जिनप्रतिमा निर्माण विधि!

 


शिल्प क्रिया के अन्तर्गत वास्तुविद्या में—

जिनप्रतिमा निर्माण विधि अमृतर्विषणी टीका—

अथ बिम्बं जिनेन्द्रस्य, कर्तव्यं लक्षणान्वितम्। ऋज्वायतसुसंस्थानं, तरुणांगं दिगम्बरम्।।१।।

जिनेन्द्र भगवान का प्रतिबिम्ब सरल, लंबा, सुंदर, समचतुरस्र संस्थान तरुण अवस्थाधारी, नग्न जातलिंगधारी सर्व लक्षणसंयुक्त करना योग्य है।।१।।

श्रीवत्सभूषितोरस्कं, जानुप्राप्तकराग्रजं। निजांगुलप्रमाणेन, साष्टांगुलशतायुतम्।।२।।

श्रीवत्सचिन्ह से भूषित है वक्षस्थल जिनका और गोड़े पर्यंत (घुटने पर्यंत) लंबायमान हैं भुजा जिनकी, ऐसे निजांगुल के प्रमाण से १०८ भागप्रमाण जिनबिम्ब बनाना-बनवाना चाहिए।।२।। जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा चित्र की, लेप की, शिला की, धातु की बनावें। उसके अंग-अंग की गोलाई तथा ऊँचाई यथाक्रम कहते हैं एवं उनका मान, प्रमाण, उन्मान भी कहते हैं।।३।।  उत्तंकं चमृत्तिका, काष्ठ और विलेपन आदि की प्रतिमाएँ पूज्य नहीं हैं। कांख आदि स्थानों में रोमों से रहित तथा मूँछ-दाढ़ी के केश से रहित प्रारंभ से अंत तक प्रलंबक-ऊँचाई को लिए हुए प्रतिबिम्ब बनावें।।४।। उत्तंकं चवृद्ध, बाल अंग से रहित, शांतमुद्रा, श्रीवृक्ष करके (सहित) हृदय से सुशोभित, नख-केश रहित, धातु या चित्र-विचित्र पाषाण में वैराग्य से विभूषित तपश्चरण में तत्पर ऐसा जिनबिम्ब बनावें।।७।। ताल, मुख, वितस्ति, द्वादशांगुल ये शब्द एकार्थवाची हैं। इस मान से जिनबिम्ब को नव भागों में कल्पित करना।।५।। वहाँ १०८ भाग में १२ भाग मुख रखे, ४ भाग ग्रीवा रखे और ग्रीवा से हृदयपर्यंत १२ भाग रखना।।६।। हृदय से १२ भाग के अन्तर से नाभि रखे, नाभि से लिंग का मूल गुदापर्यंत १२ भाग पेडू रखे। लिंग के मूल से गोडे तक जंघा २४ भाग रखे।।७।। ४ भाग प्रमाण गोड़ा-घुटने रखे, घुटने से टिकूंण्यां (?) तक २४ भाग का अन्तर रखे। टिवूâण्यां से पादतलपर्यंत ४ भाग का अन्तर रखे। ऐसे ९ स्थान १०८ भाग प्रमाण में करना है।।८।। मस्तक के १२ भाग के ३ हिस्से का कथन दाढ़ी से मस्तक के केश पर्यंत १२ भाग चौड़ा और १२ भाग ऊँचा मुख करें। ऊँचाई के यथाक्रम से ३ विभाग करे। कृतिकर्म विधि २४२ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी मुख के १२ भाग ऊँचाई में ३ भाग ४ भाग प्रमाण ललाट ४ भाग प्रमाण नासिका ४ भाग प्रमाण ठोडी नासिका का रंध्र ४ यव अर्थात् आधा भाग करें। इसी प्रकार नासिका पाली अर्थात् रंध्र का ऊपरी भाग भी ४ यव प्रमाण करे। ललाट का कथन ललाट ४ भाग ऊँचा, ८ भाग चौड़ा अर्ध चन्द्राकार बनावे। वह ललाट विंâचित् ऊँचा व नीचा दिखता हुआ बनावे और ललाट की अग्रकोटी नम्र अर्थात् झुकी हुई रखे। केश का कथन ललाट के ऊपर का केशस्थान ५ भाग रखे। उष्णीष भी ५ भाग रखे। ऊपर अर्थात् उसके ऊपर चोटी २ भाग क्रमरूप चूड़ा उतार रखे। ऐसे ललाट से चोटी तक १२ भाग रखे। पीछे ग्रीवा के केश से भी चोटी- पर्यंत १२ भाग रखे। मस्तक के दोनों पाश्र्व में शंख नाम दो हाड ४ भाग चौड़ा रखे। भंवारे-भ्रूलता ४ भाग लंबे मध्य में मोटा दोनों अग्र में कृश चढ़ाये हुए धनुष के आकार के शोभनीक बनावे।।१३।। भंवारे और नेत्र का कथन भंवारा १ (१/२) भाग चौड़ा आदि में, पाव भाग चौड़ा अन्त में रखे, बाकी शोभनीक बनावें। दोनों भंवारे के मध्य में केशों का अंतर २ भाग रखे।।१४।। नेत्र की लम्बाई सपेâदी सहित ३ भाग करना तथा केवल सफेदी का प्रमाण द्व्यंगुल अर्थात् २ भाग करें। दोनों ही नेत्र कमलपुष्प के समान मनोहर करें।।१५।। नेत्र की सफेदी के मध्य में श्यामतारा १ भाग रखें। इसके बीच तारिका जो छोटी कनिका गोल १ भाग का तीसरा हिस्सा चौड़ी रखें। भृकुटी के मध्य से नीचे की वांफणी (……) तक ३ भाग चौड़े नेत्र रखें।।१६।। मुख फाड़ का कथन नासिका के मूल में दोनों के बीच दो भाग का अन्तर रखना। ऊपर का ओंठ २ भाग लंबा १ भाग ऊँचा रखें।।१७।। मुख का फाड़ (……….) ४ भाग लंबी रखे, ऊपर के ओंठ के नासिका की नीचे की गोजी अर्थात् प्रणाली अद्र्ध भाग लंबी और एक भाग का तीसरा हिस्सा चौड़ी रखे।।१८।। नीचे का ओंठ १ अंगुल मोटा, १ अंगुल चौड़ा अर्थात् (और) २ अंगुल लंबा रखें।।१९।। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २४३ उत्तंकं चकर्ण ६ भाग लंबे, ४ भाग चौड़े करे, बीच में छिद्र की नाली यव की नाली समान करें, इसका अन्तर अद्र्धांगुल प्रमाण करे।। नेत्रों की ऊँचाई अर्थात् भंवारे की ऊँचाई के सीध में कर्णवर्तिका बनावे। वैसे ही नेत्रों के अन्त्यभाग की सीध में छिद्र रहित कर्णपूर बनावे।।२५।। नासिका कथन करवीर अर्थात् नेत्र की सपेâदी के समान नासापुट की रचना करें। नासिका के पर्यंत भाग के तुल्य तारिका बनावे।।२६।। दोनों के कर्णों के अन्तर १८ भाग अगाड़ी (आगे) से रखें व चौदह भाग पिछाड़ी (पीछे) से रखें, ऐसे दोनों मिलकर ३२ भाग होते हैं।।२७।। ग्रीवा का विस्तार ग्रीवा का विस्तार १२ भाग रखे, कोहनी का विस्तार ५ भाग (पौने छह भाग) रखें।।२८।। भुज का कथन कोहनी का परिधि १६ भाग की रखें, कोहनी से पौंछा (पहुँचा) अर्थात् कलाई तक क्रम से हानिरूप चूड़ा उतार रखें।।२९।। कोहनी के नीचे भुजा मध्य १ भाग का त्रिभाग घाटि (कम) ५ भाग रखें। परिधि चौदह (१४) भाग करें।।३०।। पोंछया (पहुँचा) अर्थात् कलाई का विस्तार ४ भाग रखे। परिधि १२ अंगुल (भाग रखें।।३१।। अर्थात् यहाँ परिधि तिगुनी है। अंगुली का कथन पोंछा (कलाई) से मध्य अंगुली का अग्रभाग तक १२ भाग रखे। हाथ के मध्य की अंगुली ५ भाग रखे।।३२।। अनामिका और तर्जनी दोनों अंगुली मध्यमा से अद्र्ध पर्व घाटि (कम) रखे।।३३।। कनिष्ठा-अंगुली अनामिका से १ पोरवा घाटि-कम रखे। कलाई (पौंछा) से कनिष्टिका के मूल के ५ भाग अंतर रखे।।३४।। तर्जनी तथा मध्यमा के प्रमाण से कनिष्ठा मोटाई में अद्र्धभाग कम रखें, चौड़ाई से त्रिगुणी करें।।३५।। अंगूठा ४ भाग लंबा रखें, विस्तार १ भाग से कुछ अधिक रखें।।३६।। अंगूठे के दो पर्व करे, गोलाई ४ भाग करे, बाकी चारों ही अंगुलियों के तीन-तीन पर्व करें।।३७।। पाँचों ही अंगुलियों के अद्र्धपर्व समान नख रखें, अपने अंगुल के समान करके सब अंगुली सम पर्व बनावें।।३८।। हथेली ७ भाग लंबी, ५ भाग चौड़ी रखें। इसकी मध्य गोलाई १२ भाग रखें।।३९।। अंगूठे के मूल में और तर्जनी के मूल में २ भाग का अन्तर रखें। भुजा गोल संधि जोड़ से मिली हुई गोपुच्छ सदृश करें।।४०।। दोनों हाथ हाथी के सूंढ के आकार के लंबे गोड़े से (जानु से) मिले हुए, न तो अत्यंत नीचे न ऊँचे छिद्र रहित पुष्ट गोल करें।।४१।। अंगुलियों को मिलापयुक्त, स्निग्ध, ललित, उपचयसंयुक्त शंख, चक्र, सूर्य, कमल आदि उत्तम चिन्हों से सहित बनावें।।४२।। कृतिकर्म विधि २४४ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी वक्षस्थल-छाती का कथन वक्षस्थल २४ भाग चौड़ा रखें, उसके मध्य श्रीवत्स का चिन्ह बनावें। पीठ सहित वक्षस्थल की परिधि ५६ भाग रखें। भुजा तक ३६ भाग चौड़ी मय भुजा के वक्षस्थल करें। इस खवे से उस खवे तक ३६ भाग करें अर्थात् इस वंâधे से उस कंधे तक ३६ भाग रखें। दोनों स्तन के मध्य १२ भाग का अन्तर रखें। स्तन की चूँची २ भाग चौड़ी रखें। चूंची के मध्य की वींटली पाव (१/४) भाग प्रमाण करें।।४४।। नाभि का कथन नाभि का मुख १ भाग चौड़ा गोल, शंख के मध्य भाग समान ऊँड़ा (गहरा) दक्षिणावर्त मनोहर करें।।४५।। आगे लिंग का कथन नाभि के मध्य से लिंग का मूल ८ भाग का रखें। उन आठ भाग में ८ रेखा करें।।४६।। कमर का कथन कटि-कमर १८ भाग चौड़ी रखें, जिसकी परिधि अड़तालीस (४८) भाग की करें।।४७।। बैठक के हाड़ का कथन बैठक का हाड़ (……….) त्रिकोण ८ भाग लंबा करें, कमर के पीछे के भाग में वूâला गोल ६ भाग प्रमाण बनावें।।४८।। बांसे के हाड़ का कथन स्वंâध के सूत से गुदापर्यंत ३६ भाग लंबा आधा भाग मोटा बांसे का हाड़ रखें।।४९।। लिंग का दूसरा कथन लिंग का विस्तार मूल में २ भाग, मध्य में १ भाग, अग्र में चतुर्थ भाग रखें, जिसकी गोलाई त्रिगुणी करें।।५०।। उत्तंâ चलिंग ५ भाग लंबा और २ भाग चौड़ा बनावें।। दोनों पोता पुष्ट व समान ५ भाग लंबे ४ भाग चौड़े आम की गुठली के समान बनावें।।५१।। जंघा का कथन चरण तक २४ भाग लंबे दोनों जंघा पुष्ट करें, ११ भाग मूल में व ९ भाग मध्य में विस्ताररूप करें।।५२।। ७ भाग गोड़े के पास चौड़ा करें, इनकी परिधि तिगुनी करें। दोनों गोड़े समान, गोल, जंघा से मिले हुए पुष्ट श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २४५ बनावें।।५३।। गोड़ा के नीचे जंघा अर्थात् पींडी गोल २४ भाग लंबी करें, जंघा के मध्य पींडी का विस्तार ६ भाग प्रमाण करें।।५४।। टिकूंण्यां-…….के पास ५ भाग १ भाग का त्रिभाग घाटि-कम ५ भाग रखें, इनकी गोलाई विस्तार से त्रिगुणी करें।।५५।। दोनों टिकूंण्यां १ भाग रखें, इनकी गोलाई विस्तार से तिगुनी करें, चरण पगथली एड़ी से अंगूठा तक १४ भाग लंबी शुभलक्षण सहित करें।।५६।। टिकूंण्यां से अंगूठा का अग्रभागपर्यंत १२ भाग रखें, टिकूंण्यां के पीछे एड़ी २ भाग रखें। इनकी गोलाई विस्तार में त्रिगुणी करें।।५७।। एड़ी नीचे से दोय २ भाग, बगल में विंâचित् न्यून, मध्य में ऊँची गोल रखें, जिसकी गोलाई ६ भाग रखें।।५८।। अंगुष्ट और प्रदेशिनी ३ भाग लंबी करें, प्रदेशिनी से मध्यमा १ भाग का सोलहवाँ भाग छोटी करें। मध्यमा से अनामिका १ भाग का आठवाँ भाग छोटी करें, अनामिका से कनिष्टिका-कनिष्ठा भी १ भाग का आठवाँ भाग छोटी रखें।।५९।। अंगुष्ट-अंगूठा मध्य में २ भाग चौड़ा रखें, मूल में तथा मध्य में विंâचित् न्यून करें। बाकी चारों ही अंगुली १ भाग चौड़ी रखें।।६०।। इन सबकी गुलाई-गोलाई शोभनीक त्रिगुणी करे, अंगुष्ट-अंगूठे में २ पर्व करें। बाकी अंगुलियों में (३-३) तीन-तीन पर्व करें।।६१।। अंगूठे का नख १ भाग रखें। प्रदेशिनी का नख १ भाग का आधा भाग रखें। बाकी तीन अंगुलियों का नख अनुक्रम से किंचित् -किंचित् न्यून करें।।६२।। पादतल एडी के पास ४ भाग, मध्य में ५ भाग एवं अन्त में ६ भाग चौड़ा है।।६३।। चरणयुगल पुष्ट इकसारएकसदृश छिद्ररहित, सुंदर शंख, चक्र, अंकुश, कमल, यव, छत्र आदि शुभ चिन्हों से युक्त करें।।६४।। इस प्रकार कायोत्सर्ग प्रतिमा बनावें। बाकी के उपांग शोभनीक पुष्ट करें।।६५।।

विशेष—आचार्य श्रीवसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ से यह प्रकरण मैंने यहाँ उद्धृत किया है। मांगीतुंगी में निर्मित १०८ फुट ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा में मैंने शिल्पकार नाठा जी को यही प्रमाण देकर पूर्ण सांगोपांग खड्गासन प्रतिमा के निर्माण की अनुमति प्रदान की है। पद्मासन प्रतिमा कथन इस प्रकार कायोत्सर्ग प्रतिमा के लक्षण हैं। पद्मासन के भी कितने ही भाग ये ही हैं, किन्तु जहाँ भेद है सो-उसे विशेषरूप से कहते हैं।।६६।। कायोत्सर्ग प्रतिमा के १०८ भाग किये थे, उनके आधे ५४ भाग पद्मासन प्रतिमा के करना। पलोटी-पलाथी दोनों गोड़ेपर्यंत चौड़ी-चौड़ाई रखें। आयामचौड़ाई तिरछी गोडे के बीच से खवे के बीच तक (कंधे के बीच तक) नापें। पलोठी के ऊपर से शिर के केश तक ५४ भाग नापें। भावार्थ-चारों भाग ५४ नापें, शोभनीक बनावें। प्रक्षाल के जल निकलने का स्थान चरण चौकी के ऊपर रखें। लिंग ८ भाग नीचा नाभि से बनावें (अर्थात् नाभि से ८ भाग नीचे लिंग बनावें) तब पानी का निकास चरण चौकी के नीचे आवेगा। लिंग के मुख के नीचे कर पानी का निकास करना, तब प्रतिमा शुद्ध बनेगी।।६७।। कृतिकर्म विधि २४६ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी दोनों हाथों की अंगुली के और पेडू के अन्तर ४ भाग का रखें। पौंछा-पहुँचा से कोहनीपर्यंत यथाशोभित हानिरूप अन्तर रखें। कोहनी के पास २ भाग का उदर से अन्तर रखें।।६८।। ऐसी कायोत्सर्ग तथा पद्मासनरूप प्रतिमा अरिहंत की आठ प्रातिहार्य युक्त सम्पूर्ण अवयवों से पूर्ण शुभ भावों से युक्त बनावें।।६९।। सिद्ध प्रतिमा, आचार्यादि की प्रतिमा पूर्वोक्त लक्षण संयुक्त, प्रातिहार्यरहित जो हैं, वे सिद्ध प्रतिमा है। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की प्रतिमाएँ आगम के अनुसार सुन्दर बनावें।।७०।। यक्ष की प्रतिमा का कथन ऐसे ही यक्षों की, देवता आदि की सम्पूर्ण अलंकार से भूषित, सवारी, शस्त्र-आयुध से सहित सर्वांग सुन्दर प्रतिमाएँ बनावें।।७१।। प्रतिमा के शुभाशुभ कथन सम्पूर्ण लक्षणों से संयुक्त भी जिनबिम्ब दृष्टि से रहित शोभा नहीं पाते हैं। इसलिए दृष्टि का प्रकाशन करना चाहिए।।७२।। न तो दृष्टि अत्यन्त उघड़ी-खुली करें, न मिची हुई करें, न तिरछी, न ऊँची-ऊपर को देखती हुई, न नीचे को देखती हुई करें, प्रत्युत अद्र्धोन्मीलित, शांतिरूप दृष्टि करें।।७३।। नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि पड़ती हुई, शांत, प्रसन्न, निर्विकार, मध्यस्थ दृष्टि वाली ऐसी जिनप्रतिमा बनावें।।७४।। यदि तिरछी दृष्टि है तो अर्थनाश, विरोध और भय होगा। यदि अधोमुखनीची दृष्टि है, तो पुत्र का नाश होगा और यदि ऊँची दृष्टि होगी तो भार्या का नाश होगा।।७५।। स्तब्ध अर्थात् सम्मुख दृष्टि होवे, तो शोक, उद्वेग, संताप और धन का क्षय होता है। शान्त दृष्टि होवे तो सौभाग्य, पुत्र, धन और शांति की वृद्धि होती है।।७६।। सदोष प्रतिमा नहीं बनाना, क्योंकि वह अशुभ को देने वाली है। यदि रौद्ररूप प्रतिमा है, तो राजा का नाश करती है और दुर्बल अंगयुक्त होवे, तो द्रव्य का नाश करती है।।७७।। सूक्ष्म अंगधारक प्रतिमा होवे तो क्षय करती है, चिपटा मुख की होवे तो दु:ख को देने वाली होगी, नेत्र रहित होगी तो नेत्र विध्वंस करेगी और छोटे मुख की होगी तो अशोभित होगी अथवा शोक को कराने वाली होगी। बड़े उदर की होवे तो उदर रोग होगा, कृश हृदय की होगी तो हृदयरोग होगा, कंधा हीन होवे तो भाई का नाश होगा और यदि शुष्क जंघा होगी तो नरेन्द्र का नाश होगा।।७९।। यदि पादहीन है, तो प्रजा की हानि होगी, कटि-कमर हीन है-कमर कृश है, तो वाहन का नाश होगा, इस प्रकार दोषों को जान करके दोषवर्जित जिनप्रतिमा बनावें।।८०।। सामान्यरूप से मैंने यह प्रतिमा के लक्षण कहे हैं, विशेषरूप से श्रावकाचार आदि ग्रंथों में स्पष्टतया वर्णित है, वहाँ से जानना चाहिए।।८१।।

Post a Comment

0 Comments