वीरशासन जयंती व्रत
(श्री गौतम स्वामी व्रत विधि)
आज से पच्चीस सौ छ्यासठ१ वर्ष पूर्व राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन भगवान महावीर स्वामी की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी थी अत: यही पवित्र दिन ‘‘वीर शासन जयंती’’ पर्व के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त है, क्योंकि तब से लेकर आज तक भगवान महावीर का ही शासन चला आ रहा है और पंचम काल के अंत तक-वीरांगज नाम के अंतिम मुनिराज तक चलता रहेगा। यही इस व्रत की तिथि है इसी दिन श्री गौतम स्वामी नाम से प्रसिद्ध भगवान के प्रथम गणधर ने द्वादशांग की रचना की थी अथवा ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों की रचना की थी। इस वीरशासन जयंती पर्व के बारे में कहा है-एत्थावसप्पिणीए चउत्थकालस्स चरिमभागम्मि।
तेत्तीसवासअडमासपण्णरसदिवससेसम्मि।।६८।।
वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए।
अभिजीणक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स।।६९।।
सावणबहुले पाडिवरुद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो।।
अभिजस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं।।७०।।
जोयणपमाणसंठिदतिरियामरयणुवणिवहपडिबोहो।
मिदुमधुरगभीरतराविसदविसयसयलभासाहिं।।६०।।
अट्ठरस महाभासा खुल्लयभासा वि सत्तसयसंखा।
अक्खरअणक्खरप्पय सण्णीजीवाण सयलभासाओ।।६१।।
एदासिं भासाणं तालुवदंतोट्ठकंठवावारं।
परिहरिय एक्ककालं भव्वजणाणंदकरभासो३।।६२।।
व्रत की विधि-
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन यह व्रत करना है। मंदिर में जाकर भगवान महावीर स्वामी का अभिषेक और पूजन करें तथा श्रुतस्वंâध यंत्र और श्रुतदेवी-सरस्वती देवी जिनके मस्तक पर भगवान विराजमान हैं, उनका भी अभिषेक करके पूजन करें।मंत्र जाप्य-ॐ ह्रीं सर्वभाषामयदिव्यध्वनिस्वामिने श्रीमहावीरजिनेन्द्राय नम: मंत्र का जाप्य करें।
इस व्रत को ११ अंग, १४ पूर्व के रूप में २५ वर्ष या द्वादशांग के प्रतीक में १२ वर्ष तक करना चाहिए। पुन: उद्यापन में भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा का पंचकल्याणक कराकर विराजमान करना या अपनी शक्ति अनुसार ग्रंथों को छपवाकर वितरित करना। भगवान महावीर की केवलज्ञान भूमि ‘जमुही’, देशनास्थली राजगृही आदि तीर्थों की वंदना करना आदि करके व्रत पूर्ण करना है। इस व्रत का फल परम्परा से केवलज्ञान को प्राप्त कर दिव्यध्वनि के स्वामी बनना है तथा
श्री गौतम स्वामी व्रत विधि
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंदाद्यो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम्।।१।।
बुद्धि तवो विय लद्धी, विउव्वणलद्धी तहेव ओसहिया।
रस-वल-अक्सीणा वि य, लद्धीओ सत्त पण्णत्ता१।।
बुद्धि-तव-विउवणोसहि-रस-बल-अक्खीण-सुरसरत्तादी।
ओहि-मणपज्जवेहि य, हवंति गणबालया सहिया।
व्रत की विधि-
आषाढ़ शु. १५, गुरुपूर्णिमा को धारणा-एकाशन करके श्रावण कृ. १ को उपवास करके भगवान महावीर स्वामी का, श्री गौतम स्वामी की प्रतिमा का एवं सरस्वती देवी की प्रतिमा का या श्रुतस्वंâध यंत्र का अभिषेक करके इन तीनों की पूजा करें पुन: गौतम स्वामी का जीवन परिचय पढ़कर सारा दिवस धर्मध्यान में व्यतीत करें। यदि उपवास की शक्ति नहीं हो तो अल्पाहार लेकर व्रत करना, ऐसे यह व्रत सात वर्ष तक करना है।व्रत की जाप्य-ॐ ह्रीं सप्तद्र्धिसमन्वितश्रीगौतमस्वामिने नम:।
यह श्रावण कृ. १, तभी से लेकर आज तक भी वीरशासन जयंती के नाम से प्रसिद्ध है। जैन शास्त्रों मे इसे युगादि दिवस भी माना गया है। इस दिन किया गया व्रत संपूर्ण अमंगल को दूर कर ज्ञान की वृद्धि करने वाला है क्योंकि यह धर्म तीर्थ उत्पत्ति का भी प्रथम दिन है अत: इसे प्रथम देशना दिवस के नाम से भी कहते हैं। श्री गौतम स्वामी के नाम से किया यह व्रत सभी के जीवन में मंगलकारी होगा। व्रत पूर्णकर राजगृही तीर्थ एवं गुणावां तीर्थ की वंदना अवश्य करना चाहिए।
श्री गौतम स्वामी का परिचय-
मगध देश में ब्राह्मण नाम के नगर में शांडिल्य नाम के ब्राह्मण की दो पत्नी थीं-स्थंडिला और केशरी। स्थंडिला ने गौतम और गाग्र्य को जन्म दिया तथा केशरी ने भार्गव को जन्म दिया। इन तीनों भाइयों के इन्द्रभूति, अग्निभूति एवं वायुभूति नाम प्रसिद्ध थे। किसी जगह गौतम की जन्मतिथि चैत्र शु. एकम् मानी गई है। भगवान महावीर को केवलज्ञान प्रगट होकर समवसरण की रचना हो चुकी थी, किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी। ६६ दिन व्यतीत हो गये, तभी सौधर्म इन्द्र ने समवसरण में गणधर का अभाव समझकर अपने अवधिज्ञान से ‘‘गौतम’’ को इस योग्य जानकर वृद्ध का रूप बनाया और वहाँ गौतमशाला में पहुँचकर कहते हैं- ‘‘मेरे गुरु इस समय ध्यान में होने से मौन हैं अत: मैं आपके पास इस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।’’ गौतम ने विद्या के गर्व से गर्विष्ठ हो पूछा-‘‘यदि मैं इसका अर्थ बता दूँगा तो तुम क्या दोगे?’’ तब वृद्ध ने कहा-यदि आप इसका अर्थ कर देंगे, तो मैं सब लोगों के सामने आपका शिष्य हो जाऊँगा और यदि आप अर्थ न बता सके तो इन सब विद्यार्थियों और अपने दोनों भाईयों के साथ आप मेरे गुरु के शिष्य बन जाना।’’ महा अभिमानी गौतम ने यह शर्त मंजूर कर ली क्योंकि वह समझता था कि मेरे से अधिक विद्वान इस भूतल पर कोई है ही नहीं। तब वृद्ध ने वह काव्य पढ़ा-‘‘धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिता: समयैश्च लेश्या:।
तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै-रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायं।।’’

0 Comments