दूसरी ढाल
काव्य प्रश्नोत्तरी
(पद्धड़ी छंद)
काव्य प्रश्नोत्तरी
(पद्धड़ी छंद)
प्रश्न १ – क्षणभंगुर इस संसार मांहि, क्यों जीव भ्रमण करता सदाहि ?
उनको क्यों तजने हेतु कहा, बतलाओ इसका मर्म यहाँ ?।।१।।
उत्तर –मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप परिणामों के कारण जीव संसार में परिभ्रमण करता है। ये तीनों संसार में दु:खदायी होने के कारण इन्हें त्याग करने की प्रेरणा दी गई है।
प्रश्न २ – मिथ्यादर्शन के मुख्य भेद, कितने होते हैं कहो देख ?
चेतन आत्मा का मुख्य रूप, उत्तर बतलाओ क्या स्वरूप ?।।२।।
उत्तर – मिथ्यादर्शन के मुख्य दो भेद हैं-अगृहीत और गृहीत मिथ्यादर्शन। चेतन आत्मा का मुख्य स्वरूप है उपयोगमयी होना, वह आत्मा चिच्चैतन्यरूप अमूर्तिक और अनुपम-उपमारहित है।
प्रश्न ३ – आत्मा का क्यों विपरीत ज्ञान, होता कैसे मन में अज्ञान ?
तब काया के प्रति क्या विचार, करता मानव क्या समझ सार ?।३।।
उत्तर –यह जीव मिथ्यात्व एवं अज्ञानता के वशीभूत होकर पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों को भी जीव के समान ही मानने लगता है, तब वह शरीर को ही आत्मा समझने लगता है।
प्रश्न ४ – मिथ्यादृष्टी क्या मान्य करे, पुद्गल के प्रति क्या भान करे ?
तन उपज नाश में क्या विचार, सुख का माने किसको भंडार ?।४।।
उत्तर – मिथ्यादृष्टि जीव शरीर के सुख-दु:ख में आत्मा को ही सुखी-दु:खी मानने लगता है। वह शरीर की उत्पत्ति और विनाश में आत्मा की उत्पत्ति और विनाश मानता है। आत्मा को दु:ख प्रदान करने वाले रागद्वेष परिणामों को ही वह असली सुख का भंडार समझकर सच्चे सुख से वंचित रह जाता है।
प्रश्न ५ – शुभ अशुभ कर्म फल भोग जीव, मिथ्यात्व सहित क्या कहे जीव ?
आतम हित के हैं हेतु कौन, उनके प्रति करता भ्रान्ति कौन ?।५।।
उत्तर – मिथ्यादृष्टि जीव शुभ-अशुभ कर्मों के फल सुख-दु:ख को भोगने में अत्यन्त रागद्वेषरूप परिणाम करता है और आत्मा के हितकर जो वैराग्य एवं ज्ञानरूप भाव हैं उनको वह भ्रान्तिवश दु:खदायी मानने लगता है।
प्रश्न ६ – कैसी प्रतीति है मिथ्याज्ञान, है अगृहीत की क्या पहचान ?
यदि छहढाला का तुम्हें ज्ञान, दे दो उत्तर को सही मान ?।६।।
उत्तर –अगृहीत मिथ्याज्ञान से सहित जीव की पहचान यह है कि वह आत्मिक शक्ति को खोकर अपनी इन्द्रियजन्य इच्छाओं को रोक नहीं पाता और न ही निराकुल मोक्षसुख की खोज कर पाता है।
उत्तर –अगृहीत मिथ्याज्ञान से सहित जीव की पहचान यह है कि वह आत्मिक शक्ति को खोकर अपनी इन्द्रियजन्य इच्छाओं को रोक नहीं पाता और न ही निराकुल मोक्षसुख की खोज कर पाता है।
प्रश्न ७ – मिथ्यात्व सहित जो विषयवृत्ति, उनको माना कैसा चरित्र ?
कब से वह आत्मा के है संग, बतलाओ यह कैसा प्रसंग ?।७।।
उत्तर – मिथ्यात्व सहित विषय सेवन की प्रवृत्ति को अगृहीत मिथ्याचारित्र कहते हैं वह मिथ्याचारित्र जीव के साथ अनादिकाल से चल रहा है, ऐसा जानना चाहिए।
प्रश्न ८ – मिथ्यादर्शन का दुतिय भेद, किस नाम से कहता ग्रन्थ वेद ?
बतलाओ उसका क्या स्वरूप, जिसके कारण लखता न रूप ?।८।।
उत्तर – मिथ्यादर्शन के दूसरे भेद का नाम है-अगृहीत मिथ्यादर्शन। उसके होने पर यह जीव सच्चे धर्म को छोड़कर कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्रों के प्रति श्रद्धान करने लगता है।
प्रश्न ९ – कुगुरु की क्या पहचान कही, क्यों उनकी मुद्रा पूज्य नहीं ?
उनकी संगति से क्या हो प्राप्त, उत्तर सुन होगा ज्ञान प्राप्त ?।९।।
उत्तर – जिसके अन्तर मन में राग-द्वेष भरा है तथा बाहर में जिन्होंने धन, वस्त्र आदि का परिग्रह धारण कर कुलिंगी भेष को अपना लिया है, उन्हें कुगुरु कहते हैं। जो लोग उनकी संगति करते हैं, वे पत्थर की नाव में बैठने के समान संसार में डूबने का ही फल प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न १० – हैं कौन देव माने कुदेव, किनमें क्या रहती है कुटेव ?
उनसे क्यों नहिं हो भ्रमण छेव, उनकी करते हैं कौन सेव ?।१०।।
उत्तर – जो अपने साथ स्त्री, गदा आदि हथियारों को लिए हुए होते हैं वे कुदेव कहलाते हैं। राग-द्वेष से मलिन होने के कारण उन कुदेवों को सच्चे देव मानकर उनका सत्कार करने वालों का संसार भ्रमण नष्ट नहीं हो सकता है क्योंकि उनकी सेवा करने वाले भी मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं।
प्रश्न ११ – बोलो भाई क्या है कुधर्म, क्या है गृहीत मिथ्यात्व मर्म ?
इसका कैसे हो समाधान, जिससे हो जावे सही ज्ञान ?।११।।
उत्तर – जिस धर्म में हिंसा करने की प्रेरणा दी जाती हो, राग-द्वेष उत्पन्न करने वाली क्रियाओं का वर्णन हो, उसे कुधर्म कहते हैं। कुगुरु, कुदेव और कुधर्म में श्रद्धान करना गृहीत मिथ्यादर्शन कहा गया है।
प्रश्न १२ – क्या है गृहीत मिथ्यात्वज्ञान, किसको होता है कुमतिज्ञान ?
किस श्रुत को मिथ्याशास्त्र कहा, इस उत्तर में है सार बड़ा ?।१२।।
उत्तर – एकान्त और दुराग्रह से समन्वित ज्ञान गृहीत मिथ्याज्ञान कहलाता है, वह मिथ्यादृष्टि जीवों के ही होता है। मिथ्यादृष्टियों के द्वारा रचित शास्त्र, अश्लील उपन्यास आदि मिथ्याशास्त्र माने जाते हैं क्योंकि उनके अध्ययन से कुज्ञान की ही वृद्धि होती है।
उत्तर – एकान्त और दुराग्रह से समन्वित ज्ञान गृहीत मिथ्याज्ञान कहलाता है, वह मिथ्यादृष्टि जीवों के ही होता है। मिथ्यादृष्टियों के द्वारा रचित शास्त्र, अश्लील उपन्यास आदि मिथ्याशास्त्र माने जाते हैं क्योंकि उनके अध्ययन से कुज्ञान की ही वृद्धि होती है।
प्रश्न १३ – कैसा गृहीत मिथ्याचरित्र, जो कर न सके आतम पवित्र ?
तब जड़ चेतन का क्या स्वभाव, बोलो कैसा आचरण भाव ?।१३।।
उत्तर – अपने ख्याति, लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा की भावना से शरीर को कष्ट देने वाला तपश्चरण करना गृहीत मिथ्याचारित्र है। ऐसा जीव शरीर और आत्मा की भिन्नता को नहीं जान पाता है और उसकी क्रिया मात्र सांसारिक सुख प्रदान करने वाली होती है अर्थात् संसार से पार करने वाली नहीं होती है। यहाँ यह बात भी विशेष समझने की है कि तापसियों की जो अनेक प्रकार की क्रियाएँ हैं, वे केवल शरीर को क्षीण करती हैं, ऐसा एकांत नहीं है, क्योंकि उन क्रियाओं से भवनवासी आदि देवों के सुख भी प्राप्त हो सकते हैं इसलिए ये क्रियाएँ सर्वथा व्यर्थ नहीं हैं, क्योंकि संसार के कुछ न कुछ सुख तो देती ही हैं।
उत्तर – अपने ख्याति, लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा की भावना से शरीर को कष्ट देने वाला तपश्चरण करना गृहीत मिथ्याचारित्र है। ऐसा जीव शरीर और आत्मा की भिन्नता को नहीं जान पाता है और उसकी क्रिया मात्र सांसारिक सुख प्रदान करने वाली होती है अर्थात् संसार से पार करने वाली नहीं होती है। यहाँ यह बात भी विशेष समझने की है कि तापसियों की जो अनेक प्रकार की क्रियाएँ हैं, वे केवल शरीर को क्षीण करती हैं, ऐसा एकांत नहीं है, क्योंकि उन क्रियाओं से भवनवासी आदि देवों के सुख भी प्राप्त हो सकते हैं इसलिए ये क्रियाएँ सर्वथा व्यर्थ नहीं हैं, क्योंकि संसार के कुछ न कुछ सुख तो देती ही हैं।
प्रश्न १४ – आतमहित का है मार्ग कौन, क्यों हैं उसके प्रति आज मौन ?
दौलत इसका क्या सार कहें, उत्तर दो तुम क्या मान रहे ?
उत्तर – सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही आत्महित के मार्ग हैं और मिथ्यात्व के कारण प्राणी उस रत्नत्रय के प्रति मौन रहते हैं अर्थात् उसे ग्रहण नहीं कर पाते हैं। पण्डित दौलतराम जी छहढाला की द्वितीय ढाल के समापन में अपनी आत्मा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे दौलत! अब तू ऐसे मार्ग में लग, जिसमें आत्मा का हित हो अत: संसार के जाल में घूमने का अब तू त्याग कर दे और आत्मा मे लीन होकर उसकी भलाई में लग जा।

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