अक्षरहीन अर्थ की कथा !! Jain Stories (Hindi Text) !!


 जिन भगवान् के चरणों को नमस्कार कर अक्षरहीन अर्थ की कथा लिखी जाती है। मगधदेश की राजधानी राजगृह के राजा जब वीरसेन थे, उसी समय की यह कथा है। वीरसेन की रानी का नाम वीरसेना था। इनके एक पुत्र हुआ, उसका नाम रखा गया सिंह । सिंह को पढ़ाने के लिए वीरसेन महाराज ने सोमशर्मा ब्राह्मण को रखा । सोमशर्मा सब विषयों का अच्छा विद्वान् था ॥१-३॥

पोदनपुर के राजा सिंहरथ के साथ वीरसेन की बहुत दिनों से शत्रुता चली आती थी । सो मौका पाकर वीरसेन ने उस पर चढ़ाई कर दी। वहाँ से वीरसेन ने अपने यहाँ एक राज्य-व्यवस्था की बाबत पत्र लिखा और समाचारों के सिवा पत्र में वीरसेन ने एक यह भी समाचार लिख दिया था कि राजकुमार सिंह के पठन-पाठन की व्यवस्था अच्छी तरह करना। इसके लिए उन्होंने यह वाक्य लिखा था कि "सिंहो ध्यापयितव्यः"। जब यह पत्र पहुँचा तो इसे एक अर्धदग्ध ने बाँचकर सोचा-‘ध्यै' धातु का अर्थ है स्मृति या चिन्ता करना इसलिए अर्थ हुआ कि 'राजकुमार पर अब राज्य-चिन्ता का भार डाला जाये' उसे अब पढ़ाना उचित नहीं । बात यह थी कि उक्त वाक्य के पृथक् पद करने से - " सिंहः अध्यापयितव्यः” ऐसे पद होते हैं और इनका अर्थ होता है - सिंह को पढ़ाना, पर उस बाँचने वाले अर्धदग्ध ने इस वाक्य के - " सिंहः ध्यापयितव्य" ऐसे पद समझकर इसके सन्धिस्थ अकार पर ध्यान न दिया और केवल ‘ध्यै' धातु से बने हुए 'ध्यापयितव्यः' का चिन्ता अर्थ करके राजकुमार का लिखना-पढ़ना छुड़ा दिया । व्याकरण के अनुसार तो उक्त वाक्य के दोनों ही तरह पद होते है और दोनों ही शुद्ध हैं, पर यहाँ केवल व्याकरण की ही दरकार न थी । कुछ अनुभव भी होना चाहिए था । पत्र बाँचने वाले में इस अनुभव की कमी होने से उसने राजकुमार का पठन-पाठन छुड़ा दिया। इसका फल यह हुआ कि जब राजा आए और अपने कुमार का पठन-पाठन छूटा हुआ देखा तो उन्होंने उसके कारण की तलाश की। यथार्थ बात मालूम हो जाने पर उन्हें उस अर्धदग्ध-मूर्ख पत्र बाँचने वाले पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने इस मूर्खता की उसे बड़ी कड़ी सजा दी। इस कथा से भव्यजनों को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वे कभी ऐसा प्रमाद न करें, जिससे कि अपने कार्य को किसी भी तरह की हानि पहुँचे। जिस प्रकार गुणहीन औषधि से कोई लाभ नहीं होता, वह शरीर के किसी रोग को नहीं मिटा सकती, उसी तरह अक्षर रहित शास्त्र या मन्त्र वगैरह भी लाभ नहीं पहुँचा सकते। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे सदा शुद्ध रीति से शास्त्राभ्यास करें - उसमें किसी तरह का प्रमाद न करें, जिससे कि हानि होने की संभावना है ॥४-११॥

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