श्री धर्मनाथ भगवान
| धर्मनाथ भगवान का परिचय | |
|---|---|
| पिछले | भगवान अनन्तनाथ |
| अगले | भगवान शान्तिनाथ |
| चिन्ह | वज्रदंड |
| पिता | महाराज भानुराज |
| माता | रानी सुप्रभा |
| वंश | इक्ष्वाकु |
| वर्ण | क्षत्रिय |
| अवगाहना | ४५ धनुष (१८० हाथ) |
| देहवर्ण | स्वर्ण सदृश |
| आयु | १,000,000 वर्ष |
| वृक्ष | शालवन , सप्तच्छद वृक्ष |
| प्रथम आहार | पाटलिपुत्र नगर के राजा धन्यषेेण द्वारा(खीर ) |
| पंचकल्याणक तिथियां | |
| गर्भ | वैशाख शुक्ला त्रयोदशी |
| जन्म | माघ शुक्ला १३ रत्नपुरी, रौनाही, उत्तर प्रदेश |
| दीक्षा | माघ शुक्ला १३ |
| केवलज्ञान | पौष शुक्ला १५ |
| मोक्ष | ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी सम्मेद शिखर |
| समवशरण | |
| गणधर | श्री अरिष्टसेन आदि ४३ |
| मुनि | चौंसठ हजार |
| गणिनी | आर्यिका सुव्रता |
| आर्यिका | बासठ हजार चार सौ |
| श्रावक | दो लाख |
| श्राविका | चार लाख |
| यक्ष | किंंपुरुष देव |
| यक्षी | मानसी देवी |
परिचय
पूर्व धातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है, उसमें सुसीमा नाम का महानगर है। वहाँ पर राजा दशरथ राज्य करता था। एक बार वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन सब लोग उत्सव मना रहे थे उसी समय चन्द्रग्रहण पड़ा देखकर राजा दशरथ का मन भोगों से विरक्त हो गया। उसने दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके अन्त में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गया।
गर्भ और जन्म
इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में एक रत्नपुर नाम का नगर था उसमें कुरूवंशीय काश्यपगोत्रीय महाविभव सम्पन्न भानु महाराज राज्य करते थे उनकी रानी का नाम सुप्रभा था। रानी सुप्रभा के गर्भ में वह अहमिन्द्र वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन अवतीर्ण हुए और माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन रानी ने भगवान को जन्म दिया। इन्द्र ने धर्मतीर्थ प्रवर्तक भगवान को ‘धर्मनाथ' कहकर सम्बोधित किया था।
तप
किसी एक दिन उल्का के देखने से भगवान विरक्त हो गये और नागदत्ता नाम की पालकी में बैठकर शालवन के उद्यान में पहुँचे। माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन एक हजार राजाओं के साथ स्वयं दीक्षित हो गये।
केवलज्ञान और मोक्ष
तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर दीक्षावन में सप्तच्छद वृक्ष के नीचे पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन केवलज्ञान को प्राप्त हो गये। आर्यखण्ड में सर्वत्र धर्मोपदेश देकर भगवान अन्त में सम्मेदशिखर पधारे और एक माह का योग निरोध कर आठ सौ नौ मुनियों के साथ ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी के दिन मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त हुए।

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