(तीनलोक के जिनमंदिर पुस्तक से – गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित )
(प्रश्नोत्तर लेखिका- आ़. सुदृष्टिमती माताजी)
प्रश्न ४०१ – बड़वानल पाताल की पूर्व और दिशा में स्थित पर्वतो के नाम व वर्ण के नाम बतलाओ?
उत्तर- बड़वानल पाताल की पूर्व दिशा में शंख, और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत है। ये दोनो ही शंख के समान वर्ण वाले है। इन पर उदक, उदकावास देव स्थित है। इनका वर्णन पूर्वोक्त सदृश है। यूपकेसरी के दक्षिणभाग में दक नामक पर्वत है और उत्तरभाग में दकवास नामक पर्वत है। ये दोनो पर्वत वैडूर्यमणिमसय है। इनके ऊपर क्रम से लोहित लोहितांक देव रहते है।
प्रश्न ४०२ – सूर्यद्वीप कहाँ पर है?
उत्तर- जंबूद्वीप की जगती से ४२ हजार योजन जाकर सूर्य नाम से प्रसिद्ध आङ्ग द्वीप है। ये द्वीप पूर्व में कहे हुये कोस्तुभ आदि पर्वतो के दोनो पाश्र्वभागों में स्थित होकर निकले हुये मणिमय दीपको युक्त शोभायमान है।
प्रश्न ४०३ – त्रिलोकसार के अनुसार कितने द्वीप माने गये है?
उत्तर- त्रिलोकसार में १६ चन्द्रद्वीप माने गये है।
प्रश्न ४०४ – ये १६ द्वीप कहाँ और कैसे है? स्पष्ट करो?
उत्तर- अभ्यन्तर तट और बाहयतट से ४२,००० योजन छोड़कर चारों विदिशाओं के दोनो पाश्र्वभागों में दो दो, ऐसे आङ्ग सूर्यद्वीप है। और दिशा और विदिशाओं के बीच में आङ्ग अन्तर दिशायें है उनके दोनो पाश्र्वभागो में दो-दो ऐसे १६ चन्द्रद्वीप नामक द्वीप है।
प्रश्न ४०५ – उक्त द्वीपो का व्यास व आकार कितना है?
उत्तर- ये सब द्वीप ४२००० योजन व्यास वाले और गोल आकार वाले है यहाँ द्वीप से ‘टापू’ समझना।
प्रश्न ४०६ – गौतम द्वीप कहाँ है उसकी ऊँचाई, व्यास, व आकारादि बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र के अभ्यन्तर तट से १२,००० योजन आगे जाकर १२,००० योजन ऊँचा, एवं इतने ही प्रमाण व्यास वाला, गोलाकार गौतम नामक द्वीप है जो कि समुद्र में वायव्यदिशा में है।
प्रश्न ४०७ – उक्त द्वीपो की और क्या विशेषतायें है बतलाइये?
उत्तर- उपर्युक्त सभी द्वीप वन उपवन वेदिकाओं से रम्य है और जिनमन्दिर से सहित है। उन द्वीपों के स्वामी वेलंधर जानि के नागकुमार देव है। वे अपने अपने द्वीप के समान नाम के धारक है।
प्रश्न ४०८ – मागधद्वीप कहाँ है?
उत्तर- भरतक्षेत्र के पास समुद्र दक्षिण तट से संख्यात योजन जाकर आगे मागध, वरतनु और प्रभास नाम के तीन द्वीप है। अर्थात् गंगा नदी के तोरण द्वार से आगे कितने ही योजन प्रमाण समुद्र में जाने पर मागध द्वीप है। जम्बूद्वीप के दक्षिणवैजयन्त द्वार से कितने ही योजन समुद्र में जाने पर वरतनु द्वीप है । एवं सिंधु नदी के तोरण से कितने ही योजन जाकर प्रभास द्वीप है।
प्रश्न ४०९ – उक्त द्वीपो में कौन निवास करता है?
उत्तर- इन द्वीपों में इन्ही नाम के देव रहते है। इन देवो को भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती वश में करते है।
प्रश्न४१० – ऐरावत क्षेत्र में भी भरतक्षेत्र के समान ही द्वीप है?
उत्तर- ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र के उत्तर भाग में रक्तादो नदी के पाश्र्वभाग में समुद्र के अन्दर मागधद्वीप अपराजित द्वार से आगे वरतनु द्वीप एवं रक्तानदी के आगे कुछ दूर जाकर प्रभासद्वीप है। जो कि ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्तियों के द्वारा जीते जाते है।
प्रश्न ४११ – लवणसमुद्र कुमानुषा के द्वीप कितने है कहाँ पर है?
उत्तर- लवणसमुद्र में कुमानुषो के ४८ द्वीप है। इनमें से २४ द्वीप तो अभ्यन्तर भाग में है एवं २४ द्वीप बाह्यभाग में स्थित है।
प्रश्न ४१२ – लवणसमुद्र के ४८ द्वीपो के अतिरिक्त अन्य द्वीप कहाँ है?
उत्तर- जंबूद्वीप की जगती से ५००० योजन आगे जाकर ४ द्वीप चारो दिशाओं में और इतने ही योजन जाकर चार द्वीप चारों विदिशाओं में है। जंबूद्वीप की जगती से ५५० योजन आगे जाकर दिशा-विदिशाओं की अन्तरदिशाओं में ८ द्वीप है। हिमवन् विजयार्ध के दोनों किनारों में जगती से ६००० योजन जाकर ४ द्वीप एवं उत्तर में शिखरी और विजयार्ध के दोनों पार्श्वभागों में ६०० योजन अन्तर समुद्र में ४ द्वीप है।
प्रश्न ४१३ – दिशागत विदिशागत आदि द्वीपो के विस्तार का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- दिशागत द्वीप १०० योजन प्रमाण विस्तार वाले है। ऐसे ही विदिशागत द्वीप ५५ योजन विस्तृत है। अन्तर दिशागत द्वीप ५० योजन विस्तृत एवं पर्वत के पार्श्वभाग गत द्वीप २५ योजन विस्तृत है।
प्रश्न ४१४ – लवणसमुद्र के ४८ कुमानुष द्वीप की और क्या विशेषता है?
उत्तर- ये सब उत्तम द्वीपवनखंड, तालाबों से रमणीय फल फूलो के भार से संयुक्त तथा मधुररस एवं जल से परिपूर्ण है। यहाँ कुभोगभूमि के व्यवस्था है। यहाँ पर जन्म लेने वाले मनुष्य कुमानुष कहलाते है। और विकृत आकार वाले होते है।
प्रश्न ४१५ – पूर्वादिक दिशाओं में स्थित ४ द्वीपों में किसप्रकार के होते है?
उत्तर- पूर्वोदिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपो के कुमानुष क्रम से एक जंघा वाले, पूंछवाले, सींग वाले, गूंगे होते है।
प्रश्न ४१६ – आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष किसप्रकार के होते है?
उत्तर- आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष क्रमश: शष्कुली वर्णकर्णप्रावरण, लम्बकर्ण, शशकर्ण होते है।
प्रश्न ४१७ – अन्तर दिशाओं में स्थित आठ द्वीपो के कुमानुष किसप्रकार होते है?
उत्तर- अन्तर दिशाओं स्थित आठ द्वीपो के वे कुमानुष वे क्रम से सिंह, अश्व श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक, बन्दर के समान मुख वाले होते है।
प्रश्न४१८ – हिमवान् पर्वत, और दक्षिण विजयार्ध आदि के कुमानुष कैसे होते है?
उत्तर- हिमवान् पर्वत के पूर्व पश्चिम किनारों में क्रम मत्स्यमुख कालमुख, तथा दक्षिण विजयार्ध के किनारों में मेषमुख गोमुख मानुष होते है। शिखरीपर्वत, के पूर्व पश्चिम किनारो पर क्रम से मेघमुख गोमुख, विद्युनमुख तथा उत्तरा विजयार्ध के किनारों पर आदर्शमुख, हरितमुख कुमानुष होते है।
प्रश्न ४१९ – ४८ ही कुमानुष कहाँ रहते है और इनका आहार वैâसा है?
उत्तर- इन सब में से एकोरूक कुमानुष गुफाओं में होते है और मिष्ट मिट्टी को खाते है। शेष कुमानुष वृक्षो के नीचे रहकर फल फूलो से जीवन व्यतीत करते है।
प्रश्न ४२० – कुल ४८ द्वीपो कैसे हुये उसका स्पष्टीकरण कीजिये?
उत्तर- इसप्रकार दिशागत द्वीप ४, विदिशागत ४ द्वीप, अंतरदिशागत आठ, पर्वततटगत ८१+४ +४ +८ +८ =२४ अंतद्र्वीप हुये। ऐसे लवणसमुद्र के बाह्य भाग के भी २४ द्वीप मिलकर है २४ +२४ =४८ अंतरद्र्वीप लवणसमुद्र में हैं।
प्रश्न ४२१ – कुभोगभूमि में जन्म लेने के कारण बतलाओ?
उत्तर- मिथ्यात्वरत में रत, मन्दकषायी, मिथ्यादेवो की भक्ति में ततार विषम पंचाग्नि तप तपने वाले, सम्यक्तव रत्न से रहित जीव मरकर कुमानुष होते है।
जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्तव व तप से युक्त साधुओं का किंचित अपमान करते है जो दिगम्बर साधु की निंदा करते है। ऋद्धि रस गाख से युक्त होकर दोषो की आलोचना गुरू के पास में नही करते है। गुरूओं के साथ स्वाध्याय वन्दना आदि कर्म नहीं करते है, जो मुनि एकाकी विचरण करते है कलह से सहित है, अरहंत आदि गुरू की भक्ति से रहित है, चतुर्विध संघ में व्याक्य से रहित, मौन बिना भोजन करने वाले, जो पाप में सलग्न है वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले, पाप कर्मो के फल से इन द्वीपो में कुत्सित रूप से युक्त कुमानुष होते है।
प्रश्न ४२२ – कुमानुष में जन्म लेने के और विशेषकारण बतलाओ?
उत्तर- गाथा ९२४ से खोट भाव से सहित, अपवित्र मृतादि के सूतक पातक से सहित, रजस्वला स्त्री से सहित, जातिसंकर दोषो से दूषित मनुष्य जो दान करते है, जो कुपात्रों में दान देते है ये जीव कुमानुष में उत्पन्न होते है।
क्योंकि ये जीव मिथ्यात्व और पाप से रहित किंचित पुण्योपार्जन करते है। अत:कुत्सित कुभोगभूमि में जन्म लेते है। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण रहती है। एक कोश ऊँचे शरीर वाले, गलियाँ होते है। मरकर नियम से भवनत्रिक देवों में जन्म लेते है। कदाचित् सम्यक्तव को प्राप्त करके कुमानुष सौधर्म युगल में जन्म लेते है।
प्रश्न ४२३ – लवणसमुद्र के अलावा अन्यसमुद्रो में पाताल होते है?
उत्तर- नहीं। लवणसमुद्र के दोनों और तट है। लवणसमुद्र में ही पाताल है अन्य समुद्रो में नहीं है।
प्रश्न ४२४ – लवण समुद्र के समान अन्य समुद्रो के जल में गहराई और ऊँचाई मे हीनाधिकता है क्या?
उत्तर- नहीं। लवणसमुद्र के जल की गहराई और ऊँचाई में हीनाधिकता है अन्य समुद्रो के जल मे नही है।
प्रश्न ४२५ – लवणसमुद्र के अलावा अन्यसमुद्रो के जल की गहराई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- लवणसमुद्र के अलावा सभी समुद्रो की गहराई सर्वत्र १ हजार योजन है और ऊपर में जल समतल प्रमाण है।
प्रश्न ४२६ – लवणसमुद्र के जल का स्वाद और क्या विशेषतायें है बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र का जल खारा है, लवणसमुद्र में जलचर जीव पाये जाते है।
प्रश्न ४२७ – लवणसमुद्र के मत्स्यो क प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र के मत्स्य नदी के गिरने के स्थान पर ९ योजन अवगाहना वाले एवं मध्य में १८ योजन प्रमाण है। इसमें कछुआ शिंशमार, मगर आदि जलजंतु भरे है।
प्रश्न ४२८ – रावण की लंका कहाँ है?
उत्तर- रावण की लंका को, पभपुराण में लवणसमुद्र में माना है।
प्रश्न ४२९ – लवणसमुद्र में और भी द्वीप है क्या? यदि है तो कौनसे द्वीप है?
उत्तर- लवणसमुद्र में अनेको द्वीप है ऐसा पभपुराण में स्पष्ट लिखा है। (१०७ से ११० तक पभपुराण ४८ पर्व) दुष्ट मगर मच्छो से भरे हुये इस लवणसमुद्र में अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध राक्षस द्वीप है।
प्रश्न ४३० – राक्षसद्वीप की विस्तार व परिधि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- राक्षसद्वीप सब और से सातयोजन विस्तृत है। तथा कुछ अधिक २१ योजन उसकी परिधि है।
प्रश्न४३१ – राक्षसद्वीप के मध्य में क्या है?
उत्तर- राक्षसद्वीप के मध्य में सुमेरू पर्वत के समान त्रिकूट नाम का पर्वत है।
प्रश्न ४३२ – त्रिकूट नामक पर्वत की ऊँचाई, चौड़ाई का प्रमाण आदि बतलाओ?
उत्तर- त्रिकूट पर्वत नौ योजन ऊँचा और ५० योजन चौड़ा है। सुवर्ण तथा नानाप्रकार की मणियों से देदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है। राक्षसो के इन्द्र भीम ने मेघवाहन के लिये वह दिया था।
प्रश्न ४३३ – लंका नाम की नगरी कहाँ है?
उत्तर- तट पर उत्पभ हुये नाना प्रकार के चित्र विचित्र वृक्षो से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखरपर लंका नाम की नगरी है।
प्रश्न ४३४ – लंका नगरी की चौड़ाई का प्रमाण आदि विशेषताये बतलाइये?
उत्तर- लंकानगरी जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ण के विमानो के समान मनोहर महलो से एवं क्रीड़ा आदि से ३० योजन चौड़ी है। तथा बहुत बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथ्वी के समान जान पड़ती है।
प्रश्न ४३५ – लंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश है उनकी विशेषता क्या है?
उत्तर- लंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश है जो रत्नमणि, और सुवर्ण से निर्मित है। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त है। राक्षसों की क्रीड़ाभूमि है। तथा महाभोगो से युक्त विद्याधरो से सहित है।
प्रश्न ४३६ – लंका में और भी अनेकद्वीप है, उनके नामादि बतलाओ?
उत्तर- संध्याकार सुबेल, कांचन, कुदान, योधन, हंस, हरिसागर और अर्धस्वर्ग आदि अन्यद्वीप भी वहाँ विद्यमान है जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगो को देने वाले है। वन उपवन आदि से विभूषित है तथा स्वर्ण प्रदेशो के समान जान पढ़ते है।
प्रश्न ४३७ – लवणसमुद्र में अनेकद्वीप है यदि हाँ तो उनकी विशेषतायें बतलाओ?
उत्तर- इस लवणसमुद्र में बहुत से द्वीप है जहाँ कल्पवृक्षो के समान आकारवाले वृक्षो से दिशायें व्याप्त हो रही है। इन द्वीपो में अनेको पर्वत है जो रत्नों से व्याप्त ऊँचे ऊँचे शिखरों से सुशोभित है। राक्षसो के इन्द्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य देवो के द्वारा आपके वंशजो के लिये ये सब द्वीप और पर्वत दिये गये है ऐसा पूर्वपरम्परा से सुनने में आता है।
प्रश्न ४३८ – लवणसमुद्र के अनेक द्वीपो में अनेक नगर है उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- उन द्वीपो में अनेक नगर है। उन नगरो के नाम संध्याकार मनोहाल्द, सुबेल , कांचन, हरियोधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कांत स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेत्र इत्यादि सुन्दर सुन्दर है।
प्रश्न ४३९ – वानरद्वीप कहाँ है उसका विस्तार कितना है?
उत्तर- वायण्य दिशा में समुद्र के बीच ३०० योजन विस्तार वाला बड़ा भारी वानरद्वीप है। उसमें महामनोहर हजारों अवान्तर द्वीप है।
प्रश्न ४४० – वानरद्वीप के मध्य में कौनसा पर्वत है?
उत्तर- उस वानर द्वीप के मध्य में रत्न सुवर्ण की लम्बी, चौड़ी शिलाओं से सुशोभित ‘किब्कु’ नाम का बड़ा भारी पर्वत है। जैसे यह त्रिकूटाचल है वैसे ही वह किब्कु पर्वत है। इत्यादि। इस प्रकरण से यह ज्ञान होता है कि इस समुद्र में और भी अनेक द्वीप विद्यमान है।
प्रश्न ४४१ – लवणसमुद्र की जगती की ऊँचाई मूल आदि प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- लवणसमुद्र की जगती ८ योजन ऊँची, मूल में १२ योजन मध्य में ८ और ऊपर में ४ योजन प्रमाण विस्तार वाली है। इसके ऊपर वेदिका, वनखंड देवनगर आदि का पूरावर्णन जंबूद्वीप की जगती के समान है। (जगती याने परकोटा)।
प्रश्न ४४२ – जगती के आभ्यन्तर भाग में क्या है?
उत्तर- जगती के आभ्यन्तर भाग में शिलापट्टऔर बाह्यभाग में वन है।
प्रश्न ४४३ – जगती का बाह्य भाग का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- जगती के बाह्यभाग का प्रमाण १५,८१, १३९ योजन प्रमाण है। यदि जम्बूद्वीप प्रमाण १-१ लाख के खंड किये जाये तो इस लवण समुद्र के जम्बूद्वीप प्रमाण २४ खंड हो जाते है।
प्रश्न ४४४ – काल के कितने भेद है, उनके नाम भी बताओ?
उत्तर- काल के दो भेद है एक उत्सर्पिणी दूसरा अवसर्पिणी।
प्रश्न ४४५ – अवसर्पिणी के कितने भेद है उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- अवसर्पिणी के ६ भेद है। सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुखमासुषमा, दुषमा, दुखमादुखमा।
प्रश्न ४४६ – अवसर्पिणी के छह कालों का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- प्रथमकाल ४ कोड़ाकोड़ी, सागर प्रमाण है द्वितीयकाल तीन कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण, तृतीयकाल दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण, चतुर्थकाल ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा कोड़ी सागर, पंचम व छठा काल दोनो का २१ हजार वर्ष प्रमाण है।
प्रश्न ४४७ – उत्सर्पिणी काल के कितने भेद है उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- उत्सर्पिणी काल के दुषमादुषमा से लेकर छहभेद है। उनमें छठे से पहिले तक परिवर्तन चलता है।
प्रश्न ४४८ – छहकालों में परिवर्तन होता है या एकसमान रहते है?
उत्तर- भरत और ऐरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के ६ समयों की अपेक्षा वृद्धि व हास होता रहता है।
प्रश्न ४४९ – भरत और ऐरावत क्षेत्रो में वृद्धि व हास किनका होता है?
उत्तर- भरत-ऐरावत सम्बंधी मनुष्यो में भोग, उपभोग, अनुभव, संपदा आयु, परिमाण (प्रमाण) शरीर की ऊँचाई आदि के द्वारा वृद्धि और हास होता है।
प्रश्न ४५० – अनुभव आयु और प्रमाण का क्या अर्थ है?
उत्तर- सुख दुख के उपयोग को अनुभव कहते है। जीवित प्रमाण के काल को आयु कहते है और शरीर की ऊँचाई को प्रमाण कहते है।
प्रश्न ४५१ – वृद्धि और हास किस निमित्त से होता है?
उत्तर- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो कालो के निमित्त से भरत-ऐरावत क्षेत्रो में रहने वाले मनुष्यो के अनुभव आदि का वृद्धि हास होता है।
प्रश्न ४५२ – उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालो की यह संज्ञा क्यो है?
उत्तर- ये दोनो काल सार्थक नाम वाले है। जिनमें अनुभव आयु आदि की वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी काल है औ जिसमें इनका हास होता है वह अवसर्पिणी काल है।
प्रश्न ४५३ – उत्सर्पिणी काल व अवसर्पिणी काल कितने वर्षो के होते है?
उत्तर- दश कोड़ाकोड़ी सागर का एक अवसर्पिणी काल, १० कोड़ा कोड़ी सागर का एक अवसर्पिणी काल होता है।
प्रश्न ४५४ – एक कल्पकाल कितने वर्षो का होता है?
उत्तर- २० कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल मिलकर ही एक कल्पकाल कहलाता है।
प्रश्न ४५५ – भरतक्षेत्र के आर्यखंड में प्रथम सुषमासुषमा में वहाँ के मनुष्याकी ऊँचाई, आयु, वर्ण, भोजन आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- भरतक्षेत्र के आर्यखंड में जब सुषमासुषमा प्रथम काल था उससमय तब वहाँ के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई ३ कोस थी। आयु ३ पल्य की थी। वे स्वर्ण सदृश वर्ण के थे। वे तीन दिन के बाद कल्पवृक्षो से प्राप्त बदरीफल बराबर उत्तमभोजन ग्रहण करते थे।
प्रश्न ४५६ – असर्पिणी प्रथमकाल के मनुष्यों की और क्या विशेषता थी?
उत्तर- सुषमासुषमा के मनुष्यों के मलमूत्र, पसीना, रोग, अपमृत्यु आदि बाधायें नहीं थी। वहाँ की स्त्रियाँ आयु के ९ महिने शेष रहने पर गर्भ धारण करती थी और युगल पुत्री को जन्म देती थी। सन्तान के जन्म होते ही पुरूष को जंभाई, और स्त्री को छींक आने से मर जाते थे। वे युगल वृद्धि को प्राप्त होकर कल्पवृक्षों से उत्तम सुख का अनुभव करते रहते थे।
प्रश्न ४५७ – प्रथमसुषमा काल में उत्तमभोगभूमि होती है क्यो?
उत्तर- पानांग, लूर्यांग, भूषणांग, मालांग, ज्योतिरांग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग ये उत्तम अपने नाम के अनुसार ही उत्तमवस्तुयें मॉगने पर देते है। इसे उत्तमभोगभूमि कहते है।
प्रश्न ४५८ – उत्सर्पिणी के दूसरे काल में मनुष्यों की ऊँचाई आयु वर्णादि प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- उत्सर्पिणी के द्वितीय सुषमा काल में, मनुष्यों की आयु दो पल्य, शरीर की ऊँचाई दो कोस, शरीर का वर्ण चन्द्रमा के समान रहता है। ये दो दिन के बाद कल्पवृक्षो से प्राप्त हुये बहेड़े के बराबर भोजन को ग्रहण करते है इसे मध्यम भोगभूमि कहते है।
प्रश्न ४५९ – तृतीयकाल में मनुष्यों की आयु ऊँचाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- द्वितीय काल पूर्ण हो जाने के बाद तृतीय सुषमा दुषमा काल प्रवेश करता है। तब यहाँ के मनुष्यों की आयु १ पल्य, शरीर की ऊँचाई १ कोस और शरीर का वर्ण हरित रहता है। ये एक दिन के अन्तर से आँवले के बराबर भोजन को ग्रहण करते है। आगे क्रम से आयु आदि घटती जाती है इसप्रकार यह भोगभूमि का काल चल रहा था।
प्रश्न ४६० – चतुर्थकाल में मनुष्यो की आयु ऊँचाई आदि का परिमाण बतलाओ?
उत्तर- जब तृतीयकाल में पल्य का आठवा भाग शेष रह गया तब ज्योतिरांग कल्पवृक्षो का प्रकाशमंद पड़ने से आकाश में सतत घूमने वाले सूर्य चन्द्र दिखने लगे। उस समय प्रजा के डरने से प्रतिमुसि नामके प्रथम कूलकर ने उनको बास्तविक स्थिति बताकर उनको डर दूर किया। ऐसे ही क्रम से १३ कुलकर और हुये। अन्तिम कुलकर महाराज नाभिराज थे। उनकी पत्नी मरूदेवी, युगलियाँ जन्म न लेकर किसी प्रधान कुल की कन्या थी इन दोनों का विवाह इन्द्रो ने बड़े उत्सव से कराया था। इस काल में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु १ कोटिपूर्व, शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष था।
प्रश्न ४६१ – भगवान ऋषभदेव का जन्म कब किस काल में हुआ था?
उत्तर- चतुर्थकाल में ८४ लाख पूर्व वर्ष, तीन वर्ष साढ़े आठ माह काल बाकी था तब अन्तिम कूलकर नाभिराज की रानी मरूदेवी के गर्भ में भगवान ऋषभदेव आये और ९ महिने बाद जन्म लिया।
प्रश्न ४६२ – भगवान ऋषभदेव की आयु कितनी थी?
उत्तर- भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे इनकी आयु ८४ लाख वर्ष पूर्व की थी।
प्रश्न ४६३ – कल्पवृक्ष नष्ट हो जाने पर षट्क्रियाओं आदि उपदेश जीवों को किसने दिया?
उत्तर- कल्पवृक्ष के नष्ट हो जाने के बाद प्रजा के असि, मसि, कृषि, वाणिज्य शिल्प, विद्या इन षट्क्रियाओं से आजीविका करना, भगवान ऋषभदेव ने बतलाया। अत्रिय, शूद्र वैश्य ये तीन वर्ण स्थापित किये। भगवान ने विदेहक्षेत्र की स्थिति को अपने अवधिज्ञान से जानकर यह सब व्यवस्था बनायी। भगवान की आज्ञा से इन्द्र ने कौशल काशी आदि देश अयोध्या, हस्तिनापुर उज्जयिनी आदि नगरियो की रचना की।
प्रश्न ४६४ – भगवान आदिनाथ ने अपने पुत्र पुत्रियों को कौनसी विद्याओं में निष्णात किया ?
उत्तर- भगवान ने अपने पुत्रियों को ब्राह्मीलिपि और अंकलिपि सिखायी। पुत्र पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात किया।
प्रश्न ४६५ – भगवान आदिनाथ ने कहाँ से व कब मोक्ष को प्राप्त किया था?
उत्तर- भगवान के दीक्षा लेकर मोक्षमार्ग प्रगट किया। पुन: केवलज्ञान होने के बाद साक्षात् सम्पूर्ण जगत को जान लिया और अंत में चतुर्थकाल के तीनवर्ष, आठमाह, एक पक्ष शेष रहने पर कार्तिक कृष्णा अमावस्या के उषाकाल में पावापुरी से मोक्ष गये।
प्रश्न ४६६ – पंचमकाल में मनुष्य की आयु ऊँचाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- दुषमा पंचमकाल में उत्कृष्ट आयु १२० वर्ष, शरीर की ऊँचाई अधिक से अधिक सात हाथ की है। दिन पर दिन आयु आदि घट रहे है। महावीर स्वामी को हुये २५४१ वर्ष पूर्ण हो गये है। हम लोग इस पंचमकाल के मनुष्य है।
प्रश्न ४६७ – भगवान महावीर का शासन कितने वर्ष तक चेलेगा?
उत्तर- साढ़े अठारह हजार वर्ष तक भगवान महावीर का शासन चलता रहेगा।
प्रश्न ४६८ – पंचमकाल के अंत में क्या होगा?
उत्तर- एक राजा दिगम्बर मुनि से प्रथमग्रास को शुल्करूप में मांगेगा तब मुनि अंतराय करके जाकर आर्यिका, श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ सहित सल्लेखना ग्रहण कर मरकर स्वर्ग जायेगे उस समय धरणेन्द्र कुपित हो राजा को मार देगा तब राजा नरक जाएगे। बस! धर्म का और राजा का अंत हो जायेगा।
प्रश्न ४६९ – छठेकाल में उससमय मनुष्य की आयु का प्रमाण आदि बतलाओ?
उत्तर- छठेकाल में मनुष्य का शरीर १ हाथ का आयु १६ वर्ष मात्र की रह जायेगी। ये मनुष्य पशुवृति करेगे। मांसाहारी होगे। जंगलो में घूमेगे। दुखी दरिद्री, कुटुम्बहीन होगे। पुन: ४९ पचास प्रलय के बाद २१ हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर छठा काल समाप्त होगा और देव विद्याधरों द्वारा रक्षा किये गये कुछ मनुष्य जीवित रहकर पुन: सृष्टि की परम्परा बढ़ायेगे।
उत्सर्पिणी के छठे काल के बाद पंचमादि काल आते रहेगा यह काल परम्परा अनादिनिधन है।
प्रश्न ४७० – जैनधर्म कैसा है?
उत्तर- जैनधर्म अनादि है यह सार्वधर्म है। सभी जीवों का हित करने वाला है। सभी तीर्थंकर इस धर्म का उपदेश देते है वे स्वयं इस धर्म के प्रवर्तक नहीं है। ऐसे अनंत तीर्थंकर हो चुके है और भविष्य में होते रहेगे। कोई भी जीव अपने आप धर्मपुरूषार्थ के बल से अपने आपको भगवान बना सकता है। ऐसा समझना।
प्रश्न ४७१ – व्यन्तर किसे कहते है?
उत्तर- जिनका नाना प्रकार देशो में निवास है वे व्यन्तर कहलाते है। यह इनका सार्थक नाम है।
प्रश्न ४७२ – व्यन्तरों के कितने भेद है? उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- व्यन्तरों के ८ भेद है। किन्नरे, किंपुरूष, महोरग, ग्रंधर्व, यक्षराक्षस, भूत, पिशाच।
प्रश्न ४७३ – व्यन्तरों की सामान्य संज्ञा क्या है?
उत्तर- किन्नर किंपुरूष आदि आठ विकल्पों की सामान्य संज्ञा है।
प्रश्न ४७४ – व्यन्तरों में सामान्य संज्ञा किस कर्म के उदय से होती है?
उत्तर- व्यन्तरो के ८ भेदो की सामान्य संज्ञा नामकर्म के उदय विशेष से होती है।
प्रश्न ४७५ – व्यन्तरो की विशेष संज्ञा किसकी होती है?
उत्तर- मूल देवगति नामकर्म के उत्तरोत्तर प्रकृति के भेद के उदय से किननर आदि विशेष संज्ञा होती है। किन्नर नामकर्म के उदय से किन्नर, किंपुरूष नामकर्म के उदय से किंपुरूष इत्यादि।
प्रश्न ४७६ – व्यन्तरों के निवास कौन कौन देश में है?
उत्तर- इस जंबूद्वीप के असंख्यात द्वीपों को समुद्रो को लांघकर प्रथम भूमि के खर पृथ्वी भाग में किन्नर किंपुरूष महोरग, गंधर्व, यक्ष भूत, और पिशाच ये ७ प्रकार के व्यन्तर रहते है। तथा खरभाग के समान ही पंकबहुल में राक्षसों के निवास है।
प्रश्न ४७७ – सभी व्यन्तर वासियों के भवन कितने है?
उत्तर- सभी व्यन्तरवासियों के असंख्यात भवन है।
प्रश्न ४७८ – व्यन्तरवासियों के भवन के कितने भेद है वे कहाँ है बतलाओ?
उत्तर- व्यन्तरवासियों के भवनो के तीन भेद है। भवन, भवनपुर और आवास। खरभाग पंकभाग भवन है। असंख्यात द्वीप समुद्रो के ऊपर भवनपुर है। और सरोवर पर्वत नदी आदि कोके ऊपर आवास होते है।
प्रश्न ४७९ – व्यन्तरवासियों के निवास व भवन, भवनपूर व आवास सबसे समान परिमाण में होते है कि कुछ विशेषता है?
उत्तर- मेरूप्रमाण मध्यलोक में और मेरू की चुलिका तक ऊपर उर्धवलोक में व्यन्तर देवो के निवास है। इन व्यन्तरों में से किन्हीं के भवन है किन्ही के भवन ओर भवनपु दोनो है एवं किन्ही के तीनो भवन भवनपुर और आवास तीनो ही स्थान होते है। ये सभी आवास प्राकार परकोटे से वेष्टित है।
प्रश्न ४८० – व्यन्तर देवो के मन्दिर कितने है?
उत्तर- व्यन्तरवासी देवो के स्थान असंख्यात होने से उनमें स्थित जिनमन्दिर भी असंख्यात प्रमाण है। क्योंकि जितने भवन भवनपुर और आवास है उतने ही जिनमन्दिर है।
प्रश्न ४८१ – व्यन्तर देवो के भवन आदिकों विस्तार प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- व्यन्तर देवो के उत्कृष्ट भवनों का विस्तार- १२,००० योजन।
व्यन्तरदेवों के उत्कृष्ट भवनो की मोटाई- ३०० योजन है।
व्यन्तर देवो के उत्कृष्ट भवनपुरो का विस्तार ५१००००० योजन
व्यन्तर देवो के उत्कृष्ट भवन आवासो का विस्तार १,२२००० योजन
व्यन्तर देवो के जघन्य भवनो का विस्तार – २५ योजन
व्यन्तर देवो के जघन्य भवनो की मोटाई- ३ ४ योजन
व्यन्तर देवो के जघन्य भवनपुरो का विस्तार १ योजन
व्यन्तर देवो के जघन्य आवासों का विस्तार – ३ कोस है।
प्रश्न ४८२ – व्यन्तरों के भवन आदि की संख्या सभी के संख्या समान है कि कुछ विशेषता है?
उत्तर- भूतो के १४ हजार प्रमाण और राक्षसो के १६ हजार प्रमाण भवन है शेष व्यन्तरों के भवन नहीं है।
प्रश्न ४८३ – किन्नर किंपुरूष आदि ८ व्यन्तर देवो सम्बंधी ३ प्रकार के (भवन भवनपूर, आवास) भवनो के सामने क्या है?
उत्तर- प्रकार के व्यन्तर देवो के भवन, भवनपूर और आवास इन तीनो प्रकार के भवनो के आगे एक एक चैत्यवृक्ष है।
प्रश्न ४८४ – कौन से व्यन्तर के यहाँ कौनसा एक एक चैत्यवृक्ष है उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- किन्नरों के भवनो के सामने अशोकवृक्ष।
किंपुरूषो के भवनो के सामने चंपकवृक्ष।
महोरग के भवनो के सामने नागद्रुमवृक्ष।
गंधर्व के भवनो के सामने तुंबरूवृक्ष।
यक्ष के भवनो के सामने न्यग्रोध वट वृक्ष।
राक्षस के भवनो के सामने कंटकवृक्ष।
भूत के भवनो के सामने तुलसीवृक्ष।
पिशाच के भवनो के सामने कदंबवृक्ष।
प्रश्न ४८५ – क्या सभी चैत्यवृक्ष अनादि निधन है?
उत्तर- ये सब चैत्यवृक्ष भवनवासी देवो के चैत्यवृक्षो के सदृश अनादिनिधन है।
प्रश्न ४८६ – चैत्यवृक्षो के मूल में क्या है?
उत्तर- चैत्यवृक्षो के मूल में चारो और चारतोरणों से शोभायमान चार चार जिनेन्द्र प्रतिमायें विराजमान है। पल्यांकासन से स्थित है। प्रासिहार्यो से सहित, दर्शनमात्र से ही पाप समूह को नाश करने वाली ये जिन प्रतिमायें भव्यजीवो को मुक्तिप्रदान करने वाली है।
प्रश्न ४८७ – व्यन्तरों के जिनभवनो में चैत्यवृक्ष है उन प्रतिमाओं का मन्दिर का वैभव बतलाओ?
उत्तर- जिनेन्द्र प्रसाद झारी कलश दर्पण, ध्वजा, चंवर बीजना, छत्र और होना इन एक सौ आठ आठ उत्तममंगल द्रव्यों से संयुक्त है। उपर्युक्त जिनेन्द्र प्रासाद दुन्दभी मृदंग, जयघंटा, भेरी झांझ, वीणा और बांसुरी आदि वादित्रों के शब्दो से हमेशा मुखरित रहते है। उन जिनेन्द्र भवनों में सिंहासनादि प्रातिहार्यो से सहित और हाथ में चमरों के लिये नागयक्ष देवयुगलों से संयुक्त ऐसी अकृत्रिम जिनप्रतिमायें जयवंत होती है। सग्यग्दृष्टि देव कर्मक्षय के निमित्त गाढ़भक्ति से विविध द्रव्यों के द्वारा उन प्रतिमाओं की पूजा करते है। अन्य देवो के उपदेशव्रत मिथ्यादृष्टि देव भी ये कूलदेवता है ऐसा समझकर उन जिनप्रतिमाओं की पूजा करते है।
प्रश्न ४८८ – संख्यात व असंख्यात वर्ष प्रमाण आयु से युक्त व्यन्तर देव एक समय में कितने योजन गमन करते है?
उत्तर-संख्यात वर्ष प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देव एक समय में संख्यात योजन तथा असंख्यात वर्ष प्रमाण आयुवाले एक समय में असंख्यात योजन गमन करते है।
प्रश्न ४८९ – किन्नर आदि ८ प्रकार के देवो में से प्रत्येक की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- किन्नर आदि आङ्गो व्यन्तर देवो में से प्रत्येक की ऊँचाई १० धनुष प्रमाण जानना चाहिये।
प्रश्न ४९० – व्यन्तरदेवो का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- तेईसकरोड़ चारलाख सूच्यंगुलो के वर्ग का (तीन सौ योजन का वर्ग का) जगश्रेणी से भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तर देवो का प्रमाण है असंख्यातो है।
प्रश्न ४९१ – व्यन्तर देव कितने उत्पभ होते है और मरते है उसका प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- व्यन्तरों के असंख्यातो का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने देव उत्पभ होते है और उतने ही मरते है।
प्रश्न ४९२ – व्यन्तर तथा भवनवासी देवो के आवास और भवन चित्रा पृथ्वी के नीचे कितने योजन जाकर है?
उत्तर- व्यन्तर देव तथा अल्पद्र्धिक महद ऋद्धिक और मध्यमऋद्धिके धारक भवनवासी देवो के आवास और भवन क्रमश: चित्रा पृथ्वी के नीचे एक हजार, दो हजार, ४२ हजार और एक लाख योजन जाकर है।
प्रश्न ४९३ – आवास व भवन में अन्तर बतलाओ?
उत्तर- रमणीक तालाब पर्वत तथा वृक्षादिक के ऊपर स्थित निवासस्थानों को आवास कहते है तथा रत्नप्रभा पृथ्वी में स्थित निवास स्थानों को भवन कहते है।
प्रश्न ४९४ – रत्नप्रभापृथ्वी के तीन भागो में व्यन्तर भवनवासी व नारकी निवास स्थान कहाँ है?
उत्तर- प्रथम खरभाग जो १६००० योजन मोटा है उनमें नागकुमार आदि नौ प्रकार के भवनवासी के भवन तथा राक्षसो अतिरिक्त शेष ७ प्रकार के व्यन्तरों के आवास है। दूसरा पंकभाग ८४,००० हजार योजन मोटा है और उसमें असुर कुमारो के भवन तथा राक्षस देवों (व्यन्तर) के आवास है। तीसरा अब्बहुल भाग ८०,००० योजन मोटा है इस भाग में नारकी जीव है।
प्रश्न ४९५ – नीचोपपा आदि व्यन्तर देवो की आयु का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर-नीचोपपाद व्यन्तर देवो की आयु का प्रमाण १० हजार वर्ष दिगवासी का २०हजार वर्ष, अन्तरवासी का ३० हजार वर्ष, कुषमांड का ४० हजार वर्ष, उत्पभ का ५० हजार वर्ष, अनुत्पभ का ६० हजार वर्ष, प्रमाणक का ७० हजार वर्ष, गंध कार ८० हजार वर्ष, महागंध का ८४ हजार वर्ष, भुजंगदेवो का पल्य के ८ वें भाग, प्रीतिक का पल्य के चतुर्थ भाग प्रमाण और अकाशोत्पभ देवो की आयु का प्रमाण पल्य के अर्ध भाग प्रमाण है।
प्रश्न ४९६ – व्यन्तर देवो के तीन प्रकार निवास स्थान किसे कहते है?
उत्तर- व्यन्तर देवो के जो निवास स्थान मध्यलोकर की समभूमि पर है उन्हें भवनपुर कहते है। जो स्थान पृथ्वी से ऊँचे है उन्हें आवास कहते है जो स्थान पृथ्वी से नीचे है उन्हें भवन कहते है।
प्रश्न ४९७ -यथासम्भव सभी व्यन्तर देवो के निवासक्षेत्र को बतलाइये?
उत्तर- चित्रा और वज्र पृथ्वी की संधि से प्रारम्भ कर मेरूपर्वत की ऊँचाई तक के तथा मध्यलोक का विस्तारज हाँ तक है वहाँ तक के समस्त क्षेत्र में व्यन्तर देव यथा योग्य भवनपुरो आवास एवं भवनों में रहते है
प्रश्न ४९८ – भवनवासी देवो में तीनप्रकार की निवास स्थानों की क्या व्यवस्था है?
उत्तर- भवनवासी देवों में असुरकुमार को छोड़कर शेष में से किन्हीं किन्हीं के तीनो प्रकार के निवास स्थान है।
प्रश्न ४९९ – उत्कृष्ट व जघन्य भवनों के चारो और क्या है?
उत्तर- उत्कृष्ट भवनों के चारो और आधा योजन ऊँची वेदी है तथा जघन्य भवनों के चारों और २५ धनुष ऊँची वेदी है।
प्रश्न ५०० –गोलादि आकार वाले भवनपुरो का और जघन्य विस्तार का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- गोलादि आकार वाले भवनपुरों का उत्कृष्ट विस्तार एक लाख योजन और जघन्य विस्तार एक योजन प्रमाण है।
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