चौथी ढाल
प्रश्न १ – इस चतुर्थ ढाल के प्रारंभ में पं. दौलतराम जी क्या उपदेश दे रहे हैं ?
उत्तर – पं. दौलतराम जी का कहना है कि भव्य प्राणियों! सम्यग्दर्शन को धारण करने के पश्चात् सम्यग्ज्ञान को धारण करो।
प्रश्न २ – सम्यग्ज्ञान को सूर्य की उपमा क्यों दी गई है ?
उत्तर – जिस प्रकार सूर्य के उदित होते ही धरती का अंधकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार समीचीन ज्ञान का प्रकाश होते ही समस्त अज्ञानरूपी अंधकार पलायमान हो जाता है।
प्रश्न ३ – सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में क्या अन्तर है ?
उत्तर – सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन के साथ होते हुए भी उससे भिन्न है अर्थात् सम्यग्दर्शन का अर्थ है श्रद्धान करना तथा सम्यग्ज्ञान का अर्थ है जानना। अथवा सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है, यह भी दोनों में अन्तर है।
प्रश्न ४ – इस बात को उदाहरण के माध्यम से समझाइए ?
उत्तर – जिस प्रकार दीपक का जलना और प्रकाश का होना दोनों एक साथ होते हैं फिर भी दीपक अलग है-प्रकाश अलग है। इसमें दीपक का जलना कारण है और प्रकाश का होना कार्य है।
प्रश्न ५ – सम्यग्ज्ञान के भेद व लक्षण बताओ ?
उत्तर – उस सम्यग्ज्ञान के दो भेद हैं-परोक्ष और प्रत्यक्ष। इनमें से मति-श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं क्योंकि ये इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं। प्रत्यक्षज्ञान के देशप्रत्यक्ष और सकलप्रत्यक्ष दो भेद हैं। अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान ये दोनों देशप्रत्यक्ष हैं क्योंकि जीव इनसे द्रव्य और क्षेत्र की मर्यादा लिए हुए स्पष्ट जानता है।
प्रश्न ६ – सकलप्रत्यक्ष का लक्षण बताते हुए ज्ञान की महिमा का प्रतिपादन कीजिए ?
उत्तर – जिनके द्वारा केवली भगवान छहों द्रव्यों के अनन्त गुणों को और उनकी अपरिमित पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानते हैं वह सकलप्रत्यक्ष या केवलज्ञान है। इस संसार में सम्यग्ज्ञान के समान और कोई दूसरा सुख का कारण नहीं है। यह सम्यग्ज्ञान ही जन्म-जरा और मृत्युरूपी रोगों को दूर करने के लिए परम अमृत के समान है।
प्रश्न ७ – ज्ञानी और अज्ञानी की कर्म निर्जरा में क्या अन्तर है ?
उत्तर – अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यग्ज्ञान-भेद विज्ञान के बिना अनेक भवों तक तप तपने से जितने कर्म नष्ट होते हैं, उतने कर्म सम्यग्ज्ञानी मुनि के तीन गुप्ति-मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को रोकने से क्षण भर में आसानी से नष्ट हो जाते हैं। यहाँ यह समझना है कि कोई अभव्यमिथ्यादृष्टि जीव मुनियों के महाव्रतों को धारण कर अनेक बार नव ग्रैवेयक तक उत्पन्न हुआ किन्तु वह मिथ्यात्व के कारण अपनी आत्मा का ज्ञान न होने से आत्मसुख-मोक्षसुख प्राप्त नहीं कर सका।
प्रश्न ८ – उत्तम कुल एवं जिनवाणी की दुर्लभता का वर्णन कीजिए ?
उत्तर – यह मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल और जिनवाणी का सुनना यह सब छूट जाने पर उनका उसी प्रकार पुन: मिलना कठिन है, जिस प्रकार कि समुद्र में चिन्तामणि रत्न गिर जाने पर उसे खोज पाना कठिन है।
प्रश्न ९ – ज्ञान की महिमा और उसका कारण बताते हुए भेदविज्ञान के बारे में भी बताइए ?
उत्तर – रुपया, पैसा, कुटुम्बी, हाथी, घोड़े और राज्य तो अपने काम में नहीं आते किन्तु सम्यग्ज्ञान आत्मा का स्वरूप है क्योंकि उसके होने पर जीव अचल हो जाता है, उस सम्यग्ज्ञान का कारण आत्मा और परवस्तुओं का भेदविज्ञान कहा गया है अत: हे भव्यों! करोड़ों उपायों को करके उस भेदविज्ञान को हृदय में धारण करो।
प्रश्न १० – सम्यग्ज्ञान की और क्या महिमा है ?
उत्तर – पहले जो जीव मोक्ष को जा चुके हैं, अभी जा रहे हैं और आगे जावेंगे, गणधर देव ने यह सब सम्यग्ज्ञान-आत्मज्ञान की महिमा ही बताया है।
प्रश्न ११ – विषयचाह को रोकने का क्या उपाय है ?
उत्तर – पाँचों इन्द्रियों के विषयों की चाहरूपी भयंकर अग्नि संसारी जीवरूपी वन को जला रही है, उसकी शांति का उपाय कोई दूसरा नहीं है केवल भेदविज्ञानरूपी मेघों का समूह ही उसे शांत करता है।
प्रश्न १२ – पुण्य और पाप में हर्ष-विषाद क्यों नहीं करना चाहिए ?
उत्तर – हे भाई! पुण्य के फल में हर्ष एवं पाप के फलों में विषाद मत करो क्योंकि यह पुण्य तथा पाप पुद्गल की पर्याएँ हैं, उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती हैं फिर पैदा हो जाती हैं। अपने हृदय में लाख बातों का सार यही ग्रहण करो कि संसार के सभी विकल्पों को हटाकर हमेशा अपनी आत्मा का ध्यान करो।
प्रश्न १३ – सम्यक्चारित्र के कितने भेद हैं ?
उत्तर – सम्यक्चारित्र के दो भेद हैं-देशचारित्र और सकलचारित्र।
प्रश्न १४ – अहिंसा एवं सत्य अणुव्रत का लक्षण क्या है ?
उत्तर – त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करके अनावश्यक स्थावर जीवों का घात नहीं करना अहिंसाणुव्रत कहलाता है तथा दूसरे के लिए दु:खदायक कठोर और निन्दायोग्य वचन नहीं बोलना सत्याणुव्रत कहलाता है।
प्रश्न १५ – अचौर्याणुव्रत का स्वरूप बताइए ?
उत्तर – जल और मिट्टी के सिवाय और कोई चीज बिना दिए हुए नहीं लेना अचौर्याणुव्रत कहलाता है।
प्रश्न १६ – ब्रह्मचर्य अणुव्रत एवं परिग्रहपरिमाण अणुव्रत की परिभाषा क्या है?
उत्तर – अपनी स्त्री के सिवाय सब स्त्रियों से विरक्त रहना तथा स्त्रियों के लिए अपने पति के सिवाय सब पुरुषों से विरक्त रहना ब्रह्मचर्याणुव्रत है तथा अपनी शक्ति का ध्यान रखकर थोड़ा परिग्रह रखना अर्थात् परिग्रह की सीमा कर लेना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है।
प्रश्न १७ – दिग्व्रत किसे कहते हैं ?
उत्तर – दशों दिशाओं में आवागमन की मर्यादा करके उसकी सीमा का उल्लंघन नहीं करना दिग्व्रत नामक गुणव्रत है।
प्रश्न १८ – दश दिशाएँ कौन सी हैं ?
उत्तर – १. पूर्व २. आग्नेय ३. दक्षिण ४. नैऋत्य ५. पश्चिम ६. वायव्य ७. उत्तर ८. ईशान ९. ऊध्र्व १०. अध:।
प्रश्न १९ – देशव्रत और अनर्थदण्ड विरतिव्रत का स्वरूप बताइए ?
उत्तर – गाँव, गली, मकान, बगीचा और बाजार आदि तक आवागमन की सीमा करके और सबका त्याग कर देना देशव्रत नाम का गुणव्रत है तथा दिग्व्रत की मर्यादा के भीतर प्रयोजनरहित पापपूर्ण मन-वचन-काय के व्यापाररूप योगों से निवृत्त होना अनर्थदण्डविरतिव्रत है।
प्रश्न २० – अनर्थदण्डविरतिव्रत के कितने भेद हैं ?
उत्तर – पाँच भेद हैं-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और दु:श्रुति।
प्रश्न २१ – अपध्यान और पापोपदेश अनर्थदण्डविरतिव्रत का स्वरूप बताइए ?
उत्तर – किसी के धन के नाश का, किसी की जीत और पराजय का विचार नहीं करना अपध्यान अनर्थदण्डविरतिव्रत है और व्यापार तथा खेती से पाप होता है अत: ऐसा उपदेश नहीं देना पापोपदेश अनर्थदण्डविरतिव्रत है।प्रश्न २२ – प्रमादचर्या अनर्थदण्डविरतिव्रत का क्या स्वरूप है ?
उत्तर – शिथिलाचार से पंचस्थावर-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पतिकायिक जीवों का घात नहीं करना प्रमादचर्या अनर्थदण्डविरतिव्रत कहलाता है।
प्रश्न २३ – हिंसादान और दु:श्रुति अनर्थदण्डविरतिव्रतों का लक्षण बताइए ?
उत्तर – तलवार, धनुष, हल आदि हिंसा के उपकरणों का नहीं देना हिंसादान अनर्थदण्डविरतिव्रत है तथा राग और द्वेष को करने वाली कथाओं को नहीं सुनना दु:श्रुति अनर्थदण्डविरतिव्रत है।
प्रश्न २४ – शिक्षाव्रत किसे कहते हैं ?
उत्तर – जिन व्रतों के पालन करने से मुनिधर्म के पालन करने की शिक्षा मिलती है, उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं।
प्रश्न २५ – शिक्षाव्रत के कितने भेद हैं ?
उत्तर – चार भेद हैं-१. सामायिक २. प्रोषधोपवास ३. भोगोपभोगपरिमाण और ४. अतिथिसंविभाग।
प्रश्न २६ – चारों शिक्षाव्रतों का स्वरूप क्रम-क्रम से बताइए ?
उत्तर – सामायिक शिक्षाव्रत-मन में निर्विकल्पता, समताभाव को धारण करके प्रतिदिन सामायिक करना सामायिक शिक्षाव्रत है। प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत-चारों पर्वों में (प्रत्येक महीने की २ अष्टमी-२ चतुर्दशी) पाप के कार्यों को छोड़कर प्रोषधोपवास करना प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहलाता है। भोगोपभोगपरिमाणशिक्षाव्रत-भोगरूप और उपभोगरूप वस्तुओं की सीमा करके शेष सभी वस्तुओं से मोह को हटाना भोगोपभोगपरिमाणशिक्षाव्रत है। अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत-दिगम्बर जैन मुनि-आर्यिका आदि सुपात्रों को आहार देकर पुन: स्वयं भोजन करना अतिथिसंविभाग नामक शिक्षाव्रत कहा जाता है।
प्रश्न २७ – चतुर्थ ढाल के समापन में पं. दौलतराम जी का क्या कथन है ?
उत्तर – वे कहते हैं कि जो गृहस्थ श्रावक १२ व्रतों के पाँच-पाँच अतिचारों को नहीं लगाता है और मृत्यु के समय संन्यास धारण करके उसके दोषों को दूर करता है वह इस प्रकार श्रावक के व्रतों का पालन कर सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है और वहाँ से च्युत होकर मनुष्यपर्याय प्राप्त कर मुनि होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न २८ – बारह व्रतों के अतिचार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – पाँच अणुव्रत के पाँच-पाँच अतिचार, तीन गुणव्रत के पाँच-पाँच अतिचार और चार शिक्षाव्रत के पाँच-पाँच अतिचार ये बारह व्रतों के ६० अतिचार होते हैं।
प्रश्न २९ – अतिचार किसे कहते हैं ?
उत्तर – व्रतों के एकदेश भंग होने को-व्रतों में दोष लगने को अतिचार कहते हैं।
प्रश्न ३० – अहिंसाणुव्रत के अतिचार कौन-कौन से हैं ?
उत्तर – अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार हैं-१. बंध २. वध ३. छेद ४. अतिभा-रारोपण ५. अन्नपान निरोध। १. किसी को अपने इष्ट स्थान में जाने से रोकने के लिए रस्सी आदि से बांधना बंध अतिचार है। २. लाठी, तलवार, चाबुक आदि से प्राणियों को मारना वध है। ३. नाक, कान आदि अवयवों को छेदना छेद है। ४. शक्ति से अधिक भार लादना अतिभारारोपण है। ५. समय पर खाना-पीना नहीं देना अन्नपान निरोध नामक अतिचार है।
प्रश्न ३१ – सत्याणुव्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं-१. मिथ्योपदेश २. रहोभ्याख्यान ३.कूटलेख क्रिया ४. न्यासापहार ५. साकार मंत्र-भेद १. झूठा और अहितकर उपदेश देना मिथ्योपदेश है। २. स्त्री और पुरुष द्वारा एकान्त में की गई क्रिया को प्रकट कर देना रहोभ्याख्यान है। ३. किसी का दबाव पड़ने से या स्वयं की इच्छा से दूसरे के लिए ऐसी झूठी बात लिख देना जिससे दूसरा फस जाये, वह कूटलेख क्रिया है। ४. कोई आदमी अपने पास कुछ धरोहर रख जाए और भूल से कम मांगे तो उसको उसकी भूल न बताकर जितनी वह मांगे, उतनी ही देना न्यासापहार है। (किसी की धरोहर का अपहरण करना न्यासापहार है।) ५. चर्चा-वार्ता से अथवा मुख की आकृति से दूसरे के मन की बात को जानकर लोगों के सामने इसलिए प्र्रकट कर देना कि उसकी बदनामी हो, वह साकार मंत्र भेद है।
प्रश्न ३२ – अचौर्याणुव्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं-१. स्तेन प्रयोग २. तदाहृतादान ३. विरुद्ध-राज्यातिक्रम ४. हीनाधिक मानोन्मान ५. प्रतिरूपक व्यवहार। १. चोर को चोरी के लिए प्रेरणा करना और उसके उपाय बताना स्तेन प्रयोग है। २. चोर के द्वारा चुराई हुई वस्तु को खरीदना तदाहृतादान है। ३. राजनियम के विरुद्ध चोर बाजारी वगैरह करना विरुद्ध राज्यातिक्रम है। ४. आदान-प्रदान में बाँट-तराजू-मीटर-लीटर आदि को कमती- बढ़ती रखना हीनाधिक मानोन्मान है। ५. बहुमूल्य वस्तु में अल्पमूल्य की वस्तु मिलाकर असली भाव से बेचना प्रतिरूपक व्यवहार है।
प्रश्न ३३ – ब्रह्मचर्याणुव्रत के कितने अतिचार हैं ?
उत्तर – ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं- १. परविवाहकरण २. अपरिगृहीत इत्वरिका गमन ३. परिगृहीत इत्वरिका गमन ४. अनंग क्रीड़ा ५. कामतीव्राभिनिवेश १. अपने संरक्षण से रहित दूसरे के पुत्र-पुत्रियों का विवाह करना-कराना परविवाहकरण है। २. पतिरहित वेश्या आदि व्यभिचारिणी स्त्रियों के पास आना-जाना, लेन-देन आदि का व्यवहार रखना अपरिगृहीत इत्वरिका गमन है। ३. पति सहित व्यभिचारिणी स्त्रियों के पास आना-जाना, लेन-देन रखना रागभावपूर्वक बातचीत करना परिगृहीत इत्वरिका गमन है। ४. कामसेवन के लिए निश्चित अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से कामसेवन करना अनंग क्रीड़ा है। ५. कामसेवन की अत्यन्त अभिलाषा रखना कामतीव्राभिनिवेश है।
प्रश्न ३४ – परिग्रह परिमाणाणुव्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – परिग्रह परिमाणाणुव्रत के पाँच अतिचार हैं- १. क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम २. हिरण्य-सुवर्ण प्रमाणातिक्रम ३. धन-धान्य प्रमाणातिक्रम ४. दासी-दास प्रमाणातिक्रम ५. कुप्य भांड प्रमाणातिक्रम १. खेत तथा रहने के मकानों के प्रमाण का उल्लंघन करना क्षेत्रवास्तु प्रमाणातिक्रम है। २. चाँदी तथा सोने के प्रमाण का उल्लंघन करना हिरण्य-सुवर्ण प्रमाणातिक्रम है। ३. गाय-भैंस आदि पशु तथा गेहूँ-चना आदि अनाज के प्रमाण का उल्लंघन करना धनधान्य प्रमाणातिक्रम है। ४. नौकर-नौकरानियों के प्रमाण का उल्लंघन करना दासी-दास प्रमाणातिक्रम है। ५. वस्त्र तथा बर्तन आदि के प्रमाण का उल्लंघन करना कुप्य-भांड प्रमाणातिक्रम है।
प्रश्न ३५ – दिग्व्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – दिग्व्रत के पाँच अतिचार हैं- १. ऊध्र्वव्यतिक्रम २. अधोव्यतिक्रम ३. तिर्यग्व्यतिक्रम ४. क्षेत्रवृद्धि ५. स्मृत्यन्तराधान १. प्रमाण से अधिक ऊँचाई वाले पर्वतादि पर चढ़ना ऊध्र्वव्यतिक्रम है। २. प्रमाण से अधिक नीचाई वाले कुएँ आदि में उतरना अधोव्यतिक्रम है। ३. समान स्थान में प्रमाण से अधिक लम्बे जाना तिर्यग्व्यतिक्रम है। ४. प्रमाण किए हुए क्षेत्र को बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है। ५. किए हुए प्रमाण को भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है।
प्रश्न ३६ – देशव्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – देशव्रत के पाँच अतिचार हैं- १. आनयन २. प्रेष्यप्रयोग ३. शब्दानुपात ४. रूपानुपात ५. पुद्गलक्षेप। १. मर्यादा से बाहर की वस्तु मंगाना आनयन है। २. मर्यादा से बाहर नौकर आदि को भेजना प्रेष्यप्रयोग है। ३. सीमा से बाहर वाले मनुष्यों को खाँसी आदि शब्द द्वारा अपना अभिप्राय समझा देना शब्दानुपात है। ४. मर्यादा से बाहर रहने वाले मनुष्यों को अपना रूप दिखाकर अर्थात् नेत्र आदि का इशारा करके अपना अभिप्राय समझा देना रूपानुपात है। ५. मर्यादा से बाहर वंकर, पत्थर आदि फैककर अपना अभिप्राय समझा देना पुद्गलक्षेप है।
प्रश्न ३७ – अनर्थदण्डविरतिव्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – अनर्थदण्डविरतिव्रत के पाँच अतिचार हैं-१. कन्दर्प २. कौत्कुच्य ३. मौखर्य ४. असमीक्ष्याधिकरण ५. उपभोग परिभोगानर्थक्य १. राग से हास्य सहित अशिष्ट वचन बोलना कन्दर्प है। २. शरीर से कुचेष्टा करते हुए अशिष्ट वचन बोलना कौत्कुच्य है। ३. धृष्टतापूर्वक आवश्यकता से अधिक बोलना मौखर्य है। ४. बिना प्रयोजन मन-वचन-काय की अधिक प्रवृत्ति करना असमीक्ष्याधिकरण है। ५. भोग-उपभोग के पदार्थों का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना उपभोग-परिभोगानर्थक्य है।
प्रश्न ३८ – सामायिक शिक्षाव्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – सामायिक शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार हैं- १. मनोयोग दुष्प्रणिधान २. वचनयोग दुष्प्रणिधान ३. काययोग दुष्प्रणिधान ४. अनादर ५. स्मृत्यनुपस्थान १. मन की अन्यथा प्रवृत्ति करना मनोयोग दुष्प्रणिधान है। २. वचन की अन्यथा प्रवृत्ति करना वचनयोग दुष्प्रणिधान है। ३. शरीर की अन्यथा प्रवृत्ति करना काययोग दुष्प्रणिधान है। ४. उत्साह रहित होकर सामायिक करना अनादर है। ५. एकाग्रता के अभाव में सामायिक पाठ आदि का भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है।
प्रश्न ३९ – प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार हैं- १. अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग २. अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान ३. अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण ४. अनादर ५. स्मृत्यनुपस्थान १. बिना देखी-बिना शोधी हुई जमीन में मलमूत्र आदि का क्षेपण करना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग है। २. बिना देखे, बिना शोधे हुए पूजन आदि के उपकरण उठाना अप्रत्यवेक्षिता-प्रमार्जितादान है। ३. बिना देखे, बिना शोधे हुए वस्त्र, चटाई आदि को बिछाना अप्रत्यवेक्षिता-संस्तरोपक्रमण है। ४. भूख से व्याकुल होकर आवश्यक धर्म कार्यों को उत्साहरहित होकर करना अनादर है। ५. करने योग्य आवश्यक कार्यों को भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है।
प्रश्न ४० – भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – भोगोपभोग परिमाण व्रत के पाँच अतिचार हैं- १. सचित्ताहार २. सचित्तसंबंधाहार ३. सचित्तसन्मिश्राहार ४. अभिषवाहार ५. दुष्पक्वाहार १. सचेतन हरे फल- आदि का भक्षण करना सचित्ताहार है। २. सचित्त पदार्थ से संबंध को प्राप्त हुई वस्तु का आहार करना सचित्त-संबंधाहार है। ३. सचित्त पदार्थ से मिले हुए पदार्थ का आहार करना सचित्तसन्मिश्राहार है। ४. गरिष्ठ पदार्थ का आहार करना अभिषवाहार है। ५. कम पके व अधिक पके हुए पदार्थ का आहार करना दुष्पक्वाहार है।
प्रश्न ४१ – अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर – अतिथि संविभाग व्रत के पाँच अतिचार हैं-१.सचित्तनिक्षेप २. सचित्तापिधान ३. परव्यपदेश ४. मात्सर्य ५. कालातिक्रम १. सचित्त पत्ते आदि में भोजन को रखकर आहार में देना सचित्तनिक्षेप है। २. सचित्त पत्ते आदि से ढके हुए भोजन आदि का दान करना सचित्तापिधान है। ३. दूसरे दाता की वस्तु को दान में देना परव्यपदेश है। ४. अनादरपूर्वक दान देना अथवा दूसरे दातार से ईष्र्या करके देना मात्सर्य है। ५. योग्यकाल का उल्लंघन कर अकाल में मुनियों को आहार देना कालातिक्रम है।
प्रश्न ४२ – बारह व्रतों का पालन करने वाला श्रावक मरकर कहाँ उत्पन्न होता है ?
उत्तर – जो श्रावक के बारह व्रतों का निरतिचार पालन करता है, वह सोलहवें स्वर्ग तक में जाकर उत्पन्न होता है।
प्रश्न ४३ – बारह व्रतों का पालन करने का और क्या फल है ?
उत्तर – बारह व्रतों का पालन करके सोलह स्वर्गपर्यन्त जाने वाला भव्यात्मा देवपर्याय का काल पूर्ण करके मनुष्य भव में उत्पन्न होता है, वहाँ दिगम्बर मुनि बनकर समस्त कर्मों का नाश करके मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है अत: अणुव्रत पालन करने का फल परम्परा से मोक्ष बताया है।


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