सप्तर्षि व्रत(मृत्युंजय व्रत)
आज से लगभग ९ लाख वर्ष पूर्व श्री रामचन्द्र के समय मथुरानगरी के उद्यान में सात महर्षि महामुनि पधारे थे। वहाँ वर्षायोग स्थापित किया था, उनके शरीर से स्पर्शित हवा के प्रभाव से वहाँ पर दैवी प्रकोप-महामारी रोग कष्ट दूर हुआ था। तभी से लेकर आज तक इन सप्तर्षि मुनियों की प्रतिमाएँ मंदिरों में विराजमान कराने की परम्परा चली आ रही है और इनका अभिषेक-भक्ति आदि पूजा की जाती है।
इस व्रत की विधि-
आषाढ़ शु. चतुर्दशी से श्रावण कृष्णा पंचमी तक सात दिन यह व्रत करना चाहिए। इन व्रतों के दिन सप्तर्षि मुनियों की प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करके उन्हीं की पूजा करें। मंत्र निम्न प्रकार हैं-समुच्चय मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं सुरमन्यु-श्रीमन्यु-श्रीनिचय-सर्वसुन्दर-जयवान-विनयलालस-जयमित्रनाम सप्त महर्षिभ्यो नम:।
प्रत्येक दिन के प्रत्येक पृथक्-पृथक् मंत्र-
१. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसुरमन्युमहर्षये नम:।
२. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीश्रीमन्युमहर्षये नम:।
३. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनिचयमहर्षये नम:।
४. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीसर्वसुंदरमहर्षये नम:।
५. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीजयवानमहर्षये नम:।
६. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीविनयलालसमहर्षये नम:।
७. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीजयमित्रमहर्षये नम:।
इन सप्तर्षियों की कथा पढ़ें। सात वर्ष तक यह व्रत करके उद्यापन में सप्तर्षियों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कराकर मंदिरों में, गृह चैत्यालयो में विराजमान करें। यथाशक्ति मुनि-आर्यिका आदि को आहारदान आदि देकर दीन-दुखियों को भी करुणादान, औषधिदान आदि देवे। इस व्रत को लगातार सात वर्ष करना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से अकालमृत्यु को दूर कर परम्परा से मृत्युंजयपद मोक्षपद भी प्राप्त किया जा सकता है। जीवन में आने वाले अनेक संकट दूर होंगे। अनेक प्रकार के एक्सीडेंट, रोग, शोक, संकट दूर होंगे। इसमें कोई भी संदेह नहीं है। यदि आप मथुरा तीर्थ नहीं जा सकते हैं, तो अन्य किसी भी तीर्थ की वंदना करके व्रत पूर्ण करें।
सप्तर्षियों की कथा-
अयोध्या के राजदरबार में एक दिन महाराजा श्री रामचन्द्र ने अपने भाई शत्रुघ्न से कहा- ‘‘शत्रुघ्न! इस तीन खण्ड की वसुधा में तुम्हें जो देश इष्ट हो, उसे स्वीकृत कर लो। क्या तुम अयोध्या का आधा भाग लेना चाहते हो? या उत्तम पोदनपुर को? राजगृह नगर चाहते हो या मनोहर पौंड्र नगर को?’’ इत्यादि प्रकार से श्री राम और लक्ष्मण ने सैकड़ों राजधानियाँ बतार्इं, तब शत्रुघ्न ने बहुत कुछ विचार कर मथुरा नगरी की याचना की। तब श्री राम ने कहा- ‘‘मथुरा का राजा मधु है, वह हम लोगों का शत्रु है, यह बात क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है? वह मधु रावण का जमाई है और चमरेन्द्र ने उसे ऐसा शूलरत्न दिया हुआ है जो कि देवों के द्वारा भी दुर्निवार है, वह हजारों के भी प्राण हरकर पुनः उसके हाथ में आ जाता है। इस मधु का लवणार्णव नाम का पुत्र है वह विद्याधरों के द्वारा भी दुःसाध्य है, उस शूरवीर को तुम किस तरह जीत सकोगे?’’ बहुत कुछ समझाने के बाद भी शत्रुघ्न ने यही कहा कि- ‘‘इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ? आप तो मुझे मथुरा दे दीजिए। यदि मैं उस मधु को मधु के छत्ते के समान तोड़कर नहीं पेंâक दूँ तो मैं राजा दशरथ के पुत्र होने का ही गर्व छोड़ दूँ। हे भाई! आपके आशीर्वाद से मैं उसे दीर्घ निद्रा में सुला दूँगा।’’ इसके बाद शत्रुघ्न ने जिनमंदिर में जाकर सिद्ध परमेष्ठियों की पूजा करके घर जाकर भोजन किया पुनः माता के पास पहुँचकर प्रणाम करके मथुरा की ओर प्रस्थान के लिए आज्ञा माँगी। माता सुप्रभा ने पुत्र के मस्तक पर हाथ पेâरकर उसे अपने अर्धासन पर बिठाकर प्यार से कहा- ‘‘हे पुत्र! तू शत्रुओं को जीतकर अपना मनोरथ सिद्ध कर। हे वीर! तुझे युद्ध में शत्रु को पीठ नहीं दिखाना है। हे वत्स! जब तू युद्ध में विजयी होकर आयेगा, तब मैं सुवर्ण के कमलों से जिनेन्द्रदेव की परम पूजा करूँगी।’’ बहुत बड़ी सेना के साथ शत्रुघ्न ने क्रम-क्रम से पुण्यभागा नदी को पार कर आगे पहुँचकर अपनी सेना ठहरा दी और गुप्तचरों को मथुरा भेज दिया। उन लोगों ने आकर समाचार दिया- ‘‘देव! सुनिए, यहाँ से उत्तर दिशा में मथुरा नगरी है वहाँ नगर के बाहर एक सुन्दर राजउद्यान है। इस समय राजा मधुसुन्दर अपनी जयंत रानी के साथ वहीं निवास कर रहा है। कामदेव के वशीभूत हुए और सब काम को छोड़कर रहते हुए आज छठा दिन है। आपके आगमन का उसे अभी तक कोई पता नहीं है।’’
गुप्तचरों के द्वारा सर्व समाचार विदित कर शत्रुघ्न ने यही अवसर अनुवूâल समझकर साथ में एक लाख घुड़सवारों को लेकर वह मथुरा की ओर बढ़ गया। अर्धरात्रि के बाद शत्रुघ्न ने मथुरा के द्वार में प्रवेश किया। इधर शत्रुघ्न के बंदीगणों ने- ‘‘राजा दशरथ के पुत्र शत्रुघ्न की जय हो।’’ ऐसी जयध्वनि से आकाश को गुंजायमान कर दिया था। तब मथुरा के अन्दर किसी शत्रुराजा का प्रवेश हो गया है, ऐसा जानकर शूरवीर योद्धा जग पड़े। इधर शत्रुघ्न ने मधु के राजमहल में प्रवेश किया और मधु की आयुधशाला पर अपना अधिकार जमा लिया। शत्रुघ्न को मथुरा में प्रविष्ट जानकर महाबलवान् राजा मधुसुन्दर रावण के समान क्रोध को करता हुआ उद्यान से बाहर निकला किन्तु शत्रुघ्न से सुरक्षित मथुरा के अन्दर व अपने महल में प्रवेश करने में असमर्थ ही रहा, तब वह अपने शूलरत्न को प्राप्त नहीं कर सका फिर भी उसने शत्रुघ्न से सन्धि नहीं की प्रत्युत् युद्ध के लिए तैयार हो गया। वहाँ दोनों की सेनाओं में घमासान युद्ध शुरू हो गया। इधर मधुसुन्दर के पुत्र लवणार्णव के साथ कृतांतवक्त्र सेनापति का युद्ध चल रहा था। बहुत ही प्रकार से गदा, खड्ग आदि से एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए अन्त में कृतांतवक्त्र के द्वारा शक्ति नामक शस्त्र के प्रहार से वह लवणार्णव मृत्यु को प्राप्त हो गया। पुनः राजा मधु और शत्रुघ्न का बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। बाद में मधु ने अपने को शूलरत्न से रहित जानकर तथा पुत्र के महाशोक से अत्यंत पीड़ित होता हुआ शत्रु की दुर्जेय स्थिति समझकर मन में चिंतन करने लगा-
‘‘अहो! मैंने दुर्दैव से पहले अपने हित का मार्ग नहीं सोचा, यह राज्य, यह जीवन पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है। मैं मोह के द्वारा ठगा गया हूँ। पुनर्जन्म अवश्य होगा, ऐसा जानकर भी मुझ पापी ने समय रहते हुए कुछ नहीं सोचा। अहो! जब मैं स्वाधीन था, तब मुझे सद्बुद्धि क्यों नहीं उत्पन्न हुई? अब मैं शत्रु के सन्मुख क्या कर सकता हूँ? अरे! जब भवन में आग लग जावे, तब वुंâआ खुदवाने से भला क्या होगा…..?’’ ऐसा चिंतवन करते हुए राजा मधु एकदम संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गया। तत्क्षण ही उसने अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों परमेष्ठियों को नमस्कार करके चारों मंगल, लोकोत्तम और शरणभूत की शरण लेता हुआ अपने दुष्कृतों की आलोचना करके सर्व सावद्य योग-सर्व आरंभ-परिग्रह का भावों से ही त्याग करके यथार्थ समाधिमरण करने में उद्यमशील हो गया। उसने सोचा- ‘‘अहो! ज्ञान-दर्शनस्वरूप एक आत्मा ही मेरा है, वही मुझे शरण है। न तृण सांथरा है न भूमि, बल्कि अंतरंग-बहिरंग परिग्रह को मन से छोड़ देना ही मेरा संस्तर है।…..।’’ ऐसा विचार करते हुए उस घायल स्थिति में ही शरीर से निर्मम होते हुए राजा मधुसुन्दर ने हाथी पर बैठे-बैठे ही केशलोंच करना शुरू कर दिया। युद्ध की इस भीषण स्थिति में भी अपने हाथों से अपने सिर के बालों का लोच करते हुए देखकर शत्रुघ्न कुमार ने आगे आकर उन्हें नमस्कार किया और बोले- ‘‘हे साधो! मुझे क्षमा कीजिए…..। आप धन्य हैं कि जो इस रणभूमि में भी सर्वारंभ-परिग्रह का त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा लेने के सन्मुख हुए हैं।’’
उस समय जो देवांगनाएँ आकाश में स्थित हो युद्ध देख रही थीं उन्होंने महामना मधु के ऊपर पुष्पों की वर्षा की। इधर राजा मधु ने परिणामों की विशुद्धि से समता भाव धारण करते हुए प्राण छोड़े और समाधिमरण-वीरमरण के प्रभाव से तत्क्षण ही सानत्कुमार नाम के तीसरे स्वर्ग में उत्तम देव हो गये। इधर वीर शत्रुघ्न भी संतुष्ट हुआ और युद्ध को विराम देकर सभी प्रजा को अभयदान देते हुए मथुरा में आकर रहने लगा। मथुरानगरी में महामारी प्रकोप, सप्तर्षि के चातुर्मास से कष्ट निवारण-राजा मधुसुन्दर का वह दिव्य शूलरत्न यद्यपि अमोघ था, फिर भी शत्रुघ्न के पास वह निष्फल हो गया, उसका तेज छूट गया और वह अपनी विधि से च्युत हो गया। तब वह (उसका अधिष्ठाता देव) खेद, शोक और लज्जा को धारण करता हुआ अपने स्वामी असुरों के अधिपति चमरेन्द्र के पास गया। शूलरत्न के द्वारा मधु के मरण का समाचार सुनकर चमरेन्द्र को बहुत ही दुःख हुआ। वह बार-बार मधु के सौहार्द का स्मरण करने लगा। तदनंतर वह पाताल लोक से निकलकर मथुरा जाने को उद्यत हुआ। तभी गरुड़कुमार देवों के स्वामी वेणुधारी इन्द्र ने इसे रोकने का प्रयास किया किन्तु यह नहीं माना और मथुरा में पहुँच गया। वहाँ चरमेन्द्र ने देखा कि मथुरा की प्रजा शत्रुघ्न के आदेश से बहुत बड़ा उत्सव मना रही है, तब वह विचार करने लगा- ‘‘ये मथुरा के लोग कितने कृतघ्नी हैं कि जो दुःख-शोक के अवसर पर भी हर्ष मना रहे हैं। जिसने हमारे स्नेही राजा मधु को मारा है, मैं उसके निवासस्वरूप इस समस्त देश को नष्ट कर दूँगा।’’ इत्यादि प्रकार से क्रोध से प्रेरित हो उस चमरेन्द्र ने मथुरा के लोगों पर दुःसह उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। जो जिस स्थान पर सोये थे, बैठे थे, वे महारोग (महामारी) के प्रकोप से दीर्घ निद्रा को प्राप्त हो गये-मरने लगे।
इस महामारी उपसर्ग को देखकर कुल देवता की प्रेरणा से राजा शत्रुघ्न अपनी सेना के साथ अयोध्या वापस आ गये। विजय को प्राप्त कर आते हुए शूरवीर शत्रुघ्न का श्रीराम-लक्ष्मण ने हर्षित हो अभिनंदन किया। माता सुप्रभा ने भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सुवर्ण के कमलों से जिनेन्द्रदेव की महती पूजा सम्पन्न करके धर्मात्माओं को दान दिया पुनः दीन-दुःखी जनों को करुणादान देकर सुखी किया। यद्यपि वह अयोध्या नगरी सुवर्ण के महलों से सहित थी फिर भी पूर्वभवों के संस्कारवश शत्रुघ्न का मन मथुरा में ही लगा हुआ था। इधर मथुरा नगरी के उद्यान में गगनगामी ऋद्धिधारी सात दिगम्बर महामुनियों ने वर्षायोग धारण कर लिया-चातुर्मास स्थापित कर लिया। इनके नाम थे-सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस और जयमित्र। प्रभापुर नगर के राजा श्रीनंदन की धारिणी रानी के ये सातों पुत्र थे। प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर देवों को जाते हुए देखकर प्रतिबोध को प्राप्त हुए थे। उस समय राजा श्रीनंदन ने अपने एक माह के पुत्र को राज्य देकर अपने सातों पुत्रों के साथ प्रीतिंकर भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण कर ली थी। समय पाकर श्रीनंदन ने केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया था और ये सातों मुनि तपस्या के प्रभाव से अनेक ऋद्धियों को प्राप्त कर सातऋषि (सप्तर्षि) के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे। उद्यान में वटवृक्ष के नीचे ये सातों मुनि चातुर्मास में स्थित हो गये थे। इन मुनियों के तपश्चरण के प्रभाव से उस समय मथुरा में चमरेन्द्र के द्वारा पैâलायी गयी महामारी एकदम नष्ट हो गई थी। वहाँ नगरी में चारों तरफ के वृक्ष फलों के भार से लद गये थे और खेती भी खूब अच्छी हो रही थी। ये मुनिराज रस-परित्याग, बेला, तेला आदि तपश्चरण करते हुए महातप कर रहे थे। कभी-कभी ये आहार के समय आकाश को लांघकर निमिषमात्र में विजयपुर, पोदनपुर आदि दूर-दूर नगरों में जाकर आहार ग्रहण करते थे। वे महामुनिराज परगृह में अपने करपात्र में केवल शरीर की स्थिति के लिए आहार लेते थे।
एक दिन ये सातों ही महाऋषिराज जूड़ाप्रमाण (चार हाथ प्रमाण) भूमि को देखते हुए अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए। वे विधिपूर्वक भ्रमण करते हुए अर्हद्दत्त सेठ के घर के दरवाजे पर पहुँचे। उन मुनियों को देखकर अर्हद्दत्त सेठ विचार करने लगा- ‘‘यह वर्षाकाल कहाँ? और इन मुनियों की यह चर्या कहाँ? इस नगरी के आस-पास पर्वत की वंâदराओं में, नदी के तट पर, वृक्ष के नीचे, शून्य घर में, जिनमंदिर में तथा अन्य स्थानों में जहाँ कहीं जो भी मुनिराज स्थित हैं, वे सब वर्षायोग पूरा किये बिना इधर-उधर नहीं जाते हैं परन्तु ये मुनि आगम के विपरीत चर्या वाले हैं, ज्ञान से रहित और आचार्यों से रहित हैं। इसलिए ये इस समय यहाँ आ गये हैं। यद्यपि ये मुनि असमय में आये थे फिर भी अर्हद्दत्त के अभिप्राय को समझने वाली वधू ने उनका पड़गाहन करके उन्हें आहारदान दिया। आहार के बाद ये सातों मुनि तीन लोक को आनंदित करने वाले ऐसे जिनमंदिर में पहुँचे, जहाँ भगवान मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा विराजमान थी और शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले दिगम्बर साधुगण भी विराजमान थे। ये सातों मुनिराज पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर चल रहे थे। ऐसे इन मुनियों को वहाँ पर स्थित द्युति भट्टारक-द्युति नाम के आचार्य देव ने देखा। इन मुनियों ने उत्तम श्रद्धा से पैदल चलकर ही जिनमंदिर में प्रवेश किया, तब द्युति भट्टारक ने खड़े होकर नमस्कार कर विधि से उनकी पूजा की। ‘‘यह हमारे आचार्य चाहे जिसकी वंदना करने के लिए उद्यत हो जाते हैं।’’ ऐसा सोचकर उन द्युति आचार्य के शिष्यों ने उन सप्तर्षियों की निंदा का विचार किया। तदनंतर सम्यक् प्रकार से स्तुति करने में तत्पर वे सप्तर्षि मुनिराज जिनेन्द्र भगवान की वंदना कर आकाशमार्ग से पुन: अपने स्थान पर चले गये। जब वे आकाश में उड़े, तब उन्हें चारण ऋद्धि के धारक जानकर द्युति आचार्य के शिष्य जो अन्य मुनि थे, उन्होंने अपनी निंदा-गर्हा आदि करके प्रायश्चित्त कर अपनी कलुषता दूर कर अपना हृदय निर्मल कर लिया।
इसी बीच में अर्हद्दत्त सेठ जिनमंदिर में आया, तब द्युति आचार्य ने कहा- ‘‘हे भद्र! आज तुमने ऋद्धिधारी महान मुनियों के दर्शन किये होंगे। वे सर्वजगवंदित महातपस्वी मुनि मथुरा में निवास करते हैं, आज मैंने उनके साथ वार्तालाप किया है। उन आकाशगामी ऋषियों के दर्शन से आज तुमने भी अपना जीवन धन्य किया होगा।’’ इन आचार्यदेव के मुख से उन साधुओं की प्रशंसा सुनते ही सेठ अर्हद्दत्त खेदखिन्न होकर पश्चात्ताप करने लगा- ‘‘ओह! यथार्थ को नहीं समझने वाले मुझ मिथ्यादृष्टि को धिक्कार हो, मेरा आचरण अनुचित था, मेरे समान दूसरा अधार्मिक भला और कौन होगा? इस समय मुझसे बढ़कर दूसरा मिथ्यादृष्टि अन्य कौन होगा? हाय! मैंने उठकर मुनियों की पूजा नहीं की तथा नवधाभक्ति से उन्हें आहार भी नहीं दिया।
इधर अयोध्या से अर्हदत्त सेठ महान वैभव के साथ कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन उन ऋषियों की वंदना करने के लिए पहुँच गये थे। राजा शत्रुघ्न भी इन मुनियों का उपदेश श्रवणकर भक्ति से प्रेरित हुए मथुरा के उद्यान में आ गये थे और उनकी माता सुप्रभा भी विशाल वैभव और धन आदि को लेकर इन मुनियों की पूजा करने के लिए आ गई। उन सम्यग्दृष्टि महापुरुषों ने और सुप्रभा आदि रानियों ने मुनिराज की महान पूजा की। उस समय वहाँ वह उद्यान और मुनियों के आश्रम का स्थान प्याऊ, नाटकशाला, संगीतशाला आदि से सुशोभित हुआ स्वर्गप्रदेश के समान मनोहर हो गया था। अनन्तर भक्ति एवं हर्ष से भरे हुए शत्रुघ्न ने वर्षायोग को समाप्त करने वाले उन मुनियों को पुनः पुनः नमस्कार करके उनसे आहार ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की, तब इन सातों में जो प्रमुख थे, वे ‘‘सुरमन्यु’’ महामुनि बोले- ‘‘हे नरश्रेष्ठ! जो आहार मुनियों के लिए संकल्प कर बनाया जाता है, दिगम्बर मुनिराज उसे ग्रहण नहीं करते हैं। जो आहार न स्वयं किया गया है न कराया गया है और जिसमें न बनाते हुए को अनुमति दी गई है ऐसे नवकोटि विशुद्ध आहार को ही साधुगण ग्रहण करते हैं।’’ पुनः शत्रुघ्न ने निवेदन किया- ‘‘हे भगवन् ! आप भक्तों के ऊपर अनुग्रह करने वाले हैं। आप अभी कुछ दिन और यहीं मथुरा में ठहरिये। आपके प्रभाव से ही यहाँ महामारी की शांति हुई है….।’’ पुनः शत्रुघ्न चिंता करने लगा-
‘‘ऐसे महामुनियों को विधिवत् आहार दान देकर मैं कब संतुष्ट होऊँगा?’’ शत्रुघ्न को नतमस्तक देखकर उन मुनिराज ने पुनः आगे आने वाले काल का वर्णन करते हुए उपदेश दिया- ‘‘हे राजन् ! जब अनुक्रम से तीर्थंकरों का काल व्यतीत हो जायेगा-पंचम काल आ जाएगा, तब यहाँ धर्म कर्म से रहित अत्यन्त भयंकर समय आ जाएगा। दुष्ट पाखण्डी लोगों द्वारा यह परम पावन जैन शासन उस तरह तिरोहित हो जायेगा कि जिस तरह धूलि के छोटे-छोटे कणों द्वारा सूर्य का बिम्ब ढक जाता है। यह संसार चोरों के समान कुकर्मी, क्रूर, दुष्ट, पाखण्डी लोगों से व्याप्त होगा। पुत्र, माता-पिता के प्रति और माता-पिता पुत्रों के प्रति स्नेह रहित होंगे। उस कलिकाल में राजा लोग चोरों के समान धन के अपहर्ता होंगे। कितने ही मनुष्य यद्यपि सुखी होंगे, फिर भी उनके मन में पाप होगा, वे दुर्गति में ले जाने वाली ऐसी विकथाओं से एक-दूसरे को गोहित करते हुए प्रवृत्ति करेंगे। हे शत्रुघ्न! कषायबहुल समय के आने पर देवागमन आदि समस्त अतिशय नष्ट हो जायेंगे। तीव्र मिथ्यात्व से युक्त मनुष्य व्रतरूप गुणों से सहित एवं दिगम्बर मुद्रा के धारक मुनियों को देखकर ग्लानि करेंगे। अप्रशस्त को प्रशस्त मानते हुए कितने ही दुर्बुद्धि लोग भय पक्ष में उस तरह जा पड़ेंगे जिस तरह कि पतंगे अग्नि में जा पड़ते हैं। कितने ही मूढ़ मनुष्य हंसी करते हुए शान्तचित्त मुनियों को तिरस्कृत करके मूढ़ मनुष्यों को आहार देवेंगे। जिस प्रकार शिलातल पर रखा हुआ बीज यद्यपि सदा सींचा जाय तो भी उसमें फल नहीं लग सकता है, वैसे ही शील रहित मनुष्यों के लिए दिया हुआ दान भी निरर्थक होता है। ‘जो गृहस्थ मुनियों की अवज्ञा कर गृहस्थ के लिए आहार देते हैं, वे मूर्ख चंदन को छोड़कर बहेड़ा ग्रहण करते हैं।
गुप्तचरों के द्वारा सर्व समाचार विदित कर शत्रुघ्न ने यही अवसर अनुवूâल समझकर साथ में एक लाख घुड़सवारों को लेकर वह मथुरा की ओर बढ़ गया। अर्धरात्रि के बाद शत्रुघ्न ने मथुरा के द्वार में प्रवेश किया। इधर शत्रुघ्न के बंदीगणों ने- ‘‘राजा दशरथ के पुत्र शत्रुघ्न की जय हो।’’ ऐसी जयध्वनि से आकाश को गुंजायमान कर दिया था। तब मथुरा के अन्दर किसी शत्रुराजा का प्रवेश हो गया है, ऐसा जानकर शूरवीर योद्धा जग पड़े। इधर शत्रुघ्न ने मधु के राजमहल में प्रवेश किया और मधु की आयुधशाला पर अपना अधिकार जमा लिया। शत्रुघ्न को मथुरा में प्रविष्ट जानकर महाबलवान् राजा मधुसुन्दर रावण के समान क्रोध को करता हुआ उद्यान से बाहर निकला किन्तु शत्रुघ्न से सुरक्षित मथुरा के अन्दर व अपने महल में प्रवेश करने में असमर्थ ही रहा, तब वह अपने शूलरत्न को प्राप्त नहीं कर सका फिर भी उसने शत्रुघ्न से सन्धि नहीं की प्रत्युत् युद्ध के लिए तैयार हो गया। वहाँ दोनों की सेनाओं में घमासान युद्ध शुरू हो गया। इधर मधुसुन्दर के पुत्र लवणार्णव के साथ कृतांतवक्त्र सेनापति का युद्ध चल रहा था। बहुत ही प्रकार से गदा, खड्ग आदि से एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए अन्त में कृतांतवक्त्र के द्वारा शक्ति नामक शस्त्र के प्रहार से वह लवणार्णव मृत्यु को प्राप्त हो गया। पुनः राजा मधु और शत्रुघ्न का बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। बाद में मधु ने अपने को शूलरत्न से रहित जानकर तथा पुत्र के महाशोक से अत्यंत पीड़ित होता हुआ शत्रु की दुर्जेय स्थिति समझकर मन में चिंतन करने लगा-
‘‘अहो! मैंने दुर्दैव से पहले अपने हित का मार्ग नहीं सोचा, यह राज्य, यह जीवन पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है। मैं मोह के द्वारा ठगा गया हूँ। पुनर्जन्म अवश्य होगा, ऐसा जानकर भी मुझ पापी ने समय रहते हुए कुछ नहीं सोचा। अहो! जब मैं स्वाधीन था, तब मुझे सद्बुद्धि क्यों नहीं उत्पन्न हुई? अब मैं शत्रु के सन्मुख क्या कर सकता हूँ? अरे! जब भवन में आग लग जावे, तब वुंâआ खुदवाने से भला क्या होगा…..?’’ ऐसा चिंतवन करते हुए राजा मधु एकदम संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गया। तत्क्षण ही उसने अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों परमेष्ठियों को नमस्कार करके चारों मंगल, लोकोत्तम और शरणभूत की शरण लेता हुआ अपने दुष्कृतों की आलोचना करके सर्व सावद्य योग-सर्व आरंभ-परिग्रह का भावों से ही त्याग करके यथार्थ समाधिमरण करने में उद्यमशील हो गया। उसने सोचा- ‘‘अहो! ज्ञान-दर्शनस्वरूप एक आत्मा ही मेरा है, वही मुझे शरण है। न तृण सांथरा है न भूमि, बल्कि अंतरंग-बहिरंग परिग्रह को मन से छोड़ देना ही मेरा संस्तर है।…..।’’ ऐसा विचार करते हुए उस घायल स्थिति में ही शरीर से निर्मम होते हुए राजा मधुसुन्दर ने हाथी पर बैठे-बैठे ही केशलोंच करना शुरू कर दिया। युद्ध की इस भीषण स्थिति में भी अपने हाथों से अपने सिर के बालों का लोच करते हुए देखकर शत्रुघ्न कुमार ने आगे आकर उन्हें नमस्कार किया और बोले- ‘‘हे साधो! मुझे क्षमा कीजिए…..। आप धन्य हैं कि जो इस रणभूमि में भी सर्वारंभ-परिग्रह का त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा लेने के सन्मुख हुए हैं।’’
उस समय जो देवांगनाएँ आकाश में स्थित हो युद्ध देख रही थीं उन्होंने महामना मधु के ऊपर पुष्पों की वर्षा की। इधर राजा मधु ने परिणामों की विशुद्धि से समता भाव धारण करते हुए प्राण छोड़े और समाधिमरण-वीरमरण के प्रभाव से तत्क्षण ही सानत्कुमार नाम के तीसरे स्वर्ग में उत्तम देव हो गये। इधर वीर शत्रुघ्न भी संतुष्ट हुआ और युद्ध को विराम देकर सभी प्रजा को अभयदान देते हुए मथुरा में आकर रहने लगा। मथुरानगरी में महामारी प्रकोप, सप्तर्षि के चातुर्मास से कष्ट निवारण-राजा मधुसुन्दर का वह दिव्य शूलरत्न यद्यपि अमोघ था, फिर भी शत्रुघ्न के पास वह निष्फल हो गया, उसका तेज छूट गया और वह अपनी विधि से च्युत हो गया। तब वह (उसका अधिष्ठाता देव) खेद, शोक और लज्जा को धारण करता हुआ अपने स्वामी असुरों के अधिपति चमरेन्द्र के पास गया। शूलरत्न के द्वारा मधु के मरण का समाचार सुनकर चमरेन्द्र को बहुत ही दुःख हुआ। वह बार-बार मधु के सौहार्द का स्मरण करने लगा। तदनंतर वह पाताल लोक से निकलकर मथुरा जाने को उद्यत हुआ। तभी गरुड़कुमार देवों के स्वामी वेणुधारी इन्द्र ने इसे रोकने का प्रयास किया किन्तु यह नहीं माना और मथुरा में पहुँच गया। वहाँ चरमेन्द्र ने देखा कि मथुरा की प्रजा शत्रुघ्न के आदेश से बहुत बड़ा उत्सव मना रही है, तब वह विचार करने लगा- ‘‘ये मथुरा के लोग कितने कृतघ्नी हैं कि जो दुःख-शोक के अवसर पर भी हर्ष मना रहे हैं। जिसने हमारे स्नेही राजा मधु को मारा है, मैं उसके निवासस्वरूप इस समस्त देश को नष्ट कर दूँगा।’’ इत्यादि प्रकार से क्रोध से प्रेरित हो उस चमरेन्द्र ने मथुरा के लोगों पर दुःसह उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। जो जिस स्थान पर सोये थे, बैठे थे, वे महारोग (महामारी) के प्रकोप से दीर्घ निद्रा को प्राप्त हो गये-मरने लगे।
इस महामारी उपसर्ग को देखकर कुल देवता की प्रेरणा से राजा शत्रुघ्न अपनी सेना के साथ अयोध्या वापस आ गये। विजय को प्राप्त कर आते हुए शूरवीर शत्रुघ्न का श्रीराम-लक्ष्मण ने हर्षित हो अभिनंदन किया। माता सुप्रभा ने भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सुवर्ण के कमलों से जिनेन्द्रदेव की महती पूजा सम्पन्न करके धर्मात्माओं को दान दिया पुनः दीन-दुःखी जनों को करुणादान देकर सुखी किया। यद्यपि वह अयोध्या नगरी सुवर्ण के महलों से सहित थी फिर भी पूर्वभवों के संस्कारवश शत्रुघ्न का मन मथुरा में ही लगा हुआ था। इधर मथुरा नगरी के उद्यान में गगनगामी ऋद्धिधारी सात दिगम्बर महामुनियों ने वर्षायोग धारण कर लिया-चातुर्मास स्थापित कर लिया। इनके नाम थे-सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस और जयमित्र। प्रभापुर नगर के राजा श्रीनंदन की धारिणी रानी के ये सातों पुत्र थे। प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर देवों को जाते हुए देखकर प्रतिबोध को प्राप्त हुए थे। उस समय राजा श्रीनंदन ने अपने एक माह के पुत्र को राज्य देकर अपने सातों पुत्रों के साथ प्रीतिंकर भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण कर ली थी। समय पाकर श्रीनंदन ने केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया था और ये सातों मुनि तपस्या के प्रभाव से अनेक ऋद्धियों को प्राप्त कर सातऋषि (सप्तर्षि) के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे। उद्यान में वटवृक्ष के नीचे ये सातों मुनि चातुर्मास में स्थित हो गये थे। इन मुनियों के तपश्चरण के प्रभाव से उस समय मथुरा में चमरेन्द्र के द्वारा पैâलायी गयी महामारी एकदम नष्ट हो गई थी। वहाँ नगरी में चारों तरफ के वृक्ष फलों के भार से लद गये थे और खेती भी खूब अच्छी हो रही थी। ये मुनिराज रस-परित्याग, बेला, तेला आदि तपश्चरण करते हुए महातप कर रहे थे। कभी-कभी ये आहार के समय आकाश को लांघकर निमिषमात्र में विजयपुर, पोदनपुर आदि दूर-दूर नगरों में जाकर आहार ग्रहण करते थे। वे महामुनिराज परगृह में अपने करपात्र में केवल शरीर की स्थिति के लिए आहार लेते थे।
एक दिन ये सातों ही महाऋषिराज जूड़ाप्रमाण (चार हाथ प्रमाण) भूमि को देखते हुए अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए। वे विधिपूर्वक भ्रमण करते हुए अर्हद्दत्त सेठ के घर के दरवाजे पर पहुँचे। उन मुनियों को देखकर अर्हद्दत्त सेठ विचार करने लगा- ‘‘यह वर्षाकाल कहाँ? और इन मुनियों की यह चर्या कहाँ? इस नगरी के आस-पास पर्वत की वंâदराओं में, नदी के तट पर, वृक्ष के नीचे, शून्य घर में, जिनमंदिर में तथा अन्य स्थानों में जहाँ कहीं जो भी मुनिराज स्थित हैं, वे सब वर्षायोग पूरा किये बिना इधर-उधर नहीं जाते हैं परन्तु ये मुनि आगम के विपरीत चर्या वाले हैं, ज्ञान से रहित और आचार्यों से रहित हैं। इसलिए ये इस समय यहाँ आ गये हैं। यद्यपि ये मुनि असमय में आये थे फिर भी अर्हद्दत्त के अभिप्राय को समझने वाली वधू ने उनका पड़गाहन करके उन्हें आहारदान दिया। आहार के बाद ये सातों मुनि तीन लोक को आनंदित करने वाले ऐसे जिनमंदिर में पहुँचे, जहाँ भगवान मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा विराजमान थी और शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले दिगम्बर साधुगण भी विराजमान थे। ये सातों मुनिराज पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर चल रहे थे। ऐसे इन मुनियों को वहाँ पर स्थित द्युति भट्टारक-द्युति नाम के आचार्य देव ने देखा। इन मुनियों ने उत्तम श्रद्धा से पैदल चलकर ही जिनमंदिर में प्रवेश किया, तब द्युति भट्टारक ने खड़े होकर नमस्कार कर विधि से उनकी पूजा की। ‘‘यह हमारे आचार्य चाहे जिसकी वंदना करने के लिए उद्यत हो जाते हैं।’’ ऐसा सोचकर उन द्युति आचार्य के शिष्यों ने उन सप्तर्षियों की निंदा का विचार किया। तदनंतर सम्यक् प्रकार से स्तुति करने में तत्पर वे सप्तर्षि मुनिराज जिनेन्द्र भगवान की वंदना कर आकाशमार्ग से पुन: अपने स्थान पर चले गये। जब वे आकाश में उड़े, तब उन्हें चारण ऋद्धि के धारक जानकर द्युति आचार्य के शिष्य जो अन्य मुनि थे, उन्होंने अपनी निंदा-गर्हा आदि करके प्रायश्चित्त कर अपनी कलुषता दूर कर अपना हृदय निर्मल कर लिया।
इसी बीच में अर्हद्दत्त सेठ जिनमंदिर में आया, तब द्युति आचार्य ने कहा- ‘‘हे भद्र! आज तुमने ऋद्धिधारी महान मुनियों के दर्शन किये होंगे। वे सर्वजगवंदित महातपस्वी मुनि मथुरा में निवास करते हैं, आज मैंने उनके साथ वार्तालाप किया है। उन आकाशगामी ऋषियों के दर्शन से आज तुमने भी अपना जीवन धन्य किया होगा।’’ इन आचार्यदेव के मुख से उन साधुओं की प्रशंसा सुनते ही सेठ अर्हद्दत्त खेदखिन्न होकर पश्चात्ताप करने लगा- ‘‘ओह! यथार्थ को नहीं समझने वाले मुझ मिथ्यादृष्टि को धिक्कार हो, मेरा आचरण अनुचित था, मेरे समान दूसरा अधार्मिक भला और कौन होगा? इस समय मुझसे बढ़कर दूसरा मिथ्यादृष्टि अन्य कौन होगा? हाय! मैंने उठकर मुनियों की पूजा नहीं की तथा नवधाभक्ति से उन्हें आहार भी नहीं दिया।
साधुरूपं समालोक्य न मुंचत्यासनं तु यः।
दृष्ट्वाऽपमन्यते यश्च स मिथ्यादृष्टिरुच्यते।।
इधर अयोध्या से अर्हदत्त सेठ महान वैभव के साथ कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन उन ऋषियों की वंदना करने के लिए पहुँच गये थे। राजा शत्रुघ्न भी इन मुनियों का उपदेश श्रवणकर भक्ति से प्रेरित हुए मथुरा के उद्यान में आ गये थे और उनकी माता सुप्रभा भी विशाल वैभव और धन आदि को लेकर इन मुनियों की पूजा करने के लिए आ गई। उन सम्यग्दृष्टि महापुरुषों ने और सुप्रभा आदि रानियों ने मुनिराज की महान पूजा की। उस समय वहाँ वह उद्यान और मुनियों के आश्रम का स्थान प्याऊ, नाटकशाला, संगीतशाला आदि से सुशोभित हुआ स्वर्गप्रदेश के समान मनोहर हो गया था। अनन्तर भक्ति एवं हर्ष से भरे हुए शत्रुघ्न ने वर्षायोग को समाप्त करने वाले उन मुनियों को पुनः पुनः नमस्कार करके उनसे आहार ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की, तब इन सातों में जो प्रमुख थे, वे ‘‘सुरमन्यु’’ महामुनि बोले- ‘‘हे नरश्रेष्ठ! जो आहार मुनियों के लिए संकल्प कर बनाया जाता है, दिगम्बर मुनिराज उसे ग्रहण नहीं करते हैं। जो आहार न स्वयं किया गया है न कराया गया है और जिसमें न बनाते हुए को अनुमति दी गई है ऐसे नवकोटि विशुद्ध आहार को ही साधुगण ग्रहण करते हैं।’’ पुनः शत्रुघ्न ने निवेदन किया- ‘‘हे भगवन् ! आप भक्तों के ऊपर अनुग्रह करने वाले हैं। आप अभी कुछ दिन और यहीं मथुरा में ठहरिये। आपके प्रभाव से ही यहाँ महामारी की शांति हुई है….।’’ पुनः शत्रुघ्न चिंता करने लगा-
‘‘ऐसे महामुनियों को विधिवत् आहार दान देकर मैं कब संतुष्ट होऊँगा?’’ शत्रुघ्न को नतमस्तक देखकर उन मुनिराज ने पुनः आगे आने वाले काल का वर्णन करते हुए उपदेश दिया- ‘‘हे राजन् ! जब अनुक्रम से तीर्थंकरों का काल व्यतीत हो जायेगा-पंचम काल आ जाएगा, तब यहाँ धर्म कर्म से रहित अत्यन्त भयंकर समय आ जाएगा। दुष्ट पाखण्डी लोगों द्वारा यह परम पावन जैन शासन उस तरह तिरोहित हो जायेगा कि जिस तरह धूलि के छोटे-छोटे कणों द्वारा सूर्य का बिम्ब ढक जाता है। यह संसार चोरों के समान कुकर्मी, क्रूर, दुष्ट, पाखण्डी लोगों से व्याप्त होगा। पुत्र, माता-पिता के प्रति और माता-पिता पुत्रों के प्रति स्नेह रहित होंगे। उस कलिकाल में राजा लोग चोरों के समान धन के अपहर्ता होंगे। कितने ही मनुष्य यद्यपि सुखी होंगे, फिर भी उनके मन में पाप होगा, वे दुर्गति में ले जाने वाली ऐसी विकथाओं से एक-दूसरे को गोहित करते हुए प्रवृत्ति करेंगे। हे शत्रुघ्न! कषायबहुल समय के आने पर देवागमन आदि समस्त अतिशय नष्ट हो जायेंगे। तीव्र मिथ्यात्व से युक्त मनुष्य व्रतरूप गुणों से सहित एवं दिगम्बर मुद्रा के धारक मुनियों को देखकर ग्लानि करेंगे। अप्रशस्त को प्रशस्त मानते हुए कितने ही दुर्बुद्धि लोग भय पक्ष में उस तरह जा पड़ेंगे जिस तरह कि पतंगे अग्नि में जा पड़ते हैं। कितने ही मूढ़ मनुष्य हंसी करते हुए शान्तचित्त मुनियों को तिरस्कृत करके मूढ़ मनुष्यों को आहार देवेंगे। जिस प्रकार शिलातल पर रखा हुआ बीज यद्यपि सदा सींचा जाय तो भी उसमें फल नहीं लग सकता है, वैसे ही शील रहित मनुष्यों के लिए दिया हुआ दान भी निरर्थक होता है। ‘जो गृहस्थ मुनियों की अवज्ञा कर गृहस्थ के लिए आहार देते हैं, वे मूर्ख चंदन को छोड़कर बहेड़ा ग्रहण करते हैं।
अवज्ञाय मुनीन् गेही गेहिने यः प्रयच्छति।
त्यक्त्वा स चंदनं मूढो गृह्वत्येव विभीतकं।।६७।।
सप्तर्षि प्रतिमा दिक्षु चतसृष्वपि यत्नतः।
नगयां कुरू शत्रुघ्न! तेन शांतिर्भविष्यति।।७४।।
अद्यप्रभृति यद्गेहे जैनं बिंबं न विद्यते।
मारी भक्ष्यति यद्व्याघ्री यथानाथं कुरंगक।। ७५।।
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