक रात्रि में अन्न, खाद्य, लेह्य और पेय इन चारों आहारों का त्याग कर देता है वह रात्रि भुक्ति त्यागी छठीं प्रतिमाधारी श्रावक होता है तथा मल का बीज, मल का स्थान, दुर्गंधियुक्त ऐसे इस शरीर का स्वरूप समझकर काम सेवन में पूर्णतया विरक्त होकर स्त्री मात्र का त्याग कर देना अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण कर लेना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है।
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