व्यंजनहीन अर्थ की कथा !! Jain Stories (Hindi Text) !!

 

निर्मल केवलज्ञान के धारक श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर व्यंजनहीन अर्थ करने वाले की कथा लिखी जाती है ॥१॥

कुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर के राजा महापद्म थे। ये बड़े धर्मात्मा और जिन भगवान् के सच्चे भक्त थे । इनकी रानी का नाम पद्मश्री था। पद्मश्री सरल स्वभाववाली थी, सुन्दरी थी और कर्मों के नाश करने वाले जिनपूजा, दान, व्रत उपवास आदि पुण्यकर्म निरन्तर किया करती थी। मतलब यह कि जिनधर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा थी॥२-३॥

सुरम्य देश के पोदनपुर का राजा सिंहनाद और महापद्म में कई दिनों की शत्रुता चली आ रही थी। इसलिए मौका पाकर महापद्म ने उस पर चढ़ाई कर दी । पोदनपुर में महापद्म ने एक 'सहस्रकूट ' नाम से प्रसिद्ध जिनमन्दिर देखा । मन्दिर की हजार खम्भों वाली भव्य और विशाल इमारत देखकर महापद्म बड़े खुश हुए। उनके हृदय में भी धर्मप्रेम का प्रवाह बहा। अपने शहर में भी एक ऐसे ही सुन्दर मन्दिर के बनवाने की इनकी इच्छा हुई तब उसी समय इन्होंने अपनी राजधानी में पत्र लिखा। उसमें इन्होंने लिखा- ॥४-७॥

'बहुत जल्दी बड़े - बड़े एक हजार खम्भे इकट्ठे करना । पत्र बाँचने वाले ने इस भ्रम से पड़ा- "महास्तभसहस्त्रस्य कर्तव्यः संग्रहो ध्रुवम् ” ' स्तंभ' शब्द को 'स्तभ' समझकर उसने खम्भे की जगह एक हजार बकरों को इकट्ठा करने को कहा । ऐसा ही किया गया । तत्काल एक हजार बकरे मँगवाये जाकर वे अच्छे खाने पिला ने द्वारा पाले जाने लगे ॥८- १०॥

जब महाराज लौटकर वापस आए तो उन्होंने अपने कर्मचारियों से पूछा कि मैंने जो आज्ञा की थी, उसकी तामील की गई ? उत्तर में उन्होंने 'जी हाँ' कहकर उन बकरों को महाराजा को दिखलाया। महापद्म देखकर सिर से पैर तक जल उठे। उन्होंने गुस्सा होकर कहा- मैंने तो तुम्हें एक हजार खम्भों को इकट्ठा करने को लिखा था, तुमने वह क्या किया? तुम्हारे इस अविचार की सजा मैं तुम्हें जीवनदण्ड देता हूँ ॥११-१२॥

महापद्म की ऐसी कठोर सजा सुनकर वे बेचारे बड़े घबराये ! उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि महाराज, इसमें हमारा तो कुछ दोष नहीं हैं। हमें तो जैसा पत्र बाँचने वाले ने कहा, वैसा ही हमने किया। महाराज ने तब उसी समय पत्र बाँचने वाले को बुलाकर उसके इस गुरुत्तर अपराध को जैसी चाहिए वैसी सजा की। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे ज्ञान, ध्यान आदि कामों में कभी ऐसा प्रमाद न करें क्योंकि प्रमाद कभी सुख के लिए नहीं होता ॥ १३-१५॥

जो सत्पुरुष भगवान् के उपदेश किए पवित्र और पुण्यमय ज्ञान का अभ्यास करेंगे वे फिर मोह उत्पन्न करने वाले प्रमाद को न कर सुख देने वाले जिनपूजा, दान, व्रत, उपवासादि धार्मिक कामों में अपनी बुद्धि को लगाकर केवलज्ञान का अनन्तसुख प्राप्त करेंगे ॥१६॥

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