छठवीं ढाल
प्रश्न १ – मुनियों के कितने मूलगुण होते हैं ?
उत्तर – मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण होते हैं-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रिय निरोध, छह आवश्यक और सात शेष गुण।
प्रश्न २ – महाव्रत किसे कहते हैं, उसके कितने भेद हैं ?
उत्तर – हिंसा आदि पाँचों पापों का पूर्णरूप से त्याग करना महाव्रत कहलाता है, उसके पाँच भेद हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
प्रश्न ३ – अहिंसा और सत्य महाव्रत का स्वरूप बताइए ?
उत्तर – छह प्रकार के जीवों का घात नहीं करने रूप द्रव्यिंहसा एवं काम, क्रोधादिरूप भावहिंसा का पूर्ण त्याग होने को अिंहसा महाव्रत कहते हैं तथा किंचित् मात्र भी झूठ नहीं बोलना सत्य महाव्रत है।
प्रश्न ४ – अचौर्य महाव्रत का क्या लक्षण है ?
उत्तर – पानी और मिट्टी के सिवाय किसी योग्य वस्तु को भी बिना दिए नहीं ग्रहण करना अचौर्य महाव्रत है।
प्रश्न ५ – ब्रह्मचर्य महाव्रत किसे कहते हैं ?
उत्तर – स्त्रीमात्र का त्याग करके अठारह हजार शील के भेदों को धारण कर हमेशा अपने चैतन्यस्वरूप आत्मा में लीन रहना ब्रह्मचर्य महाव्रत है।
प्रश्न ६ – अपरिग्रह महाव्रत का लक्षण बताइए ?
उत्तर – चौदह प्रकार के अंतरंग और दस प्रकार के बाह्य परिग्रह से सर्वथा विरक्त होना अपरिग्रह महाव्रत है।
प्रश्न ७ – चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह के नाम बताइए ?
उत्तर – १. मिथ्यात्व २. क्रोध ३. मान ४. माया ५. लोभ ६. हास्य ७. रति ८. अरति ९. शोक १०. भय ११. जुगुप्सा १२. स्त्रीवेद १३. पुरुषवेद १४. नपुंसकवेद।
प्रश्न ८ – दस प्रकार का बाह्य परिग्रह कौन-कौन सा है ?
उत्तर – १. क्षेत्र २. वास्तु (मकान) ३. हिरण्य (चाँदी) ४. स्वर्ण ५. धन (पशु) ६. धान्य ७. दासी ८. दास ९. कुप्य १०. भांड (बर्तन)
प्रश्न ९ – समिति किसे कहते हैं ?
उत्तर – यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने को समिति कहते हैं।
प्रश्न १० – समिति के कितने भेद हैं ?
उत्तर – पाँच भेद हैं-१. ईर्यासमिति २. भाषासमिति ३. एषणासमिति ४. आदाननिक्षेपण ५. व्युत्सर्गसमिति
प्रश्न ११ – ईर्यासमिति एवं भाषासमिति का स्वरूप बताइए ?
उत्तर – प्रमादरहित होकर चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना ईर्या समिति है तथा आगम के अनुसार हित-मित-प्रिय वचन बोलने को भाषा समिति कहते हैं।
प्रश्न १२ – एषणा समिति का लक्षण बताइए ?
उत्तर – छ्यालीस दोषों को एवं बत्तीस अन्तरायों को टालकर उत्तम श्रावक के घर पर तप की वृद्धि हेतु, शरीर की पुष्टि एवं जीभ के स्वाद की चाह से रहित होकर रसों का त्याग करके आहार लेना एषणासमिति है। (छ्यालीस दोष एवं बत्तीस अन्तराय के नाम मूलाचार ग्रंथ में देखें)।
प्रश्न १३ – आदाननिक्षेपण और व्युत्सर्ग समिति की परिभाषा बताइए ?
उत्तर – शुद्धि, ज्ञान और संयम के उपकरण (कमण्डलु-शास्त्र और पिच्छी) को देखकर उठाना तथा देखकर रखना आदान-निक्षेपणसमिति है एवं जीव-जन्तु रहित स्थान को देखकर शरीर के मल-मूत्र आदि को छोड़ना व्युत्सर्ग समिति है।
प्रश्न १४ – गुप्ति किसे कहते हैं, उसके कितने भेद हैं ?
उत्तर – मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को भलीप्रकार रोकना गुप्ति है। गुप्ति के तीन भेद हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति।
प्रश्न १५ – तीनों गुप्तियों का पृथक्-पृथक् स्वरूप बताइए ?
उत्तर – मन को वश में करना मनोगुप्ति, वचन को वश में करना वचनगुप्ति तथा काय को वश में करना कायगुप्ति है।
प्रश्न १६ – मुनिराज की शांत मुद्रा को देखकर मृगगण क्या करते हैं ?
उत्तर – अपनी आत्मा का ध्यान करते हुए उन मुनियों की स्थिर मुद्रा को देखकर हिरणों का समूह उन्हें पत्थर समझकर उनके ऊपर अपने शरीर की खाज खुजाता रहता है।
प्रश्न १७ – आवश्यक किसे कहते हैं ?
उत्तर – अवश्य करने योग्य क्रिया को आवश्यक कहते हैं।
प्रश्न १८ – मुनियों के छह आवश्यक कौन-कौन से हैं ?
उत्तर – १. समता २. स्तव ३. वन्दना ४. प्रतिक्रमण ५. स्वाध्याय ६. कायोत्सर्ग। मूलाचार के अनुसार स्वाध्याय के स्थान पर प्रत्याख्यान नाम का आवश्यक है।
प्रश्न १९ – सामायिक किसे कहते हैं ?
उत्तर – प्रिय और अप्रिय वस्तु में राग और द्वेष को त्याग करके त्रिकाल में देववन्दना करने को सामायिक कहते हैं अर्थात् साम्यभाव का नाम ही सामायिक है।
प्रश्न २० – स्तव किसे कहते हैं ?
उत्तर – ऋषभ आदि २४ तीर्थंकरों का भक्तिपूर्वक स्तवन करना स्तव है।
प्रश्न २१ – वंदना का क्या लक्षण है ?
उत्तर – अर्हंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमाओं को, जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करना वंदना है।
प्रश्न २२ – प्रतिक्रमण का क्या स्वरूप है तथा उनके भेद कितने हैं ?
उत्तर – अहिंसादि व्रतों में जो अतीचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनको निंदा-गर्हापूर्वक शोधन करना-दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके ऐर्यापथिक, दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और औत्तमार्थिक ये सात भेद हैं।
प्रश्न २३ – स्वाध्याय किसे कहते हैं ?
उत्तर – राग-द्वेष रहित दिगम्बर आचार्यों के द्वारा रचित अहिंसामय धर्म और मोक्षमार्ग के उपदेशक तथा राग-द्वेष, मोह, विषय-कषायों को दु:खदायक, छोड़ने योग्य बताने वाले शास्त्रों का अध्ययन करने को स्वाध्याय कहते हैं।
प्रश्न २४ – प्रत्याख्यान का क्या लक्षण है ?
उत्तर – मन, वचन, काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण के अनंतर गुरु के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो चतुराहार का त्याग किया जाता है, वह प्रत्याख्यान कहलाता है। ‘‘अतीतकाल के दोष का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। अनागत और वर्तमान काल में द्रव्यादि दोष का परिहार करना प्रत्याख्यन है। यही इन दोनों में अंतर है। तप के लिए निर्दोष वस्तु का त्याग करना भी प्रत्याख्यान है। किन्तु प्रतिक्रमण दोषों के निराकरण हेतु ही है।’’
प्रश्न २५ – कायोत्सर्ग का स्वरूप बताइए ?
उत्तर – दैवसिक, रात्रिक आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण से तथा चौवन, एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वासपूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना। काय-शरीर का उत्सर्ग-त्याग अर्थात् काय से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
प्रश्न २६ – मुनियों के शेष सात गुण कौन-कौन से हैं ?
उत्तर – १. स्नान नहीं करना २. दातौन नहीं करना ३. नग्न रहना ४. भूमि पर शयन करना ५. दिन में ही एक बार आहार लेना ६. खड़े-खड़े हाथ में आहार लेना ७. केशलोंच करना।
प्रश्न २७ – परीषह किसे कहते हैं, इसके कितने भेद होते हैं ?
उत्तर – शारीरिक और मानसिक पीड़ा के कारण भूख-प्यास वगैरह की वेदना को परीषह कहते हैं। परीषह २२ होते हैं-१. क्षुधा २. पिपासा ३. शीत ४. उष्ण ५. दंश मशक ६. नाग्न्य ७. अरति ८. स्त्री ९. चर्या १०. निषद्या ११. शय्या १२. आक्रोश १३. वध १४. याचना १५. अलाभ १६. रोग १७. तृण स्पर्श १८. मल १९. सत्कार पुरस्कार २०. प्रज्ञा २१. अज्ञान २२. अदर्शन।
प्रश्न २८ – तप किसे कहते हैं ?
उत्तर – इच्छाओं के निरोध को तप कहते हैं।
प्रश्न २९ – तप के कितने भेद हैं ?
उत्तर – बारह भेद हैं-छह अन्तरंग तप एवं छह बाह्य तप। छह अन्तरंग तप-१. प्रायश्चित्त २. विनय ३. वैयावृत्य ४. स्वाध्याय ५. व्युत्सर्ग, ६. ध्यान। छह बाह्य तप-१. अनशन २. अवमौदर्य ३. वृत्ति परिसंख्यान ४. रस परित्याग ५. विविक्त शय्यासन ६. कायक्लेश
प्रश्न ३० – धर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर – जो जीवों को संसार के दु:खों से निकालकर स्वर्ग-मोक्ष के उत्तम सुख में पहुँचाता है, वह धर्म कहलाता है।
प्रश्न ३१ – धर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर – दस भेद हैं-१. उत्तम क्षमा २. उत्तम मार्दव ३. उत्तम आर्जव ४. उत्तम सत्य ५. उत्तम शौच ६. उत्तम संयम ७. उत्तम तप ८. उत्तम त्याग ९. उत्तम आविंचन्य १०. उत्तम ब्रह्मचर्य। प्रश्न ३२ – रत्नत्रय किसे कहते हैं ?
उत्तर – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं।
प्रश्न ३३ – मुनि किसे कहते हैं ?
उत्तर – जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियविजय, छह आवश्यक एवं सात शेष गुण, इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों को धारण करते हैं, वे मुनि कहलाते हैं।
प्रश्न ३४ -एकल विहारी मुनि कौन हो सकते हैं ?
उत्तर – जो तप, एकत्व भाव, संहनन और धैर्य इन सबसे परिपूर्ण दीक्षा और आगम में बली मुनि हैं, वे ही जिनकल्पी मुनि एकल विहारी हो सकते हैं । किन्तु इस पंचम काल में जिनकल्पी मुनि नहीं हैं अतः आज के स्थविरकल्पी साधुओं को एकलविहार कदापि नहीं करना चाहिए ।
प्रश्न ३५ – कौन मुनि एकल विहारी न होवे ?
उत्तर – गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना इन कार्यों में जो स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने वाला है और बोलने में भी स्वच्छन्द रुचि वाला है, ऐसा मुनि एकल विहारी न होवे । अर्थात् वर्तमान के स्थविरकल्पी मुनियों के एकलविहार का पूर्ण निषेध मूलाचार आदि ग्रन्थों में किया है ।
प्रश्न ३६ – क्या पंचम काल में कोई भी मुनि एकल विहारी हो सकता है ?
उत्तर – पंचम काल में किसी भी मुनि को एकल विहारी नहीं होना चाहिए, ऐसा आचार्यों ने कहा है क्योंकि एकल विहारी होने से स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति होने लगती है, जिससे गुरु की निन्दा, श्रुत का विनाश, तीर्थ की मलिनता, मूढ़ता, आकुलता, कुशीलता और पाश्र्वस्थता आदि दोष आते हैं।
प्रश्न ३७ – संयम किसे कहते हैं ?
उत्तर – सम्यक् प्रकार से यम अर्थात् नियम का पालन करना संयम कहलाता है। अथवा प्राणियों व इन्द्रियों के विषयों में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं।
प्रश्न ३८ – संयम के कितने भेद हैं ?
उत्तर – संयम के दो भेद हैं-१. प्राणी संयम २. इन्द्रिय संयम।
प्रश्न ३९ – स्वरूपाचरण चारित्र किसे कहते हैं ?
उत्तर – मुनियों का आत्मस्वरूप में लीन होना स्वरूपाचरण चारित्र है। अथवाशुद्धात्मानुभव से अविनाभावी दिगम्बर मुनियों के चारित्र विशेष को स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं।
प्रश्न ४० – स्वरूपाचरण चारित्र किनके होता है ?
उत्तर – आत्मस्वरूप में लीन रहने वाले मुनियों के ही स्वरूपाचरण चारित्र होता है।
प्रश्न ४१ – स्वरूपाचरण चारित्र का फल क्या है ?
उत्तर – स्वरूपाचरण चारित्र के होते ही अपनी आत्मा की ज्ञानादि सम्पत्ति प्रकट हो जाती है और पर वस्तुओं से सर्व प्रकार की प्रवृत्ति हट जाती है।
प्रश्न ४२ – स्वरूपाचरण चारित्र के समय आत्मा किस अवस्था को प्राप्त हो जाता है ?
उत्तर – स्वरूपाचरण चारित्र के समय मुनिराज भेदविज्ञानरूपी बहुत तेज छैनी से अन्तरंग का पर्दा तोड़ देते हैं। रूपादि बीस गुणों से और रागादि भावों से आत्मभाव को जुदा कर लेते हैं। अपने आत्महित के लिए अपनी आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा को स्वयं ही जान लेते हैं। उस समय उनके गुण-गुणी, ध्यान-ध्याता-ध्येय में कुछ भी भेद नहीं रह जाता है, सब विकल्प मिट जाते हैं।
प्रश्न ४३ – सुबुद्धि रूपी छैनी किसे कहते हैं ?
उत्तर – भेद-विज्ञान को सुबुद्धि रूपी छैनी कहते हैं।
प्रश्न ४४ – गुण किसे कहते हैं ?
उत्तर – जो वस्तु से अभिन्न रहते हैं या जिससे वस्तु की पहचान होती है उन्हें गुण कहते हैं।
प्रश्न ४५ – गुणी किसे कहते हैं ?
उत्तर – जिसमें गुण पाये जाते हैं, उसे गुणी कहते हैं।
प्रश्न ४६ – ज्ञाता किसे कहते हैं ?
उत्तर – जानने वाली आत्मा को ज्ञाता कहते हैं।
प्रश्न ४७ – ज्ञेय किसे कहते हैं ?
उत्तर – जो ज्ञान का विषय है, उसे ज्ञेय कहते हैं।
प्रश्न ४८ – ध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर – अपने चित्त की वृत्ति को सब ओर से रोककर एक ही विषय में लगाना ध्यान है।
प्रश्न ४९ – ध्याता किसे कहते हैं ?
उत्तर – ध्यान करने वाले को ध्याता कहते हैं।
प्रश्न ५० – ध्येय किसे कहते हैं ?
उत्तर – जिसका ध्यान किया जाता है, वह ध्येय है।
प्रश्न ५१ – ध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर – ध्यान के चार भेद हैं-१. आर्तध्यान २. रौद्रध्यान ३. धर्मध्यान ४. शुक्लध्यान।
प्रश्न ५२ – आत्र्तध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर – दु:ख में होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं।
प्रश्न ५३ – आर्तध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर – आत्र्तध्यान के चार भेद हैं-१. अनिष्ट संयोग २. इष्ट वियोग ३. वेदना ४. निदान।
प्रश्न ५४ – रौद्र ध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर – व्रूर परिणामों के होते हुए जो ध्यान होता है, उसे रौद्र ध्यान कहते हैं।
प्रश्न ५५ – रौद्र ध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर – रौद्र ध्यान के चार भेद हैं-१. हिंसानंद २. मृषानंद ३. स्तेयानन्द ४. विषय संरक्षणानन्द (परिग्रहानन्द)।
प्रश्न ५६ – धर्मध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर – धर्मयुक्त ध्यान को धर्मध्यान कहते हैं।
प्रश्न ५७ – धर्मध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर – धर्मध्यान के चार भेद हैं-१. आज्ञा विचय २. अपाय विचय ३. विपाक विचय ४. संस्थान विचय।
प्रश्न ५८ – शुक्लध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर – कषायरूपी मल का क्षय अथवा उपशम होने से वह शुक्लध्यान होता है इसलिए आत्मा के शुचि गुण के संबंध से इसे शुक्लध्यान कहते हैं। अथवा रागादि रहित स्वसंवेदन ज्ञान को आगम भाषा में शुक्लध्यान कहा है।
प्रश्न ५९ – शुक्लध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर – शुक्लध्यान के चार भेद हैं-१. पृथक्त्व वितर्व २. एकत्व वितर्व ३. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ४. व्युपरतक्रिया निवृत्ति
प्रश्न ६० – ध्यान का फल क्या है ?
उत्तर – आत्र्तध्यान और रौद्रध्यान दोनों संसार के कारण हैं तथा धर्मध्यान परम्परा से मोक्ष का कारण और शुक्लध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण है।
प्रश्न ६१ – विकल्प किसे कहते हैं ?
उत्तर – ऊहापोह या मन में अनेकों प्रकार की आकांक्षाओं की उत्पत्ति होने को विकल्प कहते हैं।
प्रश्न ६२- उपयोग किसे कहते हैं ?
उत्तर – जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते हैं। अथवा चेतना की परिणति विशेष का नाम उपयोग है ।
प्रश्न ६३ – उपयोग के कितने भेद हैं ?
उत्तर – उपयोग के तीन भेद हैं-१. अशुभोपयोग २. शुभोपयोग ३. शुद्धोपयोग।
प्रश्न ६४ – स्वरूपाचरण चारित्र के समय आत्मा कैसा दिखता है ?
उत्तर – स्वरूपाचरण चारित्र के समय प्रमाण, नय और निक्षेप का प्रकाश अनुभव में नहीं आता है। आत्मा अनन्त चतुष्टयरूप दिखलाई देता है, उसमें कोई रागादि भाव नहीं दिखते। आत्मा ही साध्य- साधक तथा कर्मों और उसके फलों से बाधा रहित दिखने लगता है और वह चैतन्य का समूह खण्ड रहित उत्तम गुणों का पिटारा तथा पाप रहित दिखने लगता है।
प्रश्न ६५ – प्रमाण किसे कहते हैं ?
उत्तर – सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। अथवा वस्तु के सर्वांशों को जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है।
प्रश्न ६६ – नय किसे कहते हैं ?
उत्तर – वस्तु के एकदेश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं।
प्रश्न ६७ – नय के कितने भेद हैं ?
उत्तर – नय के दो भेद हैं-१. द्रव्यार्थिक नय २. पर्यायार्थिक नय।
प्रश्न ६८ – निक्षेप किसे कहते हैं ?
उत्तर – प्रमाण और नय के अनुसार प्रचलित हुए लोक व्यवहार को निक्षेप कहते हैं।
प्रश्न ६९ – निक्षेप के कितने भेद हैं ?
उत्तर – निक्षेप के चार भेद हैं-१. नाम निक्षेप २. स्थापना निक्षेप ३. द्रव्य निक्षेप ४. भाव निक्षेप।
प्रश्न ७० – अनन्त चतुष्टय कौन से हैं ?
उत्तर – अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य ये चार अनन्त चतुष्टय हैं।
प्रश्न ७१ – साध्य किसे कहते हैं ?
उत्तर – रत्नत्रय की एकता साध्य है।
प्रश्न ७२ – साधक किसे कहते हैं ?
उत्तर – शुद्धात्मा की साधना करने वाला जीव साधक है।
प्रश्न ७३ – स्वरूपाचरण चारित्र किस गुणस्थान में होता है ?
उत्तर – स्वरूपाचरण चारित्र सप्तम गुणस्थान से होता है तथा पूर्णता की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान में होता है।
प्रश्न ७४ – क्या चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र हो सकता है ?
उत्तर – चतुर्थ गुणस्थान में यूँ तो चारित्र ही नहीं होता है इसीलिए उस गुणस्थान का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है फिर भी उसके सदाचरण की अपेक्षा रयणसार ग्रंथ में सम्यक्त्वाचरण चारित्र कह दिया है किन्तु उनके चारित्र को स्वरूपाचरण चारित्र तो कह ही नहीं सकते हैं।
प्रश्न ७५ – स्वरूपाचरण चारित्र का फल क्या है ?
उत्तर – उपयोग की स्थिरता से निजानन्द का पान करने वाले मुनिराज स्वरूपाचरण चारित्र में शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा चारों घातिया कर्मरूपी सघन वन को जलाकर केवलज्ञानरपी विशिष्ट फल को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न ७६ – केवलज्ञान प्राप्त होने पर वे मुनिराज क्या करते हैं ?
उत्तर – केवलज्ञान के द्वारा तीनों लोकों के अनन्तानन्त पदार्थों के गुण और पर्यायों को जानते हैं तथा संसार के भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश देते हैं।
प्रश्न ७७ – घातिया कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर – जो कर्म जीव के ज्ञानादिक गुणों को घातें, उन्हें घातिया कर्म कहते हैं।
प्रश्न ७८ – घातिया कर्म कितने हैं ?
उत्तर – घातिया कर्म चार हैं-१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. मोहनीय ४. अन्तराय।
प्रश्न ७९ – अरिहन्त किन्हें कहते हैं ?
उत्तर – चार घातिया कर्मों से रहित मोक्षमार्ग प्रदर्शक केवली भगवान को अरिहन्त भगवान कहते हैं।
प्रश्न ८० – कर्मों को नष्ट करते ही जीव उर्ध्व गमन ही क्यों करता है ?
उत्तर – कर्मों को नष्ट करते ही जीव निम्न कारणों से ऊध्र्वगमन करता है- १. पूर्व संस्कार से २. संग-परिग्रह का पूर्ण अभाव होने से ३. बंध के छेद होने से ४. जीव का ऊध्र्वगमन स्वभाव होने के कारण
प्रश्न ८१ – मुक्त जीव का जब ऊध्र्वगमन स्वभाव है तब फिर वे सिद्धलोक से आगे क्यों नहीं जाते हैं ?
उत्तर – सिद्धलोक के आगे गमन में सहकारी कारण धर्मास्तिकाय अथवा धर्म द्रव्य का अभाव होने के कारण मुक्त जीव सिद्धलोक से आगे नहीं जा सकते हैं।
प्रश्न ८२ – सिद्धों के ज्ञान की क्या विशेषता है ?
उत्तर – सिद्ध भगवान की आत्मा में लोक-अलोक के अनन्तानन्त पदार्थ अनन्तगुण और पर्यायों सहित एक साथ झलकने लगते हैं।
प्रश्न ८३ – मोक्ष में सिद्ध भगवान कब तक रहते हैं ?
उत्तर – सिद्ध भगवान जिस निर्मल अवस्था से मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, वैसे ही अनन्तानन्त काल तक मोक्ष में रहते हैं और वे पुन: लौटकर संसार में कभी भी नहीं आते हैं।
प्रश्न ८४ – मनुष्य पर्याय की सार्थकता किसमें है ?
उत्तर – जिन जीवों ने मनुष्य जन्म पाकर मुनिपद की प्राप्तिरूप कार्य किया है वे जीव धन्य हैं और इसी में उनकी मनुष्य पर्याय की सार्थकता है। अथवा जब तक मुनि नहीं बन सकते हैं तब तक अणुव्रत आदि ग्रहण करके अपनी मनुष्य पर्याय को सार्थक करना चाहिए।
प्रश्न ८५ – संसार का नाश कौन कर सकता है ?
उत्तर – जो मानव जीवन पाकर मुनिव्रत धारण करते हैं, वही पंच परावर्तनरूप संसार का नाश करते हैं। मुनिपद धारण किए बिना संसार का नाश और मोक्ष की प्राप्ति न कभी किसी को हुई है और न कभी हो सकती है।
प्रश्न ८६ – रत्नत्रय कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर – रत्नत्रय दो प्रकार का होता है-१. निश्चय रत्नत्रय २. व्यवहार रत्नत्रय।
प्रश्न ८७ – संसार में महाभाग्यशाली कौन हैं ?
उत्तर – जो निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के रत्नत्रय को धारण करते हैं और आगे करेंगे, वे जीव इस संसार में महाभाग्यशाली हैं।
प्रश्न ८८ – रत्नत्रय धारण करने का फल क्या है ?
उत्तर – रत्नत्रय धारण करने वालों का सुकीर्तिरूपी जल संसाररूपी मैल को नष्ट करता है तथा वे रत्नत्रय के धारण करने से शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न ८९ – संसार में आत्महित कब तक कर लेना चाहिए ?
उत्तर – रत्नत्रय ही मोक्ष का यथार्थ कारण है इस प्रकार जानकर आलस्य को छोड़कर साहसपूर्वक इस शिक्षा को ग्रहण करो कि जब तक रोग और वृद्धावस्था ने नहीं घेरा है तब तक जल्दी से अपना हित कर लेना चाहिए।
प्रश्न ९० – राग किसे कहते हैं ?
उत्तर – इष्ट पदार्थों में प्रीतिरूप परिणाम को राग कहते हैं।
प्रश्न ९१ – राग कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर – राग दो प्रकार का होता है-१. प्रशस्तराग (शुभराग) २. अप्रशस्तराग (अशुभराग)
प्रश्न ९२ – प्रशस्त राग किसे कहते हैं ?
उत्तर – देव, शास्त्र, गुरु के प्रति भक्तिरूप परिणाम एवं दान, पूजा, व्रतादि अनुष्ठानरूप परिणाम को प्रशस्त राग कहते हैं।
प्रश्न ९३ – अप्रशस्त राग किसे कहते हैं ?
उत्तर – पाँचों इन्द्रियों की विषयभूत इष्ट सामग्री में प्रीतिरूप परिणाम को अप्रशस्त राग कहते हैं।
प्रश्न ९४ – प्रशस्त, अप्रशस्त राग के करने से क्या होता है ?
उत्तर – प्रशस्त राग पुण्य बंध का कारण है एवं परम्परा से मोक्ष का कारण है, किन्तु अप्रशस्त राग पाप बंध का ही कारण है।
प्रश्न ९५ – राग को आग के समान क्यों कहा है ?
उत्तर – शुद्धोपयोग की साधना करने वाले वीतरागी मुनियों के लिए ही राग को आग के समान कहा है। जैसे-अग्नि ईंधन को जलाती है वैसे ही यह राग आत्मा को दु:खी बनाता है किन्तु शुद्धोपयोग की साधना के अभाव में श्रावकों का प्रशस्त राग आग के समान नहीं कहा है, उन्हें तो अप्रशस्त राग से बचने के लिए प्रशस्त रागरूप प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर कहा है।
प्रश्न ९६ – रागरूपी आग को शान्त करने के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर – यह रागरूपी आग जीव को अनादिकाल से हमेशा जला रही है इसलिए इसे शान्त करने के लिए समतारूपी अमृत का सेवन करना चाहिए।
प्रश्न ९७ – इस जीव ने अनादिकाल से क्या किया है ?
उत्तर – इस जीव ने अनादिकाल से विषय-कषायों का सेवन किया है।
प्रश्न ९८ – अब हमें क्या करना चाहिए ?
उत्तर – अब हमें विषय-कषायों का त्याग करके आत्मस्वरूप को पहिचानना या प्राप्त करना चाहिए।
प्रश्न ९९ – पं. दौलतराम जी अपने आपको सम्बोधित करते हुए क्या कहते हैं ?
उत्तर – पं. दौलतराम जी अपने आपको सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तू पर-पदार्थों में क्यों लुभा रहा है ? वह तेरा कर्तव्य नहीं है। तू दु:ख क्यों सहता है ? अब तो आत्मपद में मन लगा और इस अवसर को हाथ से मत खोने दो।
प्रश्न १०० – छहढाला ग्रंथ की रचना कब हुई ?
उत्तर – विक्रम संवत् १८९१ वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षय तृतीया) को छहढाला ग्रंथ की रचना हुई थी।
प्रश्न १०१ – पं. दौलतराम जी ने छहढाला ग्रंथ की रचना किस ग्रंथ के आधार से की थी ?
उत्तर – पं. दौलतराम जी ने छहढाला ग्रंथ की रचना प्राचीन विद्वान् बुधजन दास जी कृत छहढाला के आधार से की थी।
प्रश्न १०२ – इस ग्रंथ के अन्त में पं. दौलतराम जी क्या कहते हैं ?
उत्तर – पं. दौलतराम जी कहते हैं कि बुद्धि की मंदता व प्रमाद से इस छहढाला ग्रंथ में कहीं शब्द या अर्थ की भूल रह गई हो तो बुद्धिमान इसे सुधार कर पढ़ें जिससे संसार से पार होने में समर्थ हो सवें।
प्रश्न १०३ – छहढाला नाम के अभी तक वर्तमान में कितने ग्रंथ उपलब्ध हैं ?
उत्तर – छहढाला नाम के अभी तक तीन ग्रंथ उपलब्ध हैं-१. पं. द्यानतराय कृत छहढाला, २. पं. बुधजन दास कृत छहढाला और ३. पं. दौलतराम जी कृत छहढाला। इनमें से यही दौलतराम कृत छहढाला सर्वाधिक प्रसिद्धि को प्राप्त है, जिसे प्राय: सभी जैन पाठशालाओं में पढ़ाया जाता है।


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