(तीनलोक के जिनमंदिर पुस्तक से – गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित )
(प्रश्नोत्तर लेखिका- आ़. सुदृष्टिमती माताजी)
प्रश्न २०१- श्रीदेवी के भवन की लम्बाई चौड़ाई एवं ऊँचाई बतलाओ?
उत्तर- श्री देवी का भवन १ कोश लम्बा, आधा कोश चौड़ा और पौन कोस ऊँचा है। इसमें श्रीदेवी निवास करती है। इसकी आयु एक पल्यप्रमाण है।
प्रश्न २०२ – श्रीदेवी के परिवार कमलों की संख्या बतलाओ?
उत्तर- श्रीदेवी के परिवार कमल (१,४०,११५) १ लाख ४० हजार एक से पन्द्रह इन कमलों का विस्तार आदि मुख्यकमल से आधा है इनमें रहने परिवार देवो भवनो का प्रमाण भी श्री देवी के प्रमाण से आधा है।
प्रश्न २०३- महापभ सरोवर किस पर्वत पर है, तथा चौड़ाई लम्बाई गहराई बतलाइये?
उत्तर- यह सरोवर महाहिमवान पर्वत पर है यह १००० हजार योजन चौड़ा, २००० योजन लम्बा, और २० योजन गहरा है।
प्रश्न २०४- कमलपत्र का विस्तार कितना है?
उत्तर- महापभसरोवर के मध्य जो कमल है वह दो योजन विस्तृत है।
प्रश्न २०५- कमल की कर्णिका पर कौनसी देवी निवास करती है?
उत्तर- कमल की कर्णिका दो कोस की है और इसमें ह्री देवी का भवन है। वह दो कोश लम्बा, डेढ़ कोश ऊँचा, और १ कोश चौड़ा है।
प्रश्न २०६- ह्री देवी के परिवार कमल संख्यादि बतलाओ?
उत्तर- ह्री देवी के परिवार कमल २,८०,२३० है। इन परिवार कमलों का एवं इनके भवनो का प्रमाण मुख्य कमल से आधा आधा है। इसके मुख्य कमल ह्री देवी का निवास है इस की आयु भी एक पल्यप्रमाण है।
प्रश्न २०७ – सिगिंध सरोवर कहा है उसकी लम्बाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- तिगिंध सरोवर निषधपर्वत के मध्य में है। यह २००० योजन चौड़ा, ४००० योजन लम्बा, ४० योजन गहरा है। इस सरोवर में मुख्य कमल है वह ४ योजन विस्तृत है। इसकी कर्णिका ४ कोश की है उसमें घृति देवी का भवन चारकोश लम्बा, २ कोश चौड़ा और ३ कोश ऊँचा है।
प्रश्न २०८ – श्रीदेवी के परिवार कमल की संख्या आदि प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- श्रीदेवी के परिवार कमल ५,६०,४६० है। इन कमलों का प्रमाण तथा इनके भवनो का विस्तार आदि मुख्य कमल से आधा आधा है। इसके मुख्य कमल में धृति देवी रहती है। इनकी आयु भी एक पल्य की है।
प्रश्न २०९- पभसरोवर का क्षेत्रफल कितना है?
उत्तर- पभसरोवर ५०० योजन चौड़ा १००० योजन गहरा ५ लाख योजन क्षेत्रफल है।
प्रश्न २१० – केशरी सरोवर पर कौनसी देवी निवास करती है?
उत्तर-इस सरोवर का सारा वर्णन सिगिंछ सरोवर के समान हैं अन्तर इतना ही है यहाँ बुद्धि नाम की देवी निवास करती है।
प्रश्न २११ – पुंडरीक सरोवर का वर्णन किसके समान है वहाँ निवास करने वाली देवी एवं परिवार कमल की संख्या बतलाओ?
उत्तर- इस सरोवर का सारा वर्णन महापभ के समान है। अन्तर इतना ही है कि इसके कमल पर कीर्ति देवी निवास करती है।
प्रश्न २१२ – महापुंडरीक सरोवर का वर्णन किसके समान है वहाँ निवास करने वाली देवी का नाम बतलाओ?
उत्तर- इस सरोवर का सारा वर्णन पभसरोवर के समान है अन्तर इतना ही है कि यहाँ लक्ष्मी नाम की देवी निवास करती है।
विशेष- सरोवर के चारों और वेदिका से वेष्टित वनखण्ड है वे आधा योजन चौड़े है ।सरोवर के कमल पृथ्वीकायिक है वनस्पतिकायिक नहीं है इनमें बहुत ही उत्तम सुगंधि आती है।
जिनमन्दिर इन सरोवर में जिसने कमल कहे गये है वे महाकमल है इनके अतिरिक्त क्षुद्रकमलों की संख्या बहुत है इन सब कमलों के भवनों में एक एक जिनमन्दिर है। इसलिये जितने कमल है उतने ही जिनमन्दिर है। उन सब जिनमन्दिरों को मरा नमस्कार है।
प्रश्न २१३ – भरतवर्ष का भरतक्षेत्र क्यो है?
उत्तर- भरतक्षत्रिय के योग से इसे भरत क्षेत्र कहते है। अयोध्या नगरी में सर्व राजलक्षणो से सम्पन्न भरान नाम चक्रवर्ती हुआ है। इस अवसर्पिणी के राज्य विभाग काल में उसने ही इस क्षेत्र का उपभोग किया । इसलिये उसके अनुशासन के कारण इस क्षेत्र का नाम भरतक्षेत्र पड़ा है।
प्रश्न २१४ – विजयार्ध पर्वत कहाँ है? उसकी लम्बाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- इस भरतक्षेत्र के बिल्कुल मध्यभाग में रजतमय नानाप्रकार के उत्तम रत्नों से रमणीय, विजयार्ध नाम का उन्नत पर्वत स्थित है। इस पर्वत की ऊँचाई २५ योजन, मूलविस्तार ५० योजन एवं नीवं ६- १४ योजन है।
प्रश्न २१५ – विजयार्धपर्वत के दक्षिण तरफ क्या है?
उत्तर- इस पर्वत के दक्षिण उत्तर दोनो तरफ पृथ्वीतल से १० योजन, ऊपर जाकर १० योजन विस्तीर्ण उत्तमश्रेणी है उनमें से दक्षिण श्रेणी में ५० और उत्तम श्रेणी में ६० ऐसे विद्याधरों की ११० नगरियाँ है। उसके ऊपर दोनो तरफ १० योजन जाकर १० योजन विस्तीर्ण श्रेणियाँ है इनमें आभियोग्य जाति के देवो के नगर है। इन आभियोग्य पुरो से पाँच योजन ऊपर जाकर १० योजन विसपीर्ण विजयार्ध पर्वत का उत्तम शिखर है।
प्रश्न २१६ – विजयार्ध पर्वत की समभूमि भाग में क्या है?
उत्तर- समभूमि भाग में सुवर्ण मण्यिों से निर्मित दिव्य नौ कूट है। उन कूटो में पूर्व की और सिद्धकूट, भरतकूट, खंडप्रपात , विजयार्ध, कुमार, पूर्णभद्र, भरतकूट और वैश्रवण और तिमिश्रगुहकूट ऐसे नौ कूट है। ६ योजन योजन ऊँचे, मूल में इतने ही चौड़े और ऊपर भाग में कुछ अधिक तीन योजन चौड़े है ।
प्रश्न २१७ – विजयार्ध पर्वत ९ के कूट में जिनभवन कहाँ है?
उत्तर- सिद्धकूट में जिनभवन एवं शेषकूटो के भवनो में देव देवियो के निवास है।
प्रश्न २१८ – विजयार्ध पर्वत पर कितनी गुफाये है?
उत्तर- इस पर्वत पर दो महागुफायें है इस विजयार्धपर्वत में ८ योजन मोटी, ५० योजन लम्बी और १२ योजन विस्तृत दो गुफायें है। इन गुफाओं के दिव्य युगल कपाट ८०० योजन ऊँचे, ६०० योजन विस्तीर्ण है।
प्रश्न २१९ – विजयार्ध नाम की सार्थकता बतलाइये?
उत्तर- गंगा सिन्धु नदियाँ इन गुफाओं से निकलकर बाहर आकर लवणसमुद्र में प्रवेश करती है। इन गुफाओं के दरवाजे को चक्रवर्ती अपने दंड रत्न से खोलते है। और गुफा के भीतर काकीणी रत्न ये प्रकाश करके सेना सहित उत्तर म्लेच्छो में जाते है चक्रवर्ती की विजयक्षेत्र की अद्र्धसीमा इस पर्वत से मिर्धारित होती है। अत: इसका नाम विजयार्ध सार्थक है। गुण से यह रतसाचल है अर्थात् चाँदी से निमित्त शुभ्रवर्ण है। ऐसी ही ऐरावत क्षेत्र में विजयार्धपर्वत है।
प्रश्न २२० – चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ती कहाँ लिखते है?
उत्तर- विजयार्ध से उत्तर में और क्षुद्र हिमवान पर्वत से दक्षिण दिशा में गंगा सिंधू नदियों तथा म्लेच्छ खंडो के मध्य में १०० योजन ऊँचा, ५० योजन लम्बा, जिनमन्दिरों से युक्त, स्वर्ण व रत्नो से निर्मित एक वृषभगिरि नामका पर्वत है। इस पर्वत पर चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ती लिखते है।
प्रश्न २२१ – विजयार्ध व म्लेच्छखंडो में कौन सा काल रहता है?
उत्तर- भरतक्षेत्र के म्लेच्छखंड में और विजयार्ध पर्वत पर चातुर्थ काल के आदि और अंत के सदृश काल रहता है।
प्रश्न २२२ – विजयार्ध पर उत्पभ मानव क्या कहलाते है? उनकी आजीविका क्या है?
उत्तर- विजयार्ध पर्वत निवासी मानव यद्यपि भरतक्षेत्र के मानवों के समान षट्कर्मों से ही आजीविका करते है। परन्तु प्रज्ञप्ति आदि विधाओं के धारण करने के कारण विद्याधर कहे जाते है।
प्रश्न २२३ – भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में काल परिवर्तन आदि की विशेषता बतलाइये?
उत्तर- भरत क्षेत्र के ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंडो में सुषमासुषमा काल से लेकर षटकाल परिवर्तन होता रहता है। प्रथम द्वितीय तृतीय काल की व्यवस्था में २४ तीर्थंकर १२ चक्रवर्ती नौ बलभद्र नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण ऐसे ६३ श्लाका के पुरूष जन्म लेते है। इस बार यहाँ हुंंडवसर्पिणी के दोष से ९ नारद और नौ रूद्र ज्ञी उत्पभ हुये है। पुन: पंचमकाल, छठाकाल आता है।स यहाँ अभी पंचमकाल चल रहा है। इसमें धर्म का हास होते होते छठे काल में धर्म नहीं रहता है। प्राय: मनुष्य पाशविक वृत्ति के बन जाते है।
प्रश्न २२४ – म्लेच्छखंडो में, विद्याधर की दोनो श्रेणियों में काल परिवर्तन की क्या व्यवस्था है?
उत्तर- विद्याधर की दोनों श्रेणियों की ११० नगरियों में ५ म्लेच्छखंडो में चतुर्थ काल की आदि से लेकर अंत तक काल का परिवर्तन होता है।
प्रश्न २२५ – हैमवत और हरि क्षेत्र के ये नाम किस कारण से है?
उत्तर- हिमवान् क्षेत्र के समीप होने से हैमवत क्षेत्र कहलाता है। यह हिमवान् , महाहिमवान् के तथ्ज्ञा पूर्वापर समुद्रो के मध्य में है यह जघन्य भोगभूमि है।
हरित वर्ण के मनुष्य के योग से हरिक्षेत्र कहलाता है। हरि का अर्थसिंह है। सिंह का परिणाम शुक्ल है। सिंह के समान शुक्ल परिणाम वाले जीव जहाँ रहते है वह हरिक्षेत्र है यह मध्यम भोगभूमि है।
प्रश्न २२६ – विदेह क्षेत्र नाम की सार्थकता बताओ?
उत्तर- विदेह में रहने वाले मानव मुनिवर निरत्स्नर विदेह अर्थात् कर्मबंध का उच्छेद करने के लिये व देह रहित होने का निरन्तर प्रयास करते है और विदेहत्व, अशरीरत्व सिद्धत्व को प्राप्त कर लेते है। अत:विदेह मनुष्यों के सम्बंधो से क्षेत्र का नाम भी विदेह प़ड़ गया है। और भी वहाँ जिनधर्म के विनाश का अभाव होने से औस सदा धर्म का प्रवर्तन होने से प्राय: करके मनुष्य शरीर रहित होकर सिद्ध होते है इसलिये भी यह क्षेत्र विदेह कहलाता है।
प्रश्न २२७ – हैरण्यवत क्षेत्र की हैरण्यवत संज्ञा क्यो है?
उत्तर- हिरण्यवाले (सुवर्ण वाले) रूक्मि पर्वत के समीप होने से इसका नाम हैरण्यवत क्षेत्र पड़ा है। यहाँ जघन्य भोगभूमि है।
प्रश्न २२८ – रम्यक क्षेत्र की रम्यक संज्ञा क्यो है?
उत्तर- रमणीय देश नदी वन और पर्वत आदि से युक्त होने के कारण इसे रम्यक क्षेत्र कहते है। यह मध्यम भोगभूमि है।
प्रश्न २२९ – उत्तम भोगभूमि कहाँ है?
उत्तर- पूर्वविदेह के उत्तर दिगवर्ती गजदन्तो के बीच में उत्तरकुरू नाम का उत्तमभोगभूमि है इस उत्तरकुरू में ही जम्बूवृक्ष है। पश्चिम विदेह में दक्षिण दिग्वर्ती गजदंतो के बीच देवकुरू नामक उत्तम भोगभूमि है। देवकुरू के मध्य में एक शाल्मलि वृक्ष है।
प्रश्न २३० – कर्म भूमि कितनी होती है?
उत्तर- पंचमेरू सम्बंधी ५ भरत ५ ऐरावत और पाँच विदेह ये १५ कर्मभूमियाँ है।
प्रश्न २३१ – भोगभूमियाँ कितनी है?
उत्तर- पाँच देवकुरू, पाँचआरकुरू में ये १० उत्तम भोगभूमि पाँच रम्यक, पाँचहरि क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि और पाँच हैमवत् पाँच हैरण्य में जघन्य भोगभूमि है। इसलिए कुल भोगभूमियाँ ३० है।
प्रश्न २३२ – विजयार्धपर्वत पर रहने वाले विद्याधर की विशेषता बतलाइये?
उत्तर- विद्याधरों के श्रेष्ठ ११० नगर अनादि निधन, स्वभाव सिद्ध अनेक प्रकार के रत्नमय तथा गोपुर, प्रजाद और तोरणादि से सहित है।इन नगरों में उद्यान वनो से संयुक्त पुषकरिणी कूप एवं वायिकाओं से सहित और फहराती ध्वजा, पताकाओं से सुशोभित रत्नमय प्रसाद है।इन पुरो से रमणीय उत्तम रत्न और सुवर्णमय नानाप्रकार के जिन मन्दिर स्थान स्थान पर शोभायमान है।
इन नगरों में रहने वाले उत्तम विद्याधर मनुष्य कामदेव के समान बहुतप्रकार के विद्याओं से संयुक्त हमेशा ही ६ कर्मो से सहित होते है। विद्याधर की स्त्रियां के सदृश दिव्य लावण्य से रमणीय और बहोत प्रकार की विद्याओं से संयुक्त है।
प्रश्न २३३- चौतिस कर्मभूमि बताओ?
उत्तर- भरतक्षेत्र व ऐरावत क्षेत्र की एक एक कर्मभूमि तथा ३२ विदेहो के आर्यखंड की ३२ कर्मभूमि ऐसे ३४ कर्मभूमि है। भरत और ऐरावत में षट्काल परिवर्तन होने से ये दो अशाश्वत कर्मभूमि है। एवं विदेहो में सदा ही कर्मभूमि की व्यवस्था होने से वे शाश्वत कर्मभूमि है।
प्रश्न २३४ – भोगभूमियाँ जीव क्या कहलाते है?
उत्तर- वहाँ के पुरूष-स्त्री को आर्या और स्त्रीपुरूष को आर्य कहकर बलाती है। अत: वे जीव आर्य कहलाते है।
प्रश्न २३५ – वे जीव किनचीजो का भोग करते है?
उत्तर- वे सब युगल १० कोस ऊँचे १० प्रकार के कल्पवृक्ष से उत्यभ भोगों को भोगते है।
प्रश्न २३६ – कल्पवृक्ष कितने और कौन कौन से है?
उत्तर- कल्पवृक्ष १० हैं (१) मद्यांग, (२) वादित्रांग (३) भूषणांक (४) माल्यांग (५) ज्योतिरांग (६) दीपांग (७) गृहांग (८) भोजनांग (९) वस्त्रांग ।
प्रश्न २३७ – ढाईद्वीप में अयोध्यानगरी कितनी है? अयोध्या के अन्यनाम कौन से है?
उत्तर- ढाईद्वीप में १७० अयोध्या नगरियाँ है। अयोध्या के साकेत, विनीता नाम भी है।
प्रश्न २३८ – सभी तीर्थंकरो के जन्म व मोक्षस्थान का नियम क्या है?
उत्तर- तीर्थंकरो का जन्म अयोध्या में और मोक्ष सम्मेदशिखर से होने का नियम है। अत: ढाईद्वीप में १७० अयोध्या तथा १७० सम्मेदशिखर है।
प्रश्न २३९ – जिन नदियों के द्वारा क्षेत्रों के विभाग होते है उन नदियों के नाम कौन से है? वे कहा बहती है?
उत्तर- गंगा, सिंधू, रोहित-रोहितास्या, हरित हरिकान्ता, सीता सीतादो नारी-नरकांता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता रक्तादो, ये १४ नदियाँ भरतादि ७ क्षेत्रो में बहती है। भरत में- गंगा सिन्धू हैमवत- रोहित रोहिताम्या, हरि में, हरित, हरिकांता, विदेह में सीता सातादो, रम्यक में नारी, नरकान्ता, हैरण्यवत में सुवर्ण कूला, रूप्यकूला और ऐरावत में रक्ता-रक्तादो नदियाँ बहती है।
प्रश्न २४० – नदियों के बहने का क्रम क्या है?
उत्तर- दो दो नदियों में से पहली पहली नदी पूर्व समुद्र को जाती है बाकी बची हुई सात नदियाँ पश्चिचम समुद्र की और जाती है।
प्रश्न २४१ – पूर्व समुद्र की और कौन कौन सी नदियाँ जाती है?
उत्तर- गंगो, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता ये सात नदिया पूर्व समुद्र में जाती है।
प्रश्न २४२ – पश्चिम समुद्र की और कौन कौन सी नदियाँ जाती है?
उत्तर- शेष सिन्धू, रोहितास्या, हरिकांता, सीतादो नारीकांता रूपयकूला और रक्तादो ये सात नदियाँ पश्चिम समुद्र को जाती है।
प्रश्न २४३ – महानदियों की सहायक नदियाँ कितनी है?
उत्तर- गंगासिंधु आदि के युगल १४ हजार सहायक नदियाँ से घिरे हुये है।
प्रश्न २४४ – सहायक नदियों का क्रम कैसा है?
उत्तर- सहायक नदियों का क्रम भी विदेह क्षेत्र तक आगे आगे के युगलो में पूर्व के युगलों से दूना दूना है। भरत हैमवत हरि इन तीन क्षेत्रो में दक्षिण तीन क्षेत्रो के समान है।
प्रश्न २४५ – उत्तर भरत के मध्य के खंड में क्या है?
उत्तर- उत्तर भरत के मध्य के खंड में एक पर्वत है। जिसका नाम वृषभ है। यह पर्वत १०० योजन ऊँचा, २५ योजन नींव से युक्त, मूल में १०० योजन मध्य में ७५ योजन और उपरिम भाग ५० योजन विस्तार वाला है, गोल है। इस भवन के ऊपर ‘ऋषभ’ नाम से प्रसिद्ध व्यन्तर देव का भवन है। उसमें जिनमन्दिर है। इस पर्वत के नीचे तथा शिखर पर वेदिका और वनखंड है। चक्रवर्ती ६ खंड को जीतकर गर्व से युक्त होता हुआ इस पर्वत पर जाकर प्रशस्ति लिखता है उस समय इसे सब तरफ से प्रशस्ततियों से भरा हुआ देखकर सोचता है कि मुझ समान अनंत चक्रवर्तियों ने य वसुधा भोगी है अत: अभिमान रहित होता हुआ दण्डरत्न ये एक प्रशस्ति को मिटाकर अपना नाम पर्वत पर अंकित करता है।
प्रश्न २४६ – भरतक्षेत्र के विस्तार कितना है?
उत्तर- भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६ ६ १९ योजन है।
प्रश्न २४७ – आगे आगे क्षेत्र पर्वतो का विस्तार कितना है?
उत्तर- विदेह क्षेत्र तक पर्वत और क्षेत्रो का विस्तार दूना दूना है।
प्रश्न २४८ – दूना दूना विस्तार कितना है?
उत्तर- पर्वत और क्षेत्र का।
प्रश्न २४९ – क्या सभी पर्वतो व क्षेत्रो का विस्तार दूना दूना है?
उत्तर- नहीं। मात्र विदेह क्षेत्र पर्यन्त विस्तार दूना दूना है।
प्रश्न२५० – सभी कमलो पर क्या है?
उत्तर- सभी कमलो में जिनभवन है ये सब कमल पृथ्वीकायिक है।
प्रश्न२५१ – नाभिगिरि पर्वत कहाँ है?
उत्तर- हैमवत क्षेत्र बिल्कुल बीचो बीच में एक हजार योजन ऊँचा १००० योजन का विस्तार वाला सदृशगोल शब्दवान नामक नाभिगिरि स्थित है।
प्रश्न २५२ – नाभिगिरि पर्वत की ऊँचाई, मूल में इसका विस्तार बतलाओ?
उत्तर- नाभिगिरि पर्वत की १००० योजन ऊँचा, १००० योजन मूल में और ऊपर विस्तृत हे। इसका नाम श्रद्धावान है यह पर्वत है श्वेत वर्ण का ।
प्रश्न २५३ – इस पर्वत पर और क्या है?
उत्तर- इस पर्वत पर स्वाति नामक शालिनामक व्यन्तर देव का भवन जिनमन्दिर से सनाथ है। इस व्यन्तर देव की आयु १ पल्य प्रमाण है।
प्रश्न २५४ – नाभिगिरि की विशेषता बतलाइये?
उत्तर- कोई आचार्य नाभिगिरि को मध्य और ऊपर से घटता हुआ न मानकर सर्वत्र १००० योजन की मानते है।
प्रश्न २५५ – विदेह क्षेत्र कहाँ है इसका विस्तार बतलाओ?
उत्तर- निषध पर्वत के बाद इस पर्वत से दूने विस्तार वाला विदेह क्षेत्र है। ३३,६८४ योजन है।
प्रश्न २५६ – विदेह क्षेत्र के बीचोबीच सुमेरूपर्वत है उसके पर्याय नाम बतलाओ?
उत्तर- विदेह क्षेत्र के बीचोबीच जो सुमेरूपर्वत है इसके सुदर्शनमेरू मन्दरपर्वत आदि अनेको नाम है।
प्रश्न २५७ – सुमेरूपर्वत के कारण विदेह क्षेत्र कितने भागों में बट गया?
उत्तर- सुमेरूपर्वत के निमित्त से विदेह क्षेत्र के दो भे दहो गये है। पूर्वविदेह और पश्चिम विदेह। पुन: सीतानदी सी तोदो के विदेहक्षेत्र के बीचोबीच में दोना कुरूक्षेत्रो के समीप में निमित्त से पूर्वविदेह के भी दक्षिण उत्तर के भेद से दो भेद हो गये है और पश्चिम विदेह के भी सीतोदा के निमित्त से दो भेद है।
प्रश्न २५८ – सुमेरू पर्वत कहा है?
उत्तर- विदेह क्षेत्र के बीचो बीच सुमेरू पर्वत है।
प्रश्न २५९ – सुमेरू पर्वत की ऊँचाई, नींव, विस्तारादि बतलाइये?
उत्तर- सुमेरूपर्वत की ऊँचाई, पृथ्वीतल से ९९ हजार योजन ऊँचा हे। इसकी नींव पृथ्वी के नीचे १००० योजन गहरी है। इसकी चूलिका १०० योजन है।
प्रश्न २६० – सुमेरू पर्वत का भद्रसल वन के पास का विस्तार बतलाओ?
उत्तर- सुमेरूपर्वत का भद्रसाल वन के पास का विस्तार १०,००० योजन है।
प्रश्न २६१ – भद्रसाल वन से नंदनवन तक की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- भद्रसाल से नंदनवन की ऊँचाई ५०० योजन अर्थात् मेरू के ऊपर ५०० योजन जाकर नंदनवन है। इसका विस्तार ५०० योजन प्रमाण है यह नंदनवन मेरूपर्वत के चारों और भीतर भाग में अवस्थित है।
प्रश्न २६२ – नंदनवन से सौमनस वन कितनी ऊँचाई पर है प्रमाण बतलाओं?
उत्तर- नंदनवन से ६२,५०० योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है इसका विस्तार चारों तरफ ५०० योजन है।
प्रश्न २६३ – सौमनस वन से कितनी ऊँचाई पर जाकर पांडुकवन है?
उत्तर- सौमनस वन से ३६,००० योजन ऊपर जाकर पांडुकवन है। इस पांडुकवन का विस्तार ४९४ योजन है।
प्रश्न २६४ – पाण्डुक वन के बीचोबीच में क्या है?
उत्तर- पाण्डुक वन के ठीक बीच में सुमेरू की चूलिका है।
प्रश्न २६५ – चूलिका का मूल में विस्तार, मध्य में और अग्रभाग में इसका प्रमाण बतलाओं?
उत्तर- चूलिका का मूल में विस्तार १२ योजन, मध्य में ८ योजन और अग्रभाग में ४ योजन मात्र है। यह ४० योजन ऊँची हैं।
प्रश्न २६६ – मेरूपर्वत का वर्ण बतलाइये?
उत्तर- यह पर्वत मूल में (नींव में) १००० योजन पर्यन्त वज्रमय है।पृथ्वीतल से लेकर ६१,००० योजन तक उत्तम रत्नमय है। नीलवर्णमयवैडूर्य मणिमय है। १०००+ ६१०००+ ३८०००, ४०००० १ लाख ४० हजार योजन।
प्रश्न २६७ – मेरूपर्वत की क्रम हानि रूप होता हुआ, ऊपर तक का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- यह मेरूपर्वत क्रम से हानि रूप होता हुआ पृथ्वी से ५०० योजन ऊपर उस स्थान युगपत ५०० योजन प्रमाण संकुचित हो गया है इस ५०० योजन की कटनी को ही नंदनवन कहते है।
इसके ऊपर ११ योजन तक समान विस्तार है।अर्थात् ५०० योजन के बाद अंदर में ५०० योजन की कटनी हो जाने से ११ योजन हानि का क्रम यहाँ ११,००० योजन तक नही रहा है। पुन: वही घटने का क्रम ५१,५०० योजन तक होता गया है। इस ५१,५०० योजन प्रमाण ऊपर जाने पर पुन: यह पर्वत सब और ये युगपत् ५०० योजन संकुचित हो गया है। इस कटनी का नाम सौमनस वन है।
पुनरपि इसके आगे ११,००० योजन ऊपर तक सर्वत्र विस्तार है फिर क्रम से हानि रूप होकर २५,००० योजन जाने पर वह पर्वत युगपत ४९४ योजन प्रमाण संकुचित हो गया है इस प्रकार समस्त पर्वतो का स्वामी और उत्तम देवो के आलय स्वरूप इस अनादि निधन मेरूपर्वत की ऊँचाई १ लाख ४० योजन प्रमाण है।
नींव नंदनवन समविस्तार सौमनसवन समविस्तार पांडुकवन १०००+ ५००+ ११,०००+ ५१५००+ ११०००+ २५०००= १००००० (१लाख योजन) योजन एवं इसकी चूलिका ४० योजन की है। पांडुक वन में १२ योजन व विस्तृत है क्रम से घटते हुये अग्रभाग में ४ योजन रह गई है।
प्रश्न २६८ – चूलिका का वर्णन बतलाइये?
उत्तर- इस मेरूपर्वत की चूलिका की ऊँचाई का प्रमाण ४० योजन, नीचे पांडुकवन में चौड़ाई १२ योजन, मध्य में आङ्ग योजन एवं शिखर क अग्रभाग में ४ योजन मात्र है।
प्रश्न २६९ – एक योजन कितने कोश का होता है?
उत्तर- एक योजन २००० कोश का होता है। यह महायोजन का प्रमाण है।
प्रश्न २७० – एक कोश में मिल का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- एक कोश में २ मील होते है। चूलिका के अग्रभाग का प्रमाण ४ योजन २०००= ८००० कोश ८००० *२ मील = १६००० हजार मील हुआ।
प्रश्न २७१ – मेरूपर्वत की परिधिया कितनी किसप्रकार की है बतलाओ?
उत्तर- मेरूपर्वत ६ परिधियाँ मे से प्रथमपरिधि, हरितालमयी, दूसरी वैडूर्यमणि, तीसरी सर्वरत्नमयी, चौथी वज्रमयी, पाँचवी पॉचवर्ण और छठी लोहित वर्ण है। मेरू के ये जो परिधि भेद है वे भूमि से होते है।
प्रश्न २७२ – प्रत्येक परिधि का विस्तार कितना है बतलाइये ?
उत्तर- प्रत्येक परिधि का विस्तार १६,५०० योजन है। साँतवी परिधि वृक्षो से की गई है।
प्रश्न २७३ – सांतवी परिधि के कितने भेद और कौन कौन से है?
उत्तर- सांतवी परिधि के ११ भेद है। भद्रसालवन, मानुषोत्तरवन, देवरमण, नागरमण, भूतरमण ये पॉचवनं भद्रसाल वन में है। नंदनवेन उपनंदनवन ये दो वन नंदनवन है। सौमनस वन और उपसौमनसवन ये दो वन सौमनसवन मे है। पांडुकवन, उपपांडुकवन ये दो वन पांडुक वन में है। ये सब बाह्मभाग से है।
प्रश्न २७४ – मेरूपर्वत के शिखर का विस्तार कितना है?
उत्तर- शिखर का विस्तार एक योजन और उसकी परिधि ३,१६२ योजन से कुछ अधिक है। यहाँ पांडुक वन की कटनी ४९४ योजन है अत: बीच में बचे १२ योजन जो कि चूलिका की चौड़ाई है।
प्रश्न २७५ – भद्रसाल वन कहाँ है?
उत्तर- भद्रसाल वन सुमेरूपर्वत के चारो तरफ पृथ्वीपर है।
प्रश्न २७६ – भद्रसाल वन की चौड़ाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- भद्रसाल वन पूर्व पश्चिम में २२००० योजन तथा दक्षिण और उत्तर में २५० योजन चौड़ा है।
प्रश्न २७७ – भद्रसाल वन की चारो दिशाओं मे क्या है?
उत्तर- भद्रसाल वन की चारो दिशाओं में ४ चैत्यालय है।
प्रश्न २७८ – भद्रसाल वन के चैत्यालय की लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- ये चैत्यालय १००योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और ७५ योजन ऊँचे है।
प्रश्न २७९ – एक चैत्यालय में प्रतिमाओं का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- एक एक चैत्यालय में १०८-१० प्रतिमायें है जो बहोत ही सुन्दर है।
प्रश्न २८० – भद्रशाल वन के बाह्य व अभ्यन्तर भाग में क्या है?
उत्तर- भद्रशाल वन के बाह्य-अभ्यन्तर दोनो पार्श्वभाग में वेदिका है जो एक योजन ऊँची और अर्धयोजन चौड़ी है।
प्रश्न २८१ – नंदनवन का विस्तार कितना है?
उत्तर- नंदनवन सर्वत्र ५०० योजन विस्तृत है।
प्रश्न २८२ – नंदनवन की चारों दिशाओं में क्या है?
उत्तर- नंदनवन की चारो दिशाओं में भद्रशाल वन के चैत्यालय सदृश चार चैत्यालय है।
प्रश्न २८३ – नंदनवन की ईशान दिशाओं में कितने कूट है उनके नाम आदि बतलाओ?
उत्तर- नंदनवन में ईशान विदिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है। यह १०० योजन ऊँचा, १०० योजन, १०० योजन चौड़ा और ऊपर में ५० योजन विस्तृत है। नंदनवन में मंदर, निषध, हिमवान् , रजत, रूचक, सागर और वङ्का ये आठ कूट है।
ये कूट सुवर्णमियी, ५०० योजन ऊँचे, ५०० योजन मूल में विस्तृत और २५० योजन ऊपर में विस्तृत है। बलभद्र कूट में बलभद्र नाम का देव और इन कूटों में दिक्कुमारी देवियां रहती है।
प्रश्न २८४ – सौमनस वन विस्तार आदि कितना है?
उत्तर- पांडुक वन के नीचे ३६ हजार योजन जाकर सौमनस नामक वन मेरू को वेष्टित करके स्थित है। यह सौमनस वन ५०० योजन विस्तृत सुवर्णमय वेदिकाओं से वेष्टित चार गोपुरों से युक्त और क्षुद्र द्वारा से रमणीय है।
प्रश्न २८५ – सौमनस वन के जिनमन्दिर का वर्णन बतलाओं?
उत्तर- सौमनस वन की चारों ही दिशाओं में ४ जिनभवन स्थित है जिनका सारा वर्णन पूर्व में कहे गये जिनभवनों के सहश ही है अन्तर केवल इतना ही है कि ये भवन पांडुक वन के जिनभवनो के विस्तार ऊँचाई लम्बाई आदि प्रमाण से दूने प्रमाण वाले है।
प्रश्न २८६ – प्रत्येक जिनमन्दिर (सौमनस वन के) सम्बंधी कोटो के बाहर पार्श्वभागों में क्या है?
उत्तर- प्रत्येक जिनमन्दिर सम्बंधी कोटो के बाहर पार्श्वभागों में दो दो कूट स्थित है। उनके नंदन, मंदर, निषध, हिमवन् आदि उत्तम उत्तम नाम हे। इन पर स्थित भवन दिक्कुमारियों एवं अन्य एक बलभद्र कूट आदि का विस्तार वर्णन तिलोयपण्णत्ति से देखना चाहिये।
प्रश्न २८७ – पाण्डुकवन कहाँ है और उसका विस्तार बतलाइये?
उत्तर-सौमनस से ३६००० योजन ऊपर मेरू के शिखर पर पांडुकवन स्थित है। इस पांडुकवन की कटनी का विस्तार ४९४ योजन प्रमाण है।
प्रश्न २८८ – पांडुकवन की चारों दिशाओं में क्या है?
उत्तर- पांडुकवन की चारों दिशाओं में ४ मन्दिर है। चैत्यालय है।
प्रश्न २८९ – पांडुकवन की विदिशाओं में क्या है?
उत्तर- पांडुकवन की चारों विदिशाओं ४ शिलायें स्थित है उन शिलाओं के नाम क्रम से पांडुशिला, पांडुकम्बला रक्त शिला और रक्तकम्बला है।
प्रश्न २९० – पांडुकशिला का आकार लम्बाई, चौड़ाई आदि बलाओ?
उत्तर- यह पांडुकशिला अद्र्धचन्द्रमा के सदृश आकार वाली है। पूर्वपश्चिम में १०० योजन लम्बी और दक्षिण उत्तर में ५० योजन चौड़ी है इसके बहुमध्यभाग में दोनों और से क्रमश: हानि होती गई है यह शिला आठ योजन ऊँची है ऊपर समवृत आकार है वनवेदी से संयुक्त सुवर्णमयी है।
प्रश्न २९१ पांडुकशिला के मध्य में क्या है?
उत्तर- पांडुकशिला के मध्य में शरत् कालीन सूर्यमंडल की सदृश प्रकाशमान उभत सिंहासन स्थित है। इसके दोनो तरफ दिव्यरत्नों से रवचित दो भद्रासन है एक सिंहासन दो भद्रासन इन तीनों की ऊँचाई पृथक पृथक ५०० धनुष है छत्र चामर घंटाओं से शोभित एवं पूर्वाभिमुख स्थित है।
प्रश्न २९२ – पांडुकशिला को कौनसे क्षेत्र तीर्थंकर का अभिषेक कौन करता है?
उत्तर- पांडुकशिला पर सौधर्मइन्द्र भरतक्षेत्र में उत्पभ हुये तीर्थंकरो को बड़े वैभव के साथ लाकर मध्यमसिंहासन पर विराजमान करके १००८ कलशो से महान अभिषेक करते है
प्रश्न २९३ – पांडुकवन के आग्नेयदिशा में क्या है उस शिला पर किस क्षेत्र के तीर्थंकर का अभिषेक होता है?
उत्तर- पांडुकवन में आग्नेय दिशा में उत्तर दक्षिण दीर्घ और पूर्वपश्चिम में विस्तीर्ण रजतमयी पांडुक शिाला है। उसका सारा वर्णन पांडुकशिला के समान है। इस शिला पर सौधर्म इन्द्र पश्चिम विदेह के तीर्थंकरो का अभिषेक करते हैं।
प्रश्न २९४ – पांडुकवन के नैऋत्य दिशा में कहाँ कौनसी शिला आदि है?
उत्तर – पांडुकवन के नैऋत्य दिशा में रक्ताशिला नामक सुवर्णमयीशिला है जो पूर्व-पश्चिम में दीर्घ और उत्तर में विस्तृत है इसकी ऊँचाई आदि भी पांडुकशिला के सदृश है। यहाँ पर इन्द्र ऐरावत क्षेत्र में उत्यभ हुये तीर्थंकरो का अभिषेक करते है।
प्रश्न २९५ – पांडुकवन की वायव्य दिशा में कौनसी शिला है और उस पर कहाँ के तीर्थंकर का अभिषेक होता है?
उत्तर- वायव्यदिशा में उत्तर-दक्षिण दीर्घ और पूर्व पश्चिम उत्तीर्ण रक्तकंबला नामक लालवर्ण वाली शिला है इसका वर्णन भी पूर्ववत् है। इस शिला पर इन्द्र पूर्वविदेह के तीर्थंकरो का अभिषेक करते है। नंदन ओर सौमनसवन में सौधर्म इन्द्र के लोकपालो के भवन, अनेको बावड़ियाँ , सौधर्मइन्द्र की सभा आदि अनेको वर्णन है। उक्त वर्णन यहाँ संक्षेप्त मात्र किया है।
प्रश्न २९६ – विदेहक्षेत्र का विस्तार बतलाओ?
उत्तर- विदेहक्षेत्र का विस्तार ३३,६८४- ४ \१९ योजन है इस क्षेत्र के मध्य की लम्बाई १ लाख योजन (४० करोड़ मील है)।
प्रश्न २९७ – गजदंतपर्वत कहाँ कौनसी दिशा में और कितने है?
उत्तर- भद्रशालवन में मेरू की ईशान दिशा में माल्यवान, आग्नेय दिशा में महासौम नस, नैऋत्य दिशा में, विद्युतप्रभ और वायव्य दिशा में विदिशा में गंधमादन ये ४ गजदंत पर्वत है।
प्रश्न २९८ – चारों गजदंतपर्वत का विस्तार आदि कितना है?
उत्तर- दो पर्वत निषध और मेरू का तथा दो पर्वत नील और मेरू का स्पर्श करते है। ये पर्वत सर्वत्र ५०० योजन विस्तृत है। और निषध, नील के पास ४०० योजन ऊँचे हैं। तथा मेरू के पास ५०० योजन ऊँचे है। ये पर्वत ३०,२०९ ६ १\९ योजन लंबे है। सदृश आयात है।
प्रश्न २९९ – गजदंतो में निषध और नील के पास का अंतराल बताओ?
उत्तर- गजदंतो में निषध और नील के पास का अंतराल ५३,००० योजन आता है (२२,००० – ५०० =२१५०० *२ =४३००० +१०००० ५३०००)।
प्रश्न ३०० – चारों गजदंतो का वर्ण बतलाइये?
उत्तर- माल्यवान पर्वत का वर्ण वैडूर्यमणि जैसा है। महासौमनस का रत्नमय, विद्युतप्रभ का तपाये हुये सुवर्ण सदृश और गंधनाधन का सुवर्ण सदृश है।

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