(तीनलोक के जिनमंदिर पुस्तक से – गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित )
(प्रश्नोत्तर लेखिका- आ़. सुदृष्टिमती माताजी)
उत्तर- माल्यवान पर्वत पर नवकूट है। सिद्धकूट, माल्यवान, उत्तरकौरव कच्छ, सागर, रजत, पूर्णभिद्र, सीता और हरिसह ये ९ कूट है।
प्रश्न ३०२ – इन ९ कूटो का विस्तार आदि का प्रमाण बलताओ?
उत्तर- सुमेरू के पास का कूट सिद्धकूट है। यह १२५ योजन ऊँचा मूल में १२५ योजन विस्तृत है और ऊपर ६२ १\२ योजन विस्तृत है। अन्तिम हरिसह कूट १०० योजन ऊँचा, १०० योजन मूल में विस्तृत और उपरिमभाग में ५० योजन है। शेषकूट पर्वत की ऊँचाई के चौथाई भागप्रमाण यथायोग्य है।
प्रश्न ३०३ – माल्यवान पर्वत के ९ कूटो में सभी में जिनमन्दिर है क्या?
उत्तर- माल्यवान पर्वत के ९ कूटों में मात्र सिद्धकूट में जिनमन्दिर है शेष कूटो में देव देवियो के आवास है।
प्रश्न ३०४ – महासौमनस पर्वत के कितने कूट और उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- महासौमनस पर्वत के ७ कूट है। सिद्ध, सौमनस, देवकुरू, मंगल, विमल, कांचन, वशिष्ठ ये सात कूट है।
प्रश्न ३०५ – विद्युत् प्रभ के ९ कूटो के नाम बतलाओ?
उत्तर- सिद्ध, विद्युत् प्रभ, देवकुरू, पभ, तपन, स्वस्तिक, शतन्वाल, सीतोदा और हरिकूट ये विद्युत् प्रभ पर्वत के ९ कूट है।
प्रश्न ३०६ – गंधमादन के ७ कूटो के नाम बतलाओ?
उत्तर- सिद्ध, गंधमादन, उत्तरकुरू, गंधमालिनी, लोहिता, स्फटिक और आनंद ये सात कूट है।
इनमें सिद्धकूटों में जिनमन्दिर शेष में यथायोग्य देव देवियो के आवास है चारो के सिद्धकूट १२५ योजन ऊँचे एवं अंत के कूट १०० योजन ऊँचे है शेष अपने अपने पर्वतो की ऊँचाई के चातुर्थ भाग प्रमाण ऊँचे है।
प्रश्न ३०७ – बत्तीस विदेहो किस प्रकार होते है?
उत्तर- मेरू की पूर्वदिशा में पूर्वविदेह और पश्चिम दिशा में पश्चिम विदेह है, पूर्व विदेह के बीच में सीता नदी है तथा पश्चिम विदेह के बीच में सीतोदा नदी है। इन दोनों नदियों के दक्षिण उत्तर तट होने से चारविभाग हो जाते है। इन एक एक विभाग ८-८ विदेह है। पूर्व पश्चिम में भद्रशाल वेदी है, उसके आगे वक्षारपर्वत, उसके आगे विभंगानदी, उसके आगे वक्षारपर्वत, उसके आगे विभंगानदी उसके आगे पक्षारपर्वत, उसके आगे विभंगानदी, उसके आगे वक्षार पर्वत उसके आगे देवारण्य और भूतारणय की वेदी ये नव हुये। इन नौ के बीच में ८ विदेह देश है। इस प्रकार सीता सीतोदा के दक्षिण उत्तर तट सम्बंधी बत्तीस विदेह हो जाते है।
प्रश्न ३०८ – १६ वक्षारपर्वत और १२ विभंगानदी के नाम बतलाओ?
उत्तर- सीतानदी के उत्तरतट में भद्रसाल वेदी से लेकर आगे क्रमसे चित्रकूट, पभकूट नलिनकूट और एक शैल ये चार वक्षारपर्वत है। गाधवती, द्रहवती पंकवती ये तीन विभंगानदियाँ है। सीतानदी के दक्षिणतट में पर देवारण्य वेदी से लगाकर क्रम से त्रिकूट, वैभवण, अंजनात्मा, और अंजन ये चार वक्षार पर्वत है। और तृत्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला, ये तीन विभंगानदियाँ है।
पश्चिम विदेह की सीतोदा नदी के दक्षिणतट में भद्रसाल वेदी से लगाकर क्रम से श्रद्धावान् विजटावान, आशीविष, सुखावह ये चार वक्षार और क्षीरोदा, सीतादो, स्रोतोवाहिनी ये तीन विभंगा नदियाँ है। इसी पश्चिम विदेह की सीतादो नदी के उत्तरतट में देवारण्य की वेदी से लगाकर क्रम से चंद्रमाल,सूर्यमाल, नागमाल, देवमाल ये ४ वक्षारपर्वत है। गंभीरमालिनी, फेनमालिनीख् उर्मिमालिनी ये तीन विभंगानदियाँ है।
प्रश्न ३०९ – वक्षारपर्वत का वर्ण और उनका विस्तार आदि बताओ?
उत्तर- ये वक्षारपर्वत सुवर्णमय है। प्रत्येक वक्षारपर्वत का विस्तार ५०० योजन, और लम्बाई १६,५९२ – २ १९ योजन तथा ऊँचाई निषध नील पर्वत के पास, ४०० योजन एवं सीता सीतोदा नदी के पास ५०० योजन है।
प्रश्न ३१० – प्रत्येक वक्षारपर्वत पर कितने कूटादि है?
उत्तर- प्रत्येक वक्षार पर चार चार कूट है। नदी के तरफ के कूट सिद्धकूट है उन पर जिन चैत्यालय है। बचे तीन तीन कूटो में से एक एक कूट वक्षारपर्वत के नाम के है। एवं दो दो कूट अपने अपने वक्षार के पूर्व-पश्चिमपार्श्व के दो विदेह देशो के जो नाम है वे ही नाम है। यथा चित्रकूटवक्षार के ऊपर सिद्धकूट, चित्रकूट, कच्छा, सुकच्छा ये नामधारक कूट है।
प्रश्न ३११ – विभंगानदियों का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- ये नदियाँ निषध नील पर्वत की तलहटी के पास कुंड से निकलती है अपने अपने कुंड के पास उत्यत्ति स्थान में ५० कोस (५०,०००) मील तथा सीता सीतादो नदियों के पास प्रवेशस्थान में ५०० कोस (५,००००० मील) प्रमाण है इन नदियों की परिवार नदियाँ २८-२८ हजार है।
प्रश्न ३१२ -दैवारण्य भूसारण्य वन कहाँ पर तथा वर्णविस्तार बतलाओ?
उत्तर- पूर्वविदेह के अंत में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीतानदी के दोनों किनारो पर रमणीय देवारण्य वन स्थित है, अपर विदेह के अंत में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीतोदा नदी के दोनो किनारो पर भूतारण्य वन है।
देवारण्य और भूतारण्य का विस्तार पृथक पृथक २९२२ योजन प्रमाण है। इस देवारण्यवन में सुवर्ण रत्न चाँदी से निर्मित, वेदीतोरण, ध्वज पताकादिकों से मंडित विशाल प्रसादस है इन प्रसादो में उपपाद शय्या, अभिषेक गृह क्रीड़न शाला जिनभवन आदि विद्यमान है। यहाँ के प्रसादो से ईशानेन्द्र के परिवार देव बहुत प्रकार से क्रीड़ा करते रहते है। ऐसी ही सम्पूर्ण वर्णन भूतारण्य का भी समझना चाहिये ।
प्रश्न ३१३ – विदेह के बत्तीस देशो के नाम तथा उनका स्थान बतलाओ?
उत्तर- सीता नदी के उत्तर तट में भद्रसाल से लगाकर कच्छा सुकच्छा, महाकच्छा कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कत्ठा पुष्कलवती ये आठ देश है।
सीतानदी के दक्षिण तट में देवारण्यवेदी से इधर क्रम से वत्सा, सुवत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्या रमणीय मंगलावती ये आठ देश है।
सीतोदानदी के दक्षिण तट में भद्रसाल वेदी के आगे क्रम से पभा, सुपभा, महापभा, पभमकावती, शंखा, नलिनी, कुमुद सरति ये आठ देश है।
सीतोदा नदी के उत्तर तट में देवारण्य वेदी से लेकर क्रम से व्रपा, सुव्रपा, महाव्रपा , वप्रकावती, गंधा, सुगंधा गंधिला गंधमालिनी ये आठ देश है।
प्रश्न ३१४ – एक एक देश के ६ खंड खंड कैसे हो गये?
उत्तर- प्रत्येक देश में एक विजयार्ध और दो नदियों के निमित्त से छह छह खंड हो जाते है। इनमें एक आर्यखंड और पाँच म्लेच्छ खंड कहलाते है।
प्रश्न ३१५ – इन आर्यखण्डो में क्या है?
उत्तर- पूर्व कच्छादि देशो की मुख्य मुख्य राजधानी इन आर्यखण्डो में है। कच्छादि देश की राजधानियों के नाम, क्षेमा, क्षेत्रपुरी, अरिष्टा अरिपुरी है।
प्रश्न ३१६ – विदेह देश के ५ म्लेच्छखंडो में क्या है?
उत्तर- विदेह देश के ५ म्लेच्छ खंडो में से मध्य के म्लेच्छ खंड में एक एक वृषभाचक पर्वत है। अत: विदेह के ३२ वृषभाचल हो गये है। इन पर वहाँ के चक्रवर्ती अपनी अपनी प्रशस्तियाँ लिखते है। वहाँ विदेह की गंगा सिंधु और रक्ता रक्तादो को परिवार नदियाँ भी १४-१४ हजार है।
प्रश्न ३१७ – आर्यखण्ड की विशेषता बतलाओ?
उत्तर- कच्छादेश के अंतर्गत आर्यखंड में क्षेमा नामक नगरी है इस नगरी में चक्रवर्ती, तीर्थंकर बलदेव वासुदेव, प्रसिवासुदेव आदि महापुरूष उत्पभ होते रहते है। अष्टप्रतिहार्यो से सहित चक्रवर्तियों से नमस्कृत तीर्थंकर देव के समवशरण, सप्तऋद्धि सम्पन्न गणधर सतत ही भव्यजनों को मोक्ष का उपदेश देते रहते है। शरीर की अवगाहना पाँच सौ धनुष है। एवं वहाँ के मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु कोटि पूर्व प्रमाण है। विदेह क्षेत्र में तीन ही वर्ण होते है। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण है। परकचक्र की नीति, अतिवृष्टि, अनावृष्टि से रहित इन देशो में शिव ब्रह्मा विष्णु बुद्ध आदि के मन्दिर नहीं है।
प्रश्न ३१८ – यमकगिरि किसे कहते है वह कहाँ है और उनका प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- नीलपर्वत से मेरू की तरफ आगे हजार योजन जाकर सीता नदी के पूर्वतट पर ‘चित्र’ और पश्चिम तट पर ‘विचित्र’ नामक के दो पर्वत है। ऐसे ही निषध पर्वत से मेरू की तरफ आगे हजार जाकर सीतादो के पूर्व तट पर ‘यमक’ और पश्चिम तट पर ‘मेघ’ नामक दो पर्वत है। इन चारों को यमकगिरि कहते है।
ये चारों पर्वत गोल है। इन चित्र, विचित्र के मध्य में ५०० योजन का अंतराल है। उस अंतराल में सीतानदी है। ऐेसे ही यमक और मेघ पर्वत के मध्यभाग में ५०० योजन के अंतराल में सीतादो नदी है।
पर्वतो का प्रमाण- ये पर्वत १ हजार योजन ऊँचे मूल में १००० योजन विस्तृत और ऊपर में ५०० योजन विस्तृत है। इन पर्वतो पर अपने अपने पर्वत के नामवाले व्यन्तर देवो के भवन है।
प्रश्न ३१९ – सीता- सीतोदानदी के २० सरोवर किसप्रकार है?
उत्तर- ययकगिरि जहाँ पर है वहाँ से ५०० योजन जाकर सीता सीतोदो नदी में पाँच पाँच सरोवर है।अर्थात् देवकुरू उतरकुरू, भोगभूमि के दो क्षेत्र है और पूर्व पश्चिम भद्रसाल के दो क्षेत्र है उनमें ५-५ सरोवर है।
प्रश्न ३२० – २० सरोवर की लम्बाई व चौड़ाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- सरोवर नदी चौड़ाई प्रमाण चौड़े और १००० योजन लम्बे है। इनकी चौड़ाई ५०० योजन है। इन सरोवर की लम्बाई चौड़ाई नदी के प्रवाह में है।
प्रश्न ३२१ – इन सरोवर के मुख्यकमल तथा परिवार कमलो की संख्या व विस्तार का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- इन सरोवर में मुख्य कमल एक एक है वे एक एक योजन विस्तृत है। शेष परिवार कमल १़ ४०, ११५ है। सभी सरोवर में परिवार कमलों की इतनी ही संख्या है।
प्रश्न ३२२ – इन कमलों पर कौन निवास करती है?
उत्तर- इन कमलो पर नागकुमारी देवियाँ अपने अपने परिवार सहित सहित रहती है। विशेष – ये सरोवर नदी प्रवेश करने और निकलने के द्वार से सहित है। नदी प्रवाह के बीच में इन सरोवरों की तटवेदियाँ बनी हुई है।
इन सभी कमलों में जिनभवन हैं ये सब कमल पृश्वीकायिक है।
प्रश्न ३२३ – कांचनगिरि कहाँ पर और कितने है?
उत्तर- बीस सरोवर के तटों पर पंक्तिरूप से पाँच पाँच कांचनगिरि है। एक तट सम्बंधी २०*५ =१०० दूसरे तट सम्बंधी २०* ५= १०० ऐसे १०० +१०० २०० कांचनगिरि है।
प्रश्न ३२४ – कांचनगिरि पर्वतों की ऊँचाई मूल में व ऊपर विस्तार बतलाओ?
उत्तर- कांचनगिरि पर्वत १०० योजन ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत और ऊपर में ५० योजन विस्तृत है।
प्रश्न ३२५ – कांचनगिरि पर्वत पर कौन निवास करते है?
उत्तर- इन पर्वतो के ऊपर अपने अपने पर्वत के नाम वाले देवो के भवन है। इनमें रहने वाले देव तोते के वर्ण वाले है। देवो के भवन के द्वार सरोवरो के सम्मुख है अत: ये सरोवर अपने अपने सरोवर के सन्मुख कहलाते है।
विशेष- सरोवर से आगे २०९२-२\१६ योजन जाकर नदी के प्रवेश करने के द्वार से सहित दक्षिण भद्रसाल और उत्तरभद्रसाल की वेदिका है अर्थात् अन्तिम सरोवर और भद्रसाल की वेदी का इतना अंतराल है।
प्रश्न ३२६ – दिग्गज पर्वत कहाँ है?
उत्तर- देवकुरू – उत्तरकुरू, भोगभूमि में और पूर्व पश्चिम भद्रसाल में महानदी सीता- सीतोदो है। उनके दोनों तरफ पर दो- दो दिग्गजेन्द्र पर्वत है ये पर्वत आठ है।
प्रश्न ३२७ – दिग्गज पर्व की ऊँचाई, मूल में, ऊपर भाग का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- दिग्गज पर्वत १०० योजन ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत, और ऊपरभाग में ५० योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३२८ – दिग्गज पर्वतो के नाम, तथा उन पर्वतों पर कौन निवास करता है?
उत्तर- पूर्व भद्रसाल में पद्मोत्तर नील, देवकुरू में स्वस्तिक, अंजन, पश्चिम भद्रपाल में कुमुद, पलाश, उत्तरकुरू में अवतंस और रोचन ये नाम है। उन पर्वतो पर दिग्गजेन्द्र देव रहते है।
प्रश्न ३२९ – देवकुरू कहाँ है?
उत्तर- मंदरपर्वत के दक्षिण भाग में स्थित, भद्रसाल वनवेदी से दक्षिण में, निषध से उत्तर विद्युत प्रभ के पूर्व और सौमनस के पश्चिम भाग में सीतोदो के पूर्व-पश्चिम किनारों पर देवकुरू स्थित है।
प्रश्न ३३० – देवकुरू क्षेत्र की लम्बाई व विस्तार बतलाओ ?
उत्तर- मेरू की दक्षिण दिशा में भद्रसाल वेदी के पास उस क्षेत्र की लम्बाई ५३,००० योजन प्रमाण कही गई है। मेरू की दक्षिण दिशा में श्रीभद्रसाल वेदी के पास उस क्षेत्र की लम्बाई ८,४३४ योजन प्रमाण है। इस क्षेत्र का विस्तार उत्तर-दक्षिण में ११ ५९२ – २ \१७ योजन प्रमाण है। दोनों गजदन्तो के समीप में इसका विस्तार वक्र रूप से २५,९९१ योजन है।
प्रश्न ३३१ – देवकुरू की विशेष व्यवस्था बतलाओ ?
उत्तर- देवकुरू में शाश्वत रूप उत्तमभोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ की भूमिधूलि, कंटक हिम आदि से रहित है। यहाँ पर विकलत्रय जीव नहीं रहते है।यहाँ पर युगलरूप से उत्पन्न हुये स्त्रीपुरूष चौथे दिन बैर के प्रमाण आहार ग्रहण करते है। स्त्री-पुरूषों के शरीर की ऊँचाई तीन कोश तथा आयु ३ पल्य प्रमाण होती है। उत्तम संहनन से युक्त इन मनुष्यो के मल मूत्र नहीं होता है। वहाँ के भोगभूमियाँ मनुष्य अकाल मरण से रहित होते हुये आयु पर्यन्त उत्तम सुखों का उपभोग करते है। ये चक्रवर्ती की अपेक्षा, अनंतगुणे सुखों का अनुभव करते है।
प्रश्न ३३२ – उत्तम भोगभूमि कितने प्रकार के कल्पवृक्ष है उनका स्वरूप बतलाओ ?
उत्तर- उत्तमभोगभूमि में १० प्रकार के कल्पवृक्ष होते है। जो इच्छित फल को दिया करते है। पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग आलयांग, दीपांग, भाजनांग मालांग और ज्योतिरांग ऐसे कल्पवृक्षो के १० भेद है। ये कल्पवृक्ष यथा नाम वाले फलों को प्रदान करते है। पानांग वृक्ष ३२ प्रकार के पेय पदार्थो को प्रदान करते है। तूर्यांग- वीणा आदि वाद्यो को देते है। भूषणांक- कंकण हार आदि । वस्त्रांग- उत्तमवस्त्रो को , भोजनांग- अनेकप्रकार के भोज्यपदार्थो को आलयांग- दिव्यभवको दीपांग जलते हुये दीपको को, भाजनांग झारी आदि कलशो को देते है। मालांग वृक्ष पुष्पो की मालाओ को देते है। ज्योतिरांग वृक्ष करेड़ो सूर्यो से अधिक कामिन शालीवंद्र सूर्य की कांसि का संहरण करते है। ये कल्पवृक्ष पृथ्वीकायिक होते हुये भी जीवों के पुण्यकर्म के फल को देते है।
प्रश्न ३३३ – उत्तरकुरू कहाँ है ?
उत्तर- मंदरपर्वत के ऊपर उत्तरनील पर्वत के दक्षिण, माल्यवान, गजदंत के पश्चिम और गंधमानधन के पूर्व में सीता नदी के दोनो किनारो पर भोगभूमि इसप्रकार से विख्यात रमणीय उत्तरकुरूक्षेत्र नामक क्षेत्र है। इसका सम्पूर्ण वर्णन देवकुरू के वर्णन के समान है।
प्रश्न ३३४ – जम्बूवृक्ष कहाँ पर है ?
उत्तर-मेरूपर्वत के ईशानकोण में सीतानदी के पूर्वतट पर नीलपर्वत के पास में सुवर्णमय जम्बूवृक्ष का स्थल है।
प्रश्न ३३५ – जम्बूवृक्ष का विशेषवर्णन बतलाइये ?
उत्तर- जम्बूस्थल के ऊपर सब और आधा योजन ऊँची १ १६ योजन, विस्तृत रत्नों से व्याप्त एक वेदिक है। ५०० योजन विस्तार वाले और मध्य में ८ योजन तथा अन्त में दो कोस मौटाई से संयुक्त उस सुवर्णमय उत्तमस्थल के ऊपर मूल में मध्य में और ऊपर यथाक्रम से १२ योजन ८ योजन, ४ योजन, विस्तृत, तथा ८ योजन ऊँची जो पीठीका है उसकी १२ पभवेदिकाये हैं।
प्रश्न ३३६ – पीठीका के मध्यभाग में जम्बूवृक्ष है, उसकी ऊँचाई आदि का प्रमाण बतलाइये ?
उत्तर- इस पीठीका परू बहु मध्यभाग में जम्बूवृक्ष है। यह ८ योजन ऊँचा है इसकी वज्रमय जड़ दो कोस, गहरी है इस वृक्ष का दो कोस मोटा, दो योजनमात्र ऊँचा स्कन्ध है। इस वृक्ष की चारों दिशाओं में महाशाखाये है।
प्रश्न ३३७ – जम्बूवृक्ष की महाशाखायें में प्रत्येक शाखा की लम्बाई व अन्तर का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- इनमें से प्रत्येक शाखा ६ योजन लम्बी है। और इतने मात्र अन्तर से सहित है। इनके सिवाय क्षुद्रशाखाये अनेको है।
प्रश्न ३३८ – क्या जम्बूवृक्ष वनस्पतिकायिक है ?
उत्तर- जम्बूवृक्ष पृथ्वीकायिक है। जामुन के वुक्ष के समान इनमें गोल फल लटकते है अत: यह जम्बूवृक्ष कहलाता हैं।
प्रश्न ३३९ – जम्बूवृक्ष की ऊँचाई, चौड़ाई आदि बताओ ?
उत्तर- जम्बूवृक्ष १० योजन ऊँचा, मध्य में ६- १ १४ योजन चौड़ा और ऊपर ४ योजन चौड़ा है।
विशेष- सुमेरू के उत्तरभाग में उत्तरकुरू भोगभूमि है इसमें अर्थात् मेरू ईशानदिशा में स्थित जम्बूवृक्ष और उसकी १२ पभवेदिकायें है।
प्रश्न ३४० – शाखाओं पर जिनमन्दिर कहाँ है?
उत्तर- जम्बूवृक्ष की उत्तरदिशा सम्बंधी, नील कुलाचल की तरफ जो शाखा है उस शाखा पर जिनमन्दिर है। शेष तीन दिशाओं के शाखााओं पर आदर अनादर नामक व्यन्तर देवों के भवन है।
प्रश्न ३४१ – इस मुख्यवृक्ष के चारो तरफ क्या है?
उत्तर- इस मुख्यवृक्ष के चारों तरफ जो १२ पद्मवेदिकायें बताई है उनमें प्रत्येक में चार चार तोरण द्वार है। उनमें इस जम्बूद्वीप के परिवार वृक्ष है।
प्रश्न ३४२ – परिवारवृक्ष की कितनी संख्या है?
उत्तर- परिवार वृक्ष की संख्या १,४०,११९ है। इनमें चार देवांगनाओं के ४ वृक्ष अधिक है। अर्थात् पद्मद्रह के परिवार की संख्या १,४०,११५ है। यहाँ ४ देवांगनाये अधिक है। परिवार वृक्षो का प्रमाण मुख्यवृक्षों से आधा आधा है।
प्रश्न ३४३ – शाल्मलिवृक्ष कहाँ है?
उत्तर- सीतोदो नदी के पश्चिम तट में निषध कुलाचल के पास मेरूपर्वत नैऋत्यदिशा में देवकुरू क्षेत्र में रजतमयी स्थल पर शाल्पलिवृक्ष है। इसका सारा वर्णन जम्बूवृक्ष के समान है।
प्रश्न ३४४ – शाल्मलिवृक्ष पर जिनमन्दिर कहाँ है?
उत्तर- शाल्मलिवृक्ष की दक्षिण शाखा पर जिनमन्दिर हैै। शेष तीन शाखाओं पर वेणु वेणुधारी देवो के भवन है। इसके परिवार वृक्ष भी पूर्वोक्त प्रमाण है। विशेष- जितने जम्बूवृक्ष और शाल्मलिवृक्ष है, प्रत्येक की शाखाओं पर एक एक जिनमन्दिर होने से उतने ही जिनमन्दिर है।
प्रश्न ३४५ – रम्यक क्षेत्र का वर्णन कीजिये?
उत्तर- रम्यक क्षेत्र का सारा वर्णन हरिक्षेत्र के सदृश है। यहाँ पर नीलपर्वत के केसरी सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से नरकांता नदी निकली है और रूक्मि पर्वत के महापुंडरीक सरोवर से दक्षिण तोरण द्वार से नारी नदी निकली है। ये नदियाँ नारी- नरकांताकुंड में गिरती है। यहाँ के नाभिगिरि का नाम पद्ममवान है। यहाँ पर पद्मनाम का व्यन्तर देव निवास करता है।
प्रश्न ३४६ – हैरण्यवातक्षेत्र का वर्णन कीजिये?
उत्तर- इस हैरण्यवतक्षेत्र का वर्णन हैमवतक्षेत्र के समान है। यहाँ पर रूक्मिपर्वत के महापुण्डरीक सरोवर के उत्तर तोरणद्वार से रूप्यकूला नदी एवं शिखरीपर्वत के पुण्डरीक सरोवर से दक्षिण तोरणद्वार से सुवर्णकूलानदी निकलती है। यहाँ पर नाभिगिरि का गंधवान नाम है। उस पर प्रभास नाम का देव रहता है।
प्रश्न ३४७ – ऐरावतक्षेत्र का वर्णन कीजिये?
उत्तर- रक्ता रक्तोदानदी इस ऐरावतक्षेत्र का सारा वर्णन भरतक्षेत्र के समान है। इसमें बीच में विजयार्धपर्वत है। उस पर नवकूट है। सिद्धकूट, उत्तरार्ध ऐरावत, समिस्रगुह, माणिभद्र, विजयार्धकुमार, पूर्णभद्र, खंडप्रपात, दक्षिणार्थ, ऐरावत, और वैभवण। यहाँ पर शिखरी पर्वत से पुंडरिक सरोवर के पूर्व पश्चिम तोरणद्वार से रक्ता रक्तोदा नदियाँ निकलती है। जो कि विजयार्ध की गुफा से निकलकर पूर्व-पश्चिम् समुद्र में प्रवेश कर जाती है। अत: यहाँ पर भी छहखंड है। उसमें भी मध्य का आर्यखंड है। इसप्रकार संक्षेप्त से ७ क्षेत्रों का वर्णन हुआ।
प्रश्न ३४८ – जम्बूद्वीप के ३११ पर्वत कौन कौन से है?
उत्तर-इस जम्बूद्वीप में ३११ पर्वत है। जिनमें एक मेरू, ६ कुलाचल, चारगजदंत, १६ वक्षार, ३४ विजयार्ध, ३४ वृषभाचल चार नाभिगिरि, ४ यमकगिरि, आठ दिग्गजेन्द्र और २०० कांचनगिरि है- १+ ६+ ४+ १६+ ३४+ ३४+ ४+ ४+ ८+२००+ ३११
प्रश्न ३४९ – जम्बूद्वीप के ३११ पर्वत कहाँ है?
उत्तर- एक सुमेरूपर्वत विदेह के मध्य में हैं।
६ कुलाचल- सात क्षेत्रों की सीमा करते है।
४ गजदंत मेरू की विदिशा में।
१६ वक्षार विदेहक्षेत्र में हैं।
३४ विजयार्ध ३२ विदेह में, दो विजयार्ध, भरत और ऐरावत में एक एक है।
३४ वृषभाचल ३२ विदेह के ३२ भरत व ऐरावत में एक एक है।
४ नाभिगिरि- हैमवत हरि तथा रम्यक और हैरण्यवत में इनमें एक एक नाभिगिरि इसलिये ४ नाभिगिरि ।
४ यतकगिरि- सीता नदी के पूर्व पश्चिमतट पर एक एक ऐसे ४ यमक गिरि है।
८ दिग्ग-देवकुरू, उत्तरकुरू में दो-दो, तथा पूर्वपश्चिमभद्रशाल में दो दो ऐसे आठ दिग्गज पर्वत ।
२०० कांचनगिरि- सीता सीतोदा के बीच, बीस सरोवरों में प्रत्येक सरोवर के दोनों तटो पर पाँच पाँच होने से दो सौ कांचनगिरि है।
प्रश्न ३५० – जम्बूद्वीप के १८ चैत्यालय कौन कौन से है?
उत्तर- सुमेरू के ४ वन सम्बंधी १६, कुलाचल के ६, गजदंत के ४, वक्षार के १६, विजयार्ध के ३४ ७३ ऐसे जिनमन्दिरो में जम्बूशाल्मलि के वृक्ष के २ मन्दिर लेने से ७८ जिनमन्दिर होते है। ये सब जिनमन्दर अकृतिम है। शेष पर्वतो के ऊपर देवभवनों में भी जिनमन्दिर है वे व्यन्तर देवो के जिनमन्दिर कहलाते है। उक्त ७८ जिनमन्दिर में प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें विराजमान है। उनको मेरा मन वचन काय से नमस्कार होवे।
प्रश्न ३५१ – जंबूद्वीप की सम्पूर्ण नदियाँ कितनी है और कहाँ कहाँ है?
उत्तर- भरतक्षेत्र की गंगा-सिंधू २ इनकी महायकनदियाँ २८०००- (१४०००* ८२८०००) हेमवतक्षेत्र की, रोहित –रोहितास्या २ इनकी सहायक नदियाँ – ५६,००० हरिक्षेत्र की, हरित-हरितकान्ता २ इनकी सहायक नदियाँ – १,१२००० (५६०००) विदेहक्षेत्र की, सीतासीतादो २ इनकी सहायक नदियाँ – १,६८०००- (८४००० *२) विभंगानदी १२, इनकी सहायक नदीयाँ ३,३६००० (२८०००* १२) ३२ विदेहो देशो की गंगा- सिंधू और रक्ता- रक्तादो नाम की ६४ इनकी सहायक नदियाँ ८,९६,००० (१४००० ६४)
रम्यक क्षेत्र की नारी नरकांता २ इनकी सहायक नदियाँ १,१२००० हिरण्यक्षेत्र की – सुवर्णकूला, रूप्यकूला २ इनकी सहायक नदियाँ ५६००० है। ऐरावत क्षेत्र की – रक्ता रक्तोदा २ इनकी सहायक नदियाँ २८००० *१७,७२०९० ( ९६ लाख बानवेहजार नब्बे है)
प्रश्न ३५२ – ३४ कर्मभूमियाँ कौन सी है?
उत्तर- भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र की एक एक कर्मभूमि तथा ३२ विदेहो के आर्यखंड की ३२ कर्मभूमियाँ ऐसे ३४ कर्मभूमि है।
प्रश्न ३५३ – जम्बूद्वीप की भोगभमियाँ कहाँ है और भी उनकी विशेषता बतलाइये?
उत्तर- हैमवत और हैरण्यवत में जघन्य कर्मभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर मनुष्यो की शरीर की ऊँचाई एक कोस है, एक पल्य आयु है और युगल ही जन्म लेते है युगल ही मरते है १० प्रकार के कल्पवृक्ष से भोग सामग्री प्राप्त करते है। हरिवर्ष क्षेत्र में और रम्यक क्षेत्र में मध्यमभोगभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर दो कोस ऊँचे, दो पल्य आयु वाले मनुष्य होते है ये भी भोग सामग्री को कल्पवृक्षो से प्राप्त करते है।
देवकुरू उत्तरकुरू क्षेत्र में उत्तमभोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर तीन कोेस ऊँचे, तीनपल्य की आयु वाले मनुष्य होते है। ये छहों भोगभूमियाँ शाश्वत् है यहाँ पर परिवर्तन कभी नहीं होता है।
प्रश्न ३५४ – चौतीस आर्यखंड कहाँ है?
उत्तर- एक भरत में, एक ऐरावत में और ३२ विदेह देशों में बत्तीस ऐसे आर्यखंड ३४ है।
प्रश्न ३५५ – चौतीस आर्यखंड कहाँ है?
उत्तर- एक भरत में, एक ऐरावत में और ३२ विदेह देशों मे बत्तीस ऐसे आर्यखंड ३४ है।
प्रश्न ३५६ – एक सौ सत्तर म्लेच्छखंड कहाँ है?
उत्तर- भरत क्षेत्र के ५ ऐरावतक्षेत्र के ५, और बत्तीस विदेह के प्रत्येक ५ +५ +(३५ *५) =१७० म्लेच्छखंड है।
प्रश्न ३५७ – वेदी और वनखंड कहाँ है?
उत्तर- जम्बूद्वीप में ३११ पर्वत है। उनके आजु-बाजू या चारोतरफ मणिमयी वेदिया और वनखंड है।
प्रश्न३५८ – प्रमुख ९० कुं ड कौनसे है?
उत्तर- गंगादि १४ नदियाँ जहाँ गिरती है। वहाँ के १४ विभंगानदियों के १२ विदेह गंगादि रक्तादि ६४ नदियों की उत्पत्ति के ६४ ऐसे १४ १२ ६५ ९० कुंड है। उनके चारों तरफ उतनी ही वेदी और वनखंड है।
प्रश्न ३५९ – २६ सरोवर है कौनसे ?
उत्तर- कुलाचल के ६ सीता सीतोदा के २० २६। इनके चारों तरफ ही वनखंड है। जितनी नदियाँ है उनके दोनों पाश्र्वभागों में अर्थात् १७,९२०९० २ ३५,८४१८० मणिमयी वेदिका है। और उतने ही वनखंड है।
प्रश्न २६१- कहे गये कूटो में जनमन्दिर कौनसे कूट में है?
उत्तर- ६ कुलाचल में एक एक सिद्धकूट, ४ गजदंत के एक एक सिद्धकूट १६ वक्षार के एक एक सिद्धकूट, ३४ विजयार्ध के एक एक सिद्धकूट ६ ४ १६ ३४ ६० ऐसे ६० सिद्धकूटो पर जम्बूद्वीप के ७८ जिनमन्दिर मे से ६० जिनमन्दिर है। शेष सभी कूटो पर देवभवनो के जिनमन्दिर है। उनकी गणना व्यन्तर देवो के मन्दिर में होती है। इन्ही ६० जिनमन्दिरों में सुमेरू के १६, एवं जम्बूवृक्ष, शाल्मलीवृक्ष के २ मिलाने से ७८ जिनमन्दिर जम्बूद्वीप के होते है।
प्रश्न ३६० –जम्बूद्वीप के ७८ चैत्यालय कौन कौन से है?
उत्तर- सुमेरू के चारवन सम्बंधी १६ ६ कुलाचल के ६ चारगंजदंत के ४ १६ वक्षार के सोलह चौतीस विजयार्ध के ३४ जंबू-शाल्मलीवृक्ष के २ ७८ ये जम्बूद्वीप के ७८ चैत्यालय है। इनमें प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें विराजमान है।उनका मेरा मन वचन काय से मेरा नमस्कार होवे।
प्रश्न ३६१ – यह भरतक्षेत्र कितना योजन प्रमाण है?
उत्तर- यह भरतक्षेत्र जम्बूद्वीप के १९० वें भाग ५२६ ६\ १९ योजन प्रमाण है। इसके ६ खंड में पूम्लेच्छ खंड व १ आर्य खंड है।
प्रश्न ३६२ – आर्यखंड का क्षेत्रफल का प्रमाण कितने योजन व मिल प्रमाण है?
उत्तर- आर्यखंड का क्षेत्रफल ४ लाख ७६ हजार योजन प्रमाण है। इसके मिल बनाने से ४,७६०००* ४०००= १९०,४०,००,००० (२००० कोस का १ महायोजन और १ कोश में रमील इसलिये कुल ४००० हजार) एक सौ नब्बे करोड़ ४० लाख मील प्रमाण क्षेत्र हो जाता है।
प्रश्न ३६३ – इस आर्यखण्ड के मध्य में और चारों दिशाओं में क्या है?
उत्तर- इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है। उत्तर की तरफ ११९ योजन की दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या के पूर्व १००० योजन दूरी पर गंगानदी की तट वेदी हे। पश्चिम दिशा सिंधूनदी है अथात् आर्यखंड के दक्षिण दिशा में लवणसमुद्र, उत्तरदिशा में विजयार्ध, पूर्व दिशा में गंगानदी एवं पश्चिम में सिंधू नदी है। ये चारो आर्यखंड की सीमारूप है।
प्रश्न ३६४ – आर्यखंड की चारो दिशाओं में लवणसमुद्र आदि का प्रमाण कितना है?
उत्तर- अयोध्या के दक्षिण में ४,७६००० मील जाने पर लवणसमुद्र है और उत्तर में ४७६००० मील जाने पर विजयार्ध पर्वत है। उसीप्रकार अयोध्या के पूर्व में ४०,००००० ४०,००००० लाख मील दूर गंगानदी, और पश्चिम में इतनी ही दूर पर सिंधू नदी है।
आज का सारा विश्व इस आर्यखंड मे है। हम और आप इसी आर्यखंड में भारतवर्ष में रहते है।
प्रश्न ३६५ – लवणसमुद्र कहाँ है?
उत्तर- लवण समुद्र जंबूद्वीप के चारों और से घेरे हुये खाई के सदृश गोल है।
प्रश्न ३६६ – लवणसमुद्र का विस्तार बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र का विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३६७ – लवणसमुद्र का आकार बतलाइये?
उत्तर- एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव रचाने से जैसा आकार होता है। उसी प्रकार वह समुद्र चारों और आकाश में मण्डलाकार में स्थित है।
प्रश्न ३६८ – लवणसमुद्र का विस्तार ऊपर आदि कितना है?
उत्तर- लवणसमुद्र का विस्तार ऊपर १० हजार योजन और चित्रा पृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचानवें हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों और से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार १० हजार योजन मात्र है।
प्रश्न ३६९ – अमावस्या के दिन जलशिखा की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- समभूमि से आकाश में इसकी जलशिखा है वह अमावस्या के दिन समभूति से ११,००० योजन प्रमाण ऊँची रहती है।
प्रश्न ३७० – र्पूणिमा के दिन जलशिखा की ऊँचाई कितनी बढ़ जाती है?
उत्तर- अमावस्या के दिन उक्त जलशिखा की ऊँचाई ११,००० योजन होती है। र्पूणिमा के दिन उक्त जलशिखा की ऊँचाई उससे ५००० योजन बढ़ जाती है। अत: ५००० के १५ वें भाग प्रमाण क्रमश: प्रतिदिन ऊँचाई में वृद्धि होती है। १६०००- ११००० १५* ५००० १५= ३३३ १\३ योजन तीनसौ तेतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है।
प्रश्न ३७१ – प्रतियोजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊँचाई पर दोनो और समान रूप से १,९०,००० योजन की हानि हो गई है। यहाँ प्रति योजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११ ७८ योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३७२ – लवणसमुद्र का जल गहराई की अपेक्षा, क्या व्यवस्था है?
उत्तर- गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ७५ प्रदेश आगे जाकर एक प्रदेश की गहराई है। ऐसे ७५ अंगुल जाकर एक अंंगुल, ७५ हाथ जाकर एकहाथ, ७५ कोस जाकर एक कोस, एवं ७५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है। इसीप्रकार ७५ योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई है।
अर्थात् लवणसमुद्र के समजल भाग से समुद्र का जल एक योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ७५ योजन हानिरूप हुआ हैं। इसीक्रम से १ प्रदेश के नीचे जाकर प्रदेशों की, एक अंगुल नीचे जाकर ७५ अंगुलो की एक हाथ नीचे जाकर ७५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिये।
प्रश्न ३७३ – लवणसमुद्र के मध्यभाग में क्या है?
उत्तर- लवणसमुद्र के मध्य भाग में चारों और उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल है।
प्रश्न ३७४ – उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य पाताल, कितने है?
उत्तर- उत्कृष्ट पाताल ४, मध्यम, ४, और जघन्यपाताल १००८ है।
प्रश्न ३७५ – उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य पाताल कहाँ होते है?
उत्तर- उत्कृष्ट पाताल चारों दिशाओें में ४ है, ४ विदिशाओं में ४ पाताल के उपरिम त्रिभाग में सदा जल रहता है। एवं उत्कृष्ट और मध्य के बीच में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल है।
प्रश्न ३७६ – उत्कृष्ट चार पातालों के नाम बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र के मध्यभाग में पूर्वादि दिशाओं में क्रम से, पाताल कदम्बक, वड़वामुख और यूपकेसर नामक ४ पाताल है।
प्रश्न ३७७ – उत्कृष्ण पातालों की विस्तार गहराई, ऊँचाई, मध्य विस्तार आदि बतलाओ?
उत्तर- उत्कृष्ट पातालो का विस्तार मूल में और मुख में १००० योजन प्रमाण है। इनकी गहराई, ऊँचाई, और मध्यविस्तार, मूल विस्तार से दस गुणा (१००० *१० = १०००००) १ लाख योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३७८- पातालो भित्तिका का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- पातालो की वज्रमय भित्तिका ५०० योजन मोटी है।
प्रश्न ३७९ – ये पाताल जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कैसे कहे गये है?
उत्तर- ये पाताल जिनेन्द्र भगवान के द्वारा अरंजन-घट विशेष के समान कहे गये है।
प्रश्न ३८० – पातालों के उपरिम मूल आदि में क्या रहता है?
उत्तर- पातालों के मूल के त्रिभाग में घनी वायु, और मध्यत्रिभाग में क्रम से जल वायु दोनों रहते है।
प्रश्न ३८१ – पातालों की वायु के शुक्लपक्ष व कृष्णपक्ष में बढ़ने व घटने का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्लपक्षो में स्वभाव से बढ़ते है एवं कृष्णपक्ष में स्वभाव से घटते है।
प्रश्न ३८२ – पातालों में (शुक्लपक्ष) की र्पूणिमा तक कितने योजन प्रमाण पवन की वृद्धि होती है?
उत्तर- शुक्लपक्ष से र्पूणिमा तक प्रतिदिन २,२२२ २९ योजन पवन की वृद्धि होती है। र्पूणिमा के दिन पातालों के अपने अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागों में वायु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल रहता है।
प्रश्न ३८३ – अमावस्या के दिन में उक्त तीन भागों में जल व वायु क्या व्यवस्था है?
उत्तर- अमावस्या के दिन अपने अपने तीन भागों में से क्रमश: ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है।
प्रश्न ३८४ – पातालों के अंत में क्या विशेषता है?
उत्तर- पातालों के अंत में अपने अपने मुख विस्तार को ५ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकश मै, अपने अपने पार्श्वभागों मे जलकण जाते है।
प्रश्न ३८५ – पातालों में जलवृद्धि का कारण बतलाइये?
उत्तर- तत्वार्थराजवार्तिक ग्रंथ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियाँ का नृत्य बतलाया है। रत्नप्रभापृथ्वी की खरभाग मे रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीड़ा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है । अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है। और दोनो तरफ रत्नवेदिका पर्यन्त सर्वत्र दो गव्यति प्रमाण (१ कोस)जलवृद्धि होती है।
प्रश्न ३८६ – पाताल में जलहानि का कारण बतलाओ?
उत्तर- पाताल में उन्मीलन के वेग की शक्ति से जल की हानि होती है।
प्रश्न ३८७ – पातालों के तीसरा भाग कितने योजन प्रमाण है?
उत्तर- पातालों का तीसरा भाग १००००० *३ ३३३३३ १\३ योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३८८ – पातालो का आकार बतलाओ?
उत्तर- ज्येष्ठपाताल-सीमंत बिल के उपरिम भाग से संलग्न हैं अर्थात् ये पाताल भी मृदंग के आकार के गोल है। समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊँचाई है।
प्रश्न ३८९ – मध्यपाताल कहाँ है? इनका मुख, मूल विस्तार आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- विदिशाओं में भी इनके समान ४ पाताल है। उनका मुखविस्तार और मूलविस्तार १००० योजन तथा मध्य में और ऊँचाई गहराई में १०,००० योजन है।
इनकी वज्रमय भीत्ति का प्रमाण ५० योजन है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीयभाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल, वायु दोनों ही रहते है।पातालों की गहराई-ऊँचाई १०,००० योजन है। १०,०००\३ =३३३३ -१\३ पातालों का तृतीयभाग तीन हजार तीन सौ तेंतीस से कुछ अधिक है। इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानिवृद्धि का प्रमाण २२२ २७ योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३९० – जघन्यपाताल पाताल कहाँ है और कितने है?
उत्तर- उत्तम मध्यम जघन्य पातालों के मध्य में आङ्ग अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल है।
प्रश्न ३९१ – जघन्यपाताल का मुख, मूल, का विस्तारादि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- मध्यम पातालों की अपेक्षा १०वें भाग मात्र है। अर्थात् मुख और मूल में ये पाताल १०० योजन है। मध्य में चौड़े और गहरे १००० योजन प्रमाण है। इनमें उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु, और मध्य में जल वायु दोनो है इनका त्रिभाग ३३३ १\३ योजन है। और प्रतिदिन जल वायु की हानि २२२ २\७ योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३९२ – जघन्यपाताल कहाँ और कितने है?
उत्तर- उत्तम मध्यम पातालो के मध्य में आङ्ग अन्तर दिशाओं में १००० हजार जघन्य पाताल है।
प्रश्न ३९३ – नागकुमार देवो के नगर कहाँ कहाँ है बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र के बाह्यभाग में ७२००० शिखरपर २८००० और आथ्यन्तर भाग में ४२००० नगर अवस्थित है। समुद्र के अथ्यन्तर भाग की वेला की रक्षा करने वाले वेलंधर नागकुमार देवो के नगर ४२,००० है। जलशिखा को धारण करने वाले नागकुमार देवो के २८,००० नगर हैं एवं समुद्र के बाह्यभाग की रक्षाकरने वाले नागकुमार देवो के ७२,००० नगर है। (७२०००+ २८०००+ ४२००० =१,४२०००)
प्रश्न ३९४ – ये नगर कहाँ स्थित है तथा विस्तार आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- ये नगर लवणसमुद्र के दोनों तरो से ७०० योजन जाकर तथा शिखर से ७००-१\२ योजन जाकर आकाशतल में स्थित है। इनका विस्तार १०,००० योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३९५ –नगरियों के तट आदि का विशेष वर्णन बतलाओ?
उत्तर- नगरों के तट उतमरत्नो से निर्मित समान गोल है। प्रत्येक नगरियों में ध्वजाओं से और तोरणों से सहित दिव्यतट वेदियाँ है। उन नगरियों में उतमवैभव सहित वेलंधर भुंजग देवो के प्रासाद स्थित है। जिनमन्दिरों से रमणीय, वापी, उपवनो से सहित इन नगरियों का वर्णन बहुत ही सुन्दर है। ये नगरियाँ अनादि निधन है।
प्रश्न ३९६ – उत्कृष्ट पाताल के आस पास क्या है?
उत्तर- उत्कृष्ट पाताल के आस पास ८ पर्वत है। समुद्र के दोनो किनारो में बयालीस हजार योजन प्रमाण प्रवेश करके पातालो के पार्श्वभागों में आठ पर्वत है।
प्रश्न ३९७ – ये पर्वत के नाम ऊँचाई व आकारादि बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र क तट से ४२,००० योजन आगे समुद्र में जाकर ‘पाताल’ के पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्वदिशा में कौस्तुभास नाम के दो पर्वत है। ये दोनों पर्वत रजतमय, धवल १००० योजन ऊँचे, अर्धघट के समान आकार वाले वज्रमय, मूल भाग से सहित, नानारत्नमय अग्रभाग से सुशोभित है
प्रश्न ३९८ – प्रत्येक पर्वत तिरघा विस्तार आदि बतलाओ?
उत्तर- प्रत्येक पर्वत का तिरघा विस्तार १ लाख १६ हजार योजन है। इस प्रकार जगती (कोट) से पर्वतो तक तथा पर्वतो का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है।
प्रश्न ३९९ –उक्त लाख योजन कैसे होता है?
उत्तर-पर्वत का विस्तार १ लाख १६ हजार है। जगती से पर्वत का अंतराल ४२००० +४२०००+ ८४०००-११६०००+ ८४००० २ लाख ।
प्रश्न ४०० – पर्वत की और क्या विशेषतायें है बतलाइये?
उत्तर- ये पर्वत मध्य में रजतमय है इनके ऊपर इन्हीं के नामवाले कौस्तुभ और कौस्तुभास देव रहते है। इनकी आयु अवगाहनादि विजयदेव के समान है। कदम्ब पाताल की उत्तरदिशा में उदकनाम का पर्वत और दक्षिण दिशा उदकाभास नामकपर्वत है ये दोनो पर्वत है ये दोनो पर्वत नीलमणी जैसे वर्ण वाले है। इन पर्वतो के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव निवास करते है। इनकी आयु आदि कौस्तुभ देव के समान है।
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