अभयदान की कथा !! Jain Stories (Hindi Text) !!


मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवान् के चरणों को नमस्कार कर अभय - दान द्वारा फल प्राप्त करने वाली की कथा जैनग्रन्थों के अनुसार यहाँ संक्षेप में लिखी जाती है ॥१॥

भव्यजनों द्वारा भक्ति से पूजी जाने वाली सरस्वती श्रुतज्ञानरूपी महासमुद्र के पार पहुँचाने के लिए नाव की तरह मेरी सहायता करें | परब्रह्म स्वरूप आत्मा का निरन्तर ध्यान करने वाले उन योगियों को शान्ति के लिए मैं सदा याद करता हूँ, जिनकी केवल भक्ति से भव्यजन सन्मार्ग लाभ करते हैं, सुखी होते हैं। इस प्रकार मंगलमय जिनभगवान्, जिनवाणी और जैन योगियों का स्मरण कर मैं वसतिदान-अभयदान की कथा लिखता हूँ ॥२-४॥

धर्म-प्रचार, धर्मोपदेश, धर्म- क्रिया आदि द्वारा पवित्रता लाभ किए हुए भारतवर्ष में मालवा में बहुत काल से प्रसिद्ध और सुन्दर देश है । अपनी सर्वश्रेष्ठ सम्पदा और ऐश्वर्य से वह ऐसा जान पड़ता है मानों सारे संसार की लक्ष्मी यहीं आकर इकट्ठी हो गई है। वह सुख देने वाले बगीचों, प्रकृति- सुन्दर पर्वतों और सरोवरों की शोभा से स्वर्ग के देवों को भी अत्यन्त प्यारा है। वे यहाँ आकर मनचाहा सुख लाभ करते हैं। यहाँ के स्त्री-पुरुष सुन्दरता में अपनी तुलना में किसी को न देखते थे। देश के सब लोग खूब सुखी थे, भाग्यशाली थे और पुण्यवान् थे । मालवे के सब शहरों में, पर्वतों में और सब वनों में बड़े-बड़े ऊँचे विशाल और भव्य जिनमन्दिर बने हुए थे। उनके ऊँचे शिखरों में लगे हुए सोने के चमकते कलश बड़े सुन्दर जान पड़ते थे। रात में तो उनकी शोभा बड़ी ही विलक्षणता धारण करती थी। वे ऐसे जान पड़ते थे मानों स्वर्गों के महलों में दीये जगमगा रहे हों। हवा के झकोरों से इधर-उधर फड़क रही उन मन्दिरों पर की ध्वजाएँ ऐसी देख पड़ती थीं मानों वे पथिकों को हाथों के इशारे से स्वर्ग जाने का रास्ता बतला रही हैं। उन पवित्र जिन मन्दिरों के दर्शन मात्र से पापों का नाश होता था तब उनके सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखें। जिनमें बैठे हुए रत्नत्रय धारी साधु-तपस्वियों को उपदेश करते हुए देखकर यह कल्पना होती थी कि मानों वे मोक्ष के रास्ते हों ॥५- १२॥

मालवे में जिन भगवान् के पवित्र और सुख देने वाले धर्म का अच्छा प्रचार है। सम्यक्त्व की जगह-जगह चर्चा है। अनेक सम्यक्त्व रत्न के धारण करने वाले भव्यजनों से वह युक्त हैं। दान-व्रत, पूजा-प्रभावना आदि वहाँ खूब हुआ करते हैं। वहाँ के भव्यजनों का निर्भ्रान्त विश्वास है कि अठारह दोष रहित जिन भगवान् ही सच्चे देव हैं। वे ही केवलज्ञानी - सर्वज्ञ हैं । उनकी स्वर्ग के देव तक सेवा-पूजा करते हैं। सच्चा धर्म दशलक्षणमय है और उनके प्रकटकर्ता जिनदेव हैं। गुरु परिग्रह रहित और वीतरागी है। तत्त्व वही सच्चा हैं जिसे जिन भगवान् ने उपदेश किया है । वहाँ के भव्यजन अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मों में सदा प्रयत्नवान् रहते हैं। वे भगवान् की स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाली पूजा सदा करते हैं, पात्रों को भक्ति से पवित्र दान देते हैं, व्रत, उपवास, शील, संयम को पालते हैं और आयु के अन्त में सुख-शांति से मृत्यु लाभ कर सद्गति प्राप्त करते हैं । इस प्रकार मालवा उस समय धर्म का प्रधान केन्द्र बन रहा था, जिस समय की कि यह कथा है ॥१३-१७॥

मालवे में तब एक घटगाँव नाम का सम्पत्ति शाली शहर था । इस शहर में देविल नाम का एक धनी कुम्हार और एक धर्मिल नाम का नाई रहता था। इन दोनों ने मिलकर बाहर के आने वाले यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला बनवा दी। एक दिन देविल ने एक मुनि को लाकर इस धर्मशाला में ठहरा दिया। धर्मिल को जब मालूम हुआ तो उसने मुनि को हाथ पकड़ कर बाहर निकाल दिया और वहाँ संन्यासी को लाकर ठहरा दिया। सच है, जो दुष्ट हैं, दुराचारी हैं, पापी हैं, उन्हें साधु-सन्त अच्छे नहीं लगते, जैसे उल्लू को सूर्य । धर्मिल ने मुनि को निकाल दिया, उनका अपमान किया, पर मुनि ने इसका कुछ बुरा न माना। वे जैसे शान्त थे वैसे ही रहे । धर्मशाला से निकल कर वे एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर गए। रात इन्होंने वहीं पूरी की। डांस, मच्छर वगैरह का इन्हें बहुत कष्ट सहना पड़ा। इन्होंने सब सहा और बड़ी शान्ति से सहा । सच है, जिनका शरीर से रत्तीभर मोह नहीं उनके लिए तो कष्ट कोई चीज ही नहीं । सबेरे जब देविल मुनि के दर्शन करने को आया और उन्हें धर्मशाला में न देखकर एक वृक्ष के नीचे बैठा देखा तो उसे धर्मिल की इस दुष्टता पर बड़ा क्रोध आया । धर्मिल का सामना होने पर उसने उसे फटकारा। देविल की फटकार धर्मिल न सह सका और बात बहुत बढ़ गई यहाँ तक कि परस्पर में मारामारी हो गई, दोनों ही परस्पर में लड़कर मर मिटे । क्रूर भावों से मरकर ये दोनों क्रम से सूअर और व्याघ्र हुए। देविल का जीव सूअर विंध्य पर्वत की गुफा में रहता था। एक दिन कर्मयोग गुप्त और त्रिगुप्ति नाम के दो मुनिराज अपने विहार से पृथ्वी को पवित्र करते इसी गुफा में आकर ठहरे। उन्हें देखकर इस सूअर को जातिस्मरण हो गया । इसने उपदेश करते हुए मुनिराज द्वारा धर्म का उपदेश सुन कुछ व्रत ग्रहण किए । व्रत ग्रहण कर यह बहुत सन्तुष्ट हुआ ॥१८-२९॥

इसी समय मनुष्यों की गन्ध पाकर धर्मिल का जीव व्याघ्र मुनियों को खाने के लिए झपटा हुआ आया। सूअर उसे दूर से देखकर गुफा के द्वार पर आकर डट गया । इसलिए कि वह भीतर बैठे हुए मुनियों की रक्षा कर सके । व्याघ्र ने गुफा के भीतर घुसने के लिए सूअर पर बड़ा जोर का आक्रमण किया। सूअर पहले से ही तैयार बैठा था। दोनों के भावों में बड़ा अन्तर था। एक के भाव थे मुनिरक्षा करने के और दूसरे के उनको खा जाने के। इसलिए देविल का जीव सूअर तो मुनिरक्षा रूप पवित्र भावों से मर कर सौधर्म स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों को धारी देव हुआ। जिसके शरीर की चमकती हुई कान्ति गाढ़े से गाढ़े अन्धकार को नाश करने वाली है, जिसकी रूप- सुन्दरता लोगों के मन को देखने मात्र से मोह लेती है, जो स्वर्गीय दिव्य वस्त्रों और मुकुट, कुण्डल, हार आदि बहुमूल्य भूषणों को पहनता है, अपनी स्वभाव-सुन्दरता से जो कल्पवृक्षों को नीचा दिखाता है, जो अणिमादि ऋद्धि-सिद्धियों का धारक है, अवधिज्ञानी है, पुण्य के उदय से जिसे सब दिव्य सुख प्राप्त हैं, अनेक सुन्दर-सुन्दर देव- कन्याएँ और देवगण जिसकी सेवा में सदा उपस्थित रहते हैं, जो महा वैभवशाली हैं, महा सुखी हैं, स्वर्गों के देवों द्वारा जिनके चरण पूजे जाते हैं ऐसे जिन भगवान् की, जिन प्रतिमाओं की और कृत्रिम तथा अकृत्रिम जिन मन्दिरों की जो सदा भक्ति और प्रेम से पूजा करता है, दुर्गति के दुःखों को नाश करने वाले तीर्थों की यात्रा करता है, महामुनियों की भक्ति करता है और धर्मात्माओं के साथ वात्सल्यभाव रखता है ऐसी उसकी सुखमय स्थिति है । जिस प्रकार वह सूअर धर्म के प्रभाव से उक्त प्रकार सुख का भोगने वाला हुआ उसी प्रकार जो और भव्यजन इस पवित्र धर्म का पालन करेंगे वे भी उसके प्रभाव से सब सुख-संपत्ति लाभ करेंगे। समझिए, संसार में जो-जो धन प्राप्त होता है, स्त्री, पुत्र, सुख, ऐश्वर्य आदि अच्छी-अच्छी आनन्द भोग की वस्तुएँ प्राप्त होती है, उनका कारण एक मात्र धर्म है। इसलिए सुख की चाह करने वाले भव्यजनों को जिन-पूजा, पात्र - दान, व्रत, उपवास, शील, संयम आदि धर्म का निरन्तर पवित्र भावों से सेवन करना चाहिए। देविल तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग गया और धर्मिल ने मुनियों को खा जाना चाहा था इसलिए वह पाप के फल से मरकर नरक गया। इस प्रकार पुण्य और पाप का फल जानकर भव्यजनों को उचित है कि वे पुण्य के कारण पवित्र जैनधर्म में अपनी बुद्धि दृढ़ करें ॥३०-४६॥

इस प्रकार परम सुख-मोक्ष के कारण, पापों का नाश करने वाले और पात्र - भेद से विशेष आदर योग्य इस पवित्र अभयदान की कथा अन्य जैन शास्त्रों के अनुसार संक्षेप में यहाँ लिखी गई। यह सत्य कथा संसार में प्रसिद्ध होकर सबका हित करे ॥४७॥ 

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