तीनलोक प्रश्नोत्तरी , भाग - 2 !! Tinlok prashnottari, Part - 2 !!

तीनलोक प्रश्नोत्तरी !! Tinlok prashnottari !!  

(तीनलोक के जिनमंदिर पुस्तक से – गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित ) 

(प्रश्नोत्तर लेखिका- आ़. सुदृष्टिमती माताजी)

प्रश्न १०१- नारकी जीवों में निरन्तर कौनसी लेश्या रहती है?
उत्तर- प्रथम, दूसरी पृथिवी में कापोल लेश्या होती है। तीसरी पृथिवी के ऊपरी भाग में कापोल लेश्या और निचले भाग में नील लेश्या है। चौथी पृथिवी नील लेश्या है। पाँचवी पृथिवी के ऊपर के भाग में नील लेश्या और नीचे के भाग में कृष्ण लेश्या है। छठी पृथवी में कृष्णलेश्या है, सांतवी पृथवी में परम कृष्ण लेश्या होती है।

प्रश्न १०२- नरक के उत्पाद स्थान का विस्तार व ऊँचाई बतलाइये?
उत्तर- इन जन्म्भूमियों का विस्तार एक, दो कोस आदि नीचे लिखे प्रमाण है एवं इनकी ऊँचाई अपने अपने विस्तार से पंचगुणी है।
    नरको में                                                        उपपाद स्थान का विस्तार                                                  ऊँचाई
प्रथम नरक में                                                                  १ कोस                                                              ५ कोस
द्वितीय नरक में                                                                २ कोस                                                              १० कोस
तृतीय नरक में                                                                 ३ कोस                                                              १५ कोस
चतुर्थ नरक में                                                           १ योजन (४ कोस)                                                ५ योजन (२०कोस)
पंचम नरक में                                                           २ योजन (८कोस)                                                       १० योजन
छठे नरक में                                                             ३ योजन (१२ कोस)                                                     १५ योजन
सांतवे नरक मे                                                        १०० योजन (४००कोस)                                                  ५०० योजन

ये सब जन्म स्थान हमेशा ही अनंतगुणित अंधकार से व्याप्त है |

प्रश्न १०३- नारकियों के लेश्या परिणाम देह, वेदना विक्रिया निरन्तर कैसी होती है?
उत्तर-सभी नारकी जीवो के परिणाम लेश्या अशुभतर ही होते है। उनके शरीर भ्ज्ञी अशुभतर नामकर्म के उदय से हुंडक संस्थान वाले बीभत्स और अत्यन्त भयंकर होते है। यद्यपि उनका शरीर वैक्रियक है फिर उसमें मलमूत्र पीव आदि सभी बीभत्स सामग्री रहती है। कदाचित् कोई नारकी सोचते है कि हम शुभ कार्य करे परन्तु कर्योदय से अशुभ ही होता है। वे दुख दूर करने के लिये जिसने भी उपाय करते है उनसे दूना दुख ही बढ़ता जाता है।

प्रश्न १०४- नरको नारकियों को आहार कैसा होता है?
उत्तर- कुत्तो गधे आदि जानवरों के अत्यन्त सड़े हुये मांस और विष्टा आदि की अपेक्षा भी अनंत दुर्गंधि से युक्त ऐसी उस नरक की मिट्टी का धम्मा नामक के नारकी अत्यन्त भूख की वेदना से व्याकुल होकर भक्षण करते है। और दूसरे आदि नरको में उससे भी अधिक दुर्गंधित मिट्टी को खाते है। धम्मा प्रभवी के प्रथम पटल के आहार की मिट्टी को यदि मध्यलोक में डाल दिया जाय तो उसकी दुर्गंधि से १ कोस के जीव मृत्यु को प्राप्त हो सकते है। इससे आगे दूसरे तीसरे पटलों में आधे आधे कोश प्रमाण अधिक होते हुये मारणशक्ति बढ़ती गई और सॉतवे नरक के अतिम ४९ पटल में मिट्टी में मिट्टी की मारण शक्ति २५ कोस प्रमाण हो जाती है।

प्रश्न १०५- तीर्थकर प्रकृति के बंध के पहले नरकायु बंध करने वाला नरकगति में कौन से नरक तक जा सकता है?
उत्तर- कोई कोई जीव इस मध्यलोक में तीर्थंकर प्रकृति के बंध के पहिले येदि नरकायु का बंध कर लेते है तो पहले, दूसरे, तीसरे नरक तक जा सकते है। वे तीर्थंकर प्रकृति से सत्त्व वाले जीव भी वहाँ पर असाधारण दुखो का अनुभव करते रहते है। और सम्यक्तव के माहात्म्य से पूर्वकृत कर्मो के विपाक का चिन्तवन करते रहते है। जब इनकी आयु ६ माह शेष रह जाती है तब स्वर्ग के देव नरक में जाकर चारों तरफ से परकोटा बनाकर उस नारकी के उपसर्ग का निवारण कर देते है। और मध्यलोक में रत्नों की वर्षा माता की सेवा आदि उत्सव होने लगते है।

प्रश्न १०६- नारकियों को कितने प्रकार के दुख होते है?
उत्तर- नरको में नारकियों को ४ प्रकार के दुख होते है। क्षेत्रजनित शारीरिक, मानसिक, और असुरकृत् ।
नरक में उत्पात हुये शीत, उष्ण, वैतरणीनदी, शाल्यत्वि वृभग्दि के निमित्त से होने वाले दुख क्षेत्रज दुख कहलाते है।
शरीर में उताभ हुये रोगो के दुख और मारकाट, वुंâभीपाक आदि के दुख शारीरिक दुख है। संक्लेश, शोक, आकुलता, पश्चाताप, आदि के निमित्त से उत्पाभ दुख मानसिक दुख कहलाते है। एवं तीसरी पृथवी पर्यन्त संक्लेश परिणाम वाले असुर कुमार जाति के भवनवासी देवो के उत्पभ कराये गये दुख असुरकृत दुख कहलाते है।

प्रश्न १०७- असुरकुमार कृत दुखो को बतलाओ?
उत्तर- पूर्व में देवायु का बंध करने वाले मनुष्य या तिर्यंच अनंतानुबंधी में से किसी एक का उदय आ जाने से रत्नत्रय को नष्ट करके असुरकुमार जाति के देव होते है। सिकनामन, असिपत्र, महाबल, रूद्र अंबरीष आदिक असुरकुमार जाति के देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी तक जाकर नारकियों को क्रोध उत्पभ कराकर परस्पर में युद्ध कराते हैं और प्रसन्न होते है।

प्रश्न १०८- नरक में उत्पभ होते ही कौनसा अवधिज्ञान उत्पभ होता है?
उत्तर- नरक में उताभ्ज्ञ होते ही अंतर्मुहूर्त के बाद छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती है। और भवप्रायय अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है। जो मिथ्यादृष्टि नारकी है उनको अवधिज्ञान विभंगावधि कुअबधि कहलाता है। एवं सम्यकूदृष्टि नारकियों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।

प्रश्न १०९- ७ नरको नारकियों के अवधिज्ञान का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- प्रथम नरक में अवधिज्ञान का विषय एक योजन है। आगे आगे आधे आधे कोस की हानि होकर सांतवे नरक में वह एक कोस मात्र रह जाता है। प्रथम नरक में ४ कोस (१ योजन) द्वितीय नरक में ३ १\२ साड़े तीन कोस तृतीय नरक में ३ कोस । चतुर्थ नरक में २ १\२  (ढाई कोस) पंचमनरक में २ कोस छठे नरक में १-१\२ कोस सातवे नरक में १ कोस।

प्रश्न ११०- नारकियों को अवधिज्ञान के प्रगट होते है तब मिथ्यादृष्टि नारकी क्या करते है?
उत्तर- इस अवधिज्ञान के प्रगट होते ही वे नारकी पूर्वभव के पापो को बैरविरोध को एवं शत्रुओं को जान लेते है। जो मिथ्यादृष्टि है वे पूर्वभव में किसी के द्वारा किये गये उपकार को भी अपकार रूप समझकर यदवासदवा आरोप लगाकर मारकाट करते रहते है।

प्रश्न १११- सम्यग्दृष्टि भद्रमिथ्यादृष्टि जीव अवधिज्ञान के प्रगट होते ही क्या विचार करते है?
उत्तर- जो सम्यग्दृष्टि है वे अपने पापो का पश्चाताप करते रहते है। कोई भद्र मिथ्यादृष्टिस जीव पाप के फल को भोगते हुये अत्यंत दुख से खबड़ाकर पापो का पश्चाताप करते वेदना अनुभव नामक निमित्त से सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेते है। तात्पर्य यह है कि यदि कोई नारकी पाप के फल को भोगते हुये यह सोचते है कि हाय! कि मैने परस्त्री सेवन किया था जिसके फल स्वरूप मुझे यहाँ गरम गरम लोहे की पुतली का आलिंगन कराया जाता है। मैने मद्यपान किया था जिसके फल स्वरूप मुझे यहाँ तांबा गलाकर पिलाया जाता है हाय हाय मैने पूर्वजन्म में गुरूओं की शिक्षा नही मानी, भगवान की वाणी पर विश्वास नहीं किया, नियमलेकर मंत्र किया इत्यादि के फल स्वरूप इत्यादि के फलस्वरूप ये यातनायें मुझे यहाँ भोगने को मिली है। अब इनसे छुटकारा कैसे मिले, कहाँ जाये, क्या करे, इत्यादि विलाप करते करते जिनधर्म पर प्रेम करते हुये श्रद्धा से सम्यक्तव रूपी अमूल्य निधि को प्राप्त कर लेते है।

प्रश्न ११२- सातो नरको में सम्यक्तव प्राप्ति के क्या कारण है?
उत्तर- धम्मा आदि तीन पृथवियों में मिथ्यात्वभाव से संयुक्त नारकियों में कोई जातिस्मरण से कोई दुर्वार वेदना से व्यभित होकर , कोई-देवो के सम्बोधन को प्राप्त कर अनेक भवों के चूर्ण करने में निमितत भूत ऐसे सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लेते है। पंकप्रभा आदि शेष चार पृथिवयों में नारकी जीव देवकृत प्रबोध के बिना जातिस्मरण और वेदना के अनुभव मात्र से ही सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर सकते है।

प्रश्न ११३- पहले नरकायु का बध कर, पश्चात् सम्यक्तव को प्राप्त किया ऐसे जीव मरकर कितने नरक तक जा सकते है?
उत्तर- प्रथम नरक तक ही जा सकते है अन्यत्र नहीं ।

प्रश्न ११४- क्या सभी नरको नारकी सम्यक्तव को प्राप्त कर सकते है?
उत्तर- हाँ। सभी नरको में सम्यक्तव की कारणभूत साम्रगी मिल जाने से नारकी जीव सम्यक्तव को ग्रहण कर सकते है।

प्रश्न ११५- नरक में जाने के कारण क्या है?
उत्तर- जो शराब पीते है। मांस की अभिलाषा करते है। जीवो का घात करते है। शिकार करते हैं क्षणमात्र के इन्द्रिय सुख के लिये पाप उत्पभ करते है। क्रोधादि कषाय के वशीभूत होकर असत्य वचन बोलते हैं, काम से उन्मत हो जवानी में मदन परस्त्री में आसवन होकर जीव नरको में चिरकाल तक नपुंसक वेदी होते है। और अनंत दुखो को प्राप्त करते है।

प्रश्न ११६- नारकियों के शरीर की अवगाहन का प्रमाण बतलाओ ?

उत्तर – रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम सीमंतक पटल के नारकियों के शरीर की ऊँचाई ३ हाथ है इसके आगे पटलो में बढ़ते बढ़ते अन्तिम १३ पटल में ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल है। ऐसे ही बढ़ते बढ़ते बढ़ते सांतवी पृथवी के अन्तिम अवधिस्थान नामक इन्द्रक बिल में ५०० धनुष प्रमाण शरीर अवगाहना है।

प्रश्न ११७- प्रत्येक नरक में नारकियों की शरीर की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- रत्नप्रभा प्रथम पृथ्वी में नारकियों ऊँचाईस ३१ (१ ४) हाथ। शर्कराप्रभा, में ६२ (१ २) हाथ। बालुका प्रभा में १२५ हाथ, पंकप्रभा में १५० हाथ, धूमप्रभा में १२५ धनुष। तम:प्रभा में २५० धुनष। महातम: प्रभा में ५०० धनुष उत्सेध ।

प्रश्न ११८- सातो नरको में नारकियों की आयु का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- जघन्य आयु उत्कृष्ट आयु
१ प्रथम नरक मे १०,००० १ सागरोपम
२ द्वितीय नरक में १ सागर ३ सागर
३ तृतीय नरक में ३ सागर ७ सागर
४ चातुर्थनरक में ७ सागर १० सागर
५ पंचमनरक में १० सागर १७ सागर
६ छठे  नरक में १७ सागर २२ सागर
७ सातवे नरक में २२ सागर ३३ सागर

प्रश्न ११९- सातो नरक में नारकियों में जन्म लेने का अन्तर कितना है?
उत्तर- इन नरको में यदि कोई नारकी जन्म न लेवे तो तथा वहाँ नारकियों के उत्पभ होने व्यवधान पड़ जावे उसका नाम अन्तर है। यह अंतर प्रथम नरक में २४ मुहूर्त का है। द्वितीय नरक में सात दिन का है। तृतीय नरक १५ दिन, चतुर्थनरक १ मास, पाँचवे नरक में २ मास। छठे नरक में ४ मास, साँतवे नरक में  ६ मास का अन्तर हो सकता है।

प्रश्न १२०- नरकगति में किस गति के जीव जन्म ले सकते है?
उत्तर- कर्मभूमि के मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव ही इन नरको में उत्पभ हो सकते है। किन्तु नारकी, देव, भोगभूमियाँ, विकलत्रय एकेन्द्रिय जीव नरको में नहीं जा सकते है। इन नरको से निकले जीव वापस नरक में उसी भव में नहीं जा सकते है। न देव न विकलत्रय और न भोगभूमियाँ हो सकते है। मतलब यही है कि नरक से निकले नारकी जीव कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यंच ही होते है इनमें भी गर्भज संज्ञी एवं पर्याप्त ही होते है।

प्रश्न १२१- नरक से निकलकर नारकी किन पर्यायों को नही प्राप्त कर सकता है?
उत्तर- नरक से निकलकर कोई भी जीव, अनंतर भव में चक्रवर्ती, बलभद्र नारायण और प्रतिनारायण नहीं हो सकाता है। इस प्रकार संक्षेप्त से नरकलोक का वर्णन किया गया है जो कि भव्यजीवों को नरक के दुखो से भय उत्पभ करने के लिये एवं सुख के साधन धर्म में आदर करने के लिये है। विशेष वर्णन अन्यत्र देखना ।

प्रश्न १२२– भवनवासी देवो १० भेदो के प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव कितने व कौन कौन से है?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव १० प्रकार के है। प्रतीन्द्रे, त्रायशंत्रस, सामानिक लोकपाल, तमुरक्षक, तीनपरिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक।

प्रश्न १२३- भवनवासी देवो की देवियों की संख्या बतलाइयें?
उत्तर- चमरेन्द्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा, सुका और सुकाता ये पाँच अग्रमहिषी महादेवियाँ है। इन महादेवियों के प्रत्येक ८००० परिवार देवियाँ है इस प्रकार परिवार देवियाँ ८०००*५= ४०००० है। ये पाँचो महादेवियाँ विक्रिया से अपने आङ्ग आङ्ग हजार रूप बना सकती है। इस इन्द्र के १६००० वल्लभा देवियाँ है।
दूसरा वैरोचन इन्द्र के पद्मा, पभश्री, कनक श्री, कनकमाला, और महापद्मा सये ५ अग्रमहिषिया है इनकी विक्रिया, परिवार देवी आदि का प्रमाण पूर्ववत् होने से इस इन्द्र के भी ५६००० देवियाँ है।
इसी प्रकार से भतानंद ओर धरणानंद के ५०-५० हजार देवांगनाये है। वेणुदेव वेणुधारी इन्द्रों के ४४००० है। शेष इन्द्रो के ३२-३२ हजार देवांगनाये है।
उपर्युक्त कहे गये प्रतीन्द्र सामानिक आदि इन्द्रो के प्रधान परिवार स्वरूप है। इनके अतिरिक्त और अन्य भी अप्रधानरूप देव होते है जो कि असंख्यात कहे गये है।

प्रश्न १२४- स्वर्ग में सबसे निकृष्ट देवो की कितनी देवांगनाये होती है?
उत्तर- सबसे निकृष्ट देव की भी ३२ देवांगनायें अवश्य होती हैं।

प्रश्न १२५- देवों के उच्छवास का काल प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- चमर वैरोचन इन्द्र १५ दिन में उच्छ्वास लेते है। भूतानंद आदि ६ इन्द्र १२ १\ २ मुहूर्त में, जलप्रभ आदि ६ इन्द्र ६ १\२ मुहूर्त में उच्छ्वास लेते है। जो देव १० हजार वर्ष की आयु वाले देव हैं, उनके ७ श्वाशोच्छ्वास प्रमाण काल के बाद एवं पल्योपम प्रमाण आयु धारक देवो के पाँच मुहूर्त के बाद श्वाशोच्छ्वास होता है।

प्रश्न १२६- भवनवासी के १० प्रकार के देवो का वर्ण बतलाओ?
उत्तर- असुरकुमार के शरीर का वर्ण काला, नागकुमार के शरीर का वर्ण अधिक काला, गरूड़ और द्वीपकुमार का काला उदधिकुमार स्तनितकुमार का अधिक काला, विद्युतूकुमार का बिजली के सदृश, दिक्कुमार का काला वर्ण है। अग्निकुमार का अग्नि की कामिन के सदृश एवं वायुकुमार देव का नीलकमल के समान वर्ण है।

प्रश्न १२७- इन्द्रो का वैभव बतलाइये?
उत्तर- ये इन्द्रलोक भक्ति से पंचकल्याणकों के निमित्त ढाईद्वीप एवं जिनेन्द्र भगवान की पूजन के निमित्त नंदीश्वर द्वीप आदि पवित्र स्थानो में जाते है, शीलादि संयुक्त किन्हीं मुनिवर आदि की पूजन परीक्षा के निमित्त एवं क्रीड़ा के लिये यथेच्छ स्थान पर जाते आते रहते है।

प्रश्न १२८- ये असुरादि देव स्वयं, तथा अन्य की सहायता से स्वर्ग में कहाँ तक जा सकते हैं?
उत्तर- ये असुरकुमारादि देव स्वयं अन्य की सहायता के बिना ईशान स्वर्ग तक जा सकते है, तथा अन्यदेवों की सहायता से अच्युत याने १६ वें स्वर्ग तक जा सकते है।

प्रश्न १२९- भवनवासी देव व देवियों की और क्या विशेषता होती है?
उत्तर- देवो की शरीर निम्रलस कामिन के धारक, सुगंधित उच्छ्वास से सहित अनुपम रूप वाले तथा समचतुरस्र संस्थान से युक्त है। देवों के समान इनकी देवियाँ भी वैसे ही गुणों से युक्त होती है। इन देवदेवियों के राग,वृद्धावस्था नहीं है। अनुपम बल वीर्य है। इनका अकालमरण भी नहीं होता है। इनके शरीर वैकियक होने से मल मूत्र आदि सवन धातु से रहित होता है। ये देवगण काय प्रवचार से युक्त है। अर्थात् वेद का उदीरणा होने पर मनुष्य के समान काम सुख का अनुभव कराते हैं ये इन्द्र प्रतीन्द्र विविध प्रकार के छत्रादि विभूतियों को धारण करते है।
प्रतीन्द्र आदि देवो के सिंहाससन, छत्र चमर अपने अपने इन्द्रो की अपेक्षा छोटे रहते है। सामानिक और प्रायसंत्रीश नामक देवों में विक्रिया परिवार ऋद्धि और आयु अपने अपने इन्द्रों के समान है। इन्द्र इन सामानिक देवों की अपेक्षा केवल आज्ञा क्षेत्र सिंहासन और चामरों से अधिक वैभव युक्त होते है।

प्रश्न १३०- देवो में दुख का भी सद्भाव है?
उत्तर- हाँ देवो में भी मानसीक दुख से दुखी रहते है। जैसे चमरइन्द्र सौधर्मइन्द्र से ईष्या करता है। वैरोचन इन्द्र, ईशान इन्द्र से , पेणु, भूतानंद से, वेणुधारी, धरणानंद से ईष्या करते है। नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से या स्वभाव से ही जलते रहते है।

प्रश्न १३१- भवनवासियों के भवन में जिनमन्दिर कहाँ है?
उत्तर- उनके प्रत्येक भवन के मध्य में १०० योजन ऊँचे एक एक कूट है। इन कूटो के ऊपर पभरागमणिमय कलशों से सुशोभित तथा ४ गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वन ध्वजाओं से एवं मालाओं से संयुक्त जिनगृह विराजते है।

प्रश्न १३२- भवनवासियों के भवन में जिनमन्दिर कहाँ है?
उत्तर- उनके प्रत्येक भवन के मध्य में १०० योजन ऊँचे एक एक कूट है। इन कूटो के ऊपर पभरागमणिमय कलशों से सुशोभित तथा ४ गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वन ध्वजाओं से एवं मालाओं से संयुक्त जिनगृह विराजाते है।

प्रश्न १३३- जिनगृह के चारों तरफ क्या है?
उत्तर- जिनमन्दिरो के चरो तरफ चैत्यवृक्षो सहित और नानावृक्षो से युक्त पवित्र अशोकवन सप्तच्छद वन चम्पक वन और भाम्रवन स्थित है।

प्रश्न १३४- चैत्यवृक्षो का लम्बाई आदि का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- प्रत्येक भवनों के चैत्यवृक्षो का अवगाढ़- जड़ एक कोस, स्कन्ध की ऊँचाई १ योजन और शाखाओं की लम्बाई ४ योजन प्रमाण कहीं गई है।

प्रश्न १३५- चैत्यवृक्षो की विशेषताओें को बताओ?
उत्तर- ये दिव्यवृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों की शाखाओं से युक्त विचित्र पुष्पों से अलंकृत और उत्कृष्ट मणिमय उत्तमयत्रो से व्याप्त होते हुये अतिशय शोभा को प्राप्त है। एवं विविधप्रकार के अंकुरो से मण्डित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, नानाप्रकार के रत्नो से निर्मित छत्र के ऊपर से संयुक्त , घंटा ध्वजा आदि से रमणीय आदि अंत से रहित है। चैत्यवृक्ष पृथ्वीकायिक है स्वरूप है।

प्रश्न १३६- चैत्यवृक्षो पर जिनमन्दिर कहाँ पर है?
उत्तर- चैत्यवक्षो के मूल में चारो दिशाओं मे से प्रत्येक दिशा में पभासन से स्थित और देवो से पूजनीय पाँच पाँच दिव्य प्रतिमायें विराजमान है।

प्रश्न १३७- जिनमन्दिर की प्रतिमायें किन किन वैभवों से सहित होते है?
उत्तर- ये जिन प्रतिमायें चार तोरणो से रमणीय, आठ महामंगल द्रव्यो से सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नों से निर्मित अतिशय शोभायमान होती है।

प्रश्न १३८- जिनालयों की और भी क्या विशेषता है बतलाइये?
उत्तर- इन जिनालयों में चार चार गोपुरों संयुक्त तीन कोट, प्रत्येक वी थी (गली) में एक मानस्तम्भ व वन, सतूप तथा कोटों के अंतराल में क्रम से वनभूमि, ध्वजभूमि और चैत्यभूमि, ऐसे तीन भूमियाँ है।

प्रश्न १३९- जिनालयों की वनभूमि क्या है?
उत्तर- उन जिनालयों के चारों वनो के मध्य में स्थित तीन मेखलाओं से युक्त नंदादिक वापिकायें तीनों पीठ से युक्त धर्म विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते है।

प्रश्न १४०- उन जिनालयों की ध्वजभूमि में ध्वजाओं की क्या व्यवस्था है?
उत्तर- ध्वजभूमि में सिंह, गज, वृषभ, गरूढ़, मयूर, चंद्र, सूर्य, हंस पद्म और चक्र इन चिंह से अंकित प्रत्येक चिन्हों वाली १०८ महाध्वजायें और एक एक महाध्वजा के आश्रित १०८ क्षुद्र ध्वजायें होती है।

प्रश्न १४१- क्या उन जिनालयों में वंदनमंडपादि क्रीड़ागृह आदि भी होते है?
उत्तर- हाँ होते है। ये जिनालय वंदममंडप, अभिषेकमंडप, नर्तनस मंडप, संगीत मंडप, और प्रेक्षणमण्डप, क्रीड़ागृह, गुणनगृह (स्वाध्याय शाला) एवं विशाल चित्रशाला से युक्त है।

प्रश्न १४२- जिनालयों मंगलादि द्रव्य कितने कितने होते है?
उत्तर- इन जिनालयों में देवच्छंद के भीतर श्री देवी श्रुतदेवी तथा सर्वाण्ह, और सनत्कुमार यथो की मूर्तिया एंव आङ्ग मंगलद्रव्य होते है झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रसिष्ट इन आठ मंगल द्रव्यों में से वहाँ प्रत्येक १०८ होते है।

प्रश्न १४३- जिनालयों में धूप, बाजे आदि का वैभव भी है क्या ?
उत्तर- इन भवनो में चकते हुये रत्नदीपक, ५ वर्ण के रत्नो से निर्मित्त चौंक, गोशीर्ष, मलयचंदन, कालागुरू और धूप की गंध तथा भंभा , मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्टाताल, सिवली दुन्दभि एवं पटह आदि के शब्द नित्य गुंजायमान होते है। हाथ में चँवर लिये नागकुमार देवो से युक्त, उत्तम उत्तम रत्नो से निर्मित देवो द्वारा वंद्य ऐसी उत्तमप्रतिमाये सिंहासन पर विराजमान है।

प्रश्न १४४- प्रत्येक जिनालय में कितनी कितनी प्रतिमायें है?
उत्तर- प्रत्येक जिनभवनों में ये जिन प्रतिमायें १०८-१०८ प्रमाण है ये अनादि निधन है। भवनवासी देवो के भवनो की संख्या ७ करोड़ बहोत्तर लाख है।

प्रश्न १४५- सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि देव किस भावना उन मन्दिरों की उपासना करते है?
उत्तर- जो देव सम्यग्दर्शन से युक्त है वे कर्म क्षय के निमित्त जिन भगवान की भक्ति से पूजा करते है। इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि देवो से संबोधित किये गये अन्य मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की नित्य ही बहोत प्रकार से पूजा करते रहते हे।
हमारा भी भवनवासी देवो की ७ करोड़ ७२ लाख जिनप्रतिमाओंं को त्रिकाल भावसहित नमस्कार हो।

प्रश्न १४६- भवनवासी देवो के भवनो की क्या विशेषताएँ होती है?
उत्तर- कूटो के चारोतरफ, नाना प्रकार की रचनाओं से युक्त उत्तम सुवर्ण और रत्नो से निर्मित भवनवासी देवो के महल है। ये महल सात, आठ नौ, दस, इत्यादि मलो से युक्त है। लटकती हुई रत्नमालाओं से युक्त चकते हुये मणिमय दीपको से सुशोभित , जन्मशाला, अभिषेक शाला भूषणशाला, मैथुनशाला, परिचर्यागृह और मंत्रशाला से रमणीय और मणिमय तोरणो से सुन्दर द्वारो वाले, सामान्यगृह कदलीगृह, गर्भगृह चित्रगृह, आसन गृह, नादगृह, लतागृह इत्यादि गृह विशेषों से सहित सुवर्णमय प्रकार से संयुक्त, विशाल छज्जो से शोभित, फहराती ध्वजाओं से सहित पुष्करिणी वापी, वूâप से सहित क्रीडन युक्त मत्तवारणों से संयुक्त मनोहर गवाक्ष और कपाटो से शोभित नानाप्रकार के पुतलिकाओं से सहित एवं अनादि निधन है। उनभवनों के चारो पाश्र्वनागों में चित्र विचित्र आसन एवं उत्तमरत्नों से निर्मित दिव्य शय्याये स्थित है।

प्रश्न १४७- देवो की अवधिज्ञान का विषय कितना है?
उत्तर- अपने अपने भवन में स्थित भवनवासी देवो का अवधिज्ञान उध्र्वदिशा में उत्कृष्ट रूप से मेरूपर्वत के शिखर पर्वत को स्पर्श करता है। एवं अपने अपने भवनो के नीचे नीचे क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है। वही अवधिज्ञान तिरछे क्षेत्र की अपेक्षा अधिक क्षत्र को जानता है।

प्रश्न १४८- भवनवासी देवों के विक्रिया की व्यवस्था है?
उत्तर- वे असुरकुमारादि १० प्रकार के भवनवासी दवे अनेक रूपो की विक्रिया करते हुये अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र को पूरित करते है।

प्रश्न १४९- भवनवासी देवों में जन्म लेने के क्या कारण है?
उत्तर- जो मनुष्य शंकादि दोषों से रहित है। क्लेश भाव और मिथ्याभावो से युक्त चारित्र को धारण करते है। कलहप्रिय, अविनयी, जिनसूत्र के बहिर्भूत, तीर्थंकर और संघ की असादना करने वाले, कुमार्गगामी एवं कुतप करने वाले तापसी आदि इन भवनवासी देवो में जन्म लेते है|

प्रश्न १५०- भवनवासी देवो में सम्यक्तव प्राप्ति के क्या कारण है?
उत्तर- सम्यक्तव सहित जीव मरकर जीव भवनवासी देवो में उत्पन्न नही हो सकता है। कदाचित् जातिस्मरण, देव ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्बदर्शन, और धर्मश्रवण के निमित्तो से ये देव सम्यक्तव रत्न को प्राप्त कर लेते है। इन भवनवासी देवो से निकलकर जीव कर्मभूमि में मनुष्यगति अथवा तिर्यंचगति को प्राप्त करते है। किन्तु ये श्लाका पुरूष नहीं हो सकते है।

प्रश्न १५१- देवो के जन्म स्थान को क्या कहते है?
उत्तर- इन देवो के भवनो के भीतर उत्तम कोमल उपपाद शाला है। देवो के जन्म को उपपाद जन्म कहते है।

प्रश्न १५२- उपपाद शय्या से कितने समय में शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाती है?
उत्तर- ये देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न होते है। अंतर्मुहूर्त में छहों पर्याप्ति को पूर्ण कर १६ वर्ष के युवक के समान शरीर को प्राप्त होते है।

प्रश्न १५३- देवो के शरीर में रोद्र क्यों नही होते है?
उत्तर- देवो के शरीर में मल मूत्र चर्य हड्डी मांसादि नही होते है ऐसा दिव्य वैक्रियक शरीर होता है। इसीलिये इन देवों का रोद्र आदि नहीं होते है।

प्रश्न १५४- देवो को भवनो में जन्म लेते ही क्या होता है?
उत्तर- देवो को जन्म लेते ही अनुद्घाटित बंद दोनो ही किवाड़ खुल जाते है। आनंद भेरी का शब्द होने लगता है इस भेरी के शब्द को सुनकर परिवार के देव देवियाँ हर्ष से जय जय कार शब्द करते हुये आते है। जय घंटा पटह आदि वाद्य संगीत नाट्य आदि से चतुर मागधदेव मंगल गीत जाते है।

प्रश्न १५६- इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्य चकित हो क्या सोचता है?
उत्तर- इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्य चकित हो सोचता है कि तत्क्षण उसे अवधिज्ञान नेत्र प्रगट हो जाता है इस अवधि का नाम विभंगावधि है। जब सम्यक्तव प्रगट हो जाता है तब ये अवधि सुअवधि कहलाती है। वे देवगण पूर्व के पुण्य का चिन्तन करते हुये यह भी सोचते है कि मैने सम्यक्तव शून्य धर्म धारण करके यह निम्न योनि पायी है। इसके पश्चात् वे देव अभिषेक योग्य द्रव्यों को लेकर जिन भवनो में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करते है।

प्रश्न १५७- सम्यग्दृष्टि देव व मिथ्यादृष्टि देव किन भावों से पूजा करते है?
उत्तर- यहाँ सम्यग्दृष्टि देव समस्त कर्मो के क्षय में एक अद्वितीय कारण जिनपूजा है ऐसा समझकर बड़ी भाव भक्ति से पूजा करते है। एवं मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवो की प्रेरणा से इन्हें कुलदेवता मानकर पूजा करते है। पश्चात् अपने अपने भवन में आकर ये देव सिंहासन पर विराजमान हो जाते है। ये देव रूप लावण्य से युक्त अनेक प्रकार की विक्रिया से सहित स्वभाव से ही प्रसन्न मुखवाली देवियों के साथ क्रीड़ा करते है।

प्रश्न १५८- देव लोग कैसे  सुख का अनुभव करते है?
उत्तर- वे देव स्पर्श, रस, रूप और सुन्दर शब्दो से प्राप्त हुये सुखो का अनुभव करते हुये क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं होते है।

प्रश्न १५९ – देव लोग क्रीड़ा के लिये कहाँ जाते है?
उत्तर- दीप, कुलाचल, भोगभूमि नंदनवन वन आदि उत्तम उत्तम स्थानो में क्रीड़ा किया करते है।

प्रश्न १६०- देव मरकर कहाँ कहाँ जन्म लेते है?
उत्तर- यदि ये देव ससम्यक्तव सहित मरण करते है तो उत्तम मनुष्य को प्राप्त कर लेते है। यदि मिथ्यात्व के प्रभाव से जीवन भर विषयभोगों में आनंद मानते हुये मरण के ६ महिने पहले अपने मरण काल को जान लेते है तो विलाप करते हुये संक्लेश परिणाम से मरकर एकेन्द्रिय पर्याय में पृथ्वीकायिक जलकायिक और वनस्पतिकायिक श्रीव हो जाते है। उस एकेन्द्रिय पर्याय से निकलकर पुन: त्रस पर्याय प्राप्त करना अत्यन्त कङ्गिन है। इस विषयासक्ति का यह दुषपरिणाम है कि इन देवो को भी ऐकेन्द्रिय पर्याय में गिरा देता है ऐसा सोचकर मिथ्यात्व को छोड़ देना चाहिये

प्रश्न १६१- मध्यलोक कहाँ है उसकी चौड़ाई व ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- लोकाकाश के मध्य में एक राजु चौड़ा एवं एक लाख ४० योजन ऊँचा मध्यलोक है। अधोलोक के ऊपर मध्य लोक है।

प्रश्न १६२- मध्यलोक का दूसरा नाम क्या है और क्यो?
उत्तर- मध्यलोक का दूसरा नाम तिर्यक लोक है। क्योकि लोक के मध्य में जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त तिर्यक प्रचय विशेषण से अवस्थित असंख्यात द्वीप समुद्र अपस्थित है इसलिये इसको तिर्यक लोक कहते है।

प्रश्न १६३- इस तिर्यकलोक में (मध्यलोक में) क्या है?
उत्तर- इस मध्यलोक को जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र से प्रारम्भ करके असंख्यात द्वीप समुद्र है जो कि गोलाकार-थाली के आकार वाले एवं एक दूसरे को वेष्टित किये हुये है।

प्रश्न १६४- असंख्यात भी द्वीप समुद्र कितने है?
उत्तर- २५ कोटि उद्धारपल्यो के जितने रोमखण्ड हो उतनी ही द्वीप समुद्रो की संख्या है।

प्रश्न १६५- जम्बूद्वीप का नाम जम्बूद्वीप क्यों पड़ा ?
उत्तर- जम्बूवृक्ष से उपलक्षित होने से इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा है। यह जम्बूवृक्ष शाश्वत है। अकृतिम है पृथ्वीकाय है और अनादि निधन है।

प्रश्न १६६- जम्बूद्वीप का विस्तार बतलाइये?
उत्तर- एक लाख योजन विस्तार वाला है (४०करोड़ मील)

प्रश्न १६७- जम्बूद्वीप की परिधि कितनी है?
उत्तर- जम्बूद्वीप की परिधि, ३ लाख १६ हजार, २२७ योजन, तीनकोश, अट्ठाईस धनुष, और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है। ३,१६२२७, योजन १२८ धनुष कुछ अधिक १३४ अंगुल है।

प्रश्न १६८- जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल बतलाओ?
उत्तर- जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल सात सो नब्बे करेड़, ५६ लाख चौरानवें हजार एकसौ पचास (७९०, ५३लाख १५०) है।

प्रश्न १६९- जम्बूद्वीप की जगति का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- जम्बूद्वीप की जगति ८ योजन ऊँची, मूल में १२ योजन, मध्य में आठ योजन और ऊपर में ४ महायोजन विस्तार वाली है ।

प्रश्न १७०- जगति किसे कहते है?
उत्तर- जम्बूद्वीप के परकोटे को जगति कहते है।

प्रश्न १७१- यह जगति मूल में, मध्य में व शिखर किससे निर्मित है?
उत्तर- यह जगति मूल में वज्रमय, मध्य में सर्वरत्नमय, और शिखर पर वैडूर्यमणि से निर्मित है ।

प्रश्न १७२ – इस जगति के मूलप्रदेश में क्या है?
उत्तर- इस जगति के मूलप्रदेश में पूर्वपश्चिम की और सात सात गुफाएँ है। तोरणो से रमणीय, अनादि निधन गुफाये महानदियों के लिये प्रवेश द्वार है।

प्रश्न १७३- जगति के उपरमि भाग पर क्या है?
उत्तर- जगति के उपरिम भाग पर ङ्खीक बीच में दिव्य सुवर्णमय वेदिका है।

प्रश्न १७४- वेदिका की ऊँचाई व चौड़ाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- यह वेदिका २ कोश ऊँची और ५०० धनुष चौड़ी है।

प्रश्न १७५ – वेदी के पाश्र्वभागों में क्या है?
उत्तर- वेदी के दोनो र्वभागों में उत्तम वापियों से संयुक्त वनखण्ड है। वेदी के अभ्यन्तर भाग में महोरग जाति के व्यन्तर देवो के नगर है। इन व्यन्तर नगरो के भवनो ने अकृतिम जिनमन्दिर शोभित है।

प्रश्न १७६ – जम्बूद्वीप के प्रमुख द्वार कितने व कौन कौन से है?
उत्तर- चारों दिशाओं में क्रम से विजय, वैजयन्त जयन्त और अपराजित ये चार गोपुर द्वार है।

प्रश्न १७७- गोपुर द्वार की ऊँचाई व विस्तार कितना है?
उत्तर- ये गोपुर द्वार ८ महायोजन ऊँचे (३२,००० मील) ऊँचे, और ४ योजन (१६,००० मील) विस्तृत है।

प्रश्न १७८- गोपुर द्वार में क्या है?
उत्तर- सब गोपुर द्वारो में सिंहासन, तीनछत्र भामण्डल चामर आदि से युक्त जिनप्रतिमायें स्थित है। ये द्वार अपने अपने नाम के व्यन्तर देवो से रक्षित है। प्रत्येक द्वार के उपरिम भाग में सत्रह रव ८तलो से युक्त उत्तम द्वार है।

प्रश्न १७९- विजय, वैजयन्त आदि देवो के नगर कहाँ है क्या, वहा पर जिनमंदिर है?
उत्तर- द्वार के ऊपर १२ योजन लम्बा ६ हजार योजन विस्तृत विजय देव का नगर हैं ऐसे ही वैजयन्त आदि के नगर है। इनमें अनेको देवभवनों में जिनमन्दिर शोभित है। विजय आदि देव अपने अपने नगरों में देवियों और परिवार देवो से युक्त निवास करते है।

प्रश्न १८०- भरत क्षेत्र कहाँ है कुल क्षेत्र कितने है?
उत्तर- जम्बूद्वीप के भीतर दक्षिण की ओर भरतक्षेत्र उसके आगे हैमवत हरि, रम्यक हैरण्यवल, और ऐरावत ये सात क्षेत्र है।

प्रश्न १८१- जम्बूद्वीप के ६ कुलाचल पर्वतो के नाम बतलाओ?
उत्तर- हिमवान् , महाहिमवान् , निषध, नील ,रूक्मि और शिखरी ये ६ कुलाचल पर्वत है।

प्रश्न १८२-  हिमवान आदि ६ कुलाचलो पर क्रम से छह सरोवर है उनके नाम बतलाओ ?

उत्तर – हिमवान आदि ६ कुलाचलो पर क्रम से पभ: महापभ, सिगिंनध, केशरी, पुण्डरीक और महापुण्डरीक ऐसे छह सरोवर है।

प्रश्न १८३- छह सरोवर से कितनी नदियाँ निकलती है?
उत्तर- इन छह सरोवरों से गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकांता, सीता-सीतोदो, नारी-नरकांता, सुवर्णवूâला-रूपयकूला और रक्ता और रक्तादो ये १४ नदियाँ निकलती है। जो कि एक एक क्षेत्र में दो दो नदी बहती हुई सात क्षेत्रो में बहती है।

प्रश्न १८४- भरतक्षेत्रादि, हिमवान पर्वत आदि का विस्तार कितना कितना है बतलाइये?
उत्तर- दक्षिण में भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६ ६ १\९ योजन है। भरतक्षेत्र से दूना हिमवान पर्वत है उससे दूना हैमवत पर्वत है ऐसे विदेहक्षेत्र तक दूना दूना विस्तार है। आगे आधा आधा है।

प्रश्न १८५- भरतक्षेत्र के मध्य में क्या है?
उत्तर- भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व पश्चिम लम्बा समुद्र को स्पर्श करता हुआ विजयार्ध पर्वत है।

प्रश्न १८६- छहपर्वतो की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- छहपवर्पतो की क्रम से १०० योजन, २०० योजन, ४०० योजन पुन: ४०० योजन, २०० योजन, १०० योजन प्रमाण है।

प्रश्न १८७- इन पर्वतो का वर्ण बतलाइये?
उत्तर- इन पर्वतो के वर्ण क्रमश: सुवर्ण चाँदी, तपाये हुये सुवर्ण के समान, वैडूर्यमणि, रजत और सुवर्ण के समान वर्ण वाले है।

प्रश्न १८८- जम्बूद्वीप ७ क्षेत्रों में कैसे विभक्त हो गया?
उत्तर- जम्बूद्वीप ६ पर्वत है जो कि पूर्व पश्चिम लम्बे है। इन पर्वतो से इस जम्बूद्वीप में ७ क्षेत्र हो गये है।

प्रश्न १८९- हिमवान पर्वत के कितने कूट है? उनके संख्या व नाम बतलाओ?
उत्तर- हिमवान पर्वत पर ११ कूट है। सिद्धायतन हिमवत् भरत इला गंगा श्रीकूट रोहितास्या, सिंधू, संरादेवी हैमवत और वैश्रवण।

प्रश्न १९०- ११ कूटो में कौनसे कूट पर जिनमिन्दर है?
उत्तर- प्रथम सिद्धायतन कूट पूर्व दिशा में है उस पर जिनमन्दिर है।

प्रश्न १९१- ३२ शेष १० कूटों में क्या है?
उत्तर- शेष १० कूटो में से स्त्रीलिंग नामवाची कूटो पर व्यन्तर देवियाँ एवं अवशेष वूâटो पर व्यन्तर देव रहते है।

प्रश्न १९२- हिमवान पर्वत क कूटो की ऊँचाई विस्तार व मध्य का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- सभी कूट पर्वत की ऊँचाई से चौथाई प्रमाण वाले होते है जैसे हिमवान पर्वत १०० योजन ऊँचा है तो इसके सभी वूâट २५-२५ योजन ऊँचे है। मूल में २५ योजन विस्तृत, मध्य में १८ ३ \४ योजन और ऊपर १२ १\२ योजन है विस्तार है। इनके ऊपर देव देवियाँ के भवन बने हुये है।

प्रश्न १९३- महाहिमवान पर्वत पर कूट की संख्या उनके नाम व प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- आठ कूट है- सिद्धकूट, महाहिमवान् , हैमवान, रोहित, ह्रीकूट, हरिकांता, हरिवर्ष, और वैडूर्य, ये आठ कूट है। ये पूण्योजन ऊँचे मूल में ५० योजन और ऊपर में १५ विस्तृत है।

प्रश्न १९४- निषधपर्वत के कूटो की संख्या, नाम, ऊँचाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- निषधपर्वत के ९ कूट है। सिद्धकूट, निषध, हरिवर्ष,पूर्वविदेह, हरित, धृसि, सितोदा, अपरविदेह और रूचक, ये ९ कूट है। ये १०० योजन ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत, मध्य में ७५ योजन और ऊपर ५० योजन विस्तृत है।

प्रश्न १९५- नीलपर्वत पर कूट की संख्या, नाम, विस्तार आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- नीलपर्वत पर ९ कूट है। सिद्ध, नील, पूर्वविदेह, सीता, कीर्ति नरकान्ता, अपरविदेह, रम्यक और अपदर्शन ये ९ कूट है। ये कूट भी सौ योजन ऊँचे है मूल में १०० योजन विस्तृत ऊपर में पूण्योजन विस्तृत है।

प्रश्न १९६- रूक्मि पर्वत के कूट संख्या, उनके नाम विस्तारादि बतलाओ?
उत्तर- रूक्मिपर्वत ८ कूट है। सिद्ध रूक्मि, रम्यक, नारी, बुद्धि, रूप्यकूला, हैरण्यवान औार मणिकांचन ये ८ कूट है। ये पूण्योजन ऊँचे, पूण्योजन विस्तृत और ऊपर में २५ योजन विस्तृत है।

प्रश्न १९७- शिखरी पर्वत पर कूटसंख्या, नाम, विस्तारादि का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- शिखरी पर्वत पर ११ कूट है। सिद्ध, शिखरी, हैरण्यवत, रसदेवी, रक्ता, लक्ष्मी, सुवर्ण, रक्तवती, गंधवती, ऐरावत और मणिकांचन ये ११ कूट है। ये २५ योजन ऊँचे २५ योजन विस्तृत, मध्य में १८ ३४ योजन और ऊपर १२ १२ योजन विस्तृत है।
विशेष- सभी कूटो में पूर्वदिशा में सिद्धकूट में जिनभवन है। स्त्रीलिंग वाची कूटों में व्यन्तर देवियाँ है। और शेष में व्यन्तर देवो के भवन बने हुये है।

प्रश्न १९८- व्यन्तर देव उनके ऊपर नीचोपपातिक आदि ऊपर के देव उनका चित्रापृथ्वी से क्रम से कितने कितने ऊपर है औरर उनकी आयु का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- पृथ्वी से ऊपर                                         देवो की जाति                                                          आयु का प्रमाण
चित्रा पृथ्वी से १ हाथ                                        ऊपर जाकर नीचोपपासिक                                             १०,००० वर्ष
उससे १००००                                                  हाथ ऊपर दिग्वासी                                                       २०,००० वर्ष
उससे १००००                                                  हाथ ऊपर जाकर अन्तर निवासी                                     ३०,००० वर्ष
उससे १०,०००                                                 हाथ ऊपर कुष्मांड देव                                                    ४०,००० वर्ष
उससे २०,०००                                                 हाथ ऊपर उत्पभ                                                          ५०,००० वर्ष
उससे २०,०००                                                 हाथ ऊपर अनुत्पभ                                                       ६०,००० वर्ष
उससे २०,०००                                                 हाथ ऊपर प्रमाणक                                                        ७०,००० वर्ष
उससे २०,०००                                                 हाथ पर गंध                                                                 ८०,००० वर्ष
उससे २०,०००                                                 हाथ ऊपर महागंध                                                        ८४००० वर्ष
उससे २०,०००                                                 हाथ ऊपर भुजंग                                                         १/८ पल्य प्रमाण
उससे २०,०००                                                 हाथ ऊपर प्रीतिक                                                           १/४ पल्य
उससे २०,०००                                                हाथ ऊपर अकाशोत्पभ                                                     १/२ पल्य

प्रश्न १९९- कमल पत्र का विस्तार आदि कितना है?
उत्तर- कमलपत्र एक कोस लम्बा है कर्णिका का विस्तार दो कोश है इसलिये कमल १ योजन लम्बा और १ योजन विस्तार वाला है।

प्रश्न २००- कमल की कर्णिका पर कौनसी देवी निवास है?
उत्तर- इस कमल की कर्णिका पर श्रीदेवी का भवन बना हुआ है।

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