संसार में सबसे ज्यादा ईमानदार है तो वह है कर्म। मुनि हो, श्रावक हो, राजा हो या रंक, युवा हो या वृद्ध, कर्म किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे फल मिलता है। कर्म किसे कहते हैं, कितने होते हैं, उनका बन्ध किन कारणों से होता है, आदि का वर्णन इस अध्याय में है।
1. कर्म किसे कहते हैं ?
जिसके द्वारा आत्मा पर तंत्र किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं।
2. कर्म के अस्तित्व को कैसे जान सकते हैं ?
जीव और कर्म का अनादिकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है। मैं हूँ इस अनुभव से जीव जाना जाता है। संसार में कोई गरीब है, कोई अमीर है, कोई बुद्धिमान है, कोई बुद्धिहीन है, कोई रोगी है, कोई स्वस्थ है, इस विचित्रता से कर्म के अस्तित्व को जान सकते हैं।
3. कर्म किस प्रकार आते हैं ?
जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ लोहे का गोला पानी में डालते ही सब तरफ से पानी को ग्रहण करता है, वैसे ही संसारी आत्मा मन - वचन - काय की क्रियाओं से प्रति समय आत्म प्रदेशों से कर्म ग्रहण करता है, हमारे ही रागद्वेष परिणाम से कर्म आते हैं।
4. कर्म कितने प्रकार के होते हैं ?
कर्म आठ प्रकार के होते हैं
- ज्ञानावरण कर्म - जो आत्मा के ज्ञान गुण को ढकता है, वह ज्ञानावरण कर्म है।
- दर्शनावरण कर्म - जो आत्मा के दर्शन गुण को ढकता है, वह दर्शनावरण कर्म है।
- वेदनीय कर्म - जो सुख-दुख का वेदन (अनुभूति) कराता है, वह वेदनीय कर्म है।
- मोहनीय कर्म - जो आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण को घातता है, वह मोहनीय कर्म है।
- आयु कर्म - जो प्राणी को मनुष्य आदि के शरीर में रोके रखता है, वह आयु कर्म है।
- नाम कर्म - जो अच्छे - बुरे शरीर की संरचना करता है, वह नाम कर्म है।
- गोत्र कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव को नीच व उच्च गोत्र की प्राप्ति होती है, वह गोत्र कर्म है।
- अंतराय कर्म - जो दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य में विध्न डालता है, वह अंतराय कर्म है।
5. आठ कर्मों के कार्यों को दर्शाने के लिए कौन-कौन से उदाहरण दिए गए हैं ?
आठ कर्मों के कार्यों को दर्शाने के लिए निम्न उदाहरण दिए गए हैं
- ज्ञानावरण कर्म - देवता के मुख पर ढके वस्त्र के समान।
- दर्शनावरण कर्म - द्वारपाल के समान।
- वेदनीय कर्म - शक्कर की चाशनी से लपेटी तलवार के समान ।
- मोहनीय कर्म - मदिरा के समान।
- आयु कर्म - बेडी के समान।
- नाम कर्म - चित्रकार (पेंटर) के समान।
- गोत्र कर्म - कुम्भकार के समान।
- अन्तराय कर्म - भण्डारी के समान।
6. इन आठ कर्मों में कितने घातिया और कितने अघातिया हैं ?
घातिया कर्म भी चार हैं एवं अघातिया कर्म भी चार हैं -
- घातिया कर्म - जो जीव के गुणों को घातते हैं, वे घातिया कर्म हैं। वे चार हैं:- ज्ञानावरण कर्म, दर्शनावरण कर्म, मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म। (गी.क.,9)
- अघातिया कर्म - जो उस प्रकार से जीव के गुणों का घात नहीं करते हैं, वे अघातिया कर्म हैं। वे चार हैं :- वेदनीय कर्म, आयु कर्म, नाम कर्म और गोत्र कर्म। (गोक,9)
7. ज्ञानावरण कर्म का बंध किन-किन कारणों से होता है ?
ज्ञानावरण कर्म का बंध निम्न कारणों से होता है -
- शिक्षा गुरु का नाम छिपाना।
- किसी के अध्ययन में बाधा डालना । जैसे - बिजली बंद कर देना, पुस्तक फाड़ देना, पुस्तक की चोरी कर लेना आदि।
- किसी के ज्ञान की महिमा को सुनने के बाद मुख से कुछ न कहकर अंतरंग में ईष्या भाव रखना।
- ज्ञान के साधनों का दुरुपयोग करना।
- किसी कारण से मैं नहीं जानता ऐसा कहकर ज्ञान का न देना।
- ज्ञान होने पर भी ईष्य के कारण ज्ञान न देना।
- दूसरे के द्वारा प्रकाशित ज्ञान को रोकना। (तसू, 6/10)
- शास्त्र विक्रय करना आदि कारणों से ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है। (रावा, 6/10/20)
8. दर्शनावरण कर्म का बंध किन-किन कारणों से होता है ?
दर्शनावरण कर्म का बंध निम्न कारणों से होता है - दर्शन मात्सर्य, दर्शन अन्तराय, आँखें फोड़ना, इन्द्रियों के विपरीत प्रवृत्ति, दृष्टि का गर्व, दीर्घ निद्रा, दिन में सोना, आलस्य, नास्तिकता, सम्यग्दृष्टि में दूषण लगाना, कुतीर्थ की प्रशंसा, हिंसा करना और यतिजनों के प्रति ग्लानि का भाव आदि दर्शनावरण कर्म के बंध के कारण हैं। (रावा, 6/10/20)
9. वेदनीय कर्म का बंध किन-किन कारणों से होता है ?
वेदनीय कर्म का बंध निम्न कारणों से होता है - अपने में, दूसरे में, या दोनों में विद्यमान दु:ख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन आदि असाता वेदनीय कर्म के बंध के कारण हैं तथा सभी प्राणियों पर अनुकम्पा रखने से, व्रतियों पर अनुकम्पा रखने से, दान देने से, सराग संयम, देशसंयम, बालतप, हृदय में शान्ति रखने से और लोभ का त्याग करने से, साता वेदनीय का बंध होता है। (तसू, 6/11-12)
10. मोहनीय कर्म का बंध किन-किन कारणों से होता है ?
मोहनीय कर्म का बंध निम्न कारणों से होता है - केवली भगवान्, श्रुत, संघ,धर्म एवं देवों में झूठे दोष लगाने से दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व का बंध होता है तथा कषायों की तीव्रता से, किसी को चारित्र लेने से रोकने में, चारित्र से भ्रष्ट करने आदि से चारित्र मोहनीय का बंध होता है। (तसू, 6/13-14)
11. आयु कर्म का बंध किन-किन कारणों से होता है ?
आयु कर्म का बंध निम्न कारणों से होता है -
- नरकायु - बहुत आरम्भ एवं बहुत परिग्रह से। (तसू,6/15)
- तिर्यञ्चायु - मायाचारी, अतिसंधान, विश्वासघात, विपरीत मार्ग का उपदेश देने से, (ससि,6/1660) किसी का कर्ज न चुकाने आदि से।
- मनुष्यायु - स्वभाव से मृदुस्वभावी हो, पात्रदान में प्रीति युक्त हो, अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह वाला हो आदि से। (रावा, 6/17) 4.
- देवायु - संयम पालन करने से, कषाय की मंदता से, दान देने से, तीर्थों की सेवा से, अकामनिर्जरा, बालतप आदि से। (त.सू, 6/20)
12. नाम कर्म का बंध किन-किन कारणों से होता है ?
नाम कर्म के बंध के निम्न कारण हैं - मन, वचन, काय की कुटिलता अर्थात् सोचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ, चुगलखोरी, चित्त की अस्थिरता, झूठे मापतौल का प्रयोग करने से, किसी को धोखा देने से, अशुभ नाम कर्म का बंध होता है। (रावा, 6/22/1-4) इसके विपरीत मन, वचन, काय की सरलता, चुगलखोरी का त्याग, चित्त की स्थिरता आदि से शुभ नाम कर्म का बंध होता है तथा सोलहकारण भावना से तीर्थंकर शुभ नाम कर्म का बन्ध होता है। (तसू, 6/23)
13. गोत्र कर्म का बंध किन-किन कारणों से होता है ?
गोत्र कर्म के बंध के निम्न कारण हैं - परनिंदा, आत्म प्रशंसा, दूसरे के विद्यमान गुणों को ढकना तथा अपने अविद्यमान गुणों को प्रकट करना, अरिहंत आदि में भक्ति का न होना आदि से नीच गोत्र का बंध होता है तथा इससे विपरीत अपनी निंदा, दूसरे की प्रशंसा, अपने गुणों का आच्छादन (ढकना) तथा पर के गुणों का उद्भावन (प्रकट) करना, अरिहंत आदि में भक्ति युक्त होना, आदि से उच्च गोत्र का बंध होता है। (त.सू., 6/25-26)
14. अन्तराय कर्म का बंध किन-किन कारणों से होता है ?
अन्तराय कर्म के बंध के निम्न कारण हैं - दान आदि में बाधा उपस्थित करने से, जिन पूजा का निषेध करने से, निर्माल्य द्रव्य का सेवन करने से तथा अपनी शक्ति को छिपाने से अंतराय कर्म का बंध होता है। (त.सू, 6/27)
15. द्रव्य कर्म, भावकर्म एवं नोकर्म किसे कहते हैं ?
- द्रव्य कर्म - पुद्गल पिण्ड को द्रव्य कर्म कहते हैं। (गोक,6) या सब शरीरों की उत्पत्ति के मूल कारण कार्मण शरीर को कर्म (द्रव्य कर्म) कहते हैं। (रा.वा,2/25/3)
- भाव कर्म - पुद्गल पिण्ड में जो फल देने की शक्ति है वह भाव कर्म है (गोका,6)अथवा राग-द्वेष आदि परिणामों को भाव कर्म कहते हैं।
- नोकर्म - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक और तैजस नाम कर्म के उदय से चार प्रकार के शरीर होते हैं। वे नोकर्म शरीर हैं। पाँचवाँ जो कामणि शरीर है, वह तो कर्म रूप ही है। (गो.जी.244)
16. ज्ञानावरणादि कर्म क्या कहते हैं ?
- ज्ञानावरण कर्म - ज्ञानावरण कर्म कहता है, मैंने बाहुबली जैसे महापराक्रमी को एक वर्ष तक खड़ा रखा केवल ज्ञान नहीं होने दिया।
- दर्शनावरण कर्म - दर्शनावरण कर्म कहता है मैंने यथाख्यात चारित्र वाले को भी आत्मा का दर्शन नहीं होने दिया और उसे नरक निगोद की यात्रा पुन: करा दी।
- वेदनीय कर्म - वेदनीय कर्म कहता है मैंने सनतकुमार मुनिराज के शरीर में सात सौ वर्ष तक कुष्ठ रोग कराया। मुनि वादिराज के शरीर में सौ वर्ष तक कुष्ठ रोग कराया। श्रीपाल जैसे कोटिभट्ट को कोढ़ी बनाकर निकलवाया।
- मोहनीय कर्म - मोहनीय कर्म कहता है मैंने राम जैसे महान् पुरुष को लक्ष्मण के मृतक शरीर को लेकर 6माह तक कंधे पर रखकर घुमवाया। सीता की जंगलो-जंगलो में खोज कराई। उपशम श्रेणी तक के मुनिराज को भी प्रथम गुणस्थान में भिजवाया।
- आयुकर्म - आयु कर्म कहता है मैंने राजाश्रेणिक जैसे क्षायिक सम्यकद्रष्टि को एवं रावण, सुभौमचक्रवर्ती आदि जीवों को भी नरक में रोक रखा है।
- नाम कर्म - नाम कर्म कहता है, मैंने अनेक को गूँगा, कुबड़ा, काला, अष्टावक्र (आठ अंग टेडे) बनाया ।
- गोत्र कर्म - गोत्र कर्म कहता है, मैंने बहुतों को ऊँच - नीच कुल में डाला।
- अंतराय कर्म - अंतराय कर्म कहता है, मैंने आदिनाथ मुनि को 7 माह 9 दिन तक आहार नहीं मिलने दिया।
17. एक जीव के कितने कर्मों का उदय होता है ?
प्रथम गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक आठों कर्मों का तथा ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म के अलावा सात कर्मों का एवं तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में चार कर्मों का उदय रहता है।
18. कर्मो की दस अवस्थाएँ कौन-कौन सी हैं ?
कर्मों की दस अवस्थाएँ इस प्रकार हैं
- बंध - (अ) "बंधो णाम दुभाव परिहारेण एयत्तावत्तो" द्वित्व का त्याग करके एकत्व की प्राप्ति का नाम बंध है। (ब) पुद्गल द्रव्य (कार्मण वर्गणा) का कर्म रूप होकर आत्मप्रदेशों के साथ संश्लेष सम्बन्ध होना बंध है। कर्मो की दस अवस्थाओं में यह प्रथम अवस्था है। बंध के बाद ही अन्य अवस्थाएँ प्रारम्भ होती हैं गुणस्थान 1 से 13 तक।
- सत्त्व - कर्मबंध के बाद और फल देने से पूर्व बीच की स्थिति को सत्व कहते हैं। सत्व काल में कर्म का अस्तित्व रहता है पर सक्रिय नहीं होता है। जैसे-औषध खाने के बाद वह तुरन्त असर नहीं करती है किन्तु कुछ समय बाद प्रभाव दिखाती है, वैसे ही कर्म भी बंधन के बाद कुछ काल तक सत्ता में बना रहता है बाद में फल देता है। गुणस्थान 1 से 14 तक।
- उदय - (अ) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कर्मो का फल देना उदय कहलाता है। (ब) आबाधा पूर्ण होने पर निषेक रचना के अनुसार कर्मो का फल प्राप्त होना उदय कहलाता है। गुणस्थान 1 से 14 तक।
- उदीरणा - (अ) उदयावली के बाहर स्थित द्रव्य का अपकर्षण पूर्वक उदयावली में लाना उदीरणा है। (ब) आबाधा काल के पूर्व कर्मो का उदय में आ जाना उदीरणा है। जैसे- कोर्ट में गए आपकी फाइल नीचे रखी थी उसका नम्बर शाम तक आता आपने 50 रुपए दिए (पुरुषार्थ किया) आपकी फाइल 12 बजे ही आ गई। गुणस्थान 1 से 13 तक।
- उत्कर्षण - पूर्व बद्ध कर्मो की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि हो जाना उत्कर्षण है। जिस प्रकृति का जब बंध होता है तभी उत्कर्षण होता है। गुणस्थान 1 से 13 तक। जैसे- खदिरसार का उदाहरण चारित्रसार गत श्रावकाचार 17 की टीका में आता है।
- अपकर्षण - पूर्वबद्ध कर्मो की स्थिति व अनुभाग में हानि का होना अपकर्षण है। यह अपकर्षण कभी भी हो सकता है, जैसे- राजा श्रेणिक ने 33 सागर की आयु का बंध किया था। बाद में क्षायिक सम्यकदर्शन के परिणाम से 84,000 वर्ष की आयु कर ली अर्थात् शेष आयु का अपकर्षण कर लिया।गुणस्थान 1 से 13 तक।
- संक्रमण - जिस प्रकृति का पूर्व में बंध किया था, इसका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है। गुणस्थान 1 से 10 तक किन्तु 11 वें गुणस्थान में मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का संक्रमण होता है।
- उपशम -जो कर्म उदयावली में प्राप्त न किया जाए अथवा उदीरणा अवस्था को प्राप्त न हो सके वह उपशम करण है। गुणस्थान 1 से 8 तक।
- निधति - कर्म का उदयावली में लाने या अन्य प्रकृति रूप संक्रमण करने में समर्थ न होना निधति है। गुणस्थान 1 से 8 तक।
- निकाचित - कर्म का उदयावली में लाने, अन्य प्रकृति रूप संक्रमण करने में, उत्कर्षण एवं अपकर्षण करने में असमर्थ होना निकाचित है। गुणस्थान 1 से 8 तक।
विशेष -
- मूल प्रकृतियों का परस्पर में संक्रमण नहीं होता है। जैसे- मोहनीय कर्म का संक्रमण वेदनीय में नहीं होता है इसी प्रकार और भी।
- दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीय में संक्रमण नहीं होता है।
- आयु कर्म में संक्रमण नहीं होता है।
19. दस कर्मो के उदाहरण बताइए ?
- बन्ध - 17 अगस्त 2005 को किसी फैक्ट्री में 10 वर्ष के लिए नौकरी पक्की हो जाना।
- सत्व - 17 अगस्त 2005 से 1 अक्टूबर 2015 तक का समय।
- उदय - 2 अक्टूबर 2005 से नौकरी पर जाना प्रारम्भ हो जाना।
- उपशम - फैक्ट्री तो पहुँच गए किन्तु फैक्ट्री के ताले की चाबी न मिलने से कुछ समय रुकना पड़ा ।
- उदीरणा - 1अक्टूबर 2005 को ही फैक्ट्री पहुँच जाना।
- अपकर्षण - 10 वर्ष के लिए नौकरी मिली थी, किन्तु बाद में 9 वर्ष के लिए कर दी।
- उत्कर्षण - 10 वर्ष के लिए नौकरी मिली थी, किन्तु बाद में 11 वर्ष के लिए हो गई।
- संक्रमण - फैक्ट्री मालिक ने दूसरी फैक्ट्री में भेज दिया।
- निधति - न 1 अक्टूबर 2005 से नौकरी पर गए न मालिक ने दूसरी फैक्ट्री भेजा यथासमय गए यथास्थान पर रहे।
- निकाचित - न 1 अक्टूबर 2005 से नौकरी पर गए न मालिक ने दूसरी फैक्ट्री भेजा, न ही नौकरी 9 वर्ष की और न ही नौकरी 11 वर्ष की। अर्थात् कार्य सही समय पर सही स्थान में सही समय तक चलता रहा।
20. क्या निधति निकाचित का फल भोगना ही पड़ता है ?
नहीं। जिस प्रकार किसी को मृत्यु दण्ड मिला हो तो राष्ट्रपति उसे अभयदान दे सकता है अर्थात् मृत्युदण्ड को वापस ले सकता है। उसी प्रकार आचार्य श्री वीरसेनस्वामी, श्री धवला, पुस्तक 6 में कहते हैं जिणबिंबदंसणेण णिधक्तणिकाचिदस्स वि मिच्छतादिकम्मकलावस्स खय दंसणादो। अर्थात् जिनबिम्ब के दर्शन से निधति और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय होता देखा जाता है तथा नौवें गुणस्थान में प्रवेश करते ही दोनों प्रकार के कर्म स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं।
21. संक्रमण को भी एक प्रकार से बंध कहा है, क्यों ?
बंध के दो भेद हैं -
- अकर्म बंध - जो कार्मण वर्गणाओं में अकर्मरूप से स्थित परमाणुओं का ग्रहण होता है, वह अकर्म बंध है।
- कर्मबंध - कर्मरूप से स्थित पुद्गलों का अन्य प्रकृति रूप से परिणमन होना कर्म बंध है। इसी से संक्रमण को भी बंध कहा है। जैसे - साप्तावेदनीय का असाता वेदनीय हो जाना।
22. अपकर्षण एवं उत्कर्षण को भी संक्रमण में क्यों गर्भित किया है ?
अपकर्षण एवं उत्कर्षण में भी कर्म, कर्मरूपता का त्याग किए बिना ही स्थिति अनुभाग रूप से पुन: बंधते हैं, अत: अपकर्षण, उत्कर्षण को भी संक्रमण में गर्भित किया है।

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